VAISHYA SENAPATI & SAMANT - वैश्य प्रशासनिक अधिकारी मंत्री-सामंत एवं सेनापति
वैश्यों की राजनीतिक भूमिका के विवेचना क्रम में अब हम उन वैश्य प्रशासनिक अधिकारियों यथा-मंत्री, अमात्य, राज्यपाल आदि का उल्लेख करेंगे जो राज्यो में अति महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे। इसके साथ ही साथ उन वैश्य सामंतों एवं सेनापतियों का भी नामोल्लेख करेंगे जिन्होंने रणभूमि में अपनी वीरता एवं शौर्यता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुये कुशल योद्धा होने का परिचय दिया है।
पुष्यगुप्त
बौद्ध साहित्य एवं अशोक के अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि मौर्य साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभक्त था और राजकुल के ही कुमार प्रायः उनके राज्यपाल या गवर्नर हुआ करते थे। रुद्रदामन (150 ई०) के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सौराष्ट्र (गुजरात) को अपने साम्राज्य का एक प्रान्त बनाया था और वहां एक प्रान्तपति नियुक्त किया था जो वैश्य वंश का था, जिसका नाम पुष्यगुप्त था। उसने वहां जनता के हित के लिये विशाल सुदर्शन झील का निर्माण कराया था (मौर्यस्य राज्ञः चन्द्रगुप्तस्य राष्ट्रियेण वैश्येन पुष्यगुप्तेन कारितः ॥) अतः स्पष्ट है कि पुष्यगुप्त मौर्य साम्राज्य के सौराष्ट्र प्रान्त का राज्यपाल था।
शिवगुप्त एवं परिगुप्त
सातवाहन कालीन अभिलेखों से पता चलता है कि प्रशासन की दृष्टि से राज्य अनेक 'आहारों' अथवा "राष्ट्रों" में विभक्त था। आहारों के शासक अमात्य कहलाते थे। 151 सातवाहन राजा बड़े-बड़े पदों पर शायद व्यापारियों को रखते थे। उनके अमात्यों में शिवगुप्त एवं परिगुप्त का उल्लेख प्राप्त होता है। 152 रामशरण शर्मा के अनुसार ये वैश्य थे। 153 परिगुप्त गौतमीपुत्र सातकर्णि के अधीन अमात्य पद पर था। अमात्य सातवाहन राजव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग थे। इन्हें वही स्थान प्राप्त था जो अशोक की शासन व्यवस्था में महामात्रों को और गुप्तों की राजव्यवस्था में कुमारामात्य को था। शिवगुप्त और परिगुप्त एक ही परिवार के थे अथवा अलग अलग परिवार के थे, इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि सातवाहन काल में पद वंशानुगत नहीं था। 154
प्रभावती गुप्ता
प्रभावती गुप्ता महान गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त 'विक्रमादित्य' की पुत्री थीं। ये भारत की उन महिलाओं में से एक हैं, जिन्होंने अपने पुत्र के अल्पवयस्कता के कारन राज्य के शासनकार्य को सफलता पूर्वक चलाया। इनका विवाह वाकाटक राजवंश के रुद्रसेन द्वितीय के साथ हुआ था। गुप्त राजकुल में उत्पन्न इस कन्या के भाग्य में सम्भवतः सुख नहीं बदा था। विवाह के कुछ वर्षों के उपरान्त इसके पति की मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु के समय (390 ई०) इसकी आयु 25 वर्ष थी तथा इसके प्रथम पुत्र दिवाकर सेन की आयु 5 वर्ष और द्वितीय पुत्र की आयु 2 वर्ष थी। प्रभावती गुप्ता के दुःखों का अभी अन्त नहीं हुआ था। प्रकृति को शायद यह स्वीकार न था कि उसे हंसता देख सके। शासन के तेरहवें वर्ष में दिवाकर की मृत्यु हो गयी। अतः उसने अपने द्वितीय पुत्र दामोदर को सिंहासन पर बैठाया और सम्भवतः 'पांच-छः वर्ष तक उसकी संरक्षिका के रूप में कार्य किया। इस प्रकार प्रभावती गुप्ता भारतीय महिलाओं की प्रथम पंक्ति में खड़ी होने की अधिकारी हैं, जिन्होंने पति के न रहने पर भी राज्यकार्य का योग्यता व कुशलता पूर्वक संचालन किया था।
