NISHI GUPTA - UP PCSJ TOPPER - 2023
प्रिय मित्रो यह चिटठा हमारे महान वैश्य समाज के बारे में है। इसमें विभिन्न वैश्य जातियों के बारे में बताया गया हैं, उनके इतिहास व उत्पत्ति का वर्णन किया गया हैं। आपके क्षेत्र में जो वैश्य जातिया हैं, कृपया उनकी जानकारी भेजे, उस जानकारी को हम प्रकाशित करेंगे।
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Thursday, August 31, 2023
Thursday, August 17, 2023
SHREE MAHAVEER JI - श्री महावीर जी : दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र जहां विराजे हैं भगवान श्री महावीर
SHREE MAHAVEER JI - श्री महावीर जी : दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र जहां विराजे हैं भगवान श्री महावीर
संपूर्ण भारत में जैन धर्म के पवित्र स्थानों में से एक मंदिर राजस्थान में 'श्री महावीर जी' नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर श्री भगवान महावीर स्वामी का भव्य विशाल मंदिर है। यह दिगंबर जैन धर्मावलंबियों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। गंभीर नदी के तट पर स्थित इस मंदिर में 24वें तीर्थंकर श्री वर्धमान महावीर जी की मूर्ति विराजित है।
इस मंदिर के निर्माण के पीछे पवित्र कथा है- कोई 400 साल पहले की बात है। एक गाय अपने घर से प्रतिदिन सुबह घास चरने के लिए निकलती थी और शाम को घर लौट आती थी। कुछ दिन बाद जब गाय घर लौटती थी तो उसके थन में दूध नहीं होता था। इससे परेशान होकर एक दिन उसके मालिक चर्मकार ने सुबह गाय का पीछा किया और पाया कि एक विशेष स्थान पर वह गाय अपना दूध गिरा देती थी। यह चमत्कार देखने के बाद चर्मकार ने इस टीले की खुदाई की... खुदाई में श्री महावीर भगवान की प्राचीन पाषाण प्रतिमा प्रकट हुई जिसे पाकर वह बेहद आनंदित हुआ।
भगवान के इस अतिशय उद्भव से प्रभावित होकर बसवा निवासी अमरचंद बिलाला ने यहां एक सुंदर मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर प्राचीन और आधुनिक जैन वास्तुकला का अनुपम समागम है, जो प्राचीन जैन कला शैली के बने मंदिरों से अलग है। यह मंदिर मूल रूप से सफेद और लाल पत्थरों से बना है जिसके चारों ओर छत्रियां बनी हुई हैं।
इस विशाल मंदिर के गगनचुंबी धवल शिखर को स्वर्ण कलशों से सजाया गया है। इन स्वर्ण कलशों पर फहराती जैन धर्म की ध्वजाएं सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र्य का संदेश दे रही हैं। मंदिर में जैन तीर्थंकरों की कई भव्य मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। इसके साथ ही मंदिर की दीवारों पर स्वर्ण पच्चीकारी का काम किया गया है, जो मंदिर के स्वरूप को बेहद कलात्मक रूप देता है। मंदिर के सामने सफेद संगमरमर से भव्य ऊंचा मानस्तंभ बनाया गया है जिसमें श्री महावीर जी की मूर्ति स्थापित की गई है।
जैनम जयति शासनम
SABHAR: वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)
SANGHI JI KA MANDIR SANGANER - संघी जी का मन्दिर
#SANGHI JI KA MANDIR SANGANER - संघी जी का मन्दिर
#SANGHI JI KA MANDIR SANGANER |
जय जिनेन्द्र बंधुओं, आज की भाववन्दना में चलते हैं, ऐसे मन्दिरजी में जो बना तो सात मंजिला है, पर केवल दो ही तल के दर्शन हो सकते हैं, बाकी के 5 तल भूगर्भ में यक्षों द्वारा रक्षित हैं ।
आइये दर्शन करते हैं, इस अति रहस्यमयी व अतिशयवान तीर्थ के
यह मंदिर बहुत प्राचीन है, मन्दिर का निर्माण कब हुआ इसका सही आकलन नहीं किया जा सकता, परन्तु विद्वानों के अनुसार मन्दिर का निर्माण आठवी सदी में हुआ था । मन्दिर के एक द्वार पर सम्वत् 1011 अंकित किया हुआ है ।
मन्दिर में मूल प्रतिमा आदिनाथ भगवान की है तथा इस प्रतिमा के आगे अन्य प्रतिमाओं की वेदी बनी हुई है ।
मन्दिर जी में दो गुफाऐं है, जिन्हें वर्तमान में तलघर में बदल दिया गया है। प्रथम तल पर अतिप्राचीन प्रतिमाएं विराजमान है तथा द्धितीय तल पर चौबीसी का निर्माण किया हुआ है। चौबीसी पर बडे शिखर बने हुये है । द्धितीय तल पर पाण्डुशिला का निर्माण किया हुआ है । मन्दिर जी की बाहरी दीवार पर भक्तामर स्त्रोत 48 श्लोको के शिलालेख बनाये गये है ।
मान्यता है कि मन्दिर जी कुल 7 मंजिल का बना हुआ है परन्तु अभी वर्तमान में केवल 2 ही मंजिल के ही दर्शन होते है ।
मन्दिरजी के अन्दर की दीवार पर शिलालेख है, जिस पर मन्दिर जी के इतिहास के बारें मे लिखा गया है । लोकमान्यता के अनुसार शिलालेख के पीछे एक द्धार है जिसके अन्दर से मन्दिरजी में जाया जा सकता है ।
मान्यता के अनुसार मन्दिर के तलघर में यक्षदेव द्धारा रक्षित जिन चैत्यालय हैं, जिसमें केवल बालयती तपस्वी साधु ही प्रवेश कर सकते है। तलघर में स्थित जिनबिम्बों को जनता के दर्शनार्थ आचार्य श्री शान्ति सागर जी महाराज ने सन् 1933 में, आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने सन् 1971 में आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज ने सन् 1994 तथा मुनि श्री सुधासागर जी महारज सन् 1999 में लाये थे । जिन्हें समय पर पुन: तलघर में रखकर गया और तलघर के रास्ते को बन्द कर दिया गया ।
वर्ष 2017 में, पुनः जैन मुनि सुधा सागर महाराज जी - सांगानेर के ढाई सौ साल पुराने जैन मंदिर की गुफा से नागराज के बीच जाकर अलौकिक जिन बिंब प्रतिमाओं को अभिषेक के लिए निकाल कर लाए थे ।
