PORWAL VAISHYA CASTE AND GOTRA
पोरवाल के गोत्र – पोरवाल गोत्र, पोरवाल समाज कुलदेवी, कसौधन जाति का इतिहास, सोमानी जाति, वैश्य जाति की सूची, बनिया जाति गोत्र सूची, वैश्य समाज के गोत्र, वैश्य समाज के महापुरुष,
तीर्थकर परमात्मा महावीर स्वामी के पूर्व से ही भारत भूमि पर जैन धर्म का बीजा रोपण हो चुका था| महावीर स्वामी के पश्चात इस में गति तो आयी परन्तु विक्रम संवत् की सातवी शताब्दी तक जैन धर्म व्यक्ति गत धर्म ही रहा | इसके मानने वाले व इसे पालने वाले अपने तक ही सीमित थे | इनके वंशज जैन धर्म के सिद्धान्तों, व्रतो, नियमो आदि को मानने के लिये प्रतिबद्ध नही थे | वि. स. 704 में श्रीमद शान्ति सूरी द्वारा प्रति बोधित श्रीमाल पुर ( वर्तमान भीनमाल ) के श्रावक डोडा ने नवहर में आदिनाथ चैत्य का निर्माण करवाया | वि. स. 750 के आसपास ही श्रीमाल पुर में विद्याधर कुल के श्रीमद स्वयं प्रभ सूरी का आगमन हुआ | इन्होने यज्ञ हवन एवं पाखण्ड पूर्ण क्रियाओ का उन्मूलन कर महावीर स्वामी के अहिंसा धर्म का सर्वत्र प्रचार एवं प्रसार करना
श्री पोरवाल जैन संघ
जैन संस्कृती पोरवाल जैन समाज के इतिहास को समझने के लिये प्रथम हम जैन धर्म का विकास एवं संक्रमण की ओर एक नजर डालेंगे | मानवी संस्कृती के कार्यकाल में अनेक चौबिसीयां लुप्त होने के बाद वर्तमान चौबिसी में प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान का कार्यकाल लगभग दस हजार साल पुर्व का माना जाता है | इनमें प्रथम तेइस तिर्थंकरों की वाणीयां आज उपलब्ध नहीं, जिससे उस समयकी समाज व्यवस्था, जाती कुल गौत्र आदी के बारे में विस्त्रुत जानकारी हासील जैन दर्शन का “कर्मवाद – सिध्दांत” अति विशाल एवं अति विस्तृत है | अगाध कर्म सिध्दांत को बुद्धीगम्य बनाने हेतु आठ ‘स्थुलभेद’ कीये है जिनमेंसे गौत्र कर्म सांतवा है | गोत्रकी उच्चनीचता जाती, वंश, कुल के साथ बल, तप, ऐश्वर्य, श्रूत, लाभ और रूप इन आठ गुणोंसे संबंधीत है | अर्थात जैन संस्कृतीमें व्यक्तीका महत्त्व उसके जन्मजात, कुल वंश आदी बाह्य गुणोंसे ही नहीं मगर शिल, कर्म, वृत आदी आंतरीक गुणोंसे आंका जाता है, ‘उत्तराध्यायन सुत्र’ | जिस तरहसे जैन जाति, वंश, कुलमें जन्म पाकर जैन धर्म का पालन करनेवाला जैनी कहलाता है, उसी तरह किसीभी जाती, कुल, वंश का व्यक्ती यदि जीवन शासन के प्रभाव में आ गया है, प्रभाव से पावन हो गया है, श्रमणोंपासक हो गया है, वह व्यक्ती सैंकडो वर्षों से जैन धर्म की धारणा करनेवाले श्रावक वर्ग का स्वधर्मी बांधव हो गया है एवं उसके सामजीक एवं धार्मीक अधिकार भी समान है । अर्थात जैन धर्म जाती विहीन है । जाती – उपजाती वर्गका हमें उचीत सम्मान हो, व्यर्थ गर्व, दंभ, अहंकार ना हो जिससे हमारी उन्नती में रुकावट आये – जन्म से जैनी केहलाएं – कर्म से भी जैनी बनो ।
