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Monday, September 24, 2018

स्वाभिमानी व सशक्त वैश्य समुदाय

स्वाभिमानी व सशक्त वैश्य समुदाय 

सेठों की नगरी कोलकाता में भारत के सबसे बड़े होलसेल मार्केट में एक है 100 साल पुराना बागडी मार्केट। अधिकतर दुकानें-ऑफिस मारवाड़ीयों की फिर गुजरातियों की। जिन्हें तीसरी पीढ़ी चला रही है। पता नहीं कितने व्यापारियों के संघर्ष की गाथायें यहाँ राख के ढेर में चिंगारी बनके धधक रही हैं!!!


राख-चिंगारी ??? हाँ सब जल कर राख !!!

शनिवार 15 सितंबर भोर 2:30 पर जब पूरा कोलकाता गहरी नींद सो रहा था कि बागड़ी मार्केट में आग लग गयी। सैंकड़ों दुकानें और ऑफ़िस इसकी लपेट में आ गए और जलने लगा तीन हज़ार परिवारों का भविष्य। 2 दिन बीत गए, तीसरे दिन तक आग नहीं बुझी पर जो बदला, वो था वहाँ के मालिकों का हौसला...

टूट गया???? न न न न न... राजस्थान के तपतपाते धोरों और जलती रेत में तपे उन लोगों के चेहरे पर बजाय मायूसी के एक अलग सी दृढ़ता झलकने लगी। झलकने लगा वो ओज जो उनके पुरखों के चेहरे पर था तीनसौ चारसौ साल पहले जब वो बैलगाड़ी में बैठकर प्यासी राजस्थान की धरती से यहाँ आए।

रिश्तेदारों और परिचितों ने द्वार खोल दिए। भाई जब तक तेरी दुकान प्रारम्भ नहीं होती मेरे यहाँ बैठ जाना। मेरे कार्यालय से काम कर लेना। मेरा लेपटोप ले जा। एक बार कुछ हाथ उधारी की आवश्यकता हो तो बता देना। कोई किसी सरकार के पास नहीं गया। सब कुछ जल गया तो मुआवज़े के दरवाज़े नहीं खटखटाये। रास्ते नहीं रोके। बच्चों के लिये नोकरियाँ नहीं माँगी। हड़ताल नहीं की। अपनों की शक्ति से सब अपने काम में जुट गए हैं।

कौनसी शक्ति है वो? कौनसा नियम कानून सिद्धांत है जिसके बल पर आजतक भारत का वैश्य नहीं झुका। हज़ारों आक्रांताओं ने राष्ट्र के धनकोष "वैश्य" पर हमला किया पर वह नहीं रुका। बढ़ता गया। कौन सा आशीर्वाद है वो पूर्वजों का?

वह है "महाराजा अग्रसेन" का जीवन आदर्श, महाराजा अग्रसेन की प्रेरणा, महाराजा अग्रसेन का सन्देश।

"समता सर्वभूतेषु” की भावना से समाज संरचना करने वाले महाराजा अग्रसेन ने प्राणीमात्र के उत्थान के लिए सामाजिक विषमता नाशक आदर्श प्रस्तुत किया। दुर्भाग्यवश किसी व्यक्ति के विपन्न हो जाने पर, उसके स्वाभिमान की सुरक्षा के साथ उसके उत्थान की व्यवस्था करने हेतु आग्रेय गणराज्य में लागू किया गया ”समता का नियम” सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था के इतिहास में अद्वितीय है।

महाराजा अग्रसेन कहते हैं कि –

"कृशाय कृतविद्याय वृत्तिक्षीणाय सुव्रत ।

क्रिया नियमिता: कार्या: पुत्रैर्दारैश्च सीदते ॥

अयाचमाना: सर्वज्ञा: सर्वोपायै: प्रयत्नत: ।

ते रक्षणीया विव्दांस: सर्वकामसुखावहै: ॥"

"जो व्यक्ति विद्वान अथवा योग्य होने के बावजूद, भाग्यवशात् अपनी आजीविका के क्षीण हो जाने के कारण दीन (निर्धन) हो जाते हैं, तथा स्त्री पुत्रादिकों के पालन कर सकने में असमर्थ हो जाने के कारण, अनेकों कष्ट उठाते हैं। तथापि किसी से याचना नहीं करते ऐसे (स्वाभिमानी) पुरुषों को प्रत्येक उपाय से सहयोग देने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। उनकी उपयुक्त आवश्यकताओं की जानकारी लेकर, उनके सुख की स्थापना हेतु, समुचित कर्म करना चाहिये।

