Pages

Tuesday, July 16, 2019

वैश्य समाज की भामाशाही परंपरा


◆ वैश्य समाज की भामाशाही परंपरा

★ महाराज अग्रसेन ने अपने नगर अग्रोहा में बसने वाले नए शख्श के लिए एक निष्क और एक ईंट हर परिवार से देने का नियम बनाया था। ताकि अग्रोहा में आने वाले हर शख्श के पास व्यापार के लिए पर्याप्त पूंजी हो और वो अपना घर बना सके।

★ जगतसेठ भामाशाह कांवड़िया महाराणा प्रताप के सलाहकार, मित्र व प्रधानमंत्री थे। इन्होंने हिन्दवी स्वराज के महाराणा प्रताप के सपने के लिए अपना सर्वस्व दान कर दिया था । जिसके बाद महाराणा ने एक के बाद एक किले फतेह किये ।

★ एक घटना है जब गुरुगोविंद सिंहः के बच्चो की मुसलमानो ने निर्मम हत्या कर दी, मुसलमान यह दवाब डाल चुके थे, के उनका दाह संस्कार भी नही होने देंगे !! सभी सिख सरदार भी बस दूर खड़े तमाशा देख रहे थे !!

तब एक हिन्दू बनिया टोडरमल जी आगे आये, उन्होंने जमीन पर सोने के सिक्के बिछाकर मुसलमानो से जमीन खरीदी , जिन पर गुरु गोविंद सिंह के बच्चो का दाह संस्कार हो सके !!

आज उनकी कीमत लगभग 150 से 180 करोड़ रुपये तक बेठती है !!

★ बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के निर्माण के समय महामना मदन मोहन मालवीय सेठ दामोदर दास राठी (माहेश्वरी) जी से मिले थे। उस समय सेठ जी ने BHU के निर्माण के लिए महामना को 11000 कलदार चांदी के सिक्कों की थैली भेंट की जिसकी कीमत आज 1 हज़ार करोड़ रुपये बैठती है।

★ आजादी के दीवानों में अग्रवाल समाज के सेठ जमनालाल बजाज का नाम अग्रणी रूप में लिया जाना चाहिए 

यह रहते महात्मागांधी के साथ थे, लेकिन मदद गरमदल वालो की करते थे ! जिससे हथियार आदि खरीदने में कोई परेशानी नही हो !!

इनसे किसी ने एक बार पूछा था, की आप इतना दान कैसे कर पाते है ?

तो सेठजी का जवाब था ---मैं अपना धन अपने बच्चो को देकर जाऊं, इससे अच्छा है इसे में समाज और राष्ट्र के लिए खर्च कर देवऋण चुकाऊं ।

★ रामदास जी गुड़वाला अग्रवाल समाज के गौरव हैं । जगतसेठ रामदास जी गुरवाला एक बड़े बैंकर थे जिन्होंने 1857 की गदर में सम्राट बहादुर शाह जफर (जिनके नेतृत्व में 1857 का आंदोलन लड़ा गया था ) को 3 करोड़ रुपये दान दिए थे। वे चाहते थे देश आजाद हो ।

सम्राट दीवाली समारोह पे उनके निवास पे जाते थे और सेठ उन्हें 2 लाख अशरफी भेंट करते थे ।

उनका प्रभाव देखते हुए अंग्रेजों ने उनसे मदद मांगी लेकिन उन्होंने मना कर दिया था ।

बाद में अंग्रेजों ने उन्हें धोके से शिकारी कुत्तों के सामने फिकवा दिया और उसी घायल अवस्था मे चांदनी चौक के चौराहे पे फांसी पे चढ़ा दिया था ।

लेख साभार: राष्ट्रीय अग्रवाल सभा 













सेठ रामदास जी गुड़वाला-1857 के महान क्रांतिकारी व दानवीर


सेठ रामदास जी गुड़वाला दिल्ली के अरबपति सेठ और बैंकर थे और अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर के गहरे दोस्त थे। इनका जन्म #अग्रवाल परिवार में हुआ था। इनके परिवार ने दिल्ली क्लॉथ मिल्स की स्थापना की थी। उस समय मुग़ल दरबार की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय थी। अधिकांश मुग़ल सरदार बादशाह को नीचा दिखाने वाले थे । अनेक मुस्लिम सरदार गुप्त रूप से अंग्रेजों से मिले हुए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के कुचक्रों से बादशाह बेहद परेशान थे। एक दिन वे अपनी खास बैठक में बड़े बेचैन हो उदास होकर घूम रहे थे। उसी समय सेठ रामदास गुड़वाला जी वहाँ पहुंच गए और हर प्रकार से अपने मित्र बादशाह को सांत्वना दी। उन्होंने बादशाह को कायरता छोड़कर सन्नद्ध हो क्रांति के लिए तैयार किया, परंतु बादशाह ने खराब आर्थिक स्थिति को देखते हुए असमर्थता प्रकट की। सेठ जी ने तुरंत 3 करोड़ रुपये बादशाह को देने का प्रस्ताव रखा। इस धन से क्रांतिकारी सेना तैयार की।

सेठ जी जिन्होंने अभी तक साहूकारी और व्यापार ही किया था, सेना व खुफिया विभाग के संघठन का कार्य भी प्रारंभ कर दिया। उनकी संघठन की शक्ति को देखकर अंग्रेज़ सेनापति भी दंग हो गए लेकिन दुःख है की बादशाह के अधिकांश दरबारी दगाबाज निकले जो अंग्रेजों को सारा भेद बता देते थे। फिर भी वे निराश नहीं हुए। सारे उत्तर भारत में उन्होंने जासूसों का जाल बिछा दिया और अनेक सैनिक छावनियों से गुप्त संपर्क किया। उन्होंने भीतर ही भीतर एक शक्तिशाली सेना व गुप्तचर संघठन का निर्माण किया। देश के कोने कोने में गुप्तचर भेजे व छोटे से छोटे मनसबदार और राजाओं से प्रार्थना की इस संकट काल में सम्राट की मदद कर देश को स्वतंत्र करवाएं।

सेठ रामदास गुड़वाला जी ने अंग्रेजों की सेना में भारतीय सिपाहियों को आजादी का संदेश भेजा और क्रांतिकारियों ने निश्चित समय पर उनकी सहायता का वचन भी दिया। यह भी कहा जाता है की क्रांतिकारियों द्वारा मेरठ व दिल्ली में क्रांति का झंडा खड़ा करने में गुड़वाला का प्रमुख हाथ था।