धर्मक्रांती
हिंदू धर्म में वर्षोसे प्रथा, कुप्रथा चली आ रही थी । उनमेंसे कुछ हिंसा का समर्थन भी करती थी । भगवान महावीर और गौतम बुध्द ने हिंसा का विरोध किया । कुप्रथाएं बंद करनेका, एवं अहिंसा का संदेश दिया । वर्षोंसे जमीं वर्णाश्रम पध्दती जडसे हिल गयी । ब्राम्हण, क्षत्रीय, वैश्य, क्षुद्र में से कईं नविन जाती उपजाती उत्पन्न हुई । भगवान महावीर ने अहिंसा के तत्त्व पर आधारीत चतु:र्विध संघ, और गौतम बुध्दने बुध्द परंपरागत हो गया और धर्म पालन व्यक्तीगत रहता आया ।
सामजीक एवं आर्थीक जीवनपर प्रभाव
अधीकतर ब्रम्हण, क्षत्रीय, वैश्य कुलोंमें से जैन वर्ग के प्रभाव से श्रावक वर्ग की उत्पत्ती हुई । पाप एवं जीव हत्यासे बचने के लिये अधिकतम लोग व्यापार ही करने लगे । सरल स्वभावी, मृदूस्वभावी एवं परोपकारी भावना रखनेवाले बने । न्याय मार्गसे धन का संचय करके अपने द्रव्य का सदुपयोग जिन-शासन वृधी के लिये किया, जैसे की जिन मंदीर – उपाश्रय, पौशधशाला आदी, वैसे ही प्रणीमात्रोंके लिये जीवदया, आपत्कालमें अन्नछत्र जैसे सामजीक कार्योंसे भी समाज की सेवा की । व्यवहार कुशलता, व्यवहार चातुर्य, संग्राहकता के कारण यह वर्ग बडा धनी बना, कईंबार राजा महाराजाओं से भी अधीक धनी हुआ और राज दरबार को अपत्काल में सहायता करते थे । इसी समय में भारत वर्ष सोने की चिडी़या कहलाता था और जैनीयोंका योगदान इसमें पृष्ठ रहा था । इ. स. पुर्व 150 साल तक यह काल जैनीओं के लिये उन्नतीशील रहा, और इस समय जैनी २० कोटी जनसंख्या में थे । मगर इसके पश्चात, सातवी शताब्दी के आरम्भ तक इसी हिंदू संस्कृती में अनेक विद्वान जैसे रामानुजनाचार्य – वल्लभाचार्य आदी गुरूओं के प्रभावसे जैन धर्म का प्रभाव कम हुआ, अन्य भी अनेक कारणवश जैनों की संख्या 6 कोटी तक आ पहुंची ।
पोरवाल वंश की स्थापना
तेईंसवे जैन तिर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर – श्रीमद् शुभदत्ताचार्य, द्वीतीय – हरिदत्तसूरि और तृतीय – समुद्रसुरि, चतुर्थ – श्रीमद् केशीश्रमण रहे थे । श्रीमद् केशीश्रमण भगवान महावीर के काल में ही अत्यंत प्रभवी आचार्य रहे थे । भगवान महावीर एवं गौतम स्वामी और श्रीमद् केशीश्रमण में काफी मेल – जोल रहा और वे भगवान महावीर की अज्ञामें विचरने लगे । इनके पट्टधर श्रीमद् स्वयंप्रभसुरि हुए जो की विद्यधर कुल के नायक थे, अनेक कलाओ में निपुण, उग्रविहारी, घोर तपस्वी थे । अपने जीवनकाल में यज्ञ और हवन की पाखंडपुर्ण क्रियाओंको नष्ट करना और शुध्द अहिंसा धर्मका सर्वत्र प्रचार करना, यही अपना प्रमुख ध्येय बना लिया । आपने अपनी दूरदृष्टीसे जान लिया थ की, जैन धर्म को अगर कुल – मर्यादा पध्दतीसे