आलेख : जैन धर्म और भारतीय संस्कृति के विष्वदूत श्री वीरचंद राघवजी गांधी
जैन धर्म और समाज में हर कालखण्ड में अनेक सन्त, विचारक, विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार, कलाकार, षिक्षाविद्, वैज्ञानिक, वीर, दानवीर, शासक, प्रषासक, अर्थषास्त्री, उद्योगपति आदि विविध क्षेत्रों से जुड़े विषिष्टजन हुए हैं। इन विषिष्टजनों ने समाज, देष और दुनिया को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया। ऐसे ही प्रभावित करने वाले महानुभावों में जैन धर्म-दर्षन के विद्वान श्री वीरचन्द राघवजी गांधी भी हैं। यह एक तथ्य है कि जैन धर्म के अनेक ऐतिहासिक महापुरुषों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आज भी समय और उपेक्षा की धुंध छाई हुई है। वीरचन्द राघवजी गांधी के जीवन के बारे में भी यही स्थिति थी, लेकिन कुछ जागरूक सन्तों और लेखकों के प्रयासों से उनका प्रेरणास्पद जीवन विषेष रूप से उजागर हुआ।
25 अगस्त 1864 में गुजरात के भावनगर जिले के महुवा में जन्मे श्री वीरचन्द बचपन से ही मेधावी थे। कहते हैं कि उनके जन्म से पूर्व ही उनके पिता राघवजी को भगवान पाष्र्वनाथ की उपासिका पùावती देवी ने स्वप्न में आकर ऐसे प्रतिभाषाली पुत्र के होने की सूचना दे दी थी। साथ ही घर के आंगन में भगवान पाष्र्वनाथ की प्रतिमा गड़ी होने की सूचना भी दी। देवी की दोनों ही बातें सही साबित हुईं। वीरचन्द ने कानून की षिक्षा अर्जित करने के साथ ही जैन दर्षन और अन्य भारतीय दर्षनों का अध्ययन किया। उन्होंने 14 भाषाएँ सीखीं।
सितम्बर-1893 में षिकागों में विष्व धर्म संसद में दुनिया के विभिन्न धर्मों और देषों के लगभग 3000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। उसी धर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द अपने बहुत ही प्रभावषाली व्याख्यान से इतिहास में अमर हो गये। उस विष्व धर्म संसद में जैन धर्म के प्रतिनिधि थे 29 वर्षीय युवा विद्वान वीरचन्द राघवजी गांधी। आचार्य विजयानन्दसूरिजी (आत्मारामजी महाराज) ने वीरचन्द को इस धर्म संसद में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा था। धर्म संसद में विवेकानन्द के साथी वीरचन्द का व्याख्यान भी बहुत प्रभावषाली रहा। उपस्थित प्रतिनिधियों तथा अमेरिका के समाचार पत्रों ने वीरचन्द के व्याख्यान की बहुत तारीफ की। अखबारों में उनके व्याख्यान तथा व्याख्यान-अंष प्रकाषित हुए। उनकी तारीफ सिर्फ उनकी वक्तृत्व-कला के कारण ही नहीं, अपितु उनकी विद्वŸाा तथा सिद्धान्तों की निष्पक्ष व प्रभावी प्रस्तुति के कारण भी हुई। एक अमेरिकन अखबार ने लिखा कि जैन धर्म और जीवनषैली पर भारत के युवा विद्वान वीरचन्द का व्याख्यान सर्वाधिक एकाग्रता और रुचि से सुना गया।
अमेरिका में उनके व्याख्यान इतने पसन्द किये गये कि उन्हें और व्याख्यान देने के लिए अमेरिका में ठहरने का निवेदन किया गया। वे कुछ वर्षों तक अमेरिका में रहे और जैन धर्म, भारत और भारतीय संस्कृति पर अनेक व्याख्यान दिये। जैन धर्म, दर्षन, इतिहास तथा भारतीय संस्कृति के बारे में व्याप्त अनेक भ्रान्तियों का उन्होंने निराकरण किया। एक अमेरिकी सज्जन ने आष्चर्य करते हुए लिखा कि एक उपदेषक या मुनि नहीं होते हुए भी वीरचन्द की प्रस्तुति बेहद प्रभावषाली है। अमेरिका में वीरचन्द ने प्राच्यविद्या और जैनविद्या को समर्पित दो संस्थाएँ स्थापित कीं। अमेरिका के अलावा यूरोपीय देषों में भी उन्होंने व्याख्यान दिये। कहते हैं कि उन्होंने कुल 535 व्याख्यान दिये। उन्हें स्वर्ण पदक, रजत पदक और अन्य अनेक सम्मान प्राप्त हुए। षिकागो में आज भी वीरचन्द की प्रतिमा लगी हुई है।
जिस प्रकार विवेकानन्द से भगिनी निवेदिता प्रभावित हुई, उसी प्रकार वीरचन्द से श्रीमती होवार्ड प्रभावित हुई। वीरचन्द से प्रेरित होकर होवार्ड ने पूर्ण शाकाहार और जैन जीवनषैली अपना ली। षिकागो में वीरचन्द ने भारतीय महिलाओं की षिक्षा के लिए जो संस्था बनाई, उसकी सचिव श्रीमती होवार्ड बनी। इस संस्था के माध्यम से अनेक भारतीय महिलाओं को अमेरिका में उच्च षिक्षा के अवसर मिले। इससे वीरचन्द का षिक्षा और नारी षिक्षा के प्रति लगाव व्यक्त होता है। वीरचन्द के व्यक्तित्व और व्याख्यानों से प्रभावित होकर अनेक विदेषियों ने सदा-सदा के लिए पूर्ण शाकाहार अपना लिया था।