गुड़वाला की इस प्रकार की क्रांतिकारी गतिविधयिओं से अंग्रेज़ शासन व अधिकारी बहुत चिंतित हुए। सर जॉन लॉरेन्स आदि सेनापतियों ने गुड़वाला को अपनी तरफ मिलने का बहुत प्रयास किया लेकिन वो अग्रेंजो से बात करने को भी तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेज़ अधिकारियों ने मीटिंग बुलाई और सभी ने एक स्वर में कहा की गुड़वाला की इस तरह की क्रांतिकारी गतिविधयिओं से हमारे भारत पर शासन करने का स्वप्न चूर ही जाएगा । अतः इसे पकड़ कर इसकी जीवनलीला समाप्त करना बहुत जरूरी है ।

सेठ रामदास जी गुड़वाला को धोके से पकड़ा गया और जिस तरह मारा गया वो क्रूरता की मिसाल है। पहले उनपर शिकारी कुत्ते छुड़वाए गए उसके बाद उन्हें उसी घायल अवस्था में चांदनी चौक की कोतवाली के सामने फांसी पर लटका दिया गया।

इस तरह अरबपति सेठ रामदास गुड़वाला जी ने देश की आजादी के लिए अपनी अकूत संपत्ति और अपना जीवन मातृभूमि के लिए हंसते हंसते न्योछावर कर दिया । सुप्रसिद्ध इतिहासकार ताराचंद ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट' में लिखा है - "सेठ रामदास गुड़वाला उत्तर भारत के सबसे धनी सेठ थे। अंग्रेजों के विचार से उनके पास असंख्य मोती, हीरे व जवाहरात व अकूत संपत्ति थी। वह मुग़ल बादशाहों से भी अधिक धनी थे। यूरोप के बाजारों में भी उसकी साहूकारी का डंका बजता था।"

परंतु भारतीय इतिहास में उनका जो स्थान है वो उनकी अतुलनीय संपत्ति की वजह से नहीं बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर करने की वजह से है। वह मंगल पांडेय से भी पहले देश की आजादी के लिए शहीद हुए थे इस तरह उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखने योग्य है। दिल्ली की विधानसभा के गलियारे में उनके बलिदान के बारे में चित्र लगा है।

साभार- पं गोविंद लाल पुरोहित जी की पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास'

Bhartendu Hariachandra ~ Father of Mordern Hindi Literature .



भारतेन्द्र हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं।भारतेन्दु हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। जिस समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का अविर्भाव हुआ, देश ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेज़ी शासन में अंग्रेज़ी चरमोत्कर्ष पर थी। शासन तंत्र से सम्बन्धित सम्पूर्ण कार्य अंग्रेज़ी में ही होता था। अंग्रेज़ी हुकूमत में पद लोलुपता की भावना प्रबल थी। भारतीय लोगों में विदेशी सभ्यता के प्रति आकर्षण था। ब्रिटिश आधिपत्य में लोग अंग्रेज़ी पढ़ना और समझना गौरव की बात समझते थे। हिन्दी के प्रति लोगों में आकर्षण कम था, क्योंकि अंग्रेज़ी की नीति से हमारे साहित्य पर बुरा असर पड़ रहा था। हम ग़ुलामी का जीवन जीने के लिए मजबूर किये गये थे। हमारी संस्कृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा था। ऐसे वातावरण में जब बाबू हरिश्चन्द्र अवतारित हुए तो उन्होंने सर्वप्रथम समाज और देश की दशा पर विचार किया और फिर अपनी लेखनी के माध्यम से विदेशी हुकूमत का पर्दाफ़ाश किया।

युग प्रवर्तक बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी नगरी के प्रसिद्ध 'सेठ अमीचंद' के वंश में 9 सितम्बर सन् 1850 को हुआ। इनके पिता 'बाबू गोपाल चन्द्र' भी एक कवि थे। इनके घराने में वैभव एवं प्रतिष्ठा थी। जब इनकी अवस्था मात्र 5 वर्ष की थी, इनकी माता चल बसीं और दस वर्ष की आयु में पिता जी भी चल बसे। भारतेन्दु जी विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति थे। इन्होंने अपने परिस्थितियों से गम्भीर प्रेरणा ली। इनके मित्र मण्डली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे, जिनकी बातों से ये प्रभावित थे। इनके पास विपुल धनराशि थी, जिसे इन्होंने साहित्यकारों की सहायता हेतु मुक्त हस्त से दान किया।

बाबू हरिश्चन्द्र बाल्यकाल से ही परम उदार थे। यही कारण था कि इनकी उदारता लोगों को आकर्षित करती थी। इन्होंने विशाल वैभव एवं धनराशि को विविध संस्थाओं को दिया है। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर ही विद्वतजनों ने इन्हें 'भारतेन्दु' की उपाधि प्रदान की। अपनी उच्चकोटी के लेखन कार्य के माध्यम से ये दूर-दूर तक जाने जाते थे। इनकी कृतियों का अध्ययन करने पर आभास होता है कि इनमें कवि, लेखक और नाटककार बनने की जो प्रतिभा थी, वह अदभुत थी। ये बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार थे।

इनकी #मातृभाषा_के_प्रति रचना की कुछ पंक्तियां

"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।।"

 भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने अग्रवालों की उत्पत्ति नाम से भी एक ग्रंथ रचना की थी 

साभार: राष्ट्रीय  अग्रवाल सभा 

उत्तर प्रदेश का गौरव अग्रवाल समाज


Image may contain: 7 people, people smiling, text

उत्तर प्रदेश जो जनसंख्या के हिसाब से भारत का सबसे बड़ा सूबा है उसके उत्थान में अग्रवालों का योगदान। उत्तर प्रदेश से अग्रवाल समाज का गहरा संबंध है। महाराज अग्रसेन का जन्म काशी विश्वनाथ के आशीर्वाद से हुआ था। महाभारत युद्ध में उन्हें श्री कृष्ण ने भारत वर्ष के पुनरुत्थान का आशीर्वाद दिया था। गुप्त वंश जो धारण गोत्रीय अग्रवाल था उसकी राजधानी पश्चिम उत्तर प्रदेश थी। उत्तर प्रदेश में राजनीति, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, धर्म, उद्योग समाजसेवा लगभग हर क्षेत्र में अग्रवालों का अग्रणी स्थान रहा है । UP के अग्रवालों ने देश और अग्रवाल समाज को कई नगीने दिए हैं। उत्तर प्रदेश को इन्होंने अपने ज्ञान, बुद्धि और मेहनत से सींचा है। कुछ प्रमुख अग्रवाल नाम और घराने जिनकी जन्मभूमि/कर्मभूमि/ मूलभूमि उत्तर प्रदेश थी -