स्वीकार किया जाय तो ही यह कार्य संभव होगा । उस समय अर्बुदाचल – प्रदेश में यज्ञ – हवन – पशुबली का बडा जोर था । अतः आपने 500 शिष्टोंके सहित अर्बुदागिरी के पास श्रीमालपूर (भल्लमाल – भीनमाल) नामक नगरी में पधरें । वहां राजा जयसेन एक बडे भारी यज्ञ का आयोजन कर रहा था । आपने राज्सभा में पधारकर यज्ञ करनेवाले ब्राम्हण पंडीतोंसे वाद कर विजयश्री हासील कि और अहिंसा परमोधर्म की ओजस्वी देशना के प्रभाव से रजा जयसेन सहीत श्रीमालपूर के 90,000 ब्राम्हण एवं क्षत्रीय कुलोंके स्त्री-पुरूषों ने कुल मर्यादा पध्दतीसे जैन धर्म का स्वीकार किया । इनमेंसे श्रीमालपूर के पुर्व में बसने वाला वर्ग प्रग्वट नाम से प्रसिध्द हुआ । और अन्य लोग श्रीमाली कहलाने लगे । वहांसे आपने अपने शिष्य परिवार सहीत विहार करके अरावली पर्वत – प्रदेश की पाटनगरी पद्मावती नगर में पधारे । यहां के कट्टर वेदमतानुयायी राजा पद्मसेन के अधिपत्य में यहांपर भारी यज्ञ आदी का आयोजन हो रहा था । राजसभा में ब्रम्हण पंडितोंके साथ यज्ञ और हवन के विषय में भारी जंग लढी और अहिंसा की विजय हुई । आचर्य श्री के सारगर्भीत देशना एवं दयामय अहिंसा सिध्दांतसे राजा पद्मसेन प्रभावित होकर पद्मावती नगर के 45,000 ब्राम्हण क्षत्रीय कुलोत्पन्न पुरूष एवं स्त्रीयोंके साथ कुल मर्यादा पध्दतीसे जैन धर्म की दिक्षा अंगीकार कि । यहां पर भी पद्मावती नगर के पुर्व के नगर में रहनेवाले कुलोंको प्राग्वट नाम दिया गया । एवं रजा की अधिश्वरता के कारण और प्राग्वट श्रावक वर्ग की प्रभावशीलता के कारण भिन्नमाल और पद्मावती के संयुक्त प्रदेश का नाम प्राग्वट ही पड़ गया । इस तरह से प्राग्वट श्रावक वर्ग की उत्पत्ती भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात लगभग 57 (52) वर्ष पश्चात भिन्नमल एवं पद्मावती में हुई । प्राग्वट यह संकृत शब्द है और इसका अपभ्रंश पौड़वाड़ होकर बोली भाषामें पोरवाल स्थिर हुआ । भगवान महावीर की भूमी दृढ एवं विस्तृत करने का महाकल्याणकारी, भगीरथ कार्य करनेवाले आचार्य स्वयंप्रभसुरि, तिर्थाधिराज श्री शत्रुंजय तीर्थ पर अनशन कर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा वि. सं. 57 को देवलोक हुए । तत्पश्चात उनके पट्टधर शिष्य श्री रत्नचूड़ याने आचार्य श्रीमद् रत्नप्रभसुरि ने गुरू के इस कार्य को आगे बढाया । ओसिया नगरी मे आपश्री ने ओसवाल श्रावकवर्ग की स्थापना की और गुरू कार्य को पुर्णता दी । इस तरह आचार्य स्वयंप्रभसुरि एवं पट्टधर आचार्य श्रीमद् रत्नप्रभसुरि ने आज के जैन समाज को कुलमर्यादा की दिक्षा देकर जैन धर्मको लुप्त होनेसे बचाया है । इस उत्पत्ती काल के बारेमें एक और भी पृष्ठी उपलब्ध है जिसे यहां प्रस्तुत करना उचित होगा क्यों की उत्पत्ती काल के बारे में यहां पर फर्क है । स्वर्गीय मोहनलाल दलीचंन्द देसाई के संग्रह से ‘उपकेशगच्छ’ की एक शाखा ‘द्वीवंदनीक’ क्ले आचार्यों के इतिवृत्त संबंधी ‘पांच – पाट – रास’ कवी उदयरत्न रचीत मिला है,