मुनि श्री 18 साल बाद ये प्रतिमाएं निकाल कर लाएं थे । जिनमें 98 जिनबिंब और ताम्र यंत्र मिले थे,
मुनि सुधासागर महाराज तलघर में से यक्ष रक्षित जिनालय को निकालने के लिए सुबह 6:30 बजे मंदिर के तलघर के द्वार पर पहुंचे थे। उन्होंने सर्वप्रथम प्रार्थना की। फिर भूगर्भ में उतरे। उन्होंने वहां आराधना कर संकल्पबद्ध होकर 25 जून तक के लिए यक्ष-रक्षित जिन प्रतिमाओं को बाहर लाने की विधिपूर्ण की।
मुनिश्री ने गुफा का रहस्य बताते हुए कहा कि वहां पर आक्सीजन की बहुत कमी है। दल-दल भी पिछली बार की अपेक्षा अधिक मिला था। गुफा में जिस ओर पिछली बार उन्हें नागराज मिले थे, उस ओर वह नहीं गए थे । उन्होंने कहा, हमारी भी मर्यादा है। इस बार मूर्तियों के अलावा वहां मुझे बहुत सारे प्राचीन ताम्र यंत्र मिले हैं। इनके पढ़ने के बाद और रहस्यों के बारे में पता चलेगा।
मन्दिर जी में आवास, भोजनालय की सशुल्क व्यवस्था है तथा मन्दिर जी प्रांगण में ऋषभ देव ग्रंथमाला भी है, जैन धर्म से सम्बन्धित पुस्तकें व अन्य धार्मिक चिन्ह आदि लिए जा सकते है।
क्षेत्र में आवास व भोजन की व्यवस्था है ।
मन्दिर में दर्शन का समय:
मन्दिर जी के दर्शन सुबह 5 बजे से 9 बजे तक
कैसे पहुंचें
सड़क: बस स्टेण्ड जयपुर 15 किमी, सांगानेर 2 किमी
रेलवे स्टेशन: जयपुर 16 किमी, सांगानेर 200 मीटर
एक बार इस आतिशय क्षेत्र के दर्शन लाभ अवश्य लेवे
जैनम जयति शासनम
SABHAR : वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)
TIZARA JAIN MANDIR - तिजारा जैन मंदिर
#TIZARA JAIN MANDIR - तिजारा जैन मंदिर
#TIZARA JAIN MANDIR ALWAR |
तिजारा जैन मंदिर राजस्थान के अलवर जिले में स्थित एक प्रमुख जैन मंदिर है। मंदिर अलवर से ५५,दिल्ली से ११० और मेरठ से १८२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह एक "अतिशय क्षेत्र" है। यह मंदिर वर्तमान अवसर्पिणी काल के आठवें तीर्थंकर, चंद्रप्रभु स्वामी को समर्पित है।
१६ अगस्त १९५६ को सफ़ेद रंग की चंद्रप्रभु भगवान की एक प्रतिमा भूगर्भ से प्राप्त हुई थी। यहाँ स्थित एक टीले से यह मूर्ति निकलने के बाद ऐसा विश्वास हो गया था की यह एक "देहरा" रहा होगा जहाँ जैन मूर्तियों की पूजा होती होगी। मूर्ति मिलने के बाद मंदिर का निर्माण कराया गया था जिसके पश्चात यह फिर से एक प्रमुख जैन तीर्थ बन गया है।
मंदिर में मुख्य वेदी चन्द्रप्रभ भगवान की है। प्रतिमा की ऊंचाई १५ इंच है। प्रतिमा पर अंकित उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि प्रतिमा प्रथम बार विशाख शुक्ल १५५४ के तीसरे दिन स्थापित की गयी थी।
जैनम जयति शासनम
वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल)
LAL JAIN AGRAWAL MANDIR - DELHI - लाल मंदिर
# LAL JAIN AGRAWAL MANDIR - DELHI - लाल मंदिर
#LAL JAIN AGARWAL MANDIR |
"भारत के सबसे प्राचीन जैन मंदिरों में से एक दिगंबर लाल जैन मंदिर का निर्माण अग्रवालों ने करवाया था"
भारत में सबसे पुराने और सबसे प्रसिद्ध जैन मंदिर में से एक श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर, चाँदनी चौक, दिल्ली में है. यह चांदनी चौक इलाके में ऐतिहासिक लाल किले के पार है. इस मंदिर के पीछे एक दूसरी इमारत में एक एवियन पशु चिकित्सा अस्पताल के लिए जाना जाता है. यह जैन पक्षी अस्पताल है.
श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर लोकप्रिय "लाल मंदिर" के रूप में जाना जाता है क्यूंकि ये लाल बलुआ पत्थर से बना मंदिर है.
एक बार मुगल सम्राट जहांगीर ने कई अग्रवाल जैन सेठ (व्यवसायी) को शहर में बसने के लिए आमंत्रित किया और उन्हें दरीबा गली चांदनी चौक के आसपास की कुछ भूमि दे दी. मुगल सम्राट जहांगीर ने एक जैन मंदिर घर की एक अस्थायी संरचना को निर्माण करने के लिए भी अनुमति दे दी.
जैन समुदाय ने मंदिर के अंदर तीन संगमरमर की मूर्तियों का संवत् 1548 (1491 ईस्वी) में भट्टारक जिनचंद्रा की देखरेख में जिवाराज पापडीवाल द्वारा स्थापित किया. इस मंदिर में मुख्य मूर्ति तीर्थंकर पार्श्व की है.
यह कहा जाता है कि इस मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्तियों को मूल रूप से मुगल सेना के एक जैन अधिकारी के तम्बू में रखी गयी थी. मुगल काल के दौरान एक मंदिर के लिए शिखर के निर्माण की अनुमति नहीं थी.
भारत की आजादी के बाद जब मंदिर बड़े पैमाने पर बनाया गया था तब इस मंदिर में शिखर बनाया गया वरना इस मंदिर में कोई औपचारिक शिखर नहीं था.
1800-1807 में राजा हरसुख राय जो शाही कोषाध्यक्ष था, उसने धर्मपुरा के पड़ोस में चांदनी चौक के दक्षिण में शिखर के साथ एक जैन मंदिर के निर्माण की शाही अनुमति प्राप्त की. राजा हरसुख राय मूल रूप से हिसार के अग्रवाल जैन परिवार से थे। इस प्रकार ये मंदिर महीन नक्काशी के लिए जाना जाता है. अब ये मंदिर "नया मंदिर" के रूप में जाना जाता है.
दिगंबर जैन मंदिर लाल बलुआ पत्थर से बना है और यही वजह है कि यह मंदिर "लाल मंदिर" के नाम से जाना जाता है. मंदिर की दीवारों पर बारीक नक्काशी और सुंदर रंगों का काम हुआ करता है. पेंट का काम और नक्काशियां पारसनाथ भगवान की वेदी के चारों तरफ देखे जा सकते है. वहाँ पर एक विशाल "मानस्तंभ" मंदिर के प्रवेश द्वार के पास रखा गया है.
