तेली साहू जाति की सामाजिक व्यवस्था
वैश्य समाज की घटक इकाइयों में यह सर्वाधिक प्राचीन इकाइयों में यह सर्वाधिक प्राचीन इकाइयों में से सर्वप्रथम नहीं तो प्रारंभिक एक - तो निविर्वाद रूप से है । समाज के आर्थिक स्वरूप के विाककास का इतिहास बतलाता है कि प्राकृतिक सम्पदा के रूप में तिल, सरसों आदि के वाणिज्यिक उपयोग (तेल - निर्माण) आदि की सर्वप्रथम शुरूआत को जिस जन - संवग्र ने की, वे ही तेली कहलाये इस तेल - निर्माण के बाद समाज के आर्थिक जगतृ में हचल - सी मच गयी फिर तो अन्य अनेक फल - बीजों से तेल निकाले जानें लगे । इसी परम्परा में गो - दुग्ध से घी से गोधूमचूर्ण (आटा), चनाचूर्ण (बेचन) आदि का मेल काराकर मिषन्नादि का निर्माण होने लगा और हलवा आदि बनाने वाले हलवाई सामने आये हलवाई मिष्ठान्न निर्माता तेलियो नेही तिल शक्कर गुड मिश्रित कर रेवडी बनाया जो एक नई मिठाई थी । पापडी का निर्माण भी इसी समय हुआ ।
राजाओं के विजयाभिमान पर निकलने वाले सौनिक - समूहों के कल्य (नाश्ता, कलेवा, भोजन ) आदि व्यवस्था करने वाले कल्यवाल (कलवार) उन्ही सैनिकों के लिए धातु - शुण्डों (पाइप) के सहारे विभिन्न अन्नों एवं फलों का आसवन कर शराब त्ेयार करने वाले शौण्डिक (सूंढी) आदि सामने आये रात मै प्रकाशार्थ तेल से मशाल प्रज्वलन कार्य और तत्पश्चात इनकी शाखा एवं उप-शाखाएं कर्म की विशेषता एवं स्थान - भेद के वैष्टिये से सामने आती चली गयी , आज इन्ही सभी शाखा उपशाखाओं के जन - सवर्ण के मेल से विशाल वैश्य समाज बना हुआ है ।
विशाल वैश्य - जन समुदाय की यह अतिप्राचीन इकाई (तैलिक जाति) संपूर्ण भारतवर्ष में विशाल आबादी के साथ फैली है । उत्तर भारत एवं मध्य एवं पूर्व भारत में इस जाति के लोग तेली, तैलिक, साहु,। शाह, साव, गुप्त प्रसाद, लाल राम, राठौर, विेषकर राजस्थान में श्रीवास्तव आदि उपनामों से जाने जाते है । दक्षिण भारत में गंडला, गनियाशा, घानीगार, चेट्टी, चेटिटयार आदि उपनामों से जाने जाते है । महाराष्ट्र में स्थानवाची उपनाम भी प्रचलित है । ईसा पूर्व 5 वी शती के आस-पास ब्राम्हण जाति और तेली जाति के सदस्यों के बीच वर्चस्व की जमकर लडाई चली । शास्त्राधार रखने और विभिन्न विधि शास्त्रादि में व्यास उवाज का समावेश कर अपने वर्चस्व को थोपने में कुशल कट्अरपाथी ब्राम्हण - वर्ग ने इस तैलिक जाति की समाजिक अवमानना के कुचक्र में सफलता पायी । फिर तो वह उपेक्षित ही होती चली गयी ।
डॉ. ए. एस. अल्टेकर ने तेली जाति का इतिहास में ही समप्रमाण दिखलाया है कि नालंदा विश्वविद्यालय के संस्थापक एवं आर्थिक दृष्टि से संपन्न तेली जाति के ही श्रेष्ठी-जन थे । ब्राम्हण धर्म के वर्चस्व के विरूद्ध उन्होनें ही बौद्ध धर्म को अश्रय दिया था । और उसके साहित्य के विशेष अध्ययन के लिए विश्वविद्यालय की स्थापना का स्वप्न साकार किया था । आज भी नालंदा के खंडहरो से जहा बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित है, उसे तेलिया भंडार के रूप मे जाना जाता है । उस समय काल में निर्माण कार्य मे सहभागी होना महत्वपुर्ण है । अपने इसी त्यागी स्वाभिमानी एवं सहयोगी प्रवृत्ती ने तेली समाज को वह महत्वपुर्ण स्थापन दिलाया । जिसमे महाभारत कालीन तुलाधर है तो जनचेतना वाहक गुरू गोरखनाथ जी है ।
महान गुप्त वंश तो हमारे आधार पीढी है महाराज श्री. चेदिराज गांगेयदेव का पराक्रम अप्रतिम है माता कमा का आपने वर्ग नेतृत्व की क्षमता समाज हितकारी है । माता राजिम की भक्ति साधना वंदनीय है । हेमचंद हेमू विक्रमादित्य का भाग्य साथ देता तो भारतीय इतिहास बदल जाता । वीरांगणा ताई ने वीरता का प्रदर्शन कर कर्तवत्य निभाया चुनौती दी । संताजी जगनाडे महाराज का योगदान भक्मितगीतों अभंगो का भाषायी संशोधन संत साहित्य का धरोहर है । जन कवयित्री खगनिया जन - जन में प्रिय है ।
दानवीर भामाशाह की राष्ट्रभकित ने ही चितौंड का सम्मान ऊंचा किया । वर्तमान समय मैं सम्पूर्ण भारत में राषट्रीय संगठन क्रियाशील है शताब्दि वर्ष में समहित अखिल भारतीय साहू महासभा नई दिल्ली के निर्देशन में सभी प्रदेश स्जतरीय संगठन संचलित है । वही कुठ संगठन महात्वाकांक्षा से देश स्तरपर अखिल भारतीय तैलिक साहू वैश्य महासभा नई दिल्ली एवं तैलिक साहू राठौर चेतना मंच लखनऊ भी सामाजिक गतिविधियों के साथ सक्रिय है ।
साभार: teliindia.com/news.php
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