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Sunday, September 5, 2021

SHREEMAL VAISHYA SAMAJ - श्रीमाली वैश्य समाज का इतिहास वर्णन

SHREEMAL VAISHYA SAMAJ - श्रीमाली वैश्य समाज का इतिहास वर्णन

स्कन्द पुराण के अनुसार उध्र्वरेता ऋषियों महात्माओं की सेवा के लिए कामधेनु के द्वारा 36000 शिखा सूत्र घारी मनुष्य प्रकट किये गये वे सभी महा बली वैश्य थे उन वैश्यों के लिए श्री लक्ष्मी जी द्वारा श्रीमाल नगर का निर्माण करा कर ब्राह्मणों और वैश्यों को वहाँ बसा दिया गया । वैश्य अपने कर्तव्य, कर्म, वाणिज्य, कृषि, पशु पालन कर ब्राह्मणों की सेवा करते हुए अपने जीवन निर्वाह करने लगे। जो वैश्य दक्षिण भाग बसे वे श्रीमाली कहलाए । श्रीमाल नगर वर्तमान में भिन्नमाल के नाम से सुख्यात है। यह नगर उस समय काफी समृद्धिशाली व व्यापार का केन्द्र था प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्नेन सांग ने ई.स. 641 में इस शहर की समृद्धि का वर्णन यात्रा वृतांतों में किया । काल क्रम से कुदरती आफत, अकाल आदि कई कारणों से धीरे धीरे लोगों ने अन्य जगह पलायन शुरू किया और इस तरह विभिन्न क्षेत्रों में जीवन यापन हेतु अलग अलग स्थानों मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट,ª राजस्थान तथा अन्य स्थानों पर बस गये । यथा उन स्थानों पर जाकर अपने जीवन यापन के लिए विभिन्न क्रिया कलापों – व्यापार आदि में संलग्न हो गयेे और श्रीमाली महाजन के नाम से जाने जाने लगे ।

भारत में गोत्र पद्धति के जरिये गोत्र को पता चलता है । इससे मूलपिता और मूल परिवार जिससे संबंध रखते हैं का पता चलता है। सभी जातियों में गोत्र समान रूप से पाये जाते हंै । वैसे गोत्र का अर्थ गौ, गौ रक्षा और गौ रक्षक से भी संबंध रखता है । शायद जब इसकी शुरूआत हुई होगी तो सभी वे ऋषि जिनके लिए गाय का महत्व विशेष रहा होगा, उनकी रक्षा करते होगे इस कारण उनके साथ गोत्र से जोड़ कर खास पहचान देने की कोशिश की गई होगी ।

गोत्र पहले आया और फिर कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था तय हुई जिसमें गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर वर्ण चयन किया गया और विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा नीचा वर्ण बदलता रहा किसी क्षेत्र में किसी गोत्र विशेष का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ग में रह गया, तो कही ंक्षत्रिय, कहीं वैश्य, कहीं शुद्र कहलाया । बाद में जन्म के आधार पर जाति स्थिर हो गई । यही वजह है कौशिक ब्राह्मण भी हंै और क्षत्रिय भी । कश्यप गोत्रिय ब्राह्मण भी हैं, राजपूत भी हं,ै वैश्य भी हैं ।

गोत्र मूल रूप से ब्राह्मणों के उन सात वंशो से संबंधित होता है जो अपनी उत्पत्ति सात ऋषियों से मानते हंै। ये सात ऋषि हैं – 1 अत्रि, 2 भारद्वाज, 3 भृगु, 4 गौतम, 5 कश्यप, 6 वशिष्ठ, 7 विश्वामित्र । बाद में इसमें आठवां गोत्र अगस्त्य भी जोड़ा गया । गोत्रों की संख्या बढ़ती गई है । जैन गं्रथों में सात गोत्रों का उल्लेख है कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मण्डव्य और वशिष्ठ । लेकिन छोटे स्तर पर साधुओं को जोड़ कर हमारे देश में 115 गोत्र हंै । गैर ब्राह्मण समुदायों ने भी इसी प्रथा को अपनाया। क्षत्रिय, वैश्यों ने भी इसे अपनाया । इसके लिए उन्होंने अपने निकट के ब्राह्मणों या गुरूओं के गोत्रों को अपना गोत्र बना लिया । प्रयाग राज के धार्मिक विद्वान राम नरेश त्रिपाठी कहते हंै कि हिन्दू परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार पिता का गोत्र ही पुत्र को मिलता है । अगर किसी ने किसी को दत्तक पुत्र के रूप मंे स्वीकार किया हो तो उसे उसका गोत्र मिल जाता है ।

ब्राह्मणों के अलावा अन्य जातियों में भी गोत्र सुनिश्चित किये जाते हंै । इनकी प्रवर व अटकंे होती हैं और गोत्र भी जिन ऋषियों के भी साथ ब्राह्मणों का संबंध था उनके अनुसार तथा सभ्य समाज का हिस्सा बनने पर वंशानुगत पहचान के लिए गोत्र अंगीकार कर लिये गये । कई परिवारांे द्वारा जैन धर्म अंगीकार कर लिया गया और इस तरह अपने पूरे वंश के गोत्र सूचक नाम उस अनुसार अंगीकार कर लिये गये ।

कुम्भलगढ़ के व्यास डिबलिया मेहरखजी की पत्नी ललिता की वर्षी पर इकट्ठे श्रीमाली ब्राह्मणों ने कन्या विक्रम बन्द करने का प्रस्ताव किया । प्रस्तावक पुंजाजी सहित चार व्यक्ति जो समर्थन में थे उनमें से एक संशय में रहा । इसलिए वे साढे तीन पुड़ तथा संशय वाला आधा पुड़ कहलाया और जो नौ व्यक्ति इस प्रस्ताव के
विरोध में थे वे नौ पु़ड़ी कहलाए। पुड़ की तरह ही कुछ अन्य घटनाओं को लेकर श्रीमाली ब्राह्मणों में दशा बिसा इत्यादि छोटे छोटे घटक बनते गए जो जातीय एकरूपता में बाधक सिद्ध हुए । नवीन घटकों के उदय एवं उनकी रूढ़ तथा संकीर्ण मनोवृत्ति के परिपेक्ष्य में इस जातीय समुदाय की पहचान ’श्रीमाली शब्द’ के व्यापक बोध में ही सुरक्षित बनी हुई है। चूृृंकि वैश्य बाह्मणों के ही अनुचर थे अतः ये भी इन्ही घटक के रूप में जाने जाने लगे ।

श्रीमाली वैश्य :

जब लक्ष्मीजी ने श्रीमालनगर का निर्माण कराके वहाँ श्रीमाली ब्राह्मणों तथा त्रागड सोनियों को बसा दिया तब व्यापार कर्म के लिए भगवान् विष्णु ने वैश्यों को उत्पन्न किया और श्रीमाल क्षेत्र में वाणिज्य पशुपालन तथा खेती करने का आदेश दिया –

ततो मनोगतं ज्ञात्वा देव्या देवो जनार्दनः |

उरु विलोकयामास सर्गकृत्ये कृतादरः ||

यज्ञोपवीतिनः सर्वे वणिज्योऽथ विनिर्ययुः |

ते प्रणम्य चतुर्बाहुमिदमूचुरतन्द्रिताः ||

अस्मानादिश गोविन्द कर्मकाण्डे यथोचिते |

तत् श्रुत्वा प्रणतान् विष्णुर्वनिजः प्राह तानिदं |

पाशुपाल्यं कृषि र्वार्ता वाणिज्यं चेति वः क्रियाः ||

प्राग्वाटादिशि पूर्वस्यां दक्षिणस्यां धनोत्कटाः |

तथा श्रीमालिनो याम्यांमूत्तरस्या मथो विशः ||

वैश्यों के बिना श्रीमाल वासियों का जीवननिर्वाह कैसे होगा ? इस चिंता से चिन्तित लक्ष्मीजी का मनोभाव भगवान् विष्णु जान गए। उन्होंने सृष्टि रचना के प्रयोजन से अपनी जंघाओं पर दृष्टिपात किया। वहाँ यज्ञोपवीत धारी वैश्य प्रकट हो गए। उन्होंने भगवान् विष्णु को प्रणाम करके अपने लिए कर्तव्य कर्म की अभिलाषा प्रकट की। भगवान् विष्णु बोले, तुम वाणिज्य कृषि और पशुपालन का काम करो।

वे वैश्य श्रीमाल नगरी में बस गए। जो श्रीमाल शहर के पूर्विभाग में रहे वे पोरवाल कहलाए। दक्षिणी भाग में बसने वाले श्रीमाली और उत्तर वाले उवला कहलाए।

एवमेते स्वर्णकाराः श्रीमालिवणिजस्तथा |

प्राग्वडा गुर्जराश्चैव पट्टवासास्तथापरे ||

इस प्रकार श्रीमाल क्षेत्र में सोनी, श्रीमाली वैश्य, पोरवाल, गूजर पटेल पटवा आदि वैश्य हुए।
श्रीमाली वैश्य कुलदेवी –

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्य स्वर्णकार क्रियास्तथा |

तेषां व्याघ्रेश्वरी देवी योगक्षेमस्यकारिणी |

वे सब खेती, पशुपालन, वाणिज्य और सुनारकर्म करने वाले वैश्य हुए। उनकी कुलदेवी व्याघ्रेश्वरी है।

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