धर्म -

★ गोरखपुर जिले में दो अग्रवालों घनश्याम दास जालान और जयदयाल गोयनका ने हिंदुओं की सबसे बड़ी धार्मिक प्रेस गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना की थी।

★विहिप के पूर्व अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल जी जिन्होंने राम जन्मभूमि के लिए सबसे बड़ा आंदोलन खड़ा किया और रामलला के लिए चोटिल हुए वो आगरा उत्तर प्रदेश से थे।

★ प्रसिद्ध पर्यावरणविद्य व iit के पूर्व प्रोफेसर ज्ञान स्वरूप सानंद(GD Aggarwal) उत्तर प्रदेश से थे। जिन्होंने माँ गंगा की निर्मलता और शुद्धता के लिए अपने प्राण त्याग दिए।

★अग्रवाल जैन मुग़ल कालीन आगरा के साहू टोडर ने 500 से अधिक जैन स्तूपों का निर्माण किया था।

★सिंघानिया परिवार ने कानपुर में भव्य JK मंदिर का निर्माण किया था ।

★ शिव प्रसाद गुप्त ने काशी का मशहूर भारत माता मंदिर का निर्माण किया था।

उद्योग पति व मीडिया घराने-

★ साहू जैन परिवार - देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी The Times Group की मालिक । ये अग्रवाल जैन परिवार से हैं । यह मूलरूप से उत्तर प्रदेश के बिजनोर से हैं।

★ सिंघानिया परिवार - देश के सबसे बड़े आद्योगिक घराने में से एक सिंघानिया परिवार का मूल उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले का है।

★बड़े हिंदी समाचार पत्र - दैनिक भास्कर के फाउंडर रमेश चंद्र अग्रवाल का जन्म झांसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था व दैनिक जागरण के फाउंडर पुराण चंद गुप्ता का जन्म कालपी, उत्तर प्रदेश में हुआ था।

★ अमित अग्रवाल - देश का टॉप ब्लॉगर; ये उत्तर प्रदेश के आगरा शहर से है।

इसके अलावा उत्तर प्रदेश की अनेक यूनिवर्सिटी, इंडस्ट्री आदि के मालिक अग्रवाल हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीती - राजनीति में उत्तर प्रदेश के अग्रवालों का अग्रणी स्थान रहा है। उत्तर प्रदेश ने तीन अग्रवाल मुख्यमंत्री(चंद्र भानु गुप्ता, बाबू बनारसी दास, राम प्रकाश गुप्त) दिए हैं। जिन्होंने प्रदेश के विकास में अग्रणी भूमिका निभाई है। डॉ राम मनोहर लोहिया जिन्हें अग्रवालों का नवरत्न कहा जाता है वो भी उत्तम प्रदेश से थे। उनके नाम पर लखनऊ में एक पार्क और हॉस्पिटल है। उत्तर प्रदेश के वर्तमान वित्त मंत्री भी अग्रवाल समाज से आते हैं । उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं अग्रवालों की कुलभूमि अग्रोहा होकर आये हैं ।

लेखक -

आधुनिक हिंदी के जनक कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी में हुआ था। इन्होंने ही हिंदी में नाटक विधा की शुरुवात की थी। पद्मश्री काका हाथरसी का असली नाम प्रभुदयाल गर्ग था। इनका जन्म हाथरस में हुआ था। इन्हें हास्य सम्राट कहा जाता है। प्रसिद्ध लेखक बाबू गुलाबराय भी उत्तर प्रदेश के अग्रवाल समाज से हैं।

अग्रवाल नवरत्न - विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय 9 अग्रवालों को अग्रवाल नवरत्नों का दर्जा हासिल है। अग्रवालों के 9 में से 5 अग्रवाल नवरत्न की जन्मभूमि या कर्म भूमि उत्तर प्रदेश है । जिनमे शुमार हैं - राम मनोहर लोहिया(भारतीय समाजवाद को दिशा दिखाने वाले), डॉ भगवान दास(भारत रत्न), भारतेंदु हरिश्चन्द्र(आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक), शिव प्रसाद गुप्त(काशी विद्यापीठ के जनक), हनुमान प्रसाद पोद्दार(गीताप्रेस के जनक)।

अग्रवालों के इतिहास लेखन- अग्रवालों का सर्वप्रथम इतिहास भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अग्रवालों की उत्पत्ति के नाम से लिखा था । महालक्ष्मी व्रत कथा का खोज भी इन्होंने ही किया था । अग्रवालों पे इतिहास पे ऐतिहासिक ग्रंथ अग्रसेन अग्रोहा अग्रवाल लिखने वालीं स्वराज्यमानी अग्रवाल जी का जन्म उत्तर प्रदेश के प्रयाग में हुआ था।

साभार: Prakhar Agrawal, अग्रवाल चिंतक, राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा

अग्रोहा_की_कुलदेवी_विष्णुप्रिया_श्री_महालक्ष्मी



हरियाणा में  अग्रोहा नामक स्थान पर महालक्ष्मीमाता भव्य मन्दिर है। अग्रोहा पुरातात्त्विक महत्त्व वाला प्राचीन सभ्यता केन्द्र है जहाँ अनेक पुरावशेष उपलब्ध हुए हैं। पुरातात्त्विक अनुसन्धान से पता चला है कि वहाँ पहले एक नगर था जो सरस्वती नदी के किनारे बसा था। उसका नाम प्रतापनगर था और वह  ब्रह्मावर्त देश के दक्षिण में अवस्थित था।

प्राचीनकाल में भारतवर्ष अनेक जनपदों में विभक्त था। सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच का क्षेत्र ब्रह्मावर्त कहलाता था। महाराज अग्रसेन ने प्रतापनगर को अपनी राजधानी बनाया तो प्रतापनगर अग्रोहा नाम से विख्यात हुआ। महाराज अग्रसेन ने अग्रवाल समाज के वंशप्रवर्तक आदिपुरुष थे। वे सूर्यवंश की वंशपरम्परा में महाराज वल्लभ के पुत्र थे। महाराज अग्रसेन के बाद उनका कुल कुलदेवी महालक्ष्मी के वरदान से उनके ही नाम से अग्रवाल कहलाने लगा।