गोविन्द गुप्त
गुप्त साम्राज्य में भी शासन की सुविधा के लिये साम्राज्य का विभाजन प्रान्तों में किया गया था। प्रान्त को देश अथवा भुक्ति कहा जाता था। राज्यपाल को 'उपरिक' अथवा 'उपरिक महाराज' कहा जाता था। ये राज्यपाल उप नरेश की भांति अपने- अपने क्षेत्रों में ठाट-बाट के वातावरण में राज्य करते थे। उन्हें प्रान्तीय कर्मचारियों की नियुक्ति का पूर्ण अधिकार प्राप्त था। गुप्तवंशीय अभिलेखों के साक्ष्यों से प्रमाणित हो जाता है कि राजकुमारों के अतिरिक्त विश्वस्त एवं सुयोग्य कर्मचारी भी प्रान्तपति के पद पर नियुक्त किये जाते थे। गुप्त राजवंश के शासकों का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं। अभिलेखों से पता चलता है कि गुप्त वंश के कुछ राजकुमार भी प्रान्तपति जैसे महत्वपूर्ण प्रशासकीय पदों पर नियुक्त थे। गोविन्दगुप्त सम्भवतः कुमारगुप्त का छोटा भाई था। वैशाली मुद्रा के ऊपर उसका नाम उत्कीर्ण मिलता है। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय वहां का राज्यपाल था। कुमारगुप्त के समय वह पश्चिमी मालवा का राज्यपाल था। गुप्त राजवंश वैश्य जाति से सम्बंधित था, इस सम्बन्ध में पहले ही विस्तार पूर्वक चर्चा की जा चुकी है। अतः इस राजपरिवार के राजकुमारों की जाति आदि के सम्बन्ध में पुनरावृत्ति करना पिष्टपेषण मात्र होगा।
घटोत्कच गुप्त -
यह भी गुप्त वंशीय राजकुमार था तथा कुमारगुप्त का पुत्र था। कुमारगुप्त के शासन काल में यह पूर्वी मालवा में शासन करता था।
चिरातदत्त
पुराणों में तथा पारस्पकर गृहसूत्र में जहां हमें वैश्यों के लिये गुप्त नामान्त उपाधि जोड़ने का उल्लेख प्राप्त होता है, 155 वहीं वैश्य गुप्तकाल में हम वैश्यों की 'दत्त' नामान्त उपाधि भी पाते हैं। पउमचरिउ में वैश्यों के नाम के अन्त में 'दत्त' नाम जोड़ने को मान्यता दी गई है। 156 गुप्तकालीन अभिलेखों में हम अनेक दत्त तामान्त व्यापारियों को नगर शासन की समिति में पाते हैं। 543 ई० के दामोदर पुर लेख में सार्थवाह स्थाणुदत्त का उल्लेख प्राप्त होता है, जो सार्थवाह था तथा नगर शासन की समिति में था। दामोदर पुर के लेखों में बालादित्य के काल में कोटिवर्ष के विषयपति की सहायता के लिये जो समिति थी उसमें प्रथम कुलिक के नाम के लिये वरदत्त एवं मतिदत्त का नाम प्राप्त होता है। इन साक्ष्यों से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि वैश्य लोग दत्त नामान्त उपाधि का भी प्रयोग करते थे। इस ओर पहले ही संकेत किया जा चुका है कि गुप्त साम्राज्य प्रान्तों अथवा भुक्तियों में विभक्त था। बंगाल से प्राप्त कुमारगुप्त के लेखों में पुण्डवर्द्धनभुक्ति (उत्तरी बंगाल) का उल्लेख बहुधा मिलता है। 443 ई० से 447 ई० तक इस प्रान्त का राज्यपाल चिरातदत्त था। इसकी उपाधि उपरिक महाराज थी। (पुण्ड्रवर्द्धन-भुक्तातुपरिक चिरातदत्तस्य)। दामोदरपुर से दो अन्य अभिलेख भी प्राप्त हुये हैं उसमें भी दत्त नामधारी दो राज्यपाल ब्रह्मदत्त तथा जयदत्त का नाम प्राप्त होता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि बंगाल में कोई दत्त नामान्त वैश्य परिवार था, जिसके सदस्य परम्परागत आधार पर उत्तरीबंगाल (पुण्डवर्द्धन) के राज्यपाल क्रमशः नियुक्त किये गये थे।