जिसमें लब्धीरत्न के शब्द प्रस्तुत है
सीधपुरीहं पोहता स्वमी, वीरजी अंतरजामी, गोतम आदे गहुगाह, बीच मांहे बही जया पाट ।
त्रेवीस उपरे आठ, बाधी भरमनो बाह, श्री रहवी (रत्न) प्रभु सुरिश्वर राजे, आचारज पद छाजे ।
श्री रत्नप्रभसुरिराय केशीना केड़वाय, सात से संका ने समय रे श्रीमालनगर सनूर ।
श्री श्रीमाल थापिया रे, महालक्ष्मी हजूर, नऊ घर नातीनां रे श्री रत्नप्रभसुरी ।
थिर महूरत करी थापना रे, उल्लह घरी ने उर, बडा़ क्षत्री ने भला रे नहीं कारडीयो कोय ।
पहेलुं तीलक श्रीमाल ने रे, सिगली नाते होय, महालक्ष्मी कुलदेवता रे, श्रीमाल संस्थान ।
श्री श्रीमाल नातीनां रे, जानें विसवा बीस, पूरब दीस तेरे पोरवाड़ कहवाये ।
ते राजाना ते समय रे, लघु बंधक हक जा, उवेसवासी रह्यो रे, तिणे उवेसापूर होय ।
ओसवाल तिहां थापिया रे, सवा लाख घर जोय, पोरवाड़ कुल, अंबिका रे, ओसवालां सचीया व ।
उक्त पंक्तीयां एवं श्री पंडी़त हीरालाल हंसराज के ‘जैन – गोत्र – संग्रह’ के आधार से यह स्पष्ट होता है कि वि. सं 715 (इ. स. 738) में बासष्ठ सेठों एवं उनके परिवार जन और अनुयायों को जैन बनकर श्रीमाल जैन श्रावक वर्ग की स्थापना की एवं फाल्गुन शुक्ल 2, संवत् 795 में ही आठ श्रेष्ठीयों को एवं उनके परिवार जन और अनुयायीओंको जैन बनाकर प्रतिबोध देकर पौरवाड़ / पोरवाल / प्राग्वट जैन श्रावक वर्ग की स्थापना की । राजा के छोटे भाई ने उएसापूर यानी ओसियाजी जगह को बसाया एवं वहां ओसवंश (ओसवाल) की स्थापना हुई । श्रीमाल वंश की कुलदेवी महालक्ष्मी, पोरवालोंकी अंबीका एवं ओसवालोंकी सच्चीयाव देवी याने ओसियादेवी मानी गई है । इस तरह आंठवी शताब्दी में संस्थापीत जैन संस्कृती के तीन अंग श्रीमाल, पोरवाल, ओसवाल राजस्थान के लगभग एक ही प्रदेश की संतानें है, जीन शासन के एक ही तत्त्व के पालक है, तीनों दल का जन्म मुल क्षत्रीय, वैश्य एवं ब्राम्हण से हुआ है ।
इसलिये कहा गया है
ओसवाल भूपाल है, पोरवाल वर मित्र ।
श्रीमली निर्मलमती, जिनकेचरित विचित्र ।
श्री पोरवाल गुण गौरव गाथा
प्राग्वट श्रावक वर्ग की उत्पत्ती विक्रम संवत् की आठवीं शताब्दी से लगाकर चौदहवी शतब्दी के प्रारंभीक वर्षोंतक हुई । इस वर्ग में ऐसे अनेक नरश्रेष्ठ रणवीर, महामात्य, दंडनायक, हो चमके जिनकी तलवारें क्षत्रीयोंसे भी उपर रही है । प्राग्वट कुलोंकी कुलदेवी अंबीका है जो रणदेवी माता भी है – इसलिये प्राग्वट व्यक्ती शूर – वीर होता है, अपनी कुलदेवी में पुरी अस्था और निष्ठा होती है, मरकर भी अपने सम्मान को नहीं खोत है, यही बात
