MAHIPAL A GREAT CLASSICAL FILM STAR
जब भी यह गीत सुनते हैं – वो जब याद आए बहुत याद आए‚ तो भारतीय सिनेमा के सुनहरे दौर के कई भूले – बिसरे कलाकार याद आते हैं। आज इन कलाकारों की स्मृतियां सिनेमा प्रेमियों के जेहन से धुंधली पड़ चुकी है लेकिन एक समय था जब इन कलाकारों ने धूम मचाई हुई थी। ऐसे ही कलाकारों में एक नाम महिपाल का है। आज जब भी हम उनपर फिल्माए गए गीतों को सुनते हैं तो उनकी याद ताजी हो जाती है।
उन्होंने इतनी धार्मिक फिल्में कीं कि लोग इन्हें भगवान मानने लगे थे। इन्होंने माइथोलॉजिकल फिल्मों में कभी भगवान राम, कभी भगवान कृष्ण तो कभी विष्णु बनकर खूब वाहवाही लूटी। यही नहीं‚ उन्होंने फैंटेसी फिल्मों में भी अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने अली बाबा से लेकर हातिमताई तक सभी तरह के रोल किए।
इन्हें लोग भगवान की तरह पूजते थे और जहां जाते लोग इनके पैर छूने लगते थे‚ उनके जयकारे लगाए जाते। लेकिन एक समय ऐसा आया जब वह गुमनामी के अंधेरे में खो गए।
महिपाल का पूरा नाम महिपाल चंद्र भंडारी था। उनका जन्म 24 नवंबर 1919 को राजस्थान के जोधपुर के एक मारवाड़ी ओसवाल जैन वैश्य परिवार में हुआ था। महज 6 साल की उम्र में उनकी मां गुजर गई थीं इसलिए उनका लालन–पालन उनके दादा श्री बजरंग चंद ने किया था जो उस जमाने के एक मशहूर राइटर थे।
स्कूलिंग पूरी करने के बाद महिपाल ने साहित्य में बी.ए. की डिग्री हासिल की। उन्हें बचपन से ही कला को करीब से जानने में दिलचस्पी थी और पढ़ाई में अव्वल होने के कारण इन्हें इतिहास की गहरी समझ थी।
उनके पिता हिंदी के एक प्रसिद्ध कवि थे और समाज में उनकी लोकप्रियता और आदर सम्मान देखकर महिपाल को भी कविताएं लिखने का शौक पैदा हुआ। वह स्थानीय कवि सम्मेलनों में भाग लेने लगे और श्रोताओं को अपनी कविताएं गाकर सुनाने लगे। कॉलेज के दिनों में महिपाल की लिखी ‘किसान’ कविता इतनी फेमस हुई कि लोग इन्हें अपने प्रोग्राम में यही कविता पढ़ने बुलाने लगे। उनकी कविताओं के दो संग्रह ʺफूल आपके लिएʺ और ʺदिल में लिये अपनी सौगातʺ प्रकाशित हो चुके थे।
वह कॉलेज के नाटकों में भी भाग लेते रहते थे और अपनी कला से लोगों का दिल जीत लिया करते थे। नाटकों में उन्हें अक्सर लड़की की भूमिका करने को मिलती थी। एक धार्मिक ड्रामे में उन्होंने मीराबाई का रोल किया था और महिला सुर में कई भजन गाए जिन्हें दर्शकों ने काफी सराहा। शंकर पार्वती नामक नाटक में उन्हें कामदेव का रोल करने का मिला था।
हालांकि वह बचपन में अपनी पढ़ाई पूरी कर कॉलेज में प्रोफेसर बनकर शांतिपूर्ण ढंग से अपना जीवन व्यतीत करना चाहते थे। लेकिन फिर कविता लिखने का ऐसा चस्का लगा कि वह बम्बई आ गए गीतकार बनने‚ मगर किस्मत ने उन्हें अभिनेता बना दिया।