दिगंबर जैन मंदिर का प्राथमिक भक्ति हॉल पहली मंजिल पर है. इस मंदिर का छोटा सा आंगन खंभों की पंक्ति से घिरा हुआ है. इतना ही नहीं, न केवल जैन धर्म लेकिन अन्य धर्मो के लोग और सामान्य पर्यटक बड़ी संख्या में यहां आते है.
इस जगह के शांतिपूर्ण वातावरण में आगंतुकों के शरीर और मन को शांति मिलती है. मंदिर क्षेत्र का सोने का पानी चढ़ा पेंट का काम बहुत सुंदर लगता है जब मोमबत्ती और लैंप की रोशनी उन पर पड़ती है
राजा शगुनचंद के बेटे सेठ गिरधारी लाल ने हिसार पानीपत में अग्रवाल जैन पंचायत की स्थापना की। इसे आजकल प्राचीन अग्रवाल दिगंबर जैन पंचायत के नाम से जाना जाता है। यह सबसे प्राचीन जैन संघठन है। यह संघठन ही प्राचीन जैन मंदिर नया मंदिर और लाल मंदिर का संचालन करता है।
SABHAR: वास्तुगुरू महेन्द्र जैन (कासलीवाल) FACEBOOK WALL
Tuesday, August 15, 2023
VANIYA KUL KSHATRIYA VAISHYA - .वानियाकुल_क्षत्रिय_(तमिल_तैलिक वैश्य वंशीय)
#VANIYA KUL KSHATRIYA VAISHYA - .वानियाकुल_क्षत्रिय_(तमिल_तैलिक वैश्य वंशीय)
#कुलरत्न#
#सम्राट राजेन्द्र चोल प्रथम (1014 - 1044ई.)
#(1) 36 लाख वर्ग किमी का साम्राज्य ,
#(2) 10 लाख सेना . श्रीरामचंद्र व सम्राट अशोक के बाद सबसे बड़ा भारतीयवंशी शासक था।
#(3) चोलों के भय से महमूद गजनवी कभी दक्षिण भारत नहीं आया ।
#(4) हर उगते सूरज के साथ इनके साम्राज्य का विस्तार होता था।
#(5) चौल वंश के 9वें राजा राजेन्द्र चोल सबसे महान गिने जाते है क्योंकि उन्होंने चौल साम्राज्य का विस्तार ना सिर्फ भारत में किया अपितु इसे श्रीलंका समेत मलेशिया, बर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, सिंगापुर और मालदीप तक फैलाया।
#(6) हिन्दु धर्म को चोलों ने ही विदेशों में फैलाया और बौध्दों के प्रभाव को कम किया ।
#(7) राजेन्द्र प्रथम (1014-1044ई.) राजराज प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी 1014 ई. में चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठा।
#( अपने विजय अभियान के प्रारम्भ में उसने पश्चिमी चालुक्यों,पाण्ड्यों एवं चेरों को पराजित किया।
#(9) इसके बाद लगभग 1017 ई. में सिंहल (श्रीलंका) राज्य के विरुद्ध अभियान में उसने वहां के शासक महेन्द्र पंचम को परास्त कर सम्पूर्ण सिंहल राज्य को अपने अधिकार में कर लिया।
#(10) सिंहली नरेश महेन्द्र पंचम को चोल राज्य में बंदी के रूप में रखा गया। यही पर 1029 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
#(11) सिंहल विजय के बाद राजेन्द्र चोल ने उत्तर पूर्वी भारतीय प्रदेशों को जीतने के लिए विशाल हस्ति सेना का इस्तेमाल किया।
#(12) राजेन्द्र प्रथम के सामरिक अभियानों का महत्त्वपूर्ण कारनामा था- उसकी सेनाओं का गंगा नदीपार कर कलिंग एवं बंगाल तक पहुंच जाना।
#(13) कलिंग में चोल सेनाओं ने पूर्वी गंग शासक मधुकामानव को पराजित किया। सम्भवतः इस अभियान का नेतृत्व 1022 ई. में विक्रम चोल द्वारा किया गया।
#(14) गंगा घाटी के अभियान की सफलता पर राजेन्द्र प्रथम ने 'गंगैकोण्डचोल' की उपाधि धारण की तथा इस विजय की स्मृति में कावेरी तट के निकट 'गंगैकोण्डचोल' नामक नई राजधानी का निर्माण करवाया।
#(14) उसने सिंचाई हेतु चोलगंगम नामक एक बड़े तालाब का भी निर्माण करवाया।
#(15) राजेन्द्र प्रथम ने अरब सागर स्थित सदिमन्तीक नामक द्वीप पर भी अपना अधिकार स्थापित किया। चोल शासक द्वारा यह पश्चिम का सर्वप्रथम अभियान था।
#(16) श्रीलंका को विजित कर राजेन्द्र ने पाण्ड्य तथा चेरों को परास्त किया।
#(17) इन राज्यों पर अधिकार करने के पश्चात् राजेन्द्र चोल ने अपने पुत्र राजाधिराज प्रथम को पाण्ड्य प्रदेश का वायसराय (महामण्डलेश्वर) नियुक्त किया तथा उसे चोल पाण्ड्य की उपाधि दी।
#(17) राजेन्द्र प्रथम की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विजय 1025 ई. कडारम के श्रीविजय साम्राज्य के विरुद्ध थी।
#(18) राजेन्द्र प्रथम द्वारा बंगाल पर आक्रमण निश्चित रूप् से तमिल प्रदेश द्वारा प्रथम सैनिक अभियान था।
#(19) राजेन्द्र प्रथम ने श्री विजय शासक विजयोत्तुंगवर्मन को पराजित कर जावा,सुमात्रा एवं मलया प्रायद्वीप पर अधिकार कर लिया।
#(20) उसने 'गंगैकोण्डचोल', 'वीर राजेन्द्र', 'मुडिगोंडचोल' आदि उपाधियाँ धारण की थीं।
#(21) महान विद्याप्रेमी होने के कारण ही उसने पंडित चोल की उपाधि ग्रहण की। उसने दो बार अपना दूतमंडल भी चीन में भेजा था।
#(22) उत्तरी भारत की विजय यात्रा में जिन राज्यों को राजेन्द्र ने आक्रान्त किया, उनमें कलिंग, दक्षिण कोशल, दण्डभुक्ति (बालासोर और मिदनापुर) राढ, पूर्वी बंगाल और गौढ़ के नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है।
#(23) उत्तर-पूर्वी भारत में इस समय पालवंशी राजा महीपाल का शासन था। राजेन्द्र ने उसे पराजित किया, और गंगा नदी के तट पर पहुँचकर 'गगैकोंण्ड' की उपाधि धारण की।
इस अभियान का कारण अभिलेखों के अनुसार गंगाजल प्राप्त करना था। यह भी ज्ञात होता है कि पराजित राजाओं को यह जल अपने सिरों पर ढोना पड़ा था।
#(24) उत्तरी भारत में स्थायी रूप से शासन करने का प्रयास राजेन्द्र चोल ने नहीं किया।