पर्णदत्त
यह भी स्कन्दगुप्त के काल में सौराष्ट्र प्रान्त का राज्यपाल था। स्कन्दगुप्त के कर्मचारियों में यह सर्वाधिक योग्य था। इस प्रान्त की रक्षा के निमित्त सबसे उपयुक्त कर्मचारी यही समझा गया था। पारसीक लेखों में इसे फर्नदत्त कहा गया है। 157 स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ लेख में इसकी योग्यता के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस प्रकार देवता वरुण को पश्चिमी दिशा का अधीश्वर नियुक्त कर स्वस्थ मन हो गये थे, उसी प्रकार वह राजा (स्कन्दगुप्त) पर्णदत्त को पश्चिमी दिशा का गोप्ता (रक्षक) नियुक्त कर विश्वास युक्त हो गया था।
चक्रपालित
यह पर्णदत्त का पुत्र था। पर्णदत्त को हम जहां दत्त नामान्तक वैश्य उपाधि का प्रयोग करते हुये पाते हैं वहीं उसके पुत्र के नाम के अन्त में हम 'पालित' शब्द पाते हैं। पंतजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि कुछ वैश्य अपने नाम के अन्त में 'पालित' उपाधि जोड़ते थे। इससे प्रतीत होता है कि पिता-पुत्र दोनों वैश्यों की भिन्न-भिन्न उपाधियों का प्रयोग करते थे। गुप्त शासन व्यवस्था में क्योंकि प्रान्तपति को प्रान्तीय कर्मचारियों को नियुक्ति का पूर्ण अधिकार था। अतः पर्णदत्त ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुये अपने पुत्र चक्रपालित को सौराष्ट्रपुर गिरिनगर (आधुनिक गिरिनार) का प्रमुख अधिकारी नियुक्त किया। नगर प्रमुख की नियुक्ति की परम्परा हमारे देश में मौर्य काल से ही चली आ रही थी। नगर-प्रमुख को कौटिल्य ने 'नागरक' कहा है। इसकी पहचान अशोक कालीन कलिंग लेख के 'नगलक' से की जा सकती है। मनुस्मृति में नगर के प्रमुख अधिकारी को 'नगरसर्वार्थ चिन्तक' अर्थात पुर में होने वाली प्रत्येक घटना की देख-रेख करने वाला कहा गया है। 1.59 जूनागंढ़ अभिलेख के अनुसार उसके दो प्रधान कर्त्तव्य थे- (1) नगर की रक्षा 160 (2) दुष्टों का दमन । 161 इस पदाधिकारी से आशा की जाती थी कि उसका व्यवहार पुरवासियों के साथ सहानुभूति एवं आत्मीयता से परिपूर्ण हो। गिरिनगर का प्रधान अधिकारी चक्रपालित यहां के नागरिकों को पुत्र के समान मानता था तथा उनके दोषों को दूर करने की चेष्टा करता था। 162 इस अधिकारी से सार्वजनिक कार्यों की आशा की जाती थी। इस पद पर प्रायः बहुत सुयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी। जूनागढ़ लेख के अनुसार चक्रपालित सब प्रकार से श्रेष्ठ था तथा उसमें सम्पूर्ण वांछनीय गुण विद्यमान थे। वह क्षमा, प्रभुत्व, विनय, नय, शौर्य, दान तथा दाक्षिण्य आदि सद्गुणों का केन्द्र बिन्दु था। 16.3 अभिलेख में कहा गया है कि इस सम्पूर्ण विश्व में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जो कि गुणों के द्वारा उसकी तुलना में आ सके। वह गुणवान व्यक्तियों के लिये सम्पूर्ण रूप से उपमा का विषय हो गया था। चक्रपालित ने पुरवासियों के हित के लिये सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार कराया था। 164
शर्वदत्त
493-94 ईसवी के एक गुप्तकालीन अभिलेख में शर्वदत्त नामक दीक्षित गृहस्थ का उल्लेख आया है। यह उपरिक (प्रान्तीय शासक) और दूतक (अनुदान निष्पादक) का कार्य करता था। 165 रामशरण शर्मा का विचार है कि यह