नागराज कुमुद की पुत्री माधवी से विवाह करने के कारण महाराज अग्रसेन की इन्द्र से शत्रुता हो गई। तब उन्होंने गुरु गर्ग मुनि से मन्त्रदीक्षा प्राप्त कर महालक्ष्मीमाता की आराधना की। महालक्ष्मीमाता ने उन्हें अजेय होने का प्रथम वरदान दिया तथा कुलदेवी के रूप में उनके तथा उनके वंश के संरक्षण करने का द्वितीय वरदान दिया। महाराज अग्रसेन ने अपनी राजधानी अग्रोहा में महालक्ष्मीमाता का भव्य मन्दिर बनवाया। महाराज अग्रसेन के बाद उनकी अनेक पीढ़ियों ने अग्रोहा का शासन किया।

सिकंदर के भारत आक्रमण तक अग्रोहा व्यापार की दृष्टि से सबसे बड़ा केंद्र था। कालान्तर में अनेक कारणों से उजड़ कर वह नगरी ध्वस्त हो गई। फलस्वरूप अग्रवंश का प्रवास देश के विभिन्न राज्यों में हो गया।

आधुनिक युग में अग्रवाल वैश्यों ने अपनी उद्गमस्थली अग्रोहा के संरक्षण और विकास में रूचि ली। वहाँ पुरातत्त्वज्ञों की देख-रेख में उत्खनन कराया गया तथा पुरावशेषों को संरक्षित किया गया। वहाँ कुलदेवी महालक्ष्मीमाता के मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया गया। अब अग्रोहा का महालक्ष्मीमन्दिर अग्रवाल-समाज का प्रमुख श्रद्धाकेन्द्र है।

महाराज अग्रसेन को कुलदेवी महालक्ष्मी के वरदान के विषय में अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनमें महालक्ष्मीव्रतकथा नामक एक संस्कृत रचना तथा श्री भारतेन्दु द्वारा रचित पुस्तक ‘अग्रवाल की उत्पत्ति’ प्रमुख है। प्रस्तुत कथा इन्हीं प्राचीन कथाओं के मुख्य बिन्दुओं पर आधारित है। इसकी रचना में ऐतिहासिक व पुरातात्त्विक साहित्य तथा जनश्रुति का भी आश्रय लिया गया है।

जय जय श्रीलक्ष्मीनारायण जय महाराज अग्रसेन जय अग्रोहा 

साभार: राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा












Anamika Jain Ambar (Poetess) - अनामिका जैन अम्बर




डॉ. अनामिका जैन अम्बर देश की विख्यात हिंदी कवयित्री हैं. हिंदी-उर्दू कवि सम्मेलन, मुशायेरे में उनका नाम इन दिनों सबसे ऊपर आता है. मौलिकता, कवित्व, चरित्र, सौम्यता, नैतिक मूल्यों के प्रति उनका समर्पण आदि उनकी प्रमुख विशेषताएं हैं. अनेक टीवी सीरियल्स में हिंदी कविता को समर्पित उनके काव्य पाठ आते रहते हैं. आइये जानते हैं कुछ देश की इस बड़ी कवयित्री के विषय में...

काव्य परिचय:

अनामिका जैन अम्बर बाल कवयित्री हैं. बचपन से ही उनको कविता लिखने एवं बोलने का शौंक था. उनकी कविता "शहीद के बेटे की दीपावली" से उन्हें खूब पहचान मिली. छोटी सी बच्ची जब काव्य मंचों से देश के सैनिकों का दर्द गाती थी तो सबकी आँखे नम हो जाया करती थी. इस कविता के बाद उनका लेखन दिन दुनी रात चौगुनी गति से बढ़ता गया. वर्तमान हिंदी काव्य मंचों पर मौलिकता की दृष्टि से सबसे ऊपर यदि किसी कवयित्री का नाम लिया जाता है तो वह निर्विवाद डॉ. अनामिका जैन अम्बर का नाम होता है. 

उनकी कुछ प्रमुख रचनाओ में

शहीद के बेटे की दीपावली

दामिनी (दिल्ली बलात्कार कांड पर आधारित कविता)

रुक्मणी (भगवान् श्री कृष्ण की पत्नी रुक्मणी के पत्नी अधिकार को लेकर लिखी कविता)

कंगना (बिटिया की विदाई पर)

महाराणी पद्मावती (पद्मिनी)

पी संग खेले होली रे...

आँखों के रस्ते मेरे दिल में समां गया...

पतझर में जो बसंत की बहार कर गए....

आँखों के इस कारोबार में....

अपने मोहन की मैं संवरी हो गई...

आओ झूमो नाचो गाओ....

बंद पिंजरे के कैद परिंदे....

आदि न जाने कितनी कवितायेँ उनकी कलम से निकली जिन्होंने उनकी जिव्हा से श्रोताओं के दिलों तक का सफ़र तय किया....


डॉ अनामिका अम्बर ने पहला मंच सन 1997 में चौदह वर्ष की अल्पायु में पढ़ा था. उसके बाद अनवरत उनकी काव्य यात्रायें जारी हैं. देश भर के बड़े मंचों पर उनको जनता का अपार नेह मिलता रहा है. कविता का उनके जीवन में इतना प्रभाव था की उन्होंने जीवनसाथी के रूप में भी हिंदी काव्य मंचों के लाडले कवि सौरभ जैन सुमन को अपना जीवन साथी चुना. 

माँ शारदे की कृपा स्वयं पर मानने वाली डॉ अनामिका अम्बर ने माँ को समर्पित "माँ शारदे वंदना" का ऐसा सृजन किया की यदि अब वह मंच पर हों तो सरस्वती वंदना करने का अवसर किसी अन्य को देना संचालक के लिए संभव ही नहीं हो पाता. माँ सरस्वती के 108 नामो को आधार बनाते हुए गढ़ी हुई स्तुति का कोई तोड़ नहीं है.

डॉ अनामिका जैन अम्बर के काव्य उपलब्धियों के विषय में जितना कहा जाए कम है...उनकी पहचान उनकी कविता है....उनकी शाश्वत प्रस्तुति है....उनकी वाक्पटुता, उनकी मुखरता, उनकी सादगी, उनकी कवितव् पर पकड़ है....