वीरचन्द को मानवसेवा, जीवदया और संस्कृति की रक्षा में बहुत रुचि थी। जब 1896-97 में भारत में भयंकर अकाल पड़ा तो वीरचन्द ने लोगों से सहयोग प्राप्त करके अमेरिका से चालीस हजार रुपये और एक जहाज भरकर अनाज भिजवाया। जब उन्हें पता चला कि सम्मेद षिखर में सुअर मारने का कत्लखाना खोला गया है तो वीरचन्द ने लोगों के सहयोग से कत्लखाना बन्द करवाया। इस कत्लखाने को बन्द करवाने में उनके कानूनी ज्ञान का भी उपयोग हुआ। जब भाषा की अड़चन आई तो उन्होंने कलकŸाा जाकर बंगाली भाषा सीखी। एक और घटना उनके संस्कृति प्रेम को दर्षाती है। पालीताना जैन तीर्थ पर तीर्थयात्रियों से व्यक्तिगत कर-वसूला जाता था। वीरचन्द ने बहुत संघर्ष करके वह व्यक्तिगत तीर्थयात्रा कर (टैक्स) बन्द करवाया। 1890 में जब उनके पिता राघवजी का देहान्त हुआ तो वीरचन्द ने विलाप करने तथा छाती पीटकर रोने की प्रथा का विरोध किया।
बहुआयामी प्रतिभा के धनी वीरचन्द का कहना था कि सिर्फ प्राकृत और संस्कृत भाषा का ज्ञान हो जाने मात्र से धर्म, दर्षन और संस्कृति को समग्र रूप में नहीं समझा जा सकता है। इतिहास, परम्परा और अन्य बातों का ज्ञान भी आवष्यक है। अक्टूबर-1893 में षिकागो में उन्होंने विष्व अचल सम्पŸिा सम्मेलन में भी भाग लिया और भारत में अचल सम्पŸिा कानून विषय पर प्रभावी व्याख्यान दिया। इसी प्रकार अक्टूबर-1899 में अमेरिका में हुए तीसरे अन्तरराष्ट्रीय वाणिज्यिक सम्मेलन में भाग लेने वाले वे अकेले भारतीय थे। वहाँ उन्होंने ‘अमेरिका और भारत के व्यापारिक सम्बन्ध’ विषय पर व्याख्यान दिया और छाप छोड़ी। देषभक्त वीरचन्द के मन में भारत को पूर्ण स्वतंत्र देखने की गहरी भावना थी। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से भी जुड़े।
मोहनदास करमचन्द गांधी (महात्मा गांधी) ने वीरचन्द को आपना भाई स्वरूप मित्र माना। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में भी वीरचन्द का गौरवपूर्ण उल्लेख किया। वीरचन्द स्वामी विवेकानन्द के भी मित्र थे। जूनागढ़ के दीवान हरिदास देसाई को विवेकानन्द ने अमेरिका से एक पत्र में लिखा - ‘‘..अब यहाँ वीरचन्द गांधी है। एक जैन जिसे आप बाॅम्बे से जानते हैं। वे इस भयंकर ठण्डी में भी शाकाहारी भाजी और तरकारी के सिवाय कुछ नहीं खाते हैं। इनके नख व दाँत हमेषा देष व धर्म की सुरक्षा के लिए प्रयत्नषील रहते हैं। अमेरिका की जनता वीरचन्द को खूब पसन्द करती है।’’ गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेन्द्र मोदी (अब भारत के प्रधानमंत्री) ने वीरचन्द राघवजी के सम्बन्ध में बोलते हुए कहा था कि वीरचन्द राघवजी बड़े विद्वान थे। उन्होंने कई वर्षों तक अमेरिका में रहकर भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। इतिहास के ऐसे पन्नों के उजागर होने से प्रेरणा मिलती है। श्री मोदी ने इसे दुःखद संयोग बताया कि स्वामी विवेकानन्द का मात्र 39 वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो गया तो वीरचन्द राघवजी का मात्र 37 वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो गया।
7 अगस्त 1901 को दिवंगत होने से पूर्व अपने अल्प जीवनकाल में भी वीरचन्द राघवजी गांधी ने जैन धर्म, भारतीय समाज और संस्कृति के लिए अद्भुत प्रेरक कार्य किये। पुष्करवाणी ग्रुप ने बताया कि देष के इस महान सपूत के सम्मान में 8 नवम्बर 2009 को भारत सरकार ने पाँच रुपये मूल्यवर्ग का बहुरंगी डाक टिकट जारी किया। समाज यदि जैनविद्या के विकास, विद्वत-निर्माण और विद्वानों के मान-मूल्यांकन पर कारगर कार्य कर सके तो श्री वीरचन्द राघवजी की सार्द्ध शताब्दी (150वीं जयन्ती) मनाना वास्तविक रूप से सार्थक हो पायेगा।
साभार: डाॅ. दिलीप धींग
(निदेषक: अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)
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