उनके अभिनेता बनने की कहानी भी काफी दिलचस्प है। साल 1942 तक देश में कई भाषाओं में फिल्में बननी शुरू हो चुकी थीं, लेकिन मारवाड़ी फिल्में अब तक नहीं बनी थीं। जब फिल्म निर्माता जीडी कपूर ने देश की पहली मारवाड़ी फिल्म बनाने का विचार किया तो उन्हें बॉम्बे में कोई कलाकार नहीं मिला। कलाकार की तलाश में फिल्म के क्रू मेंबर जोधपुर पहुंचे। उस समय महिपाल जोधपुर में ही रहते थे और कविताएं लिखते‚ और उन्हें कवि सम्मेलनों में सुनाकर श्रोताओं से वाहवाही लूटते थे। ऐसे ही एक कवि सम्मेलन में जीपी कपूर आए हुए थे और उनके कविता पाठ से अधिक उनके पौरुष से प्रभावित हुए और उन्हें अपनी आने वाली फिल्म नजराना में हीरो का रोल करने का ऑफर दिया। महिपाल को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। उन्होंने इस निमंत्रण को सर आंखों पर स्वीकार कर लिया और अभिनेता बनने बम्बई पहुंच गए।
फिल्म कंपनी के साथ महिपाल की बात 125 रुपए प्रति महीना पर तय हुई। उस समय ये एक बड़ी रकम थी। डरते हुए महिपाल जब दादाजी के पास पहुंचे तो वो बहुत खुश हुए, लेकिन परिवार उनके फिल्मी करियर के खिलाफ था। रिश्तेदार उन्हें ताने मारने लगे कि क्या अब भंडारी खानदान के लोग तवायफों और भांडों के साथ नाचेंगे- गाएंगे। दादाजी ने सबके खिलाफ जाकर परिवार को राजी कर लिया।
1942 में आई नजराना को मारवाड़ी और हिंदी दोनों भाषाओं में रिलीज किया गया। मगर दुर्भाग्यवश दोनों ही फिल्में फ्लॉप हो गईं और महिपाल का महान अभिनेता बनने का सपना चकनाचूर हो गया। निराशा की स्थिति में वह हीरो बनने की उम्मीद छोड़कर कवि बने रहने पर ही संतुष्ट हो गए।
फिर वह काम की तलाश में बम्बई के फिल्म स्टूडियोज के चक्कर लगाने लगे और भटकते–भटकते वी. शांताराम के राजकमल कला मंदिर जा पहुंचे। शांताराम बम्बई के अति व्यस्त निर्माता‚ निर्देशक थे और किसी अनजान‚ भाग्य आजमाने वाले व्यक्ति का उनसे भेंट कर पाना लगभग असंभव था। लेकिन एक दिन शांताराम का चपरासी डेविड थोड़ी देर के लिए अपनी जगह से हटा तो मौका देखकर वह सीधे उनके दफ्तर में घुस गए। उन्होंने शांताराम को बताया कि वह एक कवि हैं और एक फिल्म में अभिनय भी कर चुके हैं। शांताराम ने बोला कि ʺतो फिर देर किस बात की है‚ सुना डालो अपनी कोई नई कविताʺ। उनके कविता पाठ से शांताराम इतने प्रभावित हुए कि उनसे अपनी चार फिल्मों के गीत लिखवाने का वादा कर लिया। शांताराम ने उनसे पूछा कि ʺक्या फिल्म में भी काम करोगेॽʺ महिपाल तुरंत तैयार हो गए तो शांताराम ने कहा कि नीचे जाकर दादा नाम के व्यक्ति से बात कर लो। नीचे दादा नामक व्यक्ति से बात की तो उसने कहा कि वेतन सौ रुपया होगा। उन्हें निर्माणाधीन फिल्म ʺअंधों की दुनियाʺ में एक रोल करने का दिया गया। उन दिनों राजकमल स्टूडियो के हर कर्मचारी काे सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक स्टूडियो में उपस्थित रहना पड़ता था। यदि सुबह कोई तीन मिनट से अधिक देर से आता तो आधे दिन का वेतन काट लिया जाता था।
इस तरह उन्हें फिल्म ʺअंधों की दुनियाʺ में अभिनय करने के साथ– साथ उस जमाने के पॉपुलर फिल्ममेकर वी शांताराम के लिए लिरिक्स लिखने का भी मौका मिल गया जो कि बहुत बड़ी बात थी। 1944 की फिल्म माली का टाइटल सॉन्ग महिपाल ने ही लिखा। इसी समय इन्हें कई फिल्मों में गीत लिखने का मौका मिला।
