DHARMRAJ TELI - धर्मराज” तेली - तेली वैश्य समुदाय
धर्मराज” तेली की कहानी जो युधिष्ठिर से अधिक उसूलों वाला था पर भाग्य से लाचार
महाभारत में तुलाधार नामक तत्वादर्शी का उल्लेख मिलता है (महाभारत- शांतिपर्व, अ० 261-264) जो तेल के व्यवसायी थे, किन्तु इन्हें तेली न कहकर 'वैश्य' कहा गया, अर्थात तब तक (ईसा पूर्व उरी-4थी सदी) तेली जाति नहीं बनी थी.
इतिहास में धर्मराज, युधिष्ठिर को कहते हैं. पर मेरा धर्मराज, मुहल्ले का तेली था. महाभारत वाले धर्मराज के जीवन की कई घटनाएं उन्हें झूठा ,धोखेबाज़ कायर और अधर्म का साथ देने वाला साबित करती हैं. लेकिन मेरा धर्मराज इससे बिल्कुल अलग था. अलग ही मिट्टी का बना था. वह तेल में मिलावट नहीं करता था. कर्म को अपना धर्म मानकर तिल से तेल निकालता था. तेल बेचने के लिये झूठ का सहारा नहीं लेता था. उसूलों वाला था. हां मुहल्ले वाले उसके टोका टाकी से ज़रूर परेशान रहते थे. धर्मराज तेली मुहल्ले में इस बात के लिए मशहूर थे कि तिल क्या धर्मराज बालू से भी तेल निकाल लेते हैं. मैंने जब से होश सम्भाला धर्मराज को वैसे ही देखा. उनकी एक आंख खराब थी. घुटनों तक तेल से चीकट धोती, ऊपर गंजी (बनियान) पहने हुए.
चमरौधा जूता पहने धर्मराज की नाक पर चश्मा होता टंगा होता था उसकी एक दण्डी एक कान पर और दूसरा सिरा एक धागे के ज़रिए दूसरे कान से बंधा रहता था. यह टूटा चश्मा ही उनकी पहचान थी. कोई तीस बरस तक ऐसा तो होगा नहीं कि उनके चश्मे का पावर न बदला हो. पर उनके चश्मे का एक सिरा हमेशा धागे से ही बंधा रहा. आज की भाषा में उसे आप स्टाइल स्टेटमेंट कह सकते हैं. उनके हाथ में एक सोटा होता था जिसे वे कोल्हू के बैल को चलायमान रखने के लिए अक्सर पटका करते. मेरे मुहल्ले में बरनवाल धर्मशाला के सामने उनका कोल्हू था. कोल्हू का बैल आकार में बकरे से थोड़ा ही बड़ा होगा. अंदर बैल देश की जीडीपी की तरह मंथर गति से चलता रहता और बाहर धर्मराज एक टूटही बेंच पर बैठ मुहल्ले की पंचायत में रुचि रखते. बीच बीच में तेल लेने आने वालो को वे बाहर से ही तेल नाप देते. पर रुचि मुहल्ले की कानाफूसी में ही रहती.
कर्म क्षेत्र में सब समानधर्मा होते हैं
कोई बारह बाई बारह का कमरा रहा होगा जिसमें उनका कोल्हू चलता था. कोल्हू के बैल को एक बार हांककर वे बाहर आ बैठ जाते थे और मुहल्ले के आने जाने वालों से टेढ़ी आंखकर एक ही सवाल करते, ऐ बाबू कहां जात हऊआ. या कहां से आवत हउआ. उनकी टोका टाकी से मुहल्ले वाले परेशान रहते. एक तो तेली दूसरे आंख की लाचारी, ऊपर से टोका टाकी. यात्रा पर निकलने वाले उनकी पोजिशनिंग और टोका टाकी को अपशकुन मानते थे. इसी वजह से ज़्यादातर लोग उस रास्ते बहुत लाचारी में ही जाते थे. जिस पर धर्मराज विराजमान रहते, पर मैं तो उधर से ही जाता. कई साथी कहते धर्मराजवा मिल जाईं, यात्रा बिगड़ जाईं. पर मैंने कभी इसकी परवाह नहीं की. मुहल्ले के प्रति धर्मराज का जिज्ञासु स्वभाव और जीवन जगत के लिए मेरा जिज्ञासु स्वभाव, इस कारण कर्म क्षेत्र में मैं उन्हे समानधर्मा मानता था. बस रुचि के केन्द्र अलग अलग थे.
