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Thursday, May 20, 2021

SETH MATOL CHAND AGRAWAL

SETH MATOL CHAND AGRAWAL 

जगतसेठ भामाशाह की परंपरा के वाहक - "सेठ मटोलचंद अग्रवाल"

प्रथम स्वातंत्र्य समर (1857) के समय देश की जनता ने तन-मन-धन से सहयोग दिया। धनाढ्‌य वर्ग भी इसमें पीछे नहीं रहा। उनमें से कुछ धनाढ्‌य ऐसे भी थे जिन्होंने भामाशाह की परम्परा को जीवन्त करते हुए अपना सारा धन स्वतंत्रता के संग्राम के लिए अर्पित कर दिया। उस काल के ऐसे ही भामाशाह का जीवन परिचय प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है

10 मई 1857 के दिन मेरठ में हिन्दुस्तानी सैनिकों ने ब्रितानियों को धूल चटाकर दिल्ली को भी ब्रितानियों की गुलामी से मुक्त करने में सफलता पाई थी। बहादुरशाह जफर से उनकी व्यक्तिगत पहचान थी। लाला मटोलचन्द अग्रवाल ने एक बार बहादुरशाह जफर के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि वे हिन्दुओं की गो-भक्ति की भावना की कद्र करके गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दें, जिसे बहादुरशाह ने स्वीकार कर लिया था। बादशाह ने अपना एक दूत डासना भेजा। उन्होंने बादशाह का पत्र लालाजी को दिया जिसमें उन्होंनेे दिल्ली पहुँचकर भेंट करने को कहा गया था। लाला मटोलचन्द अग्रवाल भगवान शिव के परम भक्त थे। सवेरे उठते ही उन्होंने भगवान शिव की पूजा अर्चना की तथा प्रार्थना की कि, "मैं देश के कुछ काम आ सकूं,ऐसीशक्तिदो।" लालाजी रथ में सवार होकर दिल्ली पहुँचे। बहादुरशाह जफर ने सूचना मिलते ही उन्हें महल में बुलवा लिया। बादशाह ने कहा- घ् सेठजी, हमारी सल्तनत ब्रितानियों से लड़ते-लड़ते खर्चे बढ़ जाने के कारण आर्थिक संकट में फँस गई है। हम सैनिकों का वेतन तक नहीं दे पाये हैं। ऐसी हालत में यदि आप हमारी कुछ सहायता कर सकें, कुछ रूपया उधार दे सकें, तो शायद हम इस संकट से उबर जायें। यदि दिल्ली की सल्तनत पर हमारा अधिकार बना रहा और ब्रितानियों की साजिश सफल नहीं हो पाई तो हम आपसे लिया गया पैसा-पैसा चुका देगें। '

लाला मटोलचन्द ने बादशाह के शब्द सुने तो राष्ट्रभक्ति से पूर्ण हृदय दुखित हो उठा। वे बोले, "में उस क्षेत्र का निवासी हूँ जहाँ के अधिकांश ग्रामीण महाराणा प्रताप के वंशज हैं। हो सकता है कि जब वे राणावंशी राजपूत मेवाड़ से इस क्षेत्र में आकर बसे हों, तो मेरे पूर्वज भी उनके साथ आकर बस गये हों। हो सकता है कि हम लोग भामाशाह जैसे दानवीर व राष्ट्रभक्त के ही वंशज हों। अतः हमारा यह परम कर्त्तव्य है कि विदेशी ब्रितानियों से अपनी मातृभूमि की मुक्ति के यज्ञ में कुछ न कुछ आहुति अवश्य दें। आप चिन्ता न करें जितना सम्भव हो सकेगा धन आपके पास पहुँचा दिया जायेगा।"

सेठ मटोलचन्द ने डासना पहुँचते ही अपने खजाने के सोने के सिक्के छबड़ो में भरवाये तथा उन्हें रथों व बैलगाड़ियों में लदवाकर दिल्ली की ओर रवाना कर दिया। जब ये सोने के सिक्कों से भरे छबड़े लाला जी के मुनीम ने बादशाह को पेश किये तो बादशाह अपने मित्र सेठजी की दरियादिली को देखकर भाव विभोर हो उठे। उन्होंने अपने वजीर से कहा-"मेरे राज्य में लाला मटोलचन्द अग्रवाल जैसे महान राष्ट्रभक्त दानी सेठ रहते हैं, इसका मुझे गर्व है।"

सेठ मटोलचन्द ने देश की स्वाधीनता के संघर्ष में अपना सारा खजाना अर्पित कर दानवीर भामाशाह का आदर्श प्रस्तुत किया। उन महान दानी सेठ की हवेली आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में डासना में खंडहर बनी हुई उस डेढ़ सौ वर्ष पुरानी गाथा की साक्षी हैं।

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