टीवी पर अनामिका:

यूँ तो अनेक चैनल डॉ अनामिका अम्बर की कविताओं को दिखाते रहते हैं किन्तु विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:

सब टीवी का प्रसिद्ध शो "वाह वाह क्या बात है"

जीवन परिचय:

डॉ अनामिका अम्बर का जन्म सन 1983 में बुंदेलखंड के ललितपुर जिले के धनगौल ग्राम में हुआ. उनके पिता श्री उत्तम चंद जैन ललितपुर शहर के नामी वकील हैं. उनकी माता श्रीमती गुणमाला जैन गृहणी हैं. अनामिका की आरंभिक शिक्षा ललितपुर के कोंवेंट विद्यालय में हुई. एक ओर जहाँ उन्होंने लौकिक शिक्षा ग्रहण की वहीँ माता जी के धार्मिक संस्कार भी उनमे कूट कूट के समा रहे थे. बचपन से ही हिंदी के प्रति उनकी रूचि उन्हें हिंदी कविताओं की ओर खींचने लगी. उनको संगी साथी भी ऐसे ही मिल गए जो कविता के प्रति रुचिकर थे. उनका साथ अनामिका को और अधिक बल देने लगा. धीरे धीरे उनकी रूचि उनको हिंदी कविता के मंच तक ले आयी. बाल कवयित्री के रूप में उन्हें श्रोता मन से सुनने लगे. पारिश्रमिक के रूप में मिलने वाला बहुत थोडा मान उन्हें प्रेरक पुरस्कार सा लगने लगा.

बारवी कक्षा के बाद उनका चयन सी.पी.एम.टी. में हो गया. किन्तु पूरे खानदान में इकलौती बेटी होने के कारण परिवार ने उन्हें डाक्टरी की पढाई के लिए दूर भेजना उचित नहीं समझा इसलिए उन्होंने ग्वालियर के जीवाजी विश्व् विद्यालय से विज्ञान में स्नातक एवं परास्नातक पास किया. पढाई के प्रति उनकी निष्ठां उन्हें वाचस्पति की डिग्री की ओर ले गई. जीवाजी यूनिवर्सिटी से ही उन्होंने Ph.D. किया. 

इसी मध्य हिंदी काव्य मंचों के युवा कवि सौरभ जैन सुमन के साथ उनकी भेंट हुई. दोनों की जोड़ी को हिंदी मंचो पर पसंद किया जाने लगा. 6 वर्ष अनवरत उनके साथ कविता के मंच करने के बाद सन 2006 में दोनों ने घर वालों की सहमती से विवाह किया. उसके बाद हिंदी काव्य मंचों का प्रथम विख्यात कवियुगल होने का गौरव भी प्राप्त किया. यूँ तो कुछ और भी नाम ऐसे हैं जिन्होंने हिंदी मंचों पर एक दुसरे को जीवन साथी के रूप में चुना है किन्तु सौरभ सुमन-अनामिका अम्बर में विशेष ये रहा की विवाह के उपरांत भी दोनों मंच पर अपनी प्रस्तुति देते रहे और सफलता के शिखर की ओर अग्रसित होते रहे. आज कवि सम्मेलनों के मंच पर एक मात्र युगल दंपत्ति के रूप में दोनों स्थापित हैं.


सौरभ-अनामिका के इस पुनीत युगल को दो पुत्रों की प्राप्ति हुई जिनका नाम क्रमशः काव्य-ग्रन्थ रखा गया. दोनों बेटो में भी शुरू से कविता के गुण हैं. काव्य जहाँ छोटी सी आयु में शब्द संयोजन में विशेष रूचि रखता है वहीँ छोटा बेटा ग्रन्थ प्रस्तुति के मैदान में तेजी से आगे बढ़ रहा है. 

डॉ अनामिका अम्बर ने मेरठ में अपना एक निजी प्ले-स्कूल भी खोला हुआ है. जिसका सञ्चालन वह स्वयं करती हैं. लगातार बाहर रहने के कारण प्राचार्य एवं संचालक मंडल स्कूल देखता अवश्य है किन्तु व्यस्त रहते हुए भी अनामिका अपना पूरा समय स्कूल को देती हैं.

साभार: anamikajainambar.blogspot.com/2017/10/profile-anamika-jain-ambar-poetess.html

तेली साहू जाति की सामाजिक व्यवस्था

तेली साहू जाति की सामाजिक व्यवस्था


वैश्य समाज की घटक इकाइयों में यह सर्वाधिक प्राचीन इकाइयों में यह सर्वाधिक प्राचीन इकाइयों में से सर्वप्रथम नहीं तो प्रारंभिक एक - तो निविर्वाद रूप से है । समाज के आर्थिक स्वरूप के विाककास का इतिहास बतलाता है कि प्राकृतिक सम्पदा के रूप में तिल, सरसों आदि के वाणिज्यिक उपयोग (तेल - निर्माण) आदि की सर्वप्रथम शुरूआत को जिस जन - संवग्र ने की, वे ही तेली कहलाये इस तेल - निर्माण के बाद समाज के आर्थिक जगतृ में हचल - सी मच गयी फिर तो अन्य अनेक फल - बीजों से तेल निकाले जानें लगे । इसी परम्परा में गो - दुग्ध से घी से गोधूमचूर्ण (आटा), चनाचूर्ण (बेचन) आदि का मेल काराकर मिषन्नादि का निर्माण होने लगा और हलवा आदि बनाने वाले हलवाई सामने आये हलवाई मिष्ठान्न निर्माता तेलियो नेही तिल शक्कर गुड मिश्रित कर रेवडी बनाया जो एक नई मिठाई थी । पापडी का निर्माण भी इसी समय हुआ ।

राजाओं के विजयाभिमान पर निकलने वाले सौनिक - समूहों के कल्य (नाश्ता, कलेवा, भोजन ) आदि व्यवस्था करने वाले कल्यवाल (कलवार) उन्ही सैनिकों के लिए धातु - शुण्डों (पाइप) के सहारे विभिन्न अन्नों एवं फलों का आसवन कर शराब त्ेयार करने वाले शौण्डिक (सूंढी) आदि सामने आये रात मै प्रकाशार्थ तेल से मशाल प्रज्वलन कार्य और तत्पश्चात इनकी शाखा एवं उप-शाखाएं कर्म की विशेषता एवं स्थान - भेद के वैष्टिये से सामने आती चली गयी , आज इन्ही सभी शाखा उपशाखाओं के जन - सवर्ण के मेल से विशाल वैश्य समाज बना हुआ है ।