#(25) अपने साम्राज्य का विस्तार कर चोल राज्य ने समुद्र पार भी अनेक आक्रमण किए, और पेगू (बरमा) के राज्य को जीत लिया।
#(26) निःसन्देह, राजेन्द्र प्रथम अनुपम वीर और विजेता था। उसकी शक्ति केवल स्थल में ही प्रकट नहीं हुई, नौ-सेना द्वारा उसने समुद्र पार भी विजय यात्राएँ कीं।
#(27) उसके बाद के चोलों का शासन काल 1070 A D से 1279 A D तक रहा | इस समय तक, चोल साम्राज्य ने शिखर को प्राप्त किया और विश्व का सबसे शक्तिशाली देश बन गया |
#(28) चोलाओं ने दक्षिण पूर्व एशियन देश पर कब्ज़ा कर लिया और उस समय इनके पास विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना व जलसेना था।
#(29) संघ की द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कार्यकारिणी मंडल (एबीकेएम) की बैठक में सम्राट राजेंद्र चोल के राज्याभिषेक (1014 -2014) की 1,000 वीं वर्षगांठ पर एक साल तक जश्न मनाने की घोषणा की गई थी और मनाया भी गया।
#(30) बीजेपी की तमिलनाडु यूनिट की प्रेसिडेंट तमिलिसई सौंदर्याराजन के अनुसार राजेंद्र चोल को चुनने का आधार उनका तमिलों में वीर योद्धा का दर्जा होना ही नहीं है, जिन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया के ज्यादातर हिस्से को जीता था, बल्कि यह राज्य की विभाजनकारी राजनीति से ऊपर उठकर धार्मिक सोच रखने वाले लोगों की बात करना है। उन्होंने कहा, 'वह केवल तमिल राजा और राज्य का गौरव नहीं थे, उनका जश्न मनाना द्रविड़ राजनीति के इस चलन के खिलाफ जाना है कि केवल द्रविड़ सोच वाले लोगों को महत्व देना चाहिए और धार्मिक सोच रखने वालों सहित अन्य लोगों को पीछे धकेल देना चाहिए।'
#(31) भारतीय नौसेना ने प्राचीन राजा राजेन्द्र चोल के राज्याभिषेक की 1000वीं वर्षगांठ मनाने की घोषणा 3 नवंबर 2014 को की थी ।
तमिलनाडु के राज्यपाल के रोसैय्या ने चेन्नई पोर्ट ट्रस्ट के प्रांगण से नागापट्टनम के लिए एक जहाज को रवाना किया. यह चोल के नौसेना की उपलब्धियों का प्रतीक होगा. नागापट्टनम को राजेंद्र चोल के नौसेना के एक नौसैनिक अड्डों में से माना जाता रहा है.
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विशाल जीवंत चोल मंदिर:
1.तंजावुर स्थित बृहदीश्वर मंदिर - राजाराज चोल ने बृहदेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया। विश्व का प्रथम ग्रेनाइट मंदिर तमिलनाडु के तंजौर में बृहदेश्वर मंदिर है। इस मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के 80 टन के टुकड़े से बनें हैं यह भव्य मंदिर राजा राज चोल के राज्य के दौरान केवल 5 वर्ष की अवधि में (1004 ए डी और 1009 ए डी के दौरान) निर्मित किया गया था।
2.गंगईकोंडाचोलेश्वरम मंदिर .
3.दारासुरम स्थित ऐरावतेश्वर मंदिर,
तमिलनाडु
4. ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार पुरी के वर्तमान जगन्नाथ मंदिर का निर्माण वीर राजेन्द्र चोल के पौत्र और कङ्क्षलग के शासक अनंतवर्मन चोड्गंग (1078-1148) ने करवाया था। 1174 में राजा आनंग भीम देव ने इस मंदिर का विस्तार किया जिसमें 14 वर्ष लगे।
यह 4लाख वर्ग फीट में फैला हैं।
TAILLIK VAISHYA IN HISTORY
#TAILLIK VAISHYA IN HISTORY
इतिहास के पन्नों में तैलीक(साहू) वंश के विकास और संघर्ष की गाथा
विद्वान अभी तक यह मानते हैं कि सिंधु सभ्यता काल जिसे पूर्व वैदिक काल भी कहा जाता है, सप्त सैंधव प्रदेश (पुराना पंजाब, जम्मू कश्मीर एवं अफगानिस्तान का क्षेत्र) में, जो मुनष्य थे वे त्वचा के रंग के आधार पर दो वर्ग में विभाजित थे । श्वेत रंग वाले जो घाटी के विजेता थे ‘आर्य” और काले रंग वाले जो पराजित हुये थे ‘दास’ कहलाये। विद्वान आर्य का अर्थ श्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि वे युद्ध के विजेता थे। ये मूलत: पशु पालक ही थे। कालांतर में इन दोनों वर्गों में रक्त सम्मिश्रण भी हुआ और वृहत्तर समाज वर्गों में बंटते गया, जो संघर्ष की जीविविषा है। जिन्होंने पराजय स्वीकार कर लिये और विजेता जाति की रीति-नीति अपना लिये वे आर्यो के चतुर्वर्णीय व्यवस्था में शामिल हो गये। जिस पराजित समूह ने आर्यों की व्यवस्था स्वीकार नहीं किये वे दास, दस्यु, दैत्य, असुर, निषाद इत्यादि कहलाये। तब तक जाति नहीं बनी। थी और वर्ण स्थिर नहीं वरन परिवर्तनीय था। धर्म सूत्रों में उल्लेखित तथ्यों के अनुसार ‘अनुलोम विवाह’ से उत्पन्न संताने सात या आठ पीढ़ी बाद अपने मूल वर्ण में वापस लौट सकते थे, किन्तु ‘प्रतिलोम विवाह करने वालों के लिये यह सुविधा नहीं थी। सुविधा क्यों नहीं थी, क्या कारण थे? विचारणीय विषय है ।
महाभारत में तुलाधार नामक तत्वादर्शी का उल्लेख मिलता है जो तेल के व्यवसायी थे किन्तु इन्हें तेली न कहकर ‘वैश्य’ कहा गया, अर्थात तब तक (ईसा पूर्व उरी-4थी सदी) तेली जाति नहीं बनी थी । वाल्मिकी के रामकथा में भी तेली जाति का कोई उल्लेख नहीं है तथा अन्य वैदिक साहित्यों में भी तेल पेरने वाले तेली जाति का प्रत्यक्ष प्रसंग नहीं मिलता है। पद्म पुराण के उत्तरखण्ड में विष्णु गुप्त नामक तेल व्यापारी की विद्वता का उल्लेख है।
