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Tuesday, April 25, 2023

OSWAL BOTHRA VAISHYA - बोथरा गौत्र

#OSWAL BOTHRA VAISHYA  - बोथरा गौत्र 
इस गोत्र का इतिहास देलवाड़ा से प्रारंभ होता है। देलवाड़ा पर चौहान वंश के भीमसिंह का राज्य था। इतिहास के अनुसार वह 144 गांवों का अधिपति था। उसकी एकाकी पुत्री जालोर के राजा लाखणसिंह को ब्याही गई थी। वह ससुराल में पारस्परिक द्वन्द्व के कारण अपने पुत्र सागर को लेकर पीहर आ गई थी। भीमसिंह ने अपना राज्य दोहित्र सागर को सौंप दिया। सागर के चार पुत्र थे- बोहित्थ, माधोदेव, धनदेव और हरीजी ! सागर राजा की मृत्यु के बाद बड़े पुत्र बोहित्थ ने देलवाड़ा राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। वह धर्मपरायण राजा था। विहार करते हुए प्रथम दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि वि. सं. 1197 में देलवाड़ा पधारे। गुरुदेव की दिव्य साधना का वर्णन जब राजा बोहित्थ के कानों से टकराया तो वह उनके दर्शन करने के लिये उत्सुक हो उठा। वह दूसरे ही दिन सपरिवार गुरुदेव के दर्शनार्थ पहुँचा। पहले प्रवचन से ही वह अत्यन्त प्रभावित हो उठा। वह प्रतिदिन प्रवचन श्रवण करने आने लगा। मन में पैदा हो रही जिज्ञासाओं का समाधान करने लगा। दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि ने जैन धर्म का रहस्य समझाते हुए आत्म-कल्याण की प्रेरणा दी। फलस्वरूप उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। गुरूदेव ने बोहित्थरा गोत्र की स्थापना की। गुरुदेव ने कहा- तुम्हारा आयुष्य अल्प है, अतः आत्म-साधना में प्रवृत्त हो जाओ। बोहित्थ का परिवार विशाल था। उसने चार विवाह किये थे, जिनसे 35 संतानों का जन्म हुआ था।
बोथरा गोत्र का गौरव

चित्तौड़ राज्य पर जब यवनों का आक्रमण हुआ तब चित्तौड़ के राजा रायसिंह ने राजा बोहित्थ को सहायता हेतु बुलाया। बोहित्थ समझ गये कि गुरुदेव की भविष्यवाणी के अनुसार मेरा आयुष्य पूरा होने जा रहा है। उन्होंने अपना राज्य बड़े पुत्र श्री कर्ण बोथरा को सौंपा और स्वयं चौविहार उपवास कर युद्ध भूमि में उतर पड़े। शत्रु को तो भगा दिया पर स्वयं अपने प्राण न बचा सके। समाधि पूर्वक मृत्यु प्राप्त कर वे बावन वीरों में एक हनुमंत वीर बने। पुनरासर में उनका भव्य मन्दिर बना हुआ है। श्री कर्ण बोथरा के चार पुत्र थे- समधर, उद्धरण, हरिदास एवं वीरदास! श्रीकर्ण ने कई राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। एक बार शत्रुओं को युद्ध में परास्त कर वापस लौट रहा था कि उसे पता चला कि बादशाह का खजाना उधर से जा रहा है। पिताजी के साथ बादशाह का जो वैर था, उसके कारण वह बदला लेने के लिये क्रुद्ध हो उठा। उसने बीच में ही आक्रमण कर खजाना लूट लिया। इस बात का पता जब बादशाह गौरी को चला तो उसने विशाल सेना लेकर युद्ध किया। उस युद्ध में श्री कर्ण बोथरा मृत्यु को प्राप्त हो गया। देलवाड़ा का राज्य गौरी के हाथ में चला गया। श्री कर्ण बोथरा की पत्नी रत्नादे अपने पुत्रो के साथ पीहर खेडीपुर जाकर रहने लगी।

श्री पद्मावती देवी ने उसे स्वप्न में आदेश दिया कि कल आचार्य भगवंत कलिकाल केवली श्री जिनेश्वरसूरि द्वितीय यहाँ आ रहे हैं। उनके पास जाओ। और अपने श्वसुर का अनुकरण करते हुए उनसे जैनधर्म स्वीकार करो। दूसरे दिन सुबह अपने चारों पुत्रो के साथ गुरु भगवंत के पास पहुँची। गुरुदेव की देशना सुनकर सभी बोध को प्राप्त हुए। गुरुदेव ने ओसवाल जाति में सभी को सम्मिलित करते हुए जैन धर्म में दीक्षित किया। बोथरा गोत्र का विस्तार किया। बाद में परिवार की ओर से शत्रुंजय तीर्थ का छह री पालित संघ निकाला। स्वर्ण मोहर और रजत के थालों की प्रभावना करने के परिणाम स्वरूप बहु फलिया कहलाये। बहु फलिया अर्थात् बहुत फले। क्रमशः बहु का बो और बो का फो अपभ्रंश होने से फोफलिया भी कहलाने लगे। समधर बोथरा के पुत्र तेजपाल बोथरा ने वि. सं. 1377 में दादा जिनकुशलसूरि का पाटण नगर में पाट महोत्सव आयोजित किया था। जिसमें उस समय में तीन लाख रूपये का व्यय हुआ था। उन्होंने पाटण में जैन मंदिर व जैन धर्मशाला का निर्माण करवाया। शत्रुंजय गिरिराज पर कई बिम्बों की प्रतिष्ठा दादा जिनकुशलसूरि द्वारा संपन्न करवाई। बोथरा गोत्र की उत्पत्ति के विषय में एक और वृत्तांत भी उपलब्ध होता है। उसके अनुसार चौहान राजा सागर के पुत्र बोहित्थ को सांप ने डस लिया था। बहुत उपाय किये पर वह ठीक नहीं हो पाया। दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि की कृपा से वह स्वस्थ बना। परिणाम स्वरूप वि. सं. 1170 में उसने जैन धर्म स्वीकार किया था। उनके वंशज बोहित्थरा ( बोथरा ) कहलाये। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान बीकानेर के ग्रंथागार में उपलब्ध हस्तलिखित गुटका में इग्यारे सतरौ लिखा है। जिसका अर्थ 1170 होता है। जोधपुर के श्री केशरियानाथ मंदिर स्थित ज्ञान भंडार के एक गुटके में बोथरा गोत्र की उत्पत्ति का संवत् स्पष्ट रूप से 1117 दिया है। लेकिन यह सही प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उस समय दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि का जन्म नहीं हुआ था। बोथरा गोत्र के उद्भव का संवत् 1170 या 1197 सही प्रतीत होता है। कालांतर में बोथरा गोत्र की लगभग 9 शाखाऐं हुई। श्री बच्छराज जी से बच्छावत बोथरा, पातुजी से पाताणी या शाह बोथरा, जुणसीजी से जूणावत बोथरा, रतनसीजी से रताणी बोथरा, डूंगरसीजी से डूंगराणी बोथरा, चाम्पसिंहजी से चांपाणी बोथरा, दासूजी से दस्साणी बोथरा, मुकनदासजी से मुकीम बोथरा व अजबसीजी से अज्जाणी बोथरा। राव बीकाजी ने श्री बच्छराज जी बोथरा के सहयोग से ही 15वीं शताब्दी में बीकानेर की नींव रखी थी। व राज्य संचालन के लिये श्री बच्छराज जी बोथरा को अपना प्रधानमंत्री बनाया था। बोथरा गोत्र के इतिहास में कर्मचंद बोथरा का नाम आदर के साथ लिया जाता है। वे बीकानेर राज्य के प्रधानमन्त्री रहे। बाद में सम्राट् अकबर की सभा में भी मंत्री पद पर नियुक्त हुए। दादा जिनचन्द्रसूरि के परम भक्त श्री कर्मचन्द बोथरा के पुरूषार्थ से ही सम्राट् अकबर अहिंसा की ओर आकृष्ट हुआ तथा दादा जिनचन्द्रसूरि का भक्त बना। खरतरगच्छ में बोथरा गोत्र में बहुत ही दीक्षाऐं संपन्न हुई हैं। खरतरवसहि सवा सोम टूंक के प्रतिष्ठाकारक आचार्य भगवंत श्री जिनराजसूरि बीकानेर निवासी बोथरा गोत्र के रत्न थे जिन्होंने नौ वर्ष की उम्र में दीक्षा गहण की थी। जैसलमेर में तपागच्छीय मुनि श्री सोमविजयजी महाराज के साथ शास्त्रर्थ किया था, उसमें विजयी बन कर खरतरगच्छ की यश पताका फहराई थी। श्री सिद्धाचल की पावन भूमि पर सवा सोमा नी टूंक अर्थात् खरतरवसही टूंक की प्रतिष्ठा वि. 1675 में आपके करकमलों से संपन्न हुई थी, जिसमें लगभग 700 प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया गया था।

Bikaji left Jodhpur with 14 warriors including Bachhrajji. His Coronation function was arranged in Ratighati in 1541, and started the construction of Fort. He established Bikaner in 1545. Bachharajji created a new city named Bachhasar. The Family of Bachharajji named Bachhavat. Bachharajji was father of 3 sons named Karamsee, Varsingh and Narsingh.

Daverajji was named by Dasuji. Family of Dasuji named Dassani. Rao Karanseeji appointed Kararmseeji his Minister. Karamseeji created a new city named Karamseesar. He also built a grand Jain temple of Lord Neminath in Bikaner in 1570. It is situated near the temple of Bhandashah. He arranged a Sangh of Shatrunjaya. He offered a golden coin with a plate full of 5 kg. cipher to all jains of the Sangh and who met in the way.

Bothra Rai Bahadur Seth Lakshmichand – Katangi (C.P.)

He came from Deshnokh and settled in Katangi. He had been the member of District Board and president of many departments of Balaghat for 40 years. He built a Jain temple in Balaghat. Government of India honuored him with the title of “Rai-Bahadur” in V. 1957.

Bothra Seth Kodamal Nathmal – Kalingpong

He was originaly resident of Lunkaransar. His ancestors came from Marwar and settle there before 450 years. His business was flourished in Nepal, Bhutan and Tibbat.

Bothra Rooplalji – Faridkot

Lala Rooplalji born in V. 1939. He was President of Jain Sabha Pharidkot, and vice President of Temperence Society.

Bothra Lala Harbhajanlal – Faridkot

He was the Vice-President of Faridkot Municipality and ‘Chaudhary of Faridkot.’

Bothra Yogi Harakchand

He was born at Punrasar in 1904. He got education in Calcutta. Though he was an scholar of English language even then he studied Sanskrit, Prakrit and Jainology. He was greatly influenced by Mahatama Gandhi and started wearing Khadi. In 1947 he renounced his family and went to Pavapuri for Meditatio. He used to wear only one piece of cloth. He died on 30th March 1989.

Bothra Mehta Balvantsinghji – Udaipur

His father Mehata Gopalsinghji was Hakim in the Udaipur State. His son Balvantsingh was Hakim of Magra and Khervada.

Mehta Shri Manoharsinghji - Udaipur

He was born in 1919. His father was Mehta Balvant Singhji. Once Maharana Sajjansinghji went to a School for inspection. There he was impressed with Mehta Manoharsingh. On the very day Maharana sent Manoharsingh to the Settlement Officer for training. He was appointed Hakim of Rajnagar at the age of 16 years. He was then transferred to Sadri. Jahajpur, Chitore, and Girva respectively. When ever any revolt arose he was sent there to help restore peace.

Bothra Jitendra Khemchand – Ranjangaon

He was born on 01-08-1968. He was Railway Magistrte Raipur (Civil Judge). Now he is Civil Judge Class II and Judicial Magistrate Durg.

Mehta Shri Gopalsinghji –Udaipur

He was appointed as the Manager of Panarva after passing M.A. Then of became guardian of Rao Raoji of Javas in Mayo College. He became Thakur.

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