विशाल वैश्य - जन समुदाय की यह अतिप्राचीन इकाई (तैलिक जाति) संपूर्ण भारतवर्ष में विशाल आबादी के साथ फैली है । उत्तर भारत एवं मध्य एवं पूर्व भारत में इस जाति के लोग तेली, तैलिक, साहु,। शाह, साव, गुप्त प्रसाद, लाल राम, राठौर, विेषकर राजस्थान में श्रीवास्तव आदि उपनामों से जाने जाते है । दक्षिण भारत में गंडला, गनियाशा, घानीगार, चेट्टी, चेटिटयार आदि उपनामों से जाने जाते है । महाराष्ट्र में स्थानवाची उपनाम भी प्रचलित है । ईसा पूर्व 5 वी शती के आस-पास ब्राम्हण जाति और तेली जाति के सदस्यों के बीच वर्चस्व की जमकर लडाई चली । शास्त्राधार रखने और विभिन्न विधि शास्त्रादि में व्यास उवाज का समावेश कर अपने वर्चस्व को थोपने में कुशल कट्अरपाथी ब्राम्हण - वर्ग ने इस तैलिक जाति की समाजिक अवमानना के कुचक्र में सफलता पायी । फिर तो वह उपेक्षित ही होती चली गयी ।

डॉ. ए. एस. अल्टेकर ने तेली जाति का इतिहास में ही समप्रमाण दिखलाया है कि नालंदा विश्वविद्यालय के संस्थापक एवं आर्थिक दृष्टि से संपन्न तेली जाति के ही श्रेष्ठी-जन थे । ब्राम्हण धर्म के वर्चस्व के विरूद्ध उन्होनें ही बौद्ध धर्म को अश्रय दिया था । और उसके साहित्य के विशेष अध्ययन के लिए विश्वविद्यालय की स्थापना का स्वप्न साकार किया था । आज भी नालंदा के खंडहरो से जहा बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित है, उसे तेलिया भंडार के रूप मे जाना जाता है । उस समय काल में निर्माण कार्य मे सहभागी होना महत्वपुर्ण है । अपने इसी त्यागी स्वाभिमानी एवं सहयोगी प्रवृत्ती ने तेली समाज को वह महत्वपुर्ण स्थापन दिलाया । जिसमे महाभारत कालीन तुलाधर है तो जनचेतना वाहक गुरू गोरखनाथ जी है । 

महान गुप्त वंश तो हमारे आधार पीढी है महाराज श्री. चेदिराज गांगेयदेव का पराक्रम अप्रतिम है माता कमा का आपने वर्ग नेतृत्व की क्षमता समाज हितकारी है । माता राजिम की भक्ति साधना वंदनीय है । हेमचंद हेमू विक्रमादित्य का भाग्य साथ देता तो भारतीय इतिहास बदल जाता । वीरांगणा ताई ने वीरता का प्रदर्शन कर कर्तवत्य निभाया चुनौती दी । संताजी जगनाडे महाराज का योगदान भक्मितगीतों अभंगो का भाषायी संशोधन संत साहित्य का धरोहर है । जन कवयित्री खगनिया जन - जन में प्रिय है ।

दानवीर भामाशाह की राष्ट्रभकित ने ही चितौंड का सम्मान ऊंचा किया । वर्तमान समय मैं सम्पूर्ण भारत में राषट्रीय संगठन क्रियाशील है शताब्दि वर्ष में समहित अखिल भारतीय साहू महासभा नई दिल्ली के निर्देशन में सभी प्रदेश स्जतरीय संगठन संचलित है । वही कुठ संगठन महात्वाकांक्षा से देश स्तरपर अखिल भारतीय तैलिक साहू वैश्य महासभा नई दिल्ली एवं तैलिक साहू राठौर चेतना मंच लखनऊ भी सामाजिक गतिविधियों के साथ सक्रिय है । 

साभार: teliindia.com/news.php

Friday, July 12, 2019

भारत में वैश्य समाज उच्च स्थान पर

वैश्य समाज का भारतीय राजनीति में सदा से ही उच्च स्थान रहा है । महाभारत कालीन मंत्रिमंडल में सर्वाधिक 21 मंत्रिपद वैश्यों के लिए, 4 मंत्री पद ब्राह्मणों के लिए, 8 मंत्रिपद क्षत्रियों के लिए और 4 मंत्रिपद शूद्रों के लिए थे । इसी से वैश्य समाज का राजनीतिक महत्व पता चलता है । भारत मे गांधी, लोहिया से लेके मोदी शाह और केजरीवाल तक भारतीय राजनीति को दशा और दिशा वैश्य समाज ने ही दी है । गुप्त वंश को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा गया है। आजादी के बाद से अभी तक वैश्यों ने राजनीति, पत्रकारिता, विज्ञान, उद्योग, शिक्षाविद, लेखक, चिकित्सक, सैन्य अधिकारी, दानदाता आदि अनेक पदों पर रहकर देश और समाज की सेवा की है।
जय महाराज अग्रसेन जय कुलदेवी महालक्ष्मी


राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा

सेठ चुन्नामल की हवेली




SURYAVANSHI AGRAWAL VAISHYA - सूर्यवंशी अग्रवाल वैश्य समाज की विशेषताए


Wednesday, July 10, 2019

AGRABHAGWAT - 'अग्रभागवत'



प्राचीन भारत में ऋषि-मुनियों को जैसा अदभुत ज्ञान था, उसके बारे में जब हम जानते हैं, पढ़ते हैं तो अचंभित रह जाते हैं. रसायन और रंग विज्ञान ने भले ही आजकल इतनी उन्नति कर ली हो, परन्तु आज से 2500 वर्ष पहले भूर्ज-पत्रों पर लिखे गए "अग्र-भागवत" का यह रहस्य आज भी अनसुलझा ही है.

जानिये इसके बारे में कि आखिर यह "अग्र-भागवत इतना विशिष्ट क्यों है? अदृश्य स्याही से सम्बन्धित क्या है वह पहेली, जो वैज्ञानिक आज भी नहीं सुलझा पाए हैं.