आर्य सभ्यता के चतुर्वर्णीय व्यवस्था में ब्राम्हण, और क्षत्रिय के बीच श्रेष्ठता के लिये स्पर्धा थी । वैश्य के ऊपर कृषि, पशुपालन एवं व्यापार अर्थात कृषि उत्पाद का वितरण का दायित्व था, इन पर ”यज्ञ एवं दान’ की अनिवार्यता भी लाद दी गई। जिससे समाज में अशांति थी, तथा भगवान महावीर आये, जो क्षत्रिय थे, जिन्होंने यज्ञों में होने वाले असंख्य पशुओं की हत्या का विरोध किया, साथ ही जबरदस्ती दान की व्यवस्था का विरोध कर ”अपरिगृह” का सिद्धांत प्रतिपादित किया। इसके बाद शाक्य मुनि गौतम बुद्ध हुये, जिन्होंने भगवान महावीर के सिद्धांतों को आगे बढ़ाते हुये, वर्णगत/जातिगत लिंगगत भेदभाव का विरोध किया। गौतम बुद्ध भी क्षत्रिय ही थे और उन्हें, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र वर्ण का सहज समर्थन मिला। इसी दौरान सिंधु क्षेत्र में यवनों का आक्रमण हुआ और अंत में चंद्रगुप्त मौर्य, मगध के शासक बने। इनके वंशज अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया, जिसमें एक लाख मनुष्य मारे गये तथा डेढ़ लाख मनुष्य घायल हुये। युद्ध के वीभत्स दृश्य को देखकर सम्राट अशोक का परिवर्तन हुआ और वे बुद्ध धर्म के अनुयायी बन गये। कुछ जैन विद्वान मानते हैं कि सम्राट अशोक जीवन के अंतिम काल मैं जैन धर्म के अनुयायी हो गये थे। महावीर एवं गौतम बुद्ध के कारण प्रचलित चतुर्वर्णीय व्यवस्था की श्रेणी बद्धता में परिवर्तन हुआ। नवीन व्यवस्था में ब्राम्हण के स्थान पर क्षत्रिय श्रेष्ठतम् हो गये और ब्राम्हण, वैश्य एवं शुद्र समान स्तर पर आ गये । फलस्वरूप वर्ण में परिवर्तन तीव्र हो गया। ईसा के 175 वर्ष पूर्व मगध के अंतिम मौर्य राजा वृहदरथ को मारकर, उसी के सेनापति पुष्यमित्र शुंग राजा बन गये जो ब्राम्हण थे । माना जाता है कि पुष्य मित्र शुंग के काल में ही किसी पंडित ने मनुस्मृति की रचना की थी। शुग वंश का 150 वर्ष में ही पतन हो जाने से मनुस्मृति का प्रभाव मगध तक ही रहा ।
ईसा के प्रथम सदी के प्राप्त शिला लेखों में तेलियों के श्रेणियों/संघों (गिल्ड्स) का उल्लेख मिलता है। महान गुप्त वंष का उदय हुआ, जिसने लगभग 500 वर्षों तक संपूर्ण भारत को अधिपत्य में रखा। इतिहास कारों ने गुप्त वंश को वैश्य वर्ण का माना है। राजा समुद्रगुप्त एवं हर्षवर्धन के काल को साहित्य एवं कला के विकास के लिए स्वर्णिम युग कहा जाता है। गुप्त काल में पुराणों एवं स्मृतियों की रचना प्रारंभ हुई। गुप्त वंश के राजा बालादित्य गुप्त के काल में नालंदा विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर भव्य स्तूप का निर्माण हुआ। चीनी यात्री व्हेनसांग ने स्तूप के निर्माता बालादित्य को तेलाधक वैश्य वंश का बताया है। इतिहासकार ओमेली एवं जेम्स ने गुप्त वंष को तेली वैश्य होने का संकेत किया है। इसी के आधार पर उत्तर भारत का तेली वैश्य समाज ‘गुप्त वंश” मानते हुये अपने भगवा ध्वज़ में गुप्तों के राज चिन्ह गरूढ़ को स्थापित कर लिया। गुप्त काल में सनातन, बौद्ध एवं जैन धर्मावलंबियों को समान दर्जा प्राप्त था। इसी काल में 05 वीं सदी में अंहिसा पर अधिक जोर देते हुये, हल चलाने तथा तेल पेरने को हिंसक कार्यवाही माना जाने लगा, जिससे वैश्य वर्ण में विभाजन प्रारंभ हुआ। हल चलाकर तिलहन उत्पन्न करने वाले तेली जाति को स्मृतिकारों ने वैश्य कहा। इतना ही नहीं, तिलहन के दाने में जीव होने तथा तेल पेरने को भी हिंसक कार्यवाही कहा गया। गुजरात, महाराष्ट्र व राजस्थान का क्षेत्र जहां संर्वाधिक तेल उत्पादन होता था, घांची वैश्य के नाम से जाना जाता था, हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी घांची वैश्य मोड़ तेली हैं। जिन्होंने केवल तेल का व्यवसाय किया वे तेली वैश्य, तथा जिन्होंने सुगंधित तेल का व्यापार किया वे मोढ़ बनिया कहलाये। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पूर्वज मोढ़ बनिया थे। तेली जाति की उत्पत्ति का वर्णन विष्णुधर्म सूत्र, वैखानस स्मार्तसूत्र, शंख एवं सुमंतु में है। एकादश वैश्य, मूल वैश्य- पशुपालक/तैलिक कपासमारा/ पुष्पकार स्वर्णकार/ कुभंकार/ कसेर, तमेर/ बढ़ई। लोहार/ दर्जी/चर्मकार। ये मूलतः कार्याधारित वैश्य हैं। जिनमें तैलिक तैलकम’ कालांतर में आर्थिक दृष्टि से संपन्न हुये। इस तारतम्य में यह कथन अधिक उपयुक्त होगा। कि तैल एवं तेल व्यवसायी के असाधारण महत्व को देखकर उच्च वर्गों ने अव्यवहारिक कुटनीति अपनाई और तैलिक समाज को परेशान एवं नुकसान पहुंचायी। फिर भी तैलिक समाज ने अपने अस्तित्व रक्षार्थ सहन किया और अवसर मिलने पर अपना सामर्थ भी प्रदर्शित किया।
वास्तव में 9वीं से 13वीं सदी तक तैलिक समाज संपूर्ण भारत में अपने वाणिज्य व्यापार, धर्मार्थ कार्य, सामाजिक रचनात्मक कार्य के लिए अग्रगण्य रहे हैं। बुंदेल खण्ड, बघेल खण्ड तथ दक्षिण के क्षेत्रों एवं राजस्थान-गुजरात राज्यों में तैलिक समाज विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावशाली रहा। मुगल बादशाह शाहजहां, तेली व्यापारी महुशाह से प्रभावित होकर महूशाह सिक्का चलाने का एकाधिकार दिया। वीर जुझारू अक्का देवी तेलिंगन, छत्रसाल, कवयित्री खगनिया, वीरांगना ताई तेलिन, महारानी स्वर्णमयी, कृण्णगी देवी का उल्लेख सर्वाधिक गौरव की समृति है। चंदबरदाई एवं आल्हाखण्ड में सेनानी घनीराम | (धुनवा तेली) का उल्लेख ”तब धनुवा तेली गरजा, तुमको कोल्हू दिये पेराय’ आदि भी उल्लेखनीय है। महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम | के अभंग भक्ति गीतों को भाषालंकरण संताजी जगनाई तैलिक वंशधर ने किया था। उनकी अभंग गाथा भरणी साहित्य भी धरोहर है।
