STORY OF BANIYA - बनिया की कहानी
जी हां ! चतुर, चालाक , बोली में रस घोले , वाकपटुता में निपुर्ण किसी जाति -बिरादरी की चर्चा होती है तो सहज रूप में बनिया का चेहरा घूम जाता है । फिल्मों ने बनियों को सारी जातियो का खलनायक बना कर रख दिया है । लोक- लोकोपतियो में बनिया जाति पर अनगिनत कटाक्ष, कथा -कहानियां और मुहाबरे मौजूद है और हो भी क्यों नही ! " कमजोर की बहू गाँव भर के भउजाई लगती हैं " ।
यदि आप यदि किसी से जाति की बात कर दे तो अपनी जातीय प्रशंसा के कसीदे पढ़ने लगता है जैसे - गर्व से कहो ! हम ब्राह्मण, क्षत्रिय , ... आदि है ---- भले ही वेद का एक श्लोक न जाननेवाला ब्राह्मण होने का दावा बड़ा गर्व से करता है ! कभी जीवन मे तलवार नही उठानेवाला क्षत्रिय होने का दम्भ या गर्व करता है , वही जातिगत कर्म से कोसों दूर बनिया की जाति पर कटाक्ष , व्यग्य की अनगिनत किस्सा- कहानियों से इस जाति के मनोबल को गिराया गया या दर्शाया जाता हैं।
बनिया जाति के मित्रता पर संदेह किया जाता हैं जिस पर हरियाणा में कहावत हैं " वाणिक पुत्र कभी न मित्रं , जब मित्रं तब दगी दगा । " वही कबीर साहेब भी बनियों के बारे में लिखा है - " मन बणिया वणिज न छोड़ें , जनम - जनम का मारा बणिया आजहुँ पूरा न तौले ।। वही राजस्थान की प्रसिद्ध लोकोप्ति है कि परिचित बाणिया ज्यादा ठगता हैं अर्थात --" जाण मारै बाणिया , पहचान मारै चोर " ।
वही बनियों को धन का लोभी , कंजूस, मक्खीचूस की उपमाओं से समाज के मध्य छवि दर्शा कर पूरी कौम का उपहास उड़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोडा गया है - "आमा , निम्बू , बाणिया चापे रस देवे । कायस्थ, कौआ , कनकटा बामण मुर्दा से लेवे ।। " जबकि देश मे दानशीलता मैं यह वर्ग सर्वाधिक अग्रणी रहा है । धर्म कर्म में यह जाति - वर्ग हमेशा आगे रहा है । इस पर भी राजस्थान में यह किस्सा अक्सर सुनाया जाता हैं कि --
बाणियो खाट में तो बामण ठाठ में ,
बणियो ठाठ में तो बामण खाट में ।।
अर्थात बनिया बीमार है तो ब्राह्मण ग्रह दशा, दान- पुण्य का धौस देकर ठाट में जीवन बसर करता है वही इसके ठीक विपरीत बनिया ठाट में जीवन -बसर कर रहा है तो ब्राह्मणों की दशा दयनीय बन जाती हैं।
इसके ठीक विपरीत सर्व समाज के लिए इस वर्ग की भूमिका अहम रहा है , यह सदैव पालक के रूप मे कार्य करते रहा है और समाज से जुड़ा हुआ वर्ग हैं । देश में लगभग आधा से ज्यादा धार्मिक सराय-धर्मशाला, प्याऊ आदि के निर्माता या दानकर्ता यही वर्ग रहा है। उसके बावजूद भी इसे वह सम्मान नही प्राप्त है इसका मुख्य कारण सदियों से यह वर्ग समाज का शांतिप्रिय , समरसता- प्रेम भाव का पोषक वर्ग रहा हैं।
सम्पूर्ण देश में धर्म कर्म के लिए सबसे ज्यादा काम बनिया करता हैं. पुरे देश में किसी भी तीर्थ, नगर, कसबे में चले जाइए, सबसे ज्यादा बनिए के बनाए मंदिर, धर्मशाला, स्कूल कालेज, प्याऊ, पुस्तकालय मिलेगे. जैन धर्मशाला, अग्रवाल धर्मशाला, महेश्वरी धर्मशाला, मारवाड़ी धर्मशाला यही मिलेगे. हर नगर में जैन कालेज, अग्रवाल कालेज, आदि सेठो के बनवाये हुए मिलेगे. रामलीलाए, बालाजी जयंती यात्राये, कृष्ण लीला यात्राये ये सब बनियों के द्वारा ही आयोजित मिलेगी. अबसे ज्यादा दान बनिया करता हैं.
बनियों के द्वारा स्थापित कारखानों से और कंपनियों से इस देश में कम से कम ६० प्रतिशत रोजगार मिला हुआ हैं. ९० प्रतिशत समाचार पत्र और चैनल वैश्य समाज के हैं. उन्हें दूसरी बिरादरी के लोग संभाल रहे हैं. बनियों के संस्थान कम से कम ७५ प्रतिशत टोटल टैक्स का भारत सरकार और राज्य सरकारों को देते हैं. फिर भी बनियों को गाली डी जाति हैं और बनिया बदनाम हैं. इस के लिए जिम्मेदार हम लोग स्वयं हैं. ये स्थिति सुधारनी होगी, अपने संगठन मजबूत करने होंगे. अपने संस्थानों में बेरोजगार वैश्य लोगो को रोजगार देना होगा. अपने स्कूल कालेजो में वैश्य बच्चो को सस्ता शिक्षण देना होगा. तभी वैश्य समाज का उद्धार होगा.
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