धर्मराज भाग्य से लाचार थे. परिवार में उनके मिनिएचर बैल के अलावा कोई नहीं था. धर्मराज की पत्नी मुहल्ले के ही किसी नौजवान के साथ भाग गयी थी. इस कारण धर्मराज की नारी जाति के प्रति दृष्टि बदल गयी थी. बडे़ कटु रहते थे. उसका एक बेटा था जो फ़िल्मों में काम करने की शाश्वत अभिलाषा में पहले ही बम्बई भाग गया था. बहुत दिनों तक धर्मराज बेटे के लिए परेशान रहते. बहुत ढूंढा पर कहीं कोई खबर नहीं. कुछ साल बाद पता चला कि वह बम्बई में हीरोइनों का ‘बॉय’ बन गया है जो उनके मेकअप के साजोसामान उठा कर उनके साथ चलता है. दो तीन महीने में उसकी चिट्ठी आती थी. धर्मराज मुझसे ही उसकी चिट्ठी पढ़वाते थे. लड़का भी किसी से लिखवाता था क्योंकि वह खुद ‘लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर’ था. वो सचमुच में क्या करता था, पता नहीं. पर चिठ्ठी में हीरोइनों का वर्णन सुन धर्मराज का सीना गर्व के ग़ुब्बारे की तरह फूलता. वे मुझसे कहते ज़रा फिर से सुनावा. फिर लम्बी सॉंस लेते कहते, ‘ईहां रहतन त तेल पेरतन सरऊ , ऊहां गईलन त हीरोइन के तेल लगावत बाडन. जन्मते पंडिजी कहले रहलन एकर भाग्य जबर बा. बहुत आगे जाईं. बडमनई के साथे रही. देखा पंडित जी क बात सही भयलअ.’
इतिहास में जिन युधिष्ठिर को धर्मराज कहा गया, उन्होंने कई बार झूठ का सहारा लिया. चाहे वह धोखे से द्रोण का वध हो या फिर द्रौपदी को निर्वस्त्र किए जाने का प्रसंग. अश्वत्थामा को माफी देने का सवाल हो या पांडवों की अंतिम यात्रा में द्रौपदी पर युधिष्ठिर की घृणास्पद टिप्पणी. हर कहीं द्रौपदी, धर्मराज से कहीं ज्यादा मर्यादा में दिखती हैं. युधिष्ठिर के जीवन की एक घटना ने तो उन्हें झूठा और षड्यंत्रकारी करार दिया जब उन्होंने यह जानते हुए भी कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा जीवित है और अश्वत्थामा नाम का हाथी ही मरा है, झूठ बोला कि पता नहीं हाथी मरा है या मनुष्य पर अश्वत्थामा मारा गया. इस एक सूचना पर द्रोण ने हथियार फेंक दिए और वे धृष्टद्युम्न के हाथों मारे गए. ये थे इतिहास वाले धर्मराज जिनका जीवन झूठ, धोखा और षड्यंत्र पर टिका था. पर मेरा धर्मराज इन सबका शिकार था.
अहीरिन महाराजिन जिनसे सभी पनाह मांगते थे
जीवन में झूठ और स्त्री से ही धर्मराज परेशान रहते थे. मुहल्ले में एक समाजसेवी महिला थी अहीरिन महराजिन, जिनसे वे पनाह मांगते थे. हो सकता है कि आपको ये नाम सुनकर कुछ अटपटा सा लग रहा हो. पर यही सच है. मुझे ठीक ठीक याद नहीं आ रहा है. अब या तो उनके पति अहीर थे और वो पंडित. या वो अहीरिन थीं, पति पंडित. इसलिए मुहल्ले वाले उन्हें अहीरिन महराजिन कहते थे. मेरे घर के पीछे रहती थीं. मुहल्ले में सबके घर जाने का उनके पास लाइसेंस था क्योंकि वह प्रसव करवाती थीं. उन दिनों प्रसव के लिए अस्पताल जाने का उतना चलन नहीं था.