इस प्रसंग में छत्तीसगढ़ के गौरव की अभिस्वीकृति भी आवश्यक है जहां भक्तिन माता राजिम का सती स्वांग एवं भगवान राजिमलोचन प्रतिमा, सती तेलिन घाटी, माता भानेश्वरी की यशोक्ति के साथ वर्तमान में भी सतत तपस्यारत बाबा सत्यनारायण स्मरणीय है ।
ऐतिहासिक एवं वर्तमान में भी स्थिति प्राय अखिल भारतीय स्थल विशेष का नामांकन समीचीन होगा। काठमांडू (नेपाल) में तैलिक व्यापारी केन्द्र (चेंबर आफ कामर्स) नालंदा (विशाल प्रवेश द्वारा स्थापित) झांसी (कर्मा माता की जन्मभूमि) मथुरा (तेली धनी द्वारा निर्मित रंगनाथ मंदिर) यीडर राजस्थान (दानवीर भामाषाह की जन्मभूमि) ग्वालियर (प्राचीन तेली मंदिर) परना (तेलिया भंडार स्थापित) गोरखपुर (राष्ट्र गुरू गोरखनाथ की कर्मभूमि) कल्याण (संताजी महाराज) कन्नाद (ताई तेलिन की कर्मभूमि) मदुराई (सती कण्णगी की कर्मभूमि) राजिम (माता राजिम का भक्ति क्षेत्र) केशकाल (सती तेलिन घाटी मंदिर) पुरी (माता कर्मा की तपोभूमि) शिरडी आदि । यह भी प्रेक्षणीय है कि, शताधिक वर्ष पहले सन् 1912 में बनारस में अखिल भारतीय तैलिक साहू महासभा का गठन हुआ। इसी तरह सन् 1912 से 1926 तक, धमतरी के गोकुलपुर बगीचा, सिलहट बगीचा, आमदी भाठा में विशाल साहू सम्मेलन संपन्न हुआ। सन् 1975 में अखिल भारतीय स्तर पर सर्व प्रथम आयोजित, सभी समाज के लिए। प्रेरणादायी रचनात्मक संस्कार ‘आदर्शसामूहिक विवाह” महासमुंद के मुनगासेर गांव में संपन्न हुआ। अब तो छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश में ”कन्यादान योजना के अंतर्गत यह शासकीय उपक्रम भी है। दुर्ग से सन् 1960 में प्रकाशित ‘साहू संदेश’ अंचल की प्रथम सामाजिक पत्रिका है वहीं साहू-संपर्क रायपुर से निरंतर प्रकाशित मासिक पत्रिका है । तैलिक जाति, सामाजिक गौरव आदि को एकीकृत करके रूपायित ‘साहू वैश्य जाति का इतिहास’ (लेखक डा. सुखदेव राम सरस) समाज गौरव प्रकाशन द्वारा शताब्दि वर्ष 2013 में प्रकाशित संदर्भ साहित्य है ।
इस तारतम्य में यह बताना अधिक सामयिक होगा कि भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व तक तेली समुदाय की स्थिति रही:
1. वे आर्थिक दृष्टि से प्रभावशाली थे ।
2. राजस्थान, बिहार, बंगाल एवं तमिलनाडू में अधिक समृद्ध थे।
3. शेष भारत, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, केरल, आदि में बड़े जमींदार एवं साहूकारी के कारोबारी थे।
4. वे जहां भी प्रभावी रहे, मंदिर, धर्मशाला, आदि निर्माणकर्ता बने।
5. दक्षिण में व्यापार, उत्तर पूर्व मध्य में राजनीति, पष्चिम में रचनात्मक कार्य में सक्रिय रहे।
भारत में बिहार, बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, राजस्थान, आंध्र एवं केरल में तैलिक आबादी तुलनात्मक रूप से अधिक है, तैलिक जातिजन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अन्यान्य नामों से अभिहित है यथा राजस्थानी क्षेत्र घाणीकला, लाटेचा, राठौर, धांची, पदमशाली, आदि, बिहारबंगाल में शाह, साहा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, म.प्र., ओडिशा में साहू, साव, गुजरात में मोड़, भौदी, दक्षिण प्रांतों में चेट्टी, चेट्टीयार गांडला, महाराष्ट्र में तराने आदि।
सारांश में यह कहा जा सकता है कि, लगभग 1000 वर्ष पूर्व तक तेली समाज वैश्य वर्ण को धारण कर समरस जीवन जी रहे थे। 9वीं-10वीं सदी में गुरु गोरखनाथ हुये, जो चतुवर्णिय व्यवस्था को नहीं मानने वालों को संगठित कर, नया ”नाथ संप्रदाय” स्थापित किये गुरू गोरखनाथ को तेली अपना पूर्वज मानते हैं। 10वीं-11वीं सदी में कलचुरी एवं चालुक्य वंशीय शासक हुये। कलचुरी राजा गांगेयदेव एवं चालुक्य राजा तैलप को तेली समाज अपना पूर्वज मानता है और भक्त कर्मा माता के प्रसंग को इन राजाओं के काल से संबद्ध करता है। 14वीं सदी में अलवर के नमक व्यापारी हेमचंद्र जो धुसर गोत्र के थे, अपने पुरूषार्थ से दिल्ली के शासक बने और मुगल बादशाह अकबर के आक्रमण का सामना किये । राजा हेमचंद्र ने विक्रमादित्य की उपाधि कारण किया था, इसलिए इतिहास इन्हें सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के नाम से स्मरण करता है। 16 वीं सदी में राजपुताना में महाराणा प्रताप के मंत्री एवं श्रेष्ठी भामाशाह हुये जो ओसवाल गोत्र के थे, इन्होंने स्वराज्य के लिये अपनी संपूर्ण संपति को दान कर दिया था। इन्हें ही हम दानवीर भामाशाह’ के नाम से पुण्य स्मरण करते है । 15वीं सदी में धार्मिक भेदभाव एवं उन्माद के बीच संत कबीर का जन्म हुआ । इनके शिष्य धनी धर्मदास उर्फ जुड़ावन साहू बांधवगढ़ के कसोधन गोत्र थे, जिन्होंने अपनी 57 करोड़ की संपत्ति को दान कर, छत्तीसगढ़ के, दामाखेड़ा, कुदुरमाल, कवर्धा, रतनपुर में संत कबीर के गुरू गद्दी की स्थापना किये थे। मुगल काल में तेली समाज में “नाथ संप्रदाय” एवं संत कबीर का व्यापक प्रभाव था, इसलिए संत तुलसी दास जी ने राम चरित मानस में तेली सहित 6 जातियों को अधम अर्थात चतुवर्णिय धर्म को नहीं मानने वाला, कहा है।
यद्यपि अब वर्ण व्यवस्था का राष्ट्रीय जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया है फिर भी भारत वर्ष का तेली समाज, वैश्य के साथ-साथ निर्गुणी संप्रदाय के समरस व्यवस्था का संदेश वाहक बना हुआ है।
By Vikram Sahu Karmasandesh News
TELI VAISHYA RAJVANSH
#TELI VAISHYA RAJVANSH
तैलप तृतीय का पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ (1181-1189 ई) चालुक्य वंश का अन्तिम शासक हुआ । वह पराक्रम से कल्याणी को पुन: जीतने में कामयाब रहा । लेखों में उसे चालुक्याभरण श्रीमतत्रैलोक्यमल्ल भुजबलबीर कहा गया है । सभ्भवत: भुजबलबीर की उपाधि उसने कलचुरियो के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में ही धारण की थी । एक लेख में उसे कलचुरिकाल का उन्मूलन करन वाला (कलचूर्यकाल निर्मूलता)कहा गया है । इस प्रकार सामेश्वर ने चालुक्य वंश की प्रतिष्ठा को फिर स्थापित किया । कुछ समय तक वह अपने साम्राज्य को सुरक्षित बचाये रखा । परन्तु उसके राज्य में चारो ओर विद्रोह हो जाने के कारण स्थिति को संभाल नहीं सका । 1190 ई. के लगभग देवगिरी के यादवों ने परास्त कर चालुक्य राजधानी कल्याणी पर अधिकार कर लिया । होयसल बल्ललाल द्वितीय ने भी चालुक्य सेनापती ब्रह्म को पराजित कर दिया । साम्राज्य के दक्षिण भागों पर होयसलों का अधिकार स्थापित हुआ तथा सोमेर्वर ने भागकर वनवासी में शरण ली । सम्भवत: वहीं रहते हुए उनका प्राणान्त हुआ तथा सोमेश्वर चतुर्थ का पुत्र अपने बचे हुए परिवार के साथ वहां से जान बचाकर भाग निकला तथा वह विन्ध्य क्षेत्र में अपना रहने का ठिकाणा बनाया । चूकि यहां का अधिकांश भाग पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ था जिससे उसको यहां पर रहने में काई असुविधा नहीं हुर्ई । इस तरह 1189 से 1324 ई. तक 111 वर्षे तक तैलप वैश्यों का इतिहास अन्धकारमय रहा ।
यहीं पर सोमेश्वर पंचम को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम धार सिंह था । आगे चल कर धार सिंह पहले खोह (उचेहार जिला सतना) में आपना राज्य स्थापित किया तथा उसके उपरान्त अपनी शक्ति को और विस्तारित कर नरो की गढी (माधवगढ जिला सतना से 7 कि. मी. दक्षिणी पहाडी) में अपना अधिकार कर लिया ।
विन्ध्य भूमि की उर्वरता एवं जलवायु की अनुकुलता ने एकबार पुन: तैंलप वंश को पुनर्जीवित किया । फलत: यही विन्ध्य धरा की गोद में सोमेश्वर पंचम को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जो अत्यन्त कुशाग्र बुद्,ि पौरूषवान एवं अजेय हुआ और वही आगे चलकर विनध्य के ह्रदयस्थल वत्स जनपद में (बघेलखण्ड) में परिब्रजको को पराजित कर नरो, परसमनिया एवं खोह जैसे पर्वती स्थालो में प्रभुत्व स्थपित कर कालान्तर में विस्तृत फलकमें साम्राज्य स्थापित किया । इसके वंशजो ने एक शतक से अधिक समय तक नरों मेंं साम्राज्य किया किन्तु उसके अन्तिम वंशज तैप राजा धार सिंह ने प्रतिहारों को सेना में जगह देकर ही अदूरदर्शिता का वरण किया छरूळी फलस्वरूप महत्वकांक्षी प्रतिहार सैनिकों ने राजा धार सिंह की हात्या उस समय कर दी जिस समय राज्य में राजा के पुत्र का विवाहोत्सव संवत 1381 अक्षय तृतीया को चल रहा था । राजा धार सिंह के कुछ वंशज किसी तरह आपनी जान बचाकर पवहां से रातोरात भाग कर रीवा जिले में आकर बस गये ति आज भी उनके वंशज यहाँ विभिन्न गावों मे पाये जाते है । इस तरहा तेली राजा धारा सिंह की खोह में हत्या कर प्रतिहार सत्ता का उदय हुया । प्रतिहारों के सत्तारूढ होने के कारण पराजित तैलपों के वंशजों को सामाजिक नाना प्रतिबन्धों से अनुशासित किया गया । प्रतिहागरों के द्वारा तैलपों के लिए बनाई गई नीतियों का आगे अनुसरण किया गया जिससे उनकी आर्थिक सामाजिक पतना हुआ ।
TELI VAISHYA KING - TAILAP- DHAR SINGH
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तैलप - तेली राजा धारसिंह
कल्याणी के तैलप द्वितीय द्वारा चलाया गया चालुक्य तेली राजवंश ही तैलप/तैलव तेली राजवंश कहलाता है ।
तैलप तृतीय का पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ (1181-1189 ई) चालुक्य वंश का अन्तिम शासक हुआ । वह पराक्रम से कल्याणी को पुन: जीतने में कामयाब रहा ।लेखों में उसे चालुक्याभरण श्रीमतत्रैलोक्यमल्ल भुजबलबीर कहा गया है । सभ्भवत: भुजबलबीर की उपाधि उसने कलचुरियो के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में ही धारण की थी । एक लेख में उसे कलचुरिकाल का उन्मूलन करन वाला (कलचूर्यकाल निर्मूलता)कहा गया है । इस प्रकार सामेश्वर ने चालुक्य वंश की प्रतिष्ठा को फिर स्थापित किया । कुछ समय तक वह अपने साम्राज्य को सुरक्षित बचाये रखा । परन्तु उसके राज्य में चारो ओर विद्रोह हो जाने के कारण स्थिति को संभाल नहीं सका । 1190 ई. के लगभग देवगिरी के यादवों ने परास्त कर चालुक्य राजधानी कल्याणी पर अधिकार कर लिया । होयसल बल्ललाल द्वितीय ने भी चालुक्य सेनापती ब्रह्म को पराजित कर दिया । साम्राज्य के दक्षिण भागों पर होयसलों का अधिकार स्थापित हुआ तथा
सोमेश्वर चतुर्थ ने भागकर वनवास में शरण ली । सम्भवत: वहीं रहते हुए उनका प्राणान्त हुआ तथा सोमेश्वर चतुर्थ का पुत्र अपने बचे हुए परिवार के साथ वहां से जान बचाकर भाग निकला तथा वह विन्ध्य क्षेत्र में अपना रहने का ठिकाणा बनाया । चूकि यहां का अधिकांश भाग पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ था जिससे उसको यहां पर रहने में काई असुविधा नहीं हुई । इस तरह 1189 से 1324 ई. तक 111 वर्षे तक तैलप क्षत्रियों का इतिहास अन्धकारमय रहा ।
यहीं पर सोमेश्वर पंचम को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम धार सिंह था । आगे चल कर धार सिंह पहले खोह (उचेहार जिला सतना) में आपना राज्य स्थापित किया तथा उसके उपरान्त अपनी शक्ति को और विस्तारित कर नरो की गढी (माधवगढ जिला सतना से 7 कि. मी. दक्षिणी पहाडी) में अपना अधिकार कर लिया ।विन्ध्य भूमि की उर्वरता एवं जलवायु की अनुकुलता ने एकबार पुन: तैंलप वंश को पुनर्जीवित किया । फलत: यही विन्ध्य धरा की गोद में सोमेश्वर पंचम को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जो अत्यन्त कुशाग्र बुद्,ि पौरूषवान एवं अजेय हुआ और वही आगे चलकर विनध्य के ह्रदयस्थल वत्स जनपद में (बघेलखण्ड) में परिब्रजको को पराजित कर नरो, परसमनिया एवं खोह जैसे पर्वती स्थालो में प्रभुत्व स्थपित करकालान्तर में विस्तृत फलकमें साम्राज्य स्थापित किया । इसके वंशजो ने एक शतक से अधिक समय तक नरों में साम्राज्य किया किन्तु उसके अन्तिम वंशज तैप राजा धार सिंह ने राजदेव और उनके सहयोगी प्रतिहारों को सेना में जगह देकर ही अदूरदर्शिता का वरण किया, जिसके फलस्वरूप महत्वकांक्षी कुंठाग्रस्त प्रतिहार सैनिकों ने राजा धार सिंह की हत्या उस समय कर दी जिस समय राज्य में राजा के पुत्र का विवाहोत्सव संवत 1381 अक्षय तृतीया को चल रहा था । राजा धार सिंह के कुछ वंशज किसी तरह आपनी जान बचाकर वहां से रातोरात भाग कर रीवा जिले में आकर बस गये और आज भी उनके वंशज यहाँ विभिन्न गावों मे पाये जाते है । इस तरह तेली राजा धारा सिंह की खोह में हत्या कर प्रतिहार सत्ता का उदय हुया । प्रतिहारों के सत्तारूढ होने के कारण पराजित तैलपों के वंशजों को सामाजिक नाना प्रतिबन्धों से अनुशासित किया गया । प्रतिहारों के द्वारा तैलपों के लिए बनाई गई नीतियों का आगे अनुसरण किया गया जिससे उनकी आर्थिक सामाजिक पतना हुआ । उपरोक्त कथन बडे बुजुर्गो द्वारा अपने पुरखों के द्वारा अनुश्रुतियों से अपने पीढिओ कोअवगत कराते रहे !
कल्याणी के चालुक्य तैलप/तैलव तेली राजवंश की वंशावली-
शासक - शासनकाल
13.तैलप -(973 से 997 ई .)
13.सत्याश्रय -(997 से 1008 ई.)
14.विक्रमादित्य पंचम-(1008 ई.)
15.अच्चण द्वितीय -
16.जयसिंह जगदेकमल्ल-(1015 से 1045 ई.)
17.सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल-(1043 से 1068 ई.)
18.सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल-(1068 से 1070 ई.)
19.विक्रमादित्य षष्ठ -(1070 से 1126 ई.)
20.सोमेश्वर तृतीय-(1126 से 1138 ई.)
21.जगदेकमल्ल द्वितीय-(1138-1151 ई.)
22.तैलप तृतीय -(1151-1156 ई.)
23.सोमेश्वर चतुर्थ -(1181-1189 ई.)
24.सोमेश्वर पंचम -( 1324- )
25.धारसिंह -( -1381)
साभार - साहू समाज रीवा
Monday, August 7, 2023
PALAK MITTAL - A GREAT ACHIEVER
#PALAK MITTAL - A GREAT ACHIEVER
ना IIT, ना IIM... अमेरिकी कंपनी ने प्रयागराज की B.Tech गर्ल को 1 करोड़ की सैलरी थमा दी!
प्रयागराज: अगर किसी स्टूडेंट को करोड़ों की सैलरी ऑफर हुई हो तो पहला ख्याल किस संस्था का आएगा? IIT, IIM या फिर NIT जैसे संस्थानों की साख मजबूत है। ये भारत में हाई क्वालिफाइड स्टूडेंट्स का गढ़ माना जाता है, जो पढ़ाई पूरी होने के बाद मोटी सैलरी पर जॉब में जाते हैं। लेकिन प्रयागराज में ट्रिपल आई टी के नाम से फेमस इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी (IIIT) से बी.टेक. की पढ़ाई करने वाली पलक मित्तल ने तो कमाल ही कर दिया।
|आईआईआईटी इलाहाबाद की बी.टेक. ग्रेजुएट पलक उस समय सु्र्खियों में आ गईं, जब अमेरिका की कंपनी ऐमजॉन ने एक करोड़ की सैलरी पैकेज पर जॉब ऑफर किया है। अभी बेंगलुरू में फोनपे के साथ जुड़ी हुई पलक की लिंक्डइन अकाउंट के अनुसार उन्होंने अगस्त में ऐमजॉन के बर्लिन में स्थित ऑफिस में सॉफ्टवेयर डिवेलपर के तौर पर जॉइन किया है।
क्लाउड प्लेटफॉर्म्स में अनुभव रखने वाली पलक AWS Lambda, AWS S3, AWS Cloudwatch, Typescript, Java, and SQL जैसे प्रोग्रामिंग लैंग्वेज में भी एक्सपर्ट है।
Saturday, August 5, 2023
Friday, August 4, 2023
SATI OF SURYAVANSHI AGRAWAL VANSH - अग्रवाल वंश की सतियो की गौरव गाथा
#SATI OF SURYAVANSHI AGRAWAL VANSH - अग्रवाल वंश की सतियो की गौरव गाथा
साभार: रोहन मुरारका, यश गोयनका, अंशु मोदी, विशेष अग्रवाल
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