इसी बीच उन्हें अभिनेता के रूप में मधुबाला के साथ फिल्म दौलत में काम करने का मौका मिला लेकिन उसके बाद महिपाल के पास कोई काम नहीं था। करीब 11 महीनों तक काम न मिलने से वह निराश हो गए। इसी साल उन के दादाजी और पिताजी गुजर गए। लेकिन, एक दिन फिल्ममेकर होमी वाडिया के असिस्टेंट के कॉल से उनकी जिंदगी बदल गई। कॉल था श्री गणेश महिमा फिल्म के लिए। फिल्म में होमी वाडिया ने महिपाल को मीना कुमारी के अपोजिट भगवान गणेश के रोल में कास्ट किया। फिल्म जुबली हिट हुई और महिपाल का करियर फिर पटरी पर आ गया। ये पहली बार था जब महिपाल फिल्म में भगवान बने थे, लेकिन श्री गणेश महिमा के बाद ये सिलसिला चल पड़ा। एक के बाद एक कई धार्मिक फिल्मों में उन्हें काम करने का मौका मिला।
वह संपूर्ण रामायण, वीर भीमसेन, वीर हनुमान, हनुमान पाताल विजय, जय संतोषी मां जैसी हिट माइथोलॉजिकल फिल्मों में नजर आए। उन्होंने अपने एक्टिंग करियर में इतनी फिल्मों में भगवान राम, कृष्ण, गणेश और विष्णु का किरदार निभाया कि असल जिंदगी में भी लोग इन्हें भगवान मानने लगे थे। जहां जाते लोग इनके पैर छूने लगते। जयकारे लगाए जाते।
ये वो जमाना था जब राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद जैसे बड़े कलाकार इंडस्ट्री में अपनी बड़ी पहचान बनाए बैठे थे, इसके बावजूद महिपाल अपने हुनर से माइथोलॉजिकल फिल्मों से मशहूर हो गए।
वहीं अलीबाबा और 40 चोर, अलादीन और जादुई चिराग, अलीबाबा का बेटा, रूप लेखा, सुनहरी नागिन जैसी कई एडवेंचर फिल्मों और पारसमणि, जबक, कोबरा गर्ल, जंतर मंतर, अरेबियन नाइट जैसी स्टंट फिल्मों से महिपाल एक सुपरस्टार के रूप में उभरकर आए। इन फिल्मों के लिए महिपाल ने फाइट मास्टर अजीमभाई से घुड़सवारी और तलवारबाजी सीखी।
1959 में महिपाल को वी. शांताराम की फिल्म नवरंग में दिवाकर की भूमिका करने का मौका मिला। इनके साथ संध्या लीड रोल में थीं। फिल्म का गाना ʺआधा है चंद्रमा रात आधीʺ और ʺजा रे हट नटखटʺ आज भी लोगों की जुबान पर हैं। इनकी फिल्म भारत समेत मिडिल ईस्ट में भी काफी पसंद की जाने लगी थीं। इसी फिल्म से उन्हें देशभर में पहचान मिली।
महिपाल ने अपने एक्टिंग करियर में करीब 130 से ज्यादा फिल्में कीं जिनमें मीना कुमारी, संध्या, माला सिन्हा, निरुपा रॉय जैसी टॉप एक्ट्रेसेस के साथ सबसे ज्यादा फिल्में थीं।
साल 1986 में आई फिल्म अमर ज्योति के बाद महिपाल ने फिल्मों से सन्यास ले लिया। फिल्में छोड़ते ही महिपाल लाइमलाइट और लोगों की नजरों से दूर हो गए और एकांत में कविताएं लिखने लगे।
सिर्फ एक बार 1992 में मिड डे के एस रामाचंद्रन को दिए इंटरव्यू में ही दिखाई दिए। उन्हें वॉकिंग का शौक था, वो रोजाना 8-10 किलोमीटर चला करते थे। 15 मई 2005 को जब महिपाल टहलकर घर लौटे तो उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा और निधन हो गया।
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