गुप्त राजाओ के सामन्त थे। रत्नदेव के राज्यकाल में गंग नृपति चोडगंग द्वारा कलचुरि राज्य पर आक्रमण किया गया। चोडगंग के राज्य की तुलना में रत्नदेव का राज्य बहुत ही छोटा पड़ता था। इसके अतिरिक्त चोडगंग महाप्रतापी के रूप में विख्यात था। ऐसे बलशाली राजा का सामना करना टेढ़ी खीर थी। लेकिन वैश्य सामन्त वल्लभराज के पराक्रम के कारण चोडगंग जैसे प्रतापी राजा को पराजय का मुंह देखना पड़ा। चोडगंग को बड़ी बदनामी के साथ भागना पड़ा। 168 कलचुरियों के वैश्य सामन्त वल्लभराज के अनेक लेखों में उसे गौड़ देश में मिलो विजय का वर्णन आया है। 169 उसके शौर्य व पराक्रम के कारण कलचुरि रानी लाच्छल्लदेवी उसे अपने पुत्र के समान मानती थीं। 170 अभिलेखों में यह भी उल्लिखित है कि वल्लभराजदेव ने अनेक देवालय का निर्माण करवाया। उसके द्वारा दिये गये दान का भी उल्लेख अभिलेखों में हुआ है।
यशगुप्त
कलचुरि अभिलेखों में यशगुप्त नामक वैश्य का उल्लेख रत्नपुर के 'पुरप्रधान' (नगराध्यक्ष) के रूप में अनेक बार आया है। 171 पुरप्रधान का तादात्मय हम गुप्तकाल के नगर प्रमुख से कर सकते हैं। स्थानीय प्रशासन में यह एक महत्त्वपूर्ण पद होता था। गुप्त काल में चक्रपालित इसी पद पर नियुक्त था।
उदयन
यह पहले ही कहा जा चुका है कि चालुक्यों के शासन काल में राज्य के उच्चतम अधिकारियों में प्रमुख वणिक वर्ग के हो लोग थे। जाम्ब, मुंजाल, उदयन आदि सभी अधिकारी वैश्य जाति के ही थे। उदयन चालुक्य नरेश जयसिंह (1094- 1142 ई०) के महामात्य थे। जयसिंह के कोई पुत्र न था लेकिन कुमारपाल को राजा बनाना जयसिंह को सहा न था। उसने इसी लिये कुमारपाल के पिता त्रिभुवन पाल का वध करा डाला और कुमार पाल को भी मार डालने की इच्छा से पकड़ने की आज्ञा दे दी। उदयन जयसिंह के मंत्री थे फिर भी उन्होंने कुमारपाल की रक्षा तथा उसे राजपद दिलाने में विशेष भूमिका निभाई। जिस समय कुमार, पाल आश्रय विहीन हो अज्ञातवास तथा असहायावस्था में इधर-उधर भ्रमण कर रहा था उस समय मंत्री उदयन ने अपने यहां इन्हें न केवल शरण दी अपितु धनादि की भी सहायता की थी। कुमारपाल ने राजसिंहासन प्राप्त करने के पश्चात उदयन का आभार मानते हुये उसे न केवल अपना प्रधानमंत्री बनाया अपितु उसके पुत्रों को भी राज्य के शासन में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया।
वल्लभ राज
कलचुरि राजाओं के अभिलेखों में हमें अनेक वैश्य अधिकारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। अभिलेख के उल्लिखित अधिकारियों में देवराज, राघव, हरिगण, वल्लभराज वैश्य वर्ण के ही थे। 167 वल्लभराज कलचुरि नरेश रत्नदेव (1120 ई०) के सामन्त थे। रत्नदेव के राज्यकाल में गंग नृपति चोडगंग द्वारा कलचुरि राज्य पर आक्रमण किया गया। चोडगंग के राज्य की तुलना में रत्नदेव का राज्य बहुत ही छोटा पड़ता था। इसके अतिरिक्त चोडगंग महाप्रतापी के रूप में विख्यात था। ऐसे बलशाली राजा का सामना करना टेढ़ी खीर थी। लेकिन वैश्य सामन्त वल्लभराज के पराक्रम के कारण चोडगंग जैसे प्रतापी राजा को पराजय का मुंह देखना पड़ा। चोडगंग को बड़ी बदनामी के साथ भागना पड़ा। 168 कलचुरियों के वैश्य सामन्त वल्लभराज के अनेक लेखों में उसे गौड़ देश में मिलो विजय का वर्णन आया है। 169 उसके शौर्य व पराक्रम के कारण कलचुरि रानी लाच्छल्लदेवी उसे अपने पुत्र के समान मानती थीं। 170 अभिलेखों में यह भी उल्लिखित है कि वल्लभराजदेव ने अनेक देवालय का निर्माण करवाया। उसके द्वारा दिये गये दान का भी उल्लेख अभिलेखों में हुआ है।