उक्त श्लोक में अंकीत है
रणि राउली शूरा सदा, देवी अंबानी प्रमाण ।
पौरवाड़ प्रगटमल, मरणीन मुके माण ।
प्राग्वट श्रावक प्रयः कर्तव्य दक्ष, देशभक्त, प्रजासेवक, अपरिग्रह में विश्वास रखनेवाला, अहिंसा एवं धर्म में विश्वास रखनेवाला, राज्य पालन में पूरा – पूरा योगदान देने वाला, अपना व्यवसाय कर्म न्यायमार्गोंसे वृध्दींगत करनेवाला, सरल स्वभावी होता है । इसी वजहसे प्राग्वट महाजन श्रेष्ठीयोंको समय – समयपर नगर श्रेष्ठीपद, शाहपद, श्रेष्ठी, श्रीमंत, साहूकर जैसे गौरवशाली पद जो उदारता, वैभव, सत्यवाद, सरलता आदी गुणों के परिचायक उपाधीपद प्राप्त हुए । यह इसी बात का प्रमाण है की प्राग्वट वर्ग अपना द्रव्य जनता – जनार्दन की सेवा में एवं जीन शासन की सेवा में लगाया है और खुद सादगी और सरलता पुर्वक अपना श्रावक जीवन व्यतीत करते है । इन गुणों की पृष्ठी में “विमल चरित्र” ग्रंथ से कुछ पंक्तीयां प्रस्तुत है :
सप्तदुर्ग प्रदानेन, गुण सप्तक रोपणात् । पुट सप्तकवंतापि प्राग्वट हति विश्रुता ॥ 65 ॥
आद्यं 1 प्रतिज्ञानिर्वाही, द्वितियं 2 प्रकृतीस्थिरा । तृतीयं 3 प्रौढवचन, चतु: 4 प्रज्ञाप्रकर्षवान् ॥ 66 ॥
पंचम् 5 प्रपंचज्ञः, षष्ठं 6 प्रबलमानसम् । सप्तगं 7 प्रभुतकांक्षी, प्राग्वटे पुटसप्तकम् ॥ 67 ॥
अर्थात् पोरवाल श्रावक वर्ग का व्यक्ती प्रतिज्ञापालक, शांत प्रकृती, एकवचनी, बुध्दमान, दूरदृष्टा, दृढहृदयी और महत्त्वाकांक्षी होता है । प्राग्वट वर्गका जैन जिनालय प्रेम, उत्कृष्ट शिल्पकला एवं स्थापत्यज्ञान, मानव सेवा, जीवदया में रूची और कार्य संपूर्ण इतिहास में स्वर्णमयी, अनुकरणीय मिसाल बनकर रह गया है ।
इस गौरवमयी गुणगाथा में से कुछ सुप्रसिध्द घटनाएं प्रस्तुत है
1) ज्ञानभंडार – संस्थापक – धर्मवीर नरश्रेष्ठी श्रेष्ठी पेथड़ के अल्लाऊद्दीन खिलजी से क्षतीत हुआ अर्बुदस्थ लुणवसहिका मंदीर का जिर्णोध्दार वि. स. 1360 को कर कु छः बार संघयात्रा आयोजीत हुइ । मुलतः यह मंदीर तेजपाल द्वारा निर्मीत है ।
2) महायशस्वी श्रेष्ठी डुंगर, पर्वत तथा कान्हा (श्रेष्ठी पेथड़ की संतानें) द्वारा वि. सं. 1560में जिरापल्ली एवं अर्बुद तीर्थयात्रा एवं वि. सं. 1559 “चैत्यवंदन सुत्र विवरण” लिखवाया ।
3) श्रेष्ठी श्रीपाल द्वारा वि. सं. 1426 में ‘श्री मुंडस्थल महातीर्थ’ में श्री महावीर जिनालय का जिर्णोध्दार ।
4) श्रेष्ठी सहदेव द्वारा वि. सं. 1455 में सिरोही राज्य अंतर्गत कोटरा ग्राम के जिनालय निर्माण ।
5) श्रेष्ठी पाल्हा द्वारा वि. सं. 1476 में वीरवाडा ग्राम के श्री आदिनाथ जिनालय निर्माण ।
6) श्रेष्ठी भंबदेव के वंशज पंडीतप्रवर लक्ष्मणसिंह, श्रेष्ठी हीसा और धर्मा द्वारा वि. सं. 1485 में बालदाग्राम में जिनालय निर्माण ।