महाराजा अग्रसेन ने निर्देश देते हुए स्पष्ट इंगित किया है, कि दान देने से भी श्रेष्ठ कृत्य, दूसरों की आजीविका का प्रबंध करना है, और यह कर्म उपकार की नहीं, कर्तव्य की भावना से किया जाना चाहिये। कारण –

"अपरेषां परेषां च परेभ्यश्चापि ये परे।
कस्तेषां जीवितेनार्थस्त्वां विना बन्धुराश्रय: ॥"

जो छोटे, बड़े तथा जो बड़े से भी बड़े हैं, या उनसे भी आगे हैं, परस्पर बन्धुजनों के आश्रय बिना, उनके जीवन का क्या प्रयोजन है? अर्थात् – ऐसे लोग जो छोटे-बड़े, अमीर- गरीब, के विभेद के कारण परस्पर सौजन्य से हीन हों उनका जीवन निरर्थक ही है।

प्रत्येक समाज में अपने अपने भाग्य के अनुकूल, व्यक्ति सम्पति, ज्ञान, बल, ऐश्वर्य आदि से कम ज्यादा होते ही हैं। कुछ निर्धन, अज्ञानी, कमजोर, होते हैं। और कुछ उनसे सशक्त, धनवान, ज्ञानी, कुछ उन सबसे आगे और कोई विशिष्ट श्रेयता को प्राप्त सबसे आगे। किन्तु परस्पर अपने दीन हीन बन्धुओं के प्रति श्रेयता प्राप्त लोगों में बन्धुत्व भाव का अभाव होने पर, सौजन्यता बिना उनका जीवन निरर्थक समान है। अतः समाज में कभी भी विभेद की परिस्थिति पैदा न होने देना चाहिए, अतः कहा,

"सर्वोत्थानाय सश्रद्धं भ्रातृभावेन चावह ।

योगं क्षेमञ्च मन्वान: गृह्णीयुस्तेऽभिमानत: ॥"

सर्वोत्थान की दृष्टि से, बंधुभाव से, श्रद्धायुक्त (ऐहसान जताते हुए नहीं) और पवित्र मन से (लोकेषणा के स्वार्थ से रहित) ‘योगक्षेम’ की (यह मेरा कर्तव्य है इस प्रकार मानकर) कर्तव्य बुद्धि से, सामुदायिक विकास की दृष्टि से, परस्पर सहयोग का निर्देश करते हुए, महाराजा अग्रसेन ने ”आग्रेय गणराज्य” में ”समता का नियम” लागू करने हेतु आह्वान किया –

"देयानि वृत्तिक्षीणाय पौरैरेकैकश: क्रमात् ।

गत्वा निष्केष्टिकां दद्यु: जनः कुर्यान्नयाचनाम् ॥"

इसलिये, आज से इस राष्ट्र (आग्रेय गणराज्य) में, जो भी व्यक्ति भाग्यवशात यदि आजीविका से हीन हों, उन्हें बिना याचना किए ही, राज्य के सभी निवासी (निष्क = रुपया) और एक एक ईंट स्वयं उनके पास जाकर भेंट स्वरुप दें।

"एष ते विततं वत्स सर्वभूतकुटुम्बकम् ।
विशिष्ट: सर्वयज्ञानां नित्यमत्र प्रवर्तताम् ॥"

इस प्रकार सब प्राणियों के प्रति परिवार समान समत्व स्थापना के इस पुनीत कार्य का जो विस्तार होगा, वह सभी यज्ञों से बढ़कर है। अतः तुम लोगों को, इस ”कर्मयज्ञ” को सदैव गतिशील रखना चाहिए। हे मानवों ! यदि तुम इस प्रकार करोगे तो वह निश्चय ही जगत में तुम्हारे लिये व जगत के लिए परम कल्याणकारी होगा।

आज भी उन्हीं पितृपुरुष भगवान महाराजा अग्रसेन के महान आदर्श वैश्यों के जीवन प्रशस्त करके उन्हें उज्ज्वल और यशस्वी बना रहे हैं। ऐसे महाराजाश्री अग्रसेन को शीश नवाता हूँ जिनके प्रताप से सनातन धर्म का मजबूत खम्भा "वैश्य", अपने धर्म पर अविचलित स्थिर खड़ा हुआ है..

एक ईंट और एक रुपैय्या।
जनहित नियम लक्ष्मी मैय्या।


॥ जय महाराजा अग्रसेन ॥

॥ जय श्री राम ॥

साभार: राष्ट्रीय वैश्य सभा 
श्री अग्रभागवत
~ मुदित मित्तल

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