सेनापति बहड़
यह प्रधानमंत्री उदयन का पुत्र तथा एक प्रसिद्ध सेनापति एवं परम शूरवीर योद्धा था। इसकी शूरता का एक विशिष्ट अंग यह था कि इसकी दहाड़ से हाथी विचलित हो जाते थे। यहां तक कि चालुक्य नरेश कुमार पाल का निजी हाथी 'कलहपंचानन' भी इसकी दहाड़ से विचलित हो उठता था। द्वाश्रय काव्य से पता चलता है कि बहड़ ने कुमारपाल के अधीनत्व और आदेशों पर कार्य करना अस्वीकार कर दिया था और कुमारपाल की सेवा में न रहकर नागोर के राजा 'अण' या 'अणक' (अरुणो राज) के यहां चला गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वहड़ एक परम शूरवीर योद्धा था। इसकी वीरता का अनुमान हम इसी बात से लगा सकते हैं कि कुमारपाल तथा अरुणोराज के बीच होने वाले युद्ध में अरुणोराज की सेना में सेनापति बहड़ भी हाथी पर स्वार था, जिसकी दहाड़ से हाथी भी आतंकित हो जाते थे। फलतः कुमार पाल ने बहड़ की दहाड़ के भय से अपने वस्त्रों से अपने हाथी के दोनों कानों को बांधने के उपरान्त ही रणभूमि में अणक के विरुद्ध अग्रसर हुआ।
सेनापति चहड़
यह बहड़ का छोटा भाई था। कुमार पाल ने इसकी योग्यता के कारण इसे अपना सेनापति नियुक्त किया था। प्रबन्ध चिन्तामणि में मेरुतुंग ने कुमारपाल के एक ऐसे आक्रमण का उल्लेख किया है जो चहड़ के नेतृत्व में किया गया था। इस अभियान में चहड़ विजयी होकर लौटा। इस सफलता के कारण कुमारपाल सेनापति चहड़ से बहुत प्रसन्न हुआ और उसे 'राजघटत्ता' की उपाधि से विभूषित किया।
अम्बड
अम्बड भी वैश्य जाति का परमवीर सेनापति था। अप्रतिम शौर्य के कारण कुमारपाल ने इसे राज्य की सबसे सम्मानीय उपाधि 'पितामह' से अलंकृत किया था। इस वैश्य सेनापति ने दक्षिण कोंकण के राजा मल्लिकार्जुन तथा चालुक्य कुमारपाल के बीच हुये युद्ध में सेनापति के रूप में अप्रतिम शौर्य का परिचय दिया था। इस योद्धा ने रणभूमि में अपनी लपलपाती तलवार से मल्लिकार्जुन के मस्तक को कमल पुष्प की भांति काट दिया था। इसके पश्चात उसने राजसभा में बहत्तर राजाओं की उपस्थिति में सुवर्णराशि में मल्लिकार्जुन का सिर अभिवादन सहित कुमार पाल के सम्मुख उपस्थित किया। मल्लिकार्जुन के कोषागार से प्राप्त विशाल धनराशि भी उसने भेंट की। इस पर प्रसन्न होकर कुमार पाल ने 'राजपितामह' की उपाधि अम्बड को प्रदान करते हुये उसे सम्मानित किया।
विमलशाह
चालुक्य नरेश भीम द्वितीय ने विमलशाह को आबू का दण्डपति (सामन्त) नियुक्त किया था। इसने आबू में एक बहुत प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था। आबू का दिलवाड़ा मन्दिर वास्तुसम्बंधी सबसे बड़ी कीर्ति है जिसे विमल शाह ने ऋषभनाथ की स्मृति में 1031 ई० में बनवाया था।
तेजपाल एवं वस्तुपाल