पोरवाल गौत्र ब्योरा – ज्ञाती गौत्र तीन कारणों से सम्बोधीत होती है
1) वंशवाचक – प्रतिष्ठीत वंशज के नाम से संतती का प्रसिध्द होना उदा. बूटा सोळंकी या मुळ ब्राम्हण, क्षत्रीय, या वैश्य कुलों के वंशजों के नाम साथ में जुडे़ उदा. काश्यप गोत्रीय चव्हाण वंशिय,
2) कर्मवाचक – आजिविका के लिये जिस व्यवसाय कर्म को अपनाया उससे प्रसिध्द होना उदा. भण्डा़र या कोठार सम्हालने वाले क्रमशः भंडारी या कोठारी बन गये,
3) स्थानवाचक – एक स्थान से दुसरे स्थान तक विस्थापित होने के बाद नयें स्थान पएअ पुराने स्थानसे पहचाना जाना उदा. बड़गामा सोळंकी, निम्बजिया सोळंकी, अधिकतर मारवाडी – बीसा – पोरवाल शाखा के मुल गौत्र प्रायः वैश्य, क्षत्रिय और ब्राम्हण है । इनका उत्पत्ती काल (जैन धर्म स्विकार करने के समय) आठवी से बारह़वीं सदी के करिब रहा है और प्रायः उत्पत्ती स्थान भी राजस्थान ही रहा है । कुछ अपवाद छोडकर । राजस्थान में जो प्राचीन पौषधशाला में जो भट्टरक होत थे वे उनके अधिपत्य में रहने वाले प्राग्वट जाती के कुलोंका – गात्रोंका लेखा रखते थे । उसकी जानकारी निम्न प्रकार है ।
गोडवाट (गिरीवाट) की सेवाडी ग्राम की पौषधशाला
यह पौशधशाला राजस्थान की प्राचीन पौषधशालाओ में गिनी जाती है । इसमें प्राग्वट जाती के चौदह गोत्र है । इनके गोत्रों के कुल प्रायः बाली और देसुरी में बसे है, एवं मुल पुरूष का प्रतिबोध सांतवी शताब्दी के पुर्व है ।
1) कासिंदा गौत्र चौहान
2) कुंडल गौत्रीय देवडा चौहान
3) हरण गौत्र चौहान
4) चंद्र गोत्र परमार
5) कुंडासला गोत्र चौहान
6) तुंगियाना गोत्र चौहान
7) कुंडन गोत्रीय
8) अग्नीगोत्रीय
9) डीडालाचा गोत्रिय
10) आनंद गोत्रिय
11) वशाल गोत्रिय
12) वाघरेचा गोत्रीय
13) गोत गोत्र
14) धार गोत्रीय
2) घाणेराव की पौषधशाला – कस्तुर्चंदजीकी पौषधशाला
गोडवाल में घाणेराव ग्राम की पौषधशाला श्री कस्तुर्चंदजीकी पौषधशाला कहलाती है । इसमें निम्न लिखीत 26 गोत्रों का लेखा है :-
1) भडलपूरा सोलंकी
2) वाडेलिया सोलंकी
3) दुगडगोत्र सोलंकी
4) भूरजभराणीयां चौहान
5) भूरजभराणीयां चौहान
6) कुम्हार गोत्र चौहान
7) लांग गोत्र चौहान
8) ब्रम्हशांती गोत्र चौहान
9) बडवाणीया पंडीयां
10) वडग्राम सोलंकी
11) अंबाव गोत्र परमार
12) पोसनाच चौहान
13) कसोलिया वाले चौहान
14) कासिद्र गोत्र तुमर
15) साकरियां सोलंकी
16) ब्रम्हशांती गोत्र राठोड उक्त १६ गोत्रों के मुल पुरूष का प्रतिबोध समय विक्रम के आंठवी शताब्दी के प्रारंभीक वर्ष माना जाता है ।
17) कासब गोत्र राठोड
18) मानाडीया सोलंकी
19) स्यणवाल गहलोत
20) जाबगोत्र चौहान
21) हेरू गोत्र सोलंकी
22) निवजिय सोलंकी
23) तवरेचा चौहान
24) बूटा सोलंकी
25) सीपरसी चौहान उक्त 9 गोत्रों के मुल पुरूष का प्रतिबोध समय विक्रम के दशमीं शताब्दी के प्रारंभीक वर्ष माना जाता है ।
26) खिमाणदी परमार इस गोत्र के मुल पुरूष का प्रतिबोध समय विक्रम के बारहवी शताब्दी का चतुर्थ भाग बतलाया जाता है । इन गोत्रों के अधिकतर गोडवाल, जलोर के पगन्नों में कुछ मालवा, गुजरात के भी नगरों में बसे है ।
3) सिरोही में मडाहगच्छीय पौषधशाला
इसमें 42 गोत्रों का लेखा है । इनमेंसे अधिकतम गोडवाड (बाली, देसूरी अंचल) जालोर, भिनमाल, जसंपतपुरा गढ़, सिवाता, कुछ मालावा में रतलाम, धार देवास आदी नगरों में बसे है ।
4) वांकरियां चौहान
5) विजयानंद गोत्र परमार
6) गौतम गोत्रिय
7) श्वेतवीर परमार
8) धूणियां परमार
9) विमल गात्र परमार
10) रत्नपुरियां गोत्र
11) पोसिया गोत्रिय
12) गोयल गोत्रिय
13) श्वेत गोत्र चौहान
14) पखालिया चौहान
15) कुंडल गोत्र परमार
16) उडेचा गोत्र परमार
17) भूण्शखा परमार
18) मंडाडिया परमार
19) गुर्जर गोत्रिय
पोरवाल समाज की उत्पत्ति
गौरी शंकर हीराचंद ओझा (इण्डियन एक्टीक्वेरी, जिल्द 40 पृष्ठ क्र.28) के अनुसार आज से लगभग 1000 वर्ष पूर्व बीकानेर तथा जोधपुरा राज्य (प्राग्वाट प्रदेश) के उत्तरी भाग जिसमें नागौर आदि परगने हैं, जांगल प्रदेश कहलाता था।
जांगल प्रदेश में पोरवालों का बहुत अधिक वर्चस्व था। समय-समय पर उन्होंने अपने शौर्य गुण के आधार पर जंग में भाग लेकर अपनी वीरता का प्रदर्शन किया था और मरते दम तक भी युद्ध भूमि में डटे रहते थे। अपने इसी गुण के कारण ये जांगडा पोरवाल (जंग में डटे रहने वाले पोरवाल) कहलाये। नौवीं और दसवीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर हुए विदेशी आक्रमणों से, अकाल, अनावृष्टि और प्लेग जैसी महामारियों के फैलने के कारण अपने बचाव के लिये एवं आजीविका हेतू जांगल प्रदेश से पलायन करना प्रारंभ कर दिया। अनेक पोरवाल अयोध्या और दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गये। दिल्ली में रहनेवाले पोरवाल “पुरवाल”कहलाये जबकि अयोध्या के आस-पास रहने वाले “पुरवार”कहलाये। इसी प्रकार सैकड़ों परिवार वर्तमान मध्यप्रदेश के दक्षिण-प्रश्चिम क्षेत्र (मालवांचल) में आकर बस गये। यहां ये पोरवाल व्यवसाय /व्यापार और कृषि के आधार पर अलग-अलग समूहों में रहने लगे। इन समूह विशेष को एक समूह नाम (गौत्र) दिया जाने लगा। और ये जांगल प्रदेश से आने वाले जांगडा पोरवाल कहलाये। वर्तमान में इनकी कुल जनसंख्या 3 लाख 46 हजार (लगभग) है।
आमद पोरवाल कहलाने का कारण
इतिहासग्रंथो से ज्ञात होता है कि रामपुरा के आसपास का क्षेत्र और पठार आमदकहलाता था। 15वीं शताब्दी के प्रारंभ में आमदगढ़ पर चन्द्रावतों का अधिकारथा। बाद में रामपुरा चन्द्रावतों का प्रमुखगढ़ बन गया। धीरे-धीरे न केवलचन्द्रावतों का राज्य ही समाप्त हो गया अपितु आमदगढ़ भी अपना वैभव खो बैठा।इसी आमदगढ़ किले में जांगडा पोरवालों के पूर्वज काफी अधिक संख्या में रहतेथे। जो आमदगढ़ का महत्व नष्ट होने के साथ ही दशपुर क्षेत्र के विभिन्नसुविधापूर्ण स्थानों में जाकर बसते रहे। कभी श्रेष्ठीवर्ग में प्रमुख मानाजाने वाला सुख सम्पन्न पोरवाल समाज कालांतर में पराभव (दरिद्रता) कीनिम्नतम् सीमा तक जा पहुंचा, अशिक्षा, धर्मभीरुता और प्राचीन रुढ़ियों कीइसके पराभव में प्रमुख भूमिका रही। कृषि और सामान्य व्यापार व्यवसाय केमाध्यम से इस समाज ने परिश्रमपूर्वक अपनी विशिष्ठ पहचान पुन: कायम की।किन्तु आमदगढ़ में रहने के कारण इस क्षेत्र के पोरवाल आज भी आमद पोरवालकहलाते है ।
गौत्रों का निर्माण
श्रीजांगडा पोरवाल समाज में उपनाम के रुप में लगायी जाने वाली 24 गोत्रें किसी न किसी कारण विशेष के द्वारा उत्पन्न हुई और प्रचलन में आ गई। जांगलप्रदेश छोड़ने के पश्चात् पोरवाल वैश्य अपने- अपने समूहों में अपनी मानमर्यादा और कुल परम्परा की पहचान को बनाये रखने के लिये इन्होंने अपनेउपनाम (अटके) रख लिये जो आगे चलकर गोत्र कहलाए। किसी समूह विशेष में जोपोरवाल लोग अगवानी करने लगे वे चौधरी नाम से सम्बोधित होने लगे। पोरवालसमाज के जो लोग हिसाब-किताब, लेखा-जोखा, आदि व्यावसायिक कार्यों में दक्षथे वे मेहता कहलाने लगे। यात्रा आदि सामूहिक भ्रमण, कार्यक्रमों के अवसर परजो लोग अगुवाई (नेतृत्व) करते और अपने संघ-साथियों की सुख-सुविधा कापूरा-पूरा ध्यान रखते वे संघवी कहे जाने लगे। मुक्त हस्त से दान देने वालेपरिवार दानगढ़ कहलाये। असामियों से लेन-देन करनेवाले, वाणिज्य व्यवसाय मेंचतुर, धन उपार्जन और संचय में दक्ष परिवार सेठिया और धनवाले धनोतिया पुकारेजाने लगे। कलाकार्य में निपुण परिवार काला कहलाए, राजा पुरु के वंशज पोरवाल और अर्थ व्यवस्थाओं को गोपनीय रखने वाले गुप्त या गुप्ता कहलाए। कुछगौत्रें अपने निवास स्थान (मूल) के आधार पर बनी जैसे उदिया-अंतरवेदउदिया(यमुना तट पर), भैसरोड़गढ़(भैसोदामण्डी) में रुकने वाले भैसोटा, मंडावलमें मण्डवारिया, मजावद में मुजावदिया, मांदल में मांदलिया, नभेपुर केनभेपुरिया, आदि।
सारांश :- इस तरह आठवीं शताब्दी में संस्थापीत जैन संस्कृती के तीनों अंग जिनका धर्म एक, व्यवहार एक, मुल वंश एक, उत्पत्ती प्रदेश एक – सिर्फ राजस्थान में ही अलग – अलग, नजदीक – नजदीक प्रदेश में प्रनिर्मीत श्रीमाल, पोरवाल एवं ओसवाल इनमें कोई फर्क नहीं है । सिर्फ हर अंग की मानसीकता का विकास कालानुरूप विभिन्न हुआ है ।
लेख साभार : tripfunda.in/porval-ke-gotra
Kasab gotra rathod under porwal, which kuldevi applicable
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