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Sunday, April 3, 2022

MANDAWA CITY A VAISHYA HERITAGE

MANDAWA CITY A VAISHYA HERITAGE

राजस्थान के कलाप्रेमी सेठों के जीवन से रूबरू होना है तो आपको मंडावा आना चाहिए। यहां आप मध्यकालीन भारत की तस्वीर को भी करीब से देख और समझ पाएंगे। यहां के हर दरो-दीवार में छुपी है उस जमाने की अनूठी तस्वीर। मंडावा एक छोटा मगर जीवंत कस्बा है। इस पूरे क्षेत्र को ‘शेखावटी’ भी कहा जाता है। समूचे भारत में केवल शेखावटी ही एकमात्र ऐसा स्थान था, जिस पर अंग्रेज कभी पूरी तरह हुकूमत नहीं कर सके।

लुभाती है फ्रेस्को पेंटिंग की जीवंतता: सेठों का इलाका मंडावा अपनी भित्ति चित्रकारी (जिसे ‘फ्रेस्को पेंटिंग’ भी कहा जाता है) के लिए दुनियाभर में मशहूर है। कहते हैं फ्रेस्को पेंटिंग्स 200 साल पुरानी है, लेकिन इनकी चमक आज भी नई जैसी लगती है। इन पेंटिंग्स को बनाने में जो रंग इस्तेमाल किए जाते थे, वे शुद्ध प्राकृतिक हुआ करते थे। इन पेंटिंग्स को ही नहीं, बल्कि रंगों को तैयार करने में भी चित्रकार जी-जान लगा दिया करते थे। इस संबंध में एक कहानी मशहूर है। किसी सेठ ने अपनी हवेली को रंगने का ठेका यहां के चित्रकार को दिया। सेठ कोलकाता में व्यापार करते थे। जब वह 4 महीने बाद लौटे तो देखा कि हवेली जस की तस है और चित्रकार वहां बैठकर रंग बना रहा है। सेठ जी ने नाराजगी दिखाते हुए उससे कहा कि इतना समय बीत गया और तुमने एक पत्थर तक नहीं रंगा। चित्रकार को भी गुस्सा आया और उसने रंग में घुला ब्रश दीवार पर फेंक दिया। आज भी पत्थर की दीवार पर उस रंग के निशान हैं। ये रंग बेहद पक्के होने के कारण सालों साल टिके रहते थे।











ओपन आर्ट गैलरी: मंडावा में घूमने का सबसे अच्छा तरीका है पैदल चलना, क्योंकि यहां हर गली में एक हवेली है और हर हवेली एक ‘ओपन आर्ट गैलरी’ की तरह आगंतुकों के लिए खुली रहती है। यहां के लोगों की मानें तो भारत की तरक्की में विशेष योगदान देने वाले मारवाड़ी व्यापारी घराने, जैसे-बिड़ला, मित्तल, बजाज, गोयनका, झुनझुनवाला, डालमिया, पोद्दार, चोखानी आदि के दादा-परदादाओं ने इस नगर को बसाया था और इन्हीं सेठों ने यहां एक से बढ़कर एक खूबसूरत हवेलियां भी बनवाई थीं। करीब सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी इन हवेलियों की दीवारों, मेहराबों, खंभों पर बने भित्ति-चित्रों की खूबसूरती हर किसी का मन् मोह लेती है। इन चित्रों में रामायण, महाभारत और कृष्ण-लीला के प्रसंग बहुत बारीकी से चित्रित किए गए हैं। कुछ हवेलियों में राजस्थानी लोक कथाओं, पशु-पक्षियों, मिथकों, धार्मिक रीति-रिवाजों, आधुनिक रेल, जहाज, मोटर आदि का चित्रण रंगों के माध्यम से किया गया है।

होड़ में हुईं आलीशान: कहते हैं कि हवेलियां जिस दौर में तैयार हुईं, उस दौरान यहां आपस में प्रतिस्पर्धा थी कि किसकी हवेली कितनी शानदार होगी। कलाप्रेमी सेठों के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। अत: अपनी हवेलियों के सौंदर्यीकरण में वे कोई कसर नहीं रखना चाहते थे। ऐसा माना जाता है कि मंडावा पुराने सिल्क रूट पर पड़ने वाला मुख्य व्यापारिक केंद्र था, इसलिए यहां के व्यापारी खूब फलेफूले। कालांतर में उनके पास इतना पैसा आ गया कि उन्हें इस छोटे से कस्बे में रहना अप्रासंगिक लगने लगा और वे मुंबई, दिल्ली, सूरत, कोलकाता जैसे बड़े व्यापारिक नगरों की ओर चले गए। अब इन हवेलियों के मालिक किसी मांगलिक अवसर पर अपने कुलदेवता की पूजा-अर्चना करने हवेलियों में लौटते हैं, बाकी समय ये हवेलियां लगभग वीरान रहती हैं।