आमगांव… यह महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की एक छोटी सी तहसील, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुडी हुई. इस गांव के ‘रामगोपाल अग्रवाल’, सराफा व्यापारी हैं. घर से ही सोना, चाँदी का व्यापार करते हैं. रामगोपाल जी, ‘बेदिल’ नाम से जाने जाते हैं. एक दिन अचानक उनके मन में आया, ‘असम के दक्षिण में स्थित ‘ब्रम्हकुंड’ में स्नान करने जाना है. अब उनके मन में ‘ब्रम्हकुंड’ ही क्यूँ आया, इसका कोई कारण उनके पास नहीं था. यह ब्रम्हकुंड (ब्रह्मा सरोवर), ‘परशुराम कुंड’ के नाम से भी जाना जाता हैं. असम सीमा पर स्थित यह कुंड, प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता हैं. मकर संक्रांति के दिन यहाँ भव्य मेला लगता है.

‘ब्रम्ह्कुंड’ नामक स्थान अग्रवाल समाज के आदि पुरुष/प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज की ससुराल माना जाता है. भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी, माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थी. उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रम्ह्कुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता है. हो सकता हैं, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रम्ह्कुंड दर्शन की..! वे अपने ४–५ मित्र–सहयोगियों के साथ ब्रम्ह्कुंड पहुंच गए. दुसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ. रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ‘ब्रम्ह्सरोवर के तट पर एक वटवृक्ष हैं, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं. इन्ही साधू के पास, अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जायेगा..! दूसरे दिन सुबह-सुबह रामगोपाल जी ब्रम्ह्सरोवर के तट पर गये, तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए, लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी. रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपडे में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओं, इसे ले जाओं, कल्याण होगा तुम्हारा.” वह दिन था, ९ अगस्त, १९९१.

आप सोच रहे होंगे कि ये कौन सी "कहानी" और चमत्कारों वाली बात सुनाई जा रही है, लेकिन दो मिनट और आगे पढ़िए तो सही... असल में दिखने में बहुत बड़ी, पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर, रामगोपाल जी अपने स्थान पर आए, जहां वे रुके थे. उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ़–सुथरे ‘भूर्जपत्र’ अच्छे सलीके से बांधकर रखे थे. इन पर कुछ भी नहीं लिखा था. एकदम कोरे..! इन लंबे-लंबे पत्तों को भूर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी. अब इसका क्या करे..? उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गांव, आमगांव, लेकर आये. लगभग ३० ग्राम वजन की उस पोटली में ४३१ खाली (कोरे) भूर्जपत्र थे. बालाघाट के पास ‘गुलालपुरा’ गांव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे. रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करू..?” गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हे ये पोटली और उसके अंदर के ये भूर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो.” अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड गए. रख भी नहीं सकते और फेंक भी नहीं सकते..! उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया.

कुछ दिन बीत गए. एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भूर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य..! जहां पर पानी गिरा था, वहां पर कुछ अक्षर उभरकर आये. रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक भूर्जपत्र पूरा पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये..! उस भूर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा. अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था. कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए. अब रामगोपाल जी ने सभी ४३१ भुर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सुखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया. यह लेखन देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था. यह काम कुछ वर्षों तक चला. जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया, की भूर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का ‘अग्र भागवत’ नाम का चरित्र हैं. लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने ‘जयभारत’ नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था. उसका एक हिस्सा था, यह ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ. पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय. इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतू जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता हैं.

रामगोपाल जी को मिले हुए इस ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई. इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ. ग्रंथ के भूर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक, लोगों को दिखाए गए. इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली की इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की. यह सुनकर / देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आये और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया. इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी. आज यह ग्रंथ, नागपुर में ‘अग्रविश्व ट्रस्ट’ में सुरक्षित रखा गया हैं. लगभग १८ भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ हैं. रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की ‘कार्बन डेटिंग’ की गयी, तो वह भूर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले.

यदि हम इसे काल्पनिक कहानी मानें, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब ‘श्रध्दा’ के विषय अगर ना भी मानें... तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते ही हैं. जैसे, कि हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी..? इसका उपयोग कैसे किया जाता था..? कहां उपयोग होता था, इस तकनीक का..? भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन हैं. ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताडपत्र, भूर्जपत्र... आदि लेखन में उपयोगी साधन थे.

मराठी विश्वकोष में भूर्जपत्र की जानकारी दी गयी हैं, जो इस प्रकार है – “भूर्जपत्र यह ‘भूर्ज’ नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था. यह वुक्ष ‘बेट्युला’ प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषतः काश्मीर के हिमालय में, पाए जाते हैं. इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था. उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था. उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था. फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बांधकर, उसकी पुस्तक / ग्रंथ बनाया जाता था. यह भूर्जपत्र, उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो – ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे. भूर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था. भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही हैं. भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहाँ का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ है. परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पध्दतियां थी, जिनकी जानकारी मिली हैं. आम तौर पर ‘काली स्याही’ का ही प्रयोग सब दूर होता था. चीन में मिले प्रमाण भी ‘काली स्याही’ की ओर ही इंगित करते हैं. केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरियां रंग की स्याही का उल्लेख आता हैं.

मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा हैं – ‘भारत में दो प्रकार के स्याही का उपयोग किया जाता था. कच्चे स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे. पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था. फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपडे में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपडे को बहुत देर तक घुमाते थे. और वह गोंद, स्याही बन जाता था, काले रंग की..’ भूर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी. बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे. काले स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरे शताब्दी का है. आश्चर्य इस बात का हैं, की जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध हैं, उन सब से पानी में घुलने वाली स्याही बनती हैं. जब की इस ‘अग्र भागवत’ की स्याही, भूर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती हैं. पानी से मिटती नहीं. उलटें, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती हैं. इस का अर्थ यह हुआ, की कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था. यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे. अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा. इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं हैं. उपलब्ध हैं, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ ‘अग्र भागवत’ यह ग्रंथ. लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण..!

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ‘विज्ञान, या यूं कहे, "आजकल का शास्त्रशुध्द विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ" इस मिथक को मानने वालों के लिए, ‘अग्र भागवत’ यह अत्यंत आश्चर्य का विषय है. स्वाभाविक है कि किसी प्राचीन समय इस देश में अत्यधिक प्रगत लेखन शास्त्र विकसित था, और अपने पास के विशाल ज्ञान भंडार को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने की क्षमता इस लेखन शास्त्र में थी, यह अब सिध्द हो चुका है..! दुर्भाग्य यह है कि अब यह ज्ञान लुप्त हो चुका है. यदि भारत में समुचित शोध किया जाए एवं पश्चिमी तथा चीन की लाईब्रेरियों की ख़ाक छानी जाए, तो निश्चित ही कुछ न कुछ ऐसा मिल सकता है जिससे ऐसे कई रहस्यों से पर्दा उठ सके.

