VAISHYA HERITAGE - दिगंबर जैन लाल मंदिर और राजा हरसुख राय
ये नीचे जो मंदिर दिख रहा है ये राजा हरसुख राय निर्मित दिगंबर जैन लाल मंदिर है। इसका बहुत ही रोचक इतिहास है।
राजा हरसुख राय दिल्ली के अग्रवालों में अग्रगण्य थे जिन्होंने दिल्ली के आसपास कई भव्य जैन मंदिरों का निर्माण करवाया था। 17वीं शताब्दी में जब शाहजहां ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाई थी तब उसने कुछ अग्रवाल वणिकों को दिल्ली में बुलाया और बसाया था। उन्हीं में से एक हिसार के अग्रवाल वणिक साह दीपचंद थे जिन्होंने चांदनी चौक में अपने 16 बेटों के लिए 16 हवेलियां बनवाईं थीं।
राजा हरसुख राय उन्हीं के वंशज थे और दिल्ली के मुगल बादशाह शाह आलम के खजांची भी। उन्हीं दिनों दिल्ली के कुछ प्रतिष्ठित जैनों ने राजा साहब से मिलकर चर्चा की कि- "अपनी अतुलनीय संपत्ति से कुछ धर्म-यश के कार्य भी करिये" तब सन् 1807 में राजा हरसुख राय ने लाल किले के पास ही एक भव्य जैन मंदिर के निर्माण करवाना शुरू किया। वो मंदिर मुग़ल काल मे निर्मित प्रथम शिखरधारी जैन मंदिर था। इस मंदिर को बनाने में उस समय 8 लाख की लागत आयी थी जो इस समय करोड़ों में होगी। जब मंदिर बन रहा था और 7 लाख करीब का खर्चा हो चुका था तभी अचानक से राजा हरसुख राय ने मंदिर का निर्माण रुकवा दिया। नगर के जैनों में चर्चा होने लगी कि -"अचानक से ऐसा क्यों किया गया?" लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। एक बोला -"हमें तो पहले ही पता था कि मुग़ल राज में मंदिर कैसे बन पाएगा? दूसरे ने कहा- "मुसलमानों को मंदिर का शिखर कहाँ से बर्दाश्त होगा? शिखर बनने ही वाला था कि तामीर रुकवा दी" तब कुछ समझदार लोगो ने कहा कि -"राजा साहब ने वादा किया था तो वो शिखर वाला मंदिर जरूर बनवाएंगे"
नगर के प्रतिष्ठित अग्रवाल राजा हरसुख राय से मिले और पूछा -"आपने मंदिर का निर्माण क्यों बंद करवा दिया।" राजा साहब बोले -"धन की कमी पड़ गयी है। अब मुझे किसी से कर्ज मांगना अच्छा नहीं लगा" नगर के वणिकों ने कहा - "अरे राजा साहब! आप क्या बात करते हैं। हमारे रहते आपकी जूतियां जाएं चंदा मांगने। फिर तो लानत है हमारी जिंदगी पर"
राजा साहब ने कहा कि - "लेकिन मैं चंदा लूंगा तो पूरी बिरादरी से लूंगा वरना एक से भी नहीं। तब हर जैन और अग्रवाल परिवार से नाम मात्र का चंदा लिया गया।" मंदिर बना समाज ने राजा साहब से कलशरोहण करने की मिन्नतें की लेकिन राजा साहब बोले- "मंदिर सर्व समाज के सहयोग से बना है अब पंचायत ही इसका कलश रोहन करे और वही इसका प्रबंध संभाले।" अब सबको पता चला कि राजा साहब के सहयोग लेने के पीछे क्या मंशा थी।
ऐसे वीतरागी और महान थे हमारे पूर्वज जो सब कुछ कर के भी किसी सम्मान की लालसा नहीं रखते थे।
लेखक - प्रखर अग्रवाल
सोर्स - जैन जागृति के अग्रदूत पुस्तक (अयोध्या प्रसाद गोयलिय)
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