ये दोनों भाई वीर योद्धा तथा कुशल सेनापति होने के साथ चालुक्यों के सामन्नत थे। आबू देलवाड़ा प्रशस्ति से पता चलता है कि तेजपाल भीमदेव द्वितीय का सामन्त था। 173 रणभूमि में शत्रु पक्ष की ओर से वस्तुपाल की यह कह कर हंसी उड़ाई गई कि युद्ध तो केवल क्षत्रियों के लिये है वणिकों के लिये नहीं, उनका कार्य तो केवल वस्तुओं को तौलना अथवा व्यापार करना है। इस आरोप को वस्तुपाल ने मिथ्या कहते हुये जिस प्रकार का उत्तर दिया वह काफी रोचक है। वस्तुपाल चालुक्य नरेश वीरधवल का महामात्य था। रणभूमि में शत्रु शंख के दूत से वस्तुपाल के वार्तालाप तथा युद्ध का रोचक विवरण बसन्त विलास महाकाव्य से प्राप्त होता है। शंख के दूत द्वारा यह कहे जाने पर कि शंख के आने से पूर्व तुम भाग जाओ, क्योंकि एक वणिक के भागने पर कोई लोक निन्दा नहीं होगी, वस्तुपाल स्वजातीय गौरव को व्यक्त करते हुये क्रोधपूर्वक कहता है-
क्षत्रियाः समरकेलिरहस्यं जानन्ते न वणिजो भ्रम एषः
अम्बडो वणिगपिप्रछने कि मल्लिकार्जुन नृपं न जघान।
दूत ! रेवणिगहं रणहट्टे विभूतोऽसितुलया कलयामि।
मौलिभाण्ड पटलानि रिपुणां स्वर्गवेतन मथो वितरामि ॥
- बसन्तविलास, 5/32
अर्थात क्षत्रिय ही युद्धक्रीड़ा के रहस्य को जानते हैं वणिक नहीं भ्रम है, यह सत्य नहीं है। क्या अम्बड नामक वणिक ने युद्ध में मल्लिकार्जुन का वध नहीं किया था? हे दूत ! मैं ऐसा वणिक हूं जो युद्ध रूपी बाजार में तलवार रूपी तुला को तौलने के लिये प्रसिद्ध हूं। शत्रुओं के मस्तक रूपी बर्तनों के परिणाम में मैं स्वर्ग में वेतन वितरित करता हूं। वस्तुतः इस काल में हमें अनेक वैश्य सेनापतियों का उल्लेख प्राप्त होता है जिन्होंने रणभूमि में अपूर्व वीरता का परिचय देते हुये इस धारणा को निर्मूल सिद्ध किया कि युद्ध क्रीड़ा केवल क्षत्रियों के लिये ही है। बसन्तविलास में प्राप्त विवरण से भी इसी बात की पुष्टि होती है।
लवण प्रसाद एवं वीरधवल
चालुक्य नरेश भीम द्वितीय (1178-1241 ई०) के लवण प्रसाद और वीरधवल मंत्री थे। ये वैश्य जाति के ऐसे मंत्री थे जो राज्य में बार-बार उठने वाले विद्रोहों को शान्त करने में सफल रहे। भीम द्वितीय को सत्ता का वास्तविक नियंत्रण इन्हीं दोनों मंत्रियों पिता-पुत्र लवण प्रसाद तथा वीर धवल के हाथों में था। गुजरात पर मुसलमानों के आक्रमण के समय भीम द्वितीय मालवा पर अपने अधिकार की रक्षा न कर सके। परमार शासक विन्ध्य वर्मा के पुत्र सुमटवर्मा (1194-1209 ई०) चे अण्हिलवाड पर आक्रमण किया लेकिन शक्तिशाली सामन्त लवणप्रसाद ने उसे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इसकी पुष्टि साहित्यिक तथा पुरातात्विक साक्ष्यों से भी होती है। 173अ देवगिरि के यादव शासक पंचम भिल्लम ने भी भीम की आन्तरिक कमजोरियों का लाभ उठाते हुये दक्षिण गुजरात और लाट क्षेत्रों पर चढ़ाई कर दी, उस समय भी भीम की ओर से लवण प्रसाद जैसे योग्य मंत्री तथा सेनापति ने गुप्तचरों के प्रयोग से उसे संधि के लिये विवश किया 174 कालान्तर में चालुक्य शासक भीम की निर्भरता इन पिता पुत्रों पर इतनी बढ़ गई कि प्रशासन और सैन्य की वास्तविक सत्ता धीरे-धीरे उनके हाथों में चली गई। महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद की बढ़ती हुई शक्ति का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1231 ई० में सिंहण से जो संधि हुई, उसमें चालुक्य पक्ष की ओर से वास्तविक राजा भीम का नाम न होकर लवण प्रसाद का नाम अंकित किया गया है। 175 महामण्डलेश्वर लवण प्रसाद और राणक वीरधवल नाममात्र की चालुक्य अधिसत्ता स्वीकार करते हुये धवलक अथवा घोलक में प्रायः पूर्ण स्वतंत्र थे। भीम ने अनेक युद्धों में