ये हैं कुछ मशहूर हवेलियां
हनुमान प्रसाद गोयनका हवेली: कहते हैं इस हवेली का संबंध प्रसिद्ध कारोबारी गोयनका घराने से है। इसमें भगवान विष्णु का मंदिर भी है। हवेली की चित्रकारी और नक्काशी का काम देखने लायक है। बाहर से देखकर आप इसकी गहराई की थाह नहीं लगा सकते। जब आप हवेली में प्रवेश करते हैं तो यह आपके सामने
किसी अनूठी किताब की तरह एक-एक करके खुलती चली जाती है।
गुलाब राय लाडिया हवेली: इसकी संरचना इतनी विशाल है कि इसकी छत से पूरा मंडावा नजर आता है। मंडावा में मोर बहुतायत में हैं।मंडावा में मोर बहुतायत में हैं। इन छतों पर टहलते हुए नाचते मोरों को निहारना आंखों को बड़ा सुकून देता है।

चोखानी डबल हवेली: यह हवेली स्थानीय चोखानी भाइयों ने अपने रहने के लिए 19वीं शताब्दी में बड़े दिल से बनवाई थी। यह हवेली बहुत से आधुनिक रंग समेटे हुए है। यह मंडावा के वार्ड नंबर 5 में पड़ती है।
बिंसिधर नवातिया हवेली: कहते हैं वर्ष 1920 में बनकर तैयार हुई यह हवेली उस समय की एक आधुनिक हवेली थी। इसे बनवाने वाले यूरोपीय वास्तुकला के कितने बड़े प्रेमी थे, इस बात का अंदाजा इस हवेली की वास्तुकला में प्रयोग में लाए गए विदेशी पैटर्न और नमूनों को देखकर लगता है। यहां इन बेल-बूटों के बीच कार चलाती हुई महिला और हवाई जहाज उड़ाते राइट ब्रदर्स की तस्वीरों को देखने लोग दूर-दूर से आते हैं।

मुरमुरिया हवेली : यह हवेली वर्ष 1930 के आसपास बनी थी। इस हवेली की दीवारों पर बनी फ्रेस्को आर्ट उस समय को दर्शाती है, जब भारत में रेलगाड़ी आई थी। इस हवेली में घोड़े पर तिरंगा लिए पंडित नेहरू की खूबसूरत पेंटिंग भी बनी हुई है। एक तरह से ये हवेलियां अपने समय के समाज से हमें मिलवाती हैं। मुरमुरिया हवेली से थोड़ी ही दूर स्थित है हरलालकर की बावड़ी। बड़े-से चबूतरे पर बनी मीनारें और गुंबद इस संरचना को आकर्षक बनाते हैं। इस बावड़ी का निर्माण सेठ हरलालकर ने 19वीं शताब्दी में यहां के लोगों की पानी की आपूर्ति के लिए करवाया था।
लक्ष्मी नारायण लडिया हवेली : कहते हैं यह हवेली यहां की सबसे सुंदर हवेली है। इसकी दीवारों पर कृष्णलीला, रामायण और महाभारत के प्रसंग बहुत खूबसूरती से उकेरे गए हैं। इसे देखने के लिए थोड़ा समय निकाल कर जाएं, क्योंकि यहां की खूबसूरत चित्रकारी को देखकर आप इसमें खो जाएंगे।

रानी सती माता का मंदिर
झुंझुनू जिले में चौबारी मंडी के पास रानी सती माता का मंदिर है। इसमें 13वीं से 17वीं शताब्दी के बीच सती हुई स्त्रियों के छोटे-छोटे मंदिर बनाए गए हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि यहां हर मुराद पूरी होती है। इस मंदिर का निर्माण अमीर सेठों द्वारा करवाया गया, जबकि निर्माण कार्य को स्थानीय मुस्लिम कारीगरों ने अंजाम दिया।

ढोले के ठंडे मकान और झुप्पे
एक तरफ जहां मंडावा में सेठ आलीशान हवेलियां बनवाते थे, वहीं यहां के ग्रामीण राजस्थान की भीषण गर्मी से बचने के लिए देसी नुस्खे अपनाकर अपने घर बनवाते थे। यहां हर परिवार में चूने की चक्की हुआ करती थी। ईंटों की चुनाई में सीमेंट की जगह चूने (कलई) को रात भर भिगोकर रखा जाता था, फिर उसमें ईंट और उड़द की दाल मिलाई जाती थी। इसके बाद दो दिन तक चूने को बैलों से खींची जाने वाली चक्की में पीसा जाता था। चूने के मसाले से बनी दीवारें पत्थर की तरह मजबूत हो जाती थीं। चूने से बने होने कारण घर अंदर से ठंडे रहते थे। बाहर-भीतर के तापमान में 10 से 15 डिग्री का फर्क होता था। इन मकानों की छतें ऊंची और गार्डर व शहतीर के बिना अर्ध-गोलाकार गुंबद जैसी होती थीं, जिनके ऊपर सरकंडे के छप्पर डाले जाते थे। इनकी वास्तुकला का अध्ययन करने देश-विदेश से छात्र आते हैं। स्थानीय भाषा में इन मकानों को ‘ढोले’ और ‘झुप्पे’ कहा जाता है।
जय श्री नृसिंह नारायण ||जय श्री सेठ ||विजई सेठ समाज

लेख साभार: श्री नरसिंह सेना 

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