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Friday, September 28, 2018

महान समाज सुधारक महाराजा अग्रसेन

इतिहास साक्षी है कि जब-जब समाज में अनाचार, अत्याचार, दुराचार भ्रष्टाचार, हद से गुजरता है तो कोई अवतारी पुरूष जन्म लेता है और अव्यवस्थाओं व पापों के केन्द्र को नष्ट करता है। भगवान राम ने रावण का अन्त किया। भगवान कृष्ण ने कंस का अंत किया और अग्रसेन जी ने कुंदसेन का अंत किया। कंस श्रीकृष्ण का मामा था और कुंदसेन महाराजा अग्रसेन जी के चाचा थे।
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सभी अवतारी पुरूषों को जीवनभर कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि दूसरों की कठिनाईयां ही उनकी कठिनाईयां होती हैं। वे अपने जीवन के आदर्शाें से लोगो को जीना सिखाते है। जिस तरह दो राजाओं राम और कृष्ण के जीवन से कुछ न कुछ सीखते है, उसी प्रकार तीसरे राजा अग्रसेन के जीवन से बहुत सीख सकतें है। उन्होने अहिंसा खाई, यज्ञ में पशुबली को बंद किया। उन्होने त्याग सिखाया, इसके लिए उन्होने अपना वर्ण बदल लिया। वह क्षत्रिय से वैश्य हो गये। उन्होने परोपकार सिखाया। राज्य में आकर नये बसने वाले या किन्ही कारणों से अक्षम हो गये परिवारों को एक मुद्रा और एक ईंट का उपहार देकर उनकी मदद की प्रथा उन्होनें डाली। अन्य वस्तुओं के अलावा जीवन जीने के लिए धन बहुत जरूरी होता है! इसलिए महालक्ष्मी की पूजा करने की प्रथा उन्होनें डाली। राज्य का प्रत्येक नागरिक अपनी और राज्य की सुरक्षा करने में सक्षम हो, इसके लिए उन्होनें शस्त्र चलाना सीखना भी अपने राज्य में अनिवार्य किया।

अवतारी पुरूष धरती पर आते भी आसानी से नहीं है। कृष्ण के जन्म से पहले 8 भाई-बहनों का बलिदान देना पड़ा। कंस ने उन्हे पटक-पटक मार दिया था। अग्रसेन के माता पिता ने तो संतान की उम्मीद ही छोड़ दी थी। छोटे भाई कुंदसेन के पुत्र के पास सत्ता जाने के आसार बनने लगे थे। किन्तु शिवजी की आराधना के बाद उन्हे एक नहीं दो पुत्र प्राप्त हुए।

अग्रसेन पहले पुत्र थे। दूसरे पुत्र शूरसेन का जन्म कुछ वर्षो बाद हुआ। अग्रसेन जी का जन्म महाभारत शुरू होने से 15 वर्ष पूर्व अश्विन (कुआर) मास के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि (प्रतिपदा) दिन रविवार को हुआ। उन्होने 108 वर्ष राज किया, वैशाख पूर्णिमा के दिन अपने पुत्र विभु को सौंपकर सन्यास ले लिया। वन चले गये और वहीं से परलोक सिधार गये।

एक सर्वगुण सम्पन्न राजा में तीन गुणों का होना अनिवार्य माना जाता है और महाराजा अग्रसेन जी चूंकि अवतारी पुरूष थे इसलिए इनमें वो तीनों गुण व्यापकता के साथ विद्यमान थे। ये गुण हैं : वीरता, धर्मप्रेम और दयालुता।

अग्रसेन जी की जीवनी पढते ही स्वतः ही ये गुण प्रकट हो जाते है।अवतारी पुरूष महाराजा अग्रसेन जी के बारे में थोड़ा विस्तार से और सिलसिलेवार जानते हैं।

हरियाणा में बीस गांवों का एक छोटा सा राज्य था – प्रतापनगर। यहाँ के राजा थे सूर्यवंशी बल्लभसेन। प्रतापनगर बहुत खुशहाल राज्य था। यह सरस्वतीए इष्टवती और घग्घर नदी के संगम पर बसा था। राज्य में बस एक ही कमी थी। राजा बल्लभसेन के कोई संतान नहीं थी। बल्लभसेन अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे और फिर वे सूर्यवंशी क्षत्रिय थे इसलिए दूसरा विवाह नहीं करना चाहते थे। पुरोहितों के कहने से राजा बल्लभसेन और उनकी पत्नी भागवती देवी ने शिवजी की अराधना की और शिवजी के वरदान स्वरूप अग्रसेन का जन्म हुआ। अग्रसेन के जन्म पर पूरे राज्य में खुशियां मनायी जाने लगी पर बल्लभसेन के छोटे भाई को यह खुशियां जरा भी नहीं भायी क्योकिं उसने सोच रखा था कि बल्लभसेन के संतान न होने की वजह से उसका पुत्र ही राजा बनेगा। उसका सपना टूट गया था।

अग्रसेन जी का जन्म कुआर सुदी प्रतिपदा के दिन 12 बजे हुआ था। उस समय महेन्द्र काल था। माना जाता है कि इस काल में जन्म लेने वाला व्यक्ति बहुत भाग्यवान और दैविक शक्तियों से पूर्ण होता है। वह शस्त्र-शास्त्र में निपुण और धनधान्य से भी परिपूर्ण होता है। अग्रसेन जी को शिक्षा-दीक्षा के लिए उज्जैन के आगर नगर में स्थित तांडव्य ऋषि के आश्रम में भेज दिया गया। 14 वर्ष की उम्र में वह शस्त्र-शास्त्र में पारंगत होकर आश्रम से राजमहल वापस आये। इसी समय बल्लभसेन और भगवती देवी की दूसरी संतान ने जन्म लिया। यह भी पुत्र था। इसका नाम शूरसेन रखा गया। इसी बीच राजा बल्लभसेन को पांडवों की और से युद्ध में भाग लेने का निमंत्रण प्राप्त हुआ।

बल्लभसेन पांडवों की ओर से युद्ध करने चल पड़े। पिता की रक्षा के लिए अग्रसेन जी भी उनके साथ हो लिए। बल्लभसेन ने जाते जाते छोटे भाई कुन्दसेन को राज्य की बागडोर सौंप दी थी।

कुन्दसेन और उसका बेटा दोनों ही अय्याश और गलत आचरण रखने वाले थे। महाभारत के युद्ध में नौ दिन बाद राजा बल्लभसेन वीरगति को प्राप्त हुए। पिता की मृत्यु पर अग्रसेन बहुत व्याकुल हुए। विलाप करने लगे। तब भगवान श्री कृष्ण ने उन्हे संसार के नश्वर होने का ज्ञान दिया। अग्रसेन जी ने पूर 18 दिन तक पांडवो का साथ दिया। युद्ध समाप्त होने पर उन्हें सम्मान के साथ उपहार भेंटकर विदा किया गया।

अग्रसेन जब अपने राज्य प्रतापनगर वापस आये तो यहां का माहौल ही बदला हुआ था। सेनापति से लेकर तमाम दरबारी अधिकारी भ्रष्ट और अय्याश हो चुके थे। कुंदसेन ने सेनापति को आदेश देकर अग्रसेन जी को उनके महल में बंदी बना दिया। अग्रसेन की मां भगवती भी बुरे दिन काट रही थी। विलाप करती रहती थी। अग्रसेन जी बहुत व्याकुल हुए। ऐसी परिस्थितियों में ईश्वर ही सहारा होता है। उन्होने ईश्वर की मदद मांगी और अचानक सुमते सामने आया। वह बल्लभसेन के दौर का प्रशासनिक अधिकारी था। उसने अपनी जान की बाजी लगा दी और अग्रसेन जी को मुक्त करा लिया।

अग्रसेन जी छिपते – छिपते बचते – बचते किसी तरह गर्ग मुनि के आश्रम में पहुंचे। गर्ग मुनि का आश्रम इष्टवती नदी के तट पर था। गर्ग मुनि ने उनका स्वागत कियाए उन्हे बहुत सांत्वना दी। गर्ग मुनि ने उन्हे महालक्ष्मी की पूजा करने का कहा। अग्रसेन जी ने महालक्ष्मी की पूजा शुरू की। उनकी श्रृद्धाए विश्वास और पूजा से प्रसन्न होकर ठीक दीपावली की रात महालक्ष्मी प्रकट हुई। उन्होने अग्रसेनजी को वरदान दिया कि श्मैं सदा तुम्हारे कुल में प्रतिष्ठत रहूंगी।

महालक्ष्मी जी ने ही अग्रसेनजी को यह राज बताया की उन्होने जिस स्थान पर बैठकर उनकी उपासना की है उस स्थान पर अपार सोना गड़ा है। यह वह बचा हुआ सोना है जो सौ अधवमेघ यज्ञ करने के बाद राजा मरूत ने ही इसे यहां दबा दिया था। महालक्ष्मी ने ही अग्रसेनजी को बताया की धरती से प्राप्त धन का मलिक राजा ही होता है। लक्ष्मी जी ने अग्रसेन जी को निर्देश दिया कि इस धन से वह बीहड़ में नये राज्य की स्थापना करें।

अग्रसेन जी अग्रोहा की धरती पर नये नगर की स्थापना में लग गये। गर्ग मुनि के शिष्यों ने उनकी पूरी मदद की। उबड-खाबड धरती को समतल किया गया सड़के और गलियां बनायी गई। पेड़ लगाये गये। बाग-बगीचे बनाये गये। महल और अन्य भवन बनाए गये। मंदिर और धर्मशालाऐं बनायी गयीं देखते हीे देखते उस नगरी में पक्षी चहकने लगे, बाग-बगीचे महकने लगे। मंदिर में शंख और घंटे बजने लगें। तालाब हवाओं को ठण्डे करने लगे, वृक्ष फल और छाया देने लगे, कोयल कूकने लगीं, मोर नाचने लगे। सुखः शान्ति और समृद्धि की बयार बहने लगी। आंनदमयी वातावरण का यह नगर “अग्रनगर” कहलाया।

अग्रनगर तैयार होने के बाद अग्रसेन जी ने अपने राज्य के विस्तार की बात सोची। लेकिन गर्ग मुनि ने उन्हे विवाह करने की सलाह दी। उन्होने ही कहा कि वह नागकन्या माधवी से विवाह करें क्योंकि नागराजा महोधर से सम्बन्ध होने के बाद उनकी शक्ति बढ़ेगी। गर्ग मुनि की बात सुनकर अग्रसेन जी नागकन्या के स्वयंवर में शामिल होने के लिए असम की और चल पड़े। असम पहुंचना आसान नही था। रास्ता लम्बा, कठिन और अन्जान था पर मुनि श्री का आदेश और राज्य के विस्तार की इच्छा ने उनके कदम नहीं रूकने दिये। वह स्वयंवर में पहुंचे। तमाम शर्ते पूरी करने और वाद – विवाद में जीतने के बाद उनका विवाह नाग कन्या माधवी से हो गया। इस तरह आर्य और शैव सभ्यता का मिलन हुआ। नागराजा महोधर ने इस खुशी में एक नया नगर “अगरतला” बसाया।

नागकन्या माधवी से विवाह के पश्चात अग्रसेन जी ने अपने राज्य में 18 राज्यों को मिलाया। आज भी ये राज्य जिलों के रूप में मौजूद हैं। इनमें दिल्ली समेत उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब व राजस्थान के जिले है। आज भी यहाँ पर सबसे ज्यादा अग्रवाल रहते है। ये जिले हैं – मेरठ, सहारनपुर, हिसार, झांसी, तोसाम, सिरसा, नारनौल, रोहतक, जीन्द, पानीपत, कैथल, जगाधरी, नामा, अमृतसर, अलवर, उदयपुर। अब अग्रनगर एक शक्तिशाली आग्रेय गणराज्य के रूप में स्थापित हो गया था और अग्रसेन जी महाराजा के रूप में प्रतिष्ठित हो गये थे। अन्य राजा भी अग्रसेन जी की कर्मठता की प्रशंसा करते थें।

साभार: #अग्रभागवत (अदृश्य स्याही से रचित दुर्लभ ग्रंथ) के आधार पर संकलित , राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा

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