इसलिए अहीरिन महराजिन के जलवे हुआ करते थे. वे सबके घर का भेद जानती थीं. कुटिलता उनके व्यक्तित्व में लबालब भरी थी. वह पढ़ी लिखी नहीं थीं. पता नही उन्होंने कभी महाभारत की कथा सुनी भी होगी या नहीं. अगर सुनी भी होगी तो क्या शकुनि के बार में पढ़ा होगा? इस प्रश्न का जवाब मेरे पास नही है पर इतना जरूर कह सकता हूं कि वे कुटिलता में शकुनि की परनानी थीं. इनकी बात उनसे और उनकी बात इनसे कहे बिना उनका हाज़मा दुरुस्त नही रहता था. मुहल्ले में किसकी बेटी-बहू कब गर्भवती हुई? कितना वक्त बचा है? कितने ऐसी औरतें हैं जो तमाम कोशिशों के बाद भी गर्भ धारण नहीं कर पा रही हैं? इस सबका लेखा जोखा उनके पास रहता था. देश के नीति आयोग और केंद्रीय सांख्यिकी संस्थान को भी देश की अर्थव्यवस्था के आंकड़ों की उतनी जानकारी नहीं होगी जितनी अहीरिन महराजिन को मोहल्ले की औरतों के ऐसे आंकड़ों की रहती थी. कुछ निराश लोगों को वे मशविरा भी देती थीं.
महराजिन जिधर से गुजर जातीं, लोग दहशत में आ जाते थे. जिसके घर में भी गईं, वहां सास पतोहू का झगड़ा तय था. सुबह से उनका यही काम होता था. घरों-घरों पर अड़ी लगाना, पान खाना. लोगों को बिना मांगे मशविरा देना और लगाई बझाई करना. बाद में लोग कहने लगे थे, ‘आज देखा महराजिन ओहर बैठल हईन , देखा संझा तक का होला.’ मेरे घर में जब भी आतीं, अम्मा उन्हें अन्दर ही न आने देतीं. बाहर ही बिठा चाय पिलाकर विदा कर देतीं. उनसे बात भी बहुत संकेतों में करती थीं. युधिष्ठिर ने कुंती को शाप दिया था कि आज के बाद कोई महिला अपने पेट में बात नहीं छुपा पाएगी. ऐसा लगता है कि यह शाप महराजिन को घनीभूत होकर लगा था. उनके पेट में कुछ पचता नहीं था. आदमी न मिले तो जानवरों को भी भड़काने की उनमें कूवत थी.
महाराजिन और धर्मराज की टक्कर
एक रोज़ महराजिन तेल लेने पहुंची धर्मराज के कोल्हू पर. तेली के पीछे उसका कोल्हू चल रहा है. कोल्हू का बैल कोल्हू को चला रहा था. तेल पेरा जा रहा था. महराजिन हैरान हुईं. धर्मराज तेली से पूछ बैठीं कि बैल को कोई चला तो नहीं रहा है, वह अपने आप से ही कैसे चल रहा है? इतना धार्मिक बैल कहां पा गए कलियुग में? अब तो मारो-पीटो तो भी बैल चलते नहीं हैं. हड़ताल कर दें, घिराव कर दें, सींग मारें, शोरगुल मचाएं, झंडा उठा लेंगे. स्वतंत्रता की आवाज देने लगेंगे, ऐसा बैल तुम्हें कहां मिल गया? तेली ने कहा, बैल धार्मिक नहीं है, उसे चलाने के पीछे एक व्यवस्था है, ‘देखत हउ ओकरे आंख पर पट्टी बंधल हौअ. उसे सिर्फ अपने सामने दिखाई पड़ता है; न इस तरफ देख सकता है, न उस तरफ; न बाएं, न दाएं. इसलिए वह यह सोचता है कि यात्रा कर रहा है, कहीं जा रहा है. उसे पता ही नहीं चलता कि वह गोल चक्कर खा रहा है; कहीं जा नहीं रहा है.उसे समझ में आ जाए कि गोल गोल घूम रहा हूं, तो अभी रुक जाए. मगर वह सोच रहा है–कहीं पहुंच रहा हूं, कोई मंजिल है.’ महराजिन बोली ठीक हौअ कि ओकरे आंख पर पट्टी बांधल हौउ. पर कभी त रुक के पीछे भी त देख सकला कि कोई हांके वाला नाही हौअ.’