साभार:Written by प्रशांत पोळ Taken from Desi CNN by Suresh Chiplunkar

गुप्तवंश के अग्रवाल वैश्य होने में प्रमाण

गुप्तवंश के अग्रवाल वैश्य होने में प्रमाण


1. चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती ने पूना अभिलेख में सम्राट को धारण गोत्रीय कहा है। और अग्रवालों के 18 में से एक धारण गोत्र है।

2. गुप्त वैश्यों की उपाधि है। आज भी वैश्य धार्मिक कर्म का संकल्प पढ़ते समय स्वयं को गुप्त कहते हैं। गुप्त शासकों के नाम समुद्र, चन्द्र, कुमार, स्कंद आदि थे और गुप्त इनका उपनाम था।

3. बौद्ध ग्रन्थ आर्य मंजूश्री मूलकल्प में गुप्तवंश को वैश्य बताया गया है।

4. इतिहासकार एलेन, अल्टेकर एवं आयंगर ने गुप्तवंश को वैश्य माना है परंतु कुछ षड्यंत्रकारी इतिहासकारों ने इनको जाट व शूद्र आदि बताया जबकि जाटों व शूद्रों दोनों का ही यग्योपवीत नहीं होता। गुप्त सम्राटों ने अश्वमेध आदि महान यज्ञ करवाए थे जो केवल द्विज (जनेऊधारी) करा सकते हैं। अग्रवालों का यग्योपवीत होता है इसलिए गुप्त वही हो सकते हैं। जिन इतिहासकारों ने गुप्तवंश को क्षत्रिय बताया है उससे भी इनका अग्रवाल नहीं होना सिद्ध नहीं होता क्योंकि सर्वविदित है कि अग्रवाल प्राचीन क्षत्रिय जाति है जिसने कालांतर में वैश्यधर्म अपनाया।

5. प्रख्यात इतिहासकार राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक जय यौधेय में अग्रवालों की प्राचीन भूमि अग्रोहा की कन्या दत्ता को गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त की पत्नी बताया है। व लिखा है कि समुद्रगुप्त के दूसरे पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का जन्म भी अग्रोहा में हुआ।

6. प्रसिद्ध इतिहासकार सत्यकेतु विद्यालंकार ने जायसवाल के मत का खंडन करते हुए गुप्तवंश को वैश्य सिद्ध किया है। वैश्यों में अग्रवाल सर्वप्रमुख जाति है जिसमें पूना अभिलेख वाला धारण गोत्र सम्मिलित है।

7. गुप्त शासक भानुगुप्त ने एरण शिलालेख सागर के पास लगवाया। एरण भी अग्रवालों के 18 गोत्रों में से एक है। अग्रवालों का एरण गोत्र मप्र के इस क्षेत्र में ज्यादा पाया जाता है मालवा तक। इसी एरण में नागजाति का शासन रहा और नागों से अग्रवालों का सम्बंध है क्योंकि महारानी माधवी नागवंशी थीं। आज भी अग्रवाल नागों को मामा मानते हैं।

8. अग्रवाल जाति हमेशा से प्रमुख रूप से वैष्णव जाति रही है। आज भी अधिकांश अग्रवाल वैष्णव होते हैं। गुप्त सम्राट इतिहास में परम वैष्णव शासक थे। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय, समुद्रगुप्त एवं स्कंदगुप्त ने विष्णुभक्त होने के कारण परमभागवत की उपाधि धारण की थी। इसलिए धार्मिक रूप से भी गुप्तवंश के अग्रवाल होने में कठिनाई नहीं है। जबकि जाट मुख्यरूप से शैव जाति रही है। चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती परम वैष्णव थी। वह अपनी राजधानी नन्दिवर्धन के समीप रामगिरि पर स्थापित श्रीराम पादुकाओं की भक्त थी। उससे विवाह के बाद शैव रुद्रसेन भी वैष्णव हो गया था।

9. चंद्रगुप्त द्वितीय के समय चीनी यात्री फाह्यान भारत आया जिसने लिखा है कि, "गुप्त साम्राज्य में नीच चांडालों के अतिरिक्त न तो कोई जीवहिंसा करता है, न मदिरापान करता और न लहसुन प्यास खाता है।" अग्रवाल जाति में भी आजतक सामान्यतया मांसाहार, व प्याज लहसुन तक नहीं खाया जाता। अग्रवाल जाति की स्थापना के मूल में ही महाराजा अग्रसेन द्वारा जीवहिंसा का निषेध है। इसलिए यह प्राचीन जाति चरित्र गुप्त शासकों के अनुकूल ही है। जबकि जाटों में मांसाहार बहुतायत में पाया जाता है।

10. गुप्त साम्राज्य की मुद्राओं पर अग्रोहा की कुलदेवी महालक्ष्मी जी अंकित थीं।

11. गुप्तों का उदय गणराज्यों की शक्ति क्षीण होने के काल में हुआ। इन्हीं में से एक गणराज्य था यौधेय, जो 150 ई.पू. से 350 ईसवी तक उत्तरप्रदेश व राजस्थान के क्षेत्रों तक फैला हुआ था। इस द्वितीय रक्षापंक्ति के दो ही कार्य थे कृषि और युद्ध, इसलिए ये वैश्य और क्षत्रिय दोनों गुणों से परिपूर्ण थे व सिकन्दर से लेकर शकों, कुषाणों तक एक के बाद एक विदेशी हमलों का प्रत्युत्तर दे रहे थे। सभी इतिहासकार मानते हैं कि कुषाणों को पराजित करने वाले यौधेय ही थे। यौधेय गणराज्य के अंतर्गत हरियाणा का अग्रोहा अग्रवालों का उत्पत्ति स्थान है। गुप्त राजवंश भी लगातार शकों कुषाणों से लड़ता हुआ ही ऊपर उठा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश से इसका राज्य शुरू होता हुआ चंद्रगुप्त प्रथम के काल में मगध तक पहुंचा। राहुल सांकृत्यायन ने माना है कि समुद्रगुप्त की शक्ति अग्रोहा में यौधेयों के साथ हुई उसकी संधि व वैवाहिक सम्बन्ध के बाद बढ़ी। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि गुप्त वंश वैश्य था व यौधेय अग्रवाल जाति से सम्बंधित था।

साभार: - मुदित मित्तल, महामंत्री, राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा