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Friday, October 2, 2020

SETH NARSINGH DAS AGRAWAL - सेठ नृसिंहदास अग्रवाल

 "स्वाधीनता संग्राम के भामाशाह योद्धा - बाबा नृसिंहदास अग्रवाल"

- हरिनारायण शर्मा 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857-1947) में अनेकों भामाशाह योद्धा हुए जिनमें अग्रणी हैं- सेठ रामजीदास गुड़वाला, सेठ अमरचंद बांठिया, सेठ दामोदरदास राठी, सेठ जमनालाल बजाज आदि। उन्हीं महान् भामाशाहों में से  एक थे 'नागौर' के - सेठ नृसिंहदास अग्रवाल.



नागौर में जन्में सेठ नृसिंहदास अग्रवाल ने अपना सर्वस्व महात्मा गांधी के चरणों में अर्पित कर फकीरी धारण कर ली थी। राठौरों की वीरभूमि में 31 जुलाई, 1890 में जन्में नृसिंहदास की माँ बचपन में ही चल बसी थीं। पिता सेठ हरिराम अग्रवाल ने 13 साल की बाल-उम्र में व्यापार का सारा भार नृसिंहदास पर डाल दिया था। वह 1903 में मद्रास चले गए और वहाँ महाजनी का काम करने लगे थे। किशोर नृसिंहदास को इसमें शोषण की बू आने लगी और वो इसे छोड़कर व्यवसायिक संस्थान में नौकरी करने लगे। 6 साल बाद वह वापस नागौर लौटे और विवाहोपरांत पुनः मद्रास चले गए। वहाँ उन्होंने अपना खुद का व्यापार स्थापित किया (सर्जिकल, केमिकल, पेटेंट औषधियों का आयात) जिसमें उन्हें अपार सफलता, सम्मान और शोहरत मिली। संपर्कों का दायरा बढ़ाने के साथ ही वे आजदी के आंदोलनों में भी रुचि लेने लगे। उन दिनों अमेरिका से आये भारतीय सन्यासी सत्यदेव परिव्राजक के संपर्क में आये और उनसे काफी प्रभावित हुए। इसी दौरान उनकी मुलाकात सी. राजगोपालाचारी से भी हुई। 

नृसिंह दास अब आजादी के आंदोलन में काफी सक्रिय हो गए थे। सन् 1920 में कलकत्ता में लाला लाजपत राय जी के नेतृत्व में हुए अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया। वहाँ से लौटते वक्त वो महात्मा गांधी से प्रेरणा लेने के लिए साबरमती आश्रम पहुंचे जहाँ उनकी मुलाकात सेठ जमनालाल बजाज से हुई। वो, सेठ जमनालाल बजाज जी की गतिविधियों एवं देश के लिए किये हुए त्याग से बहुत प्रभावित हुए। हालांकि वो सेठ जमनालाल बजाज जी के बारे में काफी सुनते रहते थे लेकिन यहां उनसे रूबरू होने और उन्हें ठीक से जानने का अवसर मिला। इसके बाद नृसिंह दास जी ने उन्हें अपना आदर्श बना लिया। सन् 1921 में लोकमान्य तिलक के निधन के बाद देश की आजादी के लिए तिलक स्वराज्य फण्ड में अच्छी खासी धनराशी प्रदान करने के साथ ही अन्य  साथी व्यापारियों से भी सहयोग करवाया। श्री राजगोपालाचार्य इस कोष के अध्यक्ष थे।

 जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन  का आवाह्न किया तब नृहसिंहदास और उनके साथियों ने विदेशी वस्त्रों की होली जला दी और अपनी पत्नी के साथ खादी वस्त्र को अपना लिया। सत्यदेव विद्याशंकर ने उनकी मरणोपरांत अपनी स्मृतियों में इसका उल्लेख करते हुए लिखा - "मुझे वह दिन याद है जब अपनी पत्नी के साथ आडंबर रहित खादी वस्त्र में वो पहली बार वर्धा आये थे। बाबाजी का परिचय यहा कहकर दिया जाता था की वह मद्रास स्थित अपने कारोबार और गोदाम को समेटकर करके गांधी जी के असहयोग आंदोलन में सम्मलित हुए। मारवाड़ी और अग्रवाल समाज में महिलाओं का खादी पहनना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी और सोने-चांदी का त्याग करना तो क्रांति का सूचक माना जाता था। बाबाजी नाम तो उन्हें बहुत बाद में मिला पर वो जब आये थे तब भी वह बाबा जी बनकर ही वर्धा पहुंचे थे। यह उनकी पत्नी और उनकी वेशभूषा से साफ झलकता था।"

साभार - राजस्थानी पत्रिका 'सुजस' के स्वतंत्रता संग्राम अंक से लिया गया। पूर्ण लेख इमेज में..

1 comment:

  1. महापुरुष की जीवनी पढ़ कर मन में उन्हे और जानने की इच्छा है रही है | उनकी पूरी जीवनी हो तो मुझे भेजने की कृपा करेंगे | मेरा मो.नं. है 9755889199

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