धर्मराज बोले, ‘हमके बकलोल समझत हऊ. ओकरे गले में घंटी बांधल हौअ. बैल चलता रहता है, घंटी बजती रहती है. हमें पता चलता है कि बैल चल रहा है. जैसे ही रुकता है, घंटी बंद हो जाती है. मैं जल्दी से उचक कर उसे हांक देता हूं. उसे पता नहीं चल पाता कि पीछे हांकने वाला नहीं था. जैसे ही घंटी रुकी कि मैंने हांका, तो वह समझता है कि कोई पीछे है, जरा रुका कि कोड़ा पड़ेगा.’ महराजिन रुकने वाली कहां थीं, ‘क्या बैल खड़े होकर अपना सिर हिला कर घंटी नहीं बजा सकता?’ अब धरमराजवा अपना आपा खोया, ‘त आज कोई अदमी नाहीं मिलल. हमरे बैल के लगवै बझावे आयल हऊ. अगर बैल सुन लेई, त वहू क दिमाग खराब हो जाई. चला भागा तेल नाही हौअ. आगे से ईहां मत दिखाया. ‘महराजिन भी गरजने लगी. लोग इकठ्ठा हो गए, तब पता चला कि आज महराजिन बैल को भड़का रही थीं. उधर तेली बड़बड़ा रहा था, ‘इनकर आना-जाना ठीक नहीं. मैं अकेला आदमी हूं. यह बैल बिगड़ जाए तो मेरा सारा घंधा बैठ जाएगा. और इस बुढ़ापे में कहां दूसर खोजब.
बड़ी मुश्किल से समझा बुझाकर महाराजिन को वहां से अलग किया गया. मगर तब तक तेली काम भर की गाली खा चुका था. तेली ने पलटकर देखा. बैल सिर घुमा रहा था. शायद उसे महाराजिन की बात समझ में आ चुकी थी. तेली बैल को काबू में करने के लिए दौड़ा. महाराजिन अपना काम कर चुकीं थीं. बैल को काबू करते हुए तेली के कानों में अब भी महाराजिन की कच्ची कच्ची गालियां गूंज रहीं थीं.
तिल से तेल और तेल से तेली बना है
धर्मराज तेली के व्यक्तित्व में एक अलग ही किस्म की ठसक थी. मुझे इस ठसक में तेली समुदाय के समृद्ध अतीत की छाया नज़र आती थी. ये इतिहास बेहद ही प्राचीन है. तिल से तेल और तेल से तेली बना है. तेली तेल पेरने और बेचने वाली वैश्य जाति है. तेली संस्कृत के शब्द ‘तैलिक:’ से आया है जो “खाद्य तेल बनाने” के उनके पेशे के कारण है. पुराने समय में, इस समूह के पास छोटी तेल मिलें थीं जिन्हें कोल्हू कहा जाता था. बैलों द्वारा संचालित यह यंत्र गांव देहात से शहरों तक में होता था. तेली खुद को साहू वैश्य भी कहते हैं . उत्तर वैदिक काल में तिल से ही सबसे ज्यादा खाद्य तेल निकाला जाता था, जिसका इस्तेमाल धार्मिक कर्मकांड में भी होता था. ऋग्वेद में तिल के तेल का वर्णन नहीं मिलता है पर अथर्ववेद में विस्तार से वर्णन मिलता है. इतिहासकारों का मानना हैं कि लगभग 3000 ईसा पूर्व, प्राचीन भारतीय किसानों ने सरसों की खेती शुरू कर दी थी. इससे तेल बनाया जाता था. पुरातात्विक तथ्य बताते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा जैसे शहरों में सरसों और सरसों का तेल उपयोग किया जाता था. प्राचीन भारत में सरसों को एक औषधि के रुप में उपयोग किया जाता है. भारतीय प्राचीन आयुर्वेद में बड़े पैमाने पर सरसों के तेल के उपयोग से बने कई नुस्खे भी बताए गए हैं.
धर्मराज तेली मुझे अक्सर ही महाभारत के धर्मराज की याद दिलाता था. धर्मराज युधिष्ठिर महाभारत की कथा के अभिन्न पात्र हैं. मगर क्या धर्मराज तेली भी उस युग में था? क्या पता किसी रूप में रहा हो! मगर इसमें दो राय नही कि तेली समुदाय उस दौर में भी अस्तित्व में था. महाभारत में तुलाधार नामक तत्वादर्शी का उल्लेख मिलता है (महाभारत- शांतिपर्व, अ० 261-264) जो तेल के व्यवसायी थे किन्तु इन्हें तेली न कहकर ‘वैश्य’ कहा गया, अर्थात तब तक (ईसा पूर्व उरी-4थी सदी) तेली जाति नहीं बनी थी. पद्म पुराण के उत्तरखण्ड में विष्णु गुप्त नामक तेल व्यापारी की विद्वता का उल्लेख है. ईसा की पहली सदी में मिले शिला लेखों में तेलियों के श्रेणियों/संघों (गिल्ड्स) का उल्लेख मिलता है. इसी प्राचीन भारत में महान गुप्त वंश का उदय हुआ, जिसने लगभग 500 वर्षों तक संपूर्ण भारत को आधिपत्य में रखा. इतिहासकारों ने गुप्त वंश को वैश्य वर्ण का माना है. राजा समुद्रगुप्त एवं हर्षवर्धन के काल को साहित्य एवं कला के विकास के लिए स्वर्णिम युग कहा जाता है. गुप्त काल में पुराणों एवं स्मृतियों की रचना प्रारंभ हुई. गुप्त वंश के राजा बालादित्य गुप्त के समय में नालंदा विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर भव्य स्तूप का निर्माण हुआ. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने स्तूप के निर्माता बालादित्य को तेलाधक वंश का बताया है. इतिहासकार ओमेली एवं जेम्स ने गुप्त वंश के तेली होने का संकेत किया है. इसी के आधार पर उत्तर भारत के तेली समाज ने अपने को ‘गुप्त वंश” का मानते हुये अपने भगवा ध्वज़ में गुप्तों के राज चिन्ह गरूड़ को स्थापित कर लिया. कई गुप्तकालीन मुद्राओं पर निगमस्य का उल्लेख है जो अलग अलग व्यापारियों की हो सकती हैं. मौर्य व गुप्त युग में तैलिक के संदर्भ – चूर्णकुट्ट गंध तैलिक और जंत पीलग के नाम से मिलते हैं.
पुराने वक्त में कारोबारी सार्थ यानी कारवां, चार प्रकार के सामान ले जाते थे – गणिम (गिनती वाले) धरिम (तौल वाले) परिछेद्य ( आंखो से जांच- रत्न) और मेय – तेल जिसे सेतिका से मापते थे. तेल निकालने और इससे जुड़े द्रव्यों के व्यापार के उल्लेख महाजनपद युग से आते हैं. अंगुत्तर सहित कई जातकों में काशिक चंदन का उल्लेख है. माना जाता है कि यह चंदन बाहर से आता था और इसका तेल बनाने के बाद इसे काशिक चंदन का ट्रेडमार्क दिया जाता था. डा. मोतीचंद्र मानते हैं महाजनपद युग में काशी में अच्छा चंदन होता था.इसलिए बनारस से सुगंधित तेलों का कारोबार होता था.
धार्मिक आध्यात्मिक गुरुओं और राजवंशों से भरा पड़ा समुदाय का इतिहास
धर्मराज की गोरखनाथ धाम में अभिन्न श्रद्धा थी. ”नाथ पंथ ” की स्थापना करने वाले गुरू गोरखनाथ को तेली अपना पूर्वज मानते हैं. तेली समुदाय के पूर्वजों का इतिहास बेहद पुराना है.10 वीं -11 वीं सदी में कलचुरी एवं चालुक्य वंशीय शासक हुये. कलचुरी राजा गांगेयदेव एवं चालुक्य राजा तैलंग को तेली समाज अपना पुरखा बताता है और भक्त कर्मा माता के प्रसंग को इन राजाओं के काल से संबद्ध करता है. 16 वीं सदी में राजपुताना में महाराणा प्रताप के मंत्री एवं श्रेष्ठी भामाशाह हुये. इन्होंने स्वराज्य के लिये अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दी. इनका पुण्य स्मरण ‘दानवीर भामाशाह’ के नाम किया जाता है. भारत के पहले स्वतत्रता संग्राम में सक्रिय विभूतियों में ननुआ तेली का योगदान अप्रतिम रहा जिन्हे 08 दिसम्बर, 1857 में अंग्रेजों ने प्राणदण्ड दिया. चौरी-चौरा काण्ड के अमर शहीदों में भगवानदीन तेली का नाम प्रमुख था.
इस धारा से जुड़ी बेजोड़ विभूतियों में गाजिन भक्तिन तेली, भक्त मां कर्मा बाई, धर्मगुरू गोरखनाथ, जगन्नाथ महाराज, दानवीर भामा शाह, शाहू जी महाराज, संताजी जगनाडे महाराज, ज्ञानवीर तुलाधार, स्वामी चरणदास, जोगी परमानन्द, सोमैया जैन, संत टुकडोजी महाराज, रणवीर हेमचन्द्र साहू (हेमू) एवं दुर्गादास राठोर, सती बिहुला, देवी कन्नडी व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नरेन्द्र मोदी प्रमुख है.
धर्मराज मुझसे अक्सर मज़ाक़ में “कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली” वाली कहावत का जिक्र जरूर करता था. ये अलग बात है कि ऐसा कहते हुए वह खुद को राजा भोज के बराबर ही समझते थे.‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली की‘ कथा कालजयी है. 11 वीं सदी में राजा भोज मालवा और मध्य भारत के प्रतापी राजा थे. इतिहास के पन्नों में इनकी वीरता और ज्ञान के कई किस्से दर्ज हैं. राजा भोज को शास्त्रों का महाज्ञाता कहा जाता था. उनको वास्तुशास्त्र, व्याकरण, आयुर्वेद और धर्म-वेदों का प्रचुर ज्ञान था. राजा भोज ने अपने शासनकाल के दौरान कई मंदिरों और इमारतों का निर्माण करवाया था. वे जनता के प्रिय शासकों में से एक रहे हैं.
गंगू-तेली का इतिहास
गंगू-तेली का इतिहास काफी रोचक है. ‘गंगू-तेली’ के बारे में इतिहासकारों की अलग-अलग राय है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गंगू और तेली दो लोग थे जो कि दक्षिण भारत के राजा थे. गंगू का पूरा नाम कलचुरि नरेश गांगेय था, जबकि तेली का पूरा नाम चालुक्य नरेश तैलंग था. ये दोनों अपने आप को काफी बहादुर और बुद्धिमान समझते थे इसलिए इन्होंने राजा भोज के राज्य पर आक्रमण कर दिया था.
राजा भोज ने अपनी छोटी सी सेना से दोनों को हरा दिया. इनके पास काफी सेना थी, जिससे मुकाबला करने के लिए राजा भोज अपनी सेना की एक छोटी सी टुकड़ी लेकर पहुंचे थे और उन्होंने दोनों को धूल चटा दी. इसके बाद ही लोगों ने तंज कसते हुए ये कहावत बना दी. पहले लोग कहते थे ‘कहां राजा भोज और कहां गांगेय-तैलंग’ लेकिन बाद में नाम बिगड़ते-बिगड़ते कहावत ‘कहां राजा भोज और कहां गंगू-तेली’ में तब्दील हो गई.
मैं धर्मराज तेली की व्यवहारिक समझ और प्रत्युत्पन्नमति से प्रभावित था. मुझे कई बार लगता था कि अगर आज राजा भोज होते तो धर्मराज तेली को अपनी कैबिनेट में जरूर जगह देते. शायद फिर ये कहावत बदल ‘जहां राजा भोज, वहां गंगू तेली’ हो जाती. बैल कोल्हू के खालिस तेल का स्वाद अद्भुत होता है. धर्मराज तेली के व्यक्तित्व का रस भी अद्भुत था. ऐसे लोग बहुत क़िस्मत से मिलते हैं. मैं इस मामले में खुद को क़िस्मत वाला समझता हूं..
.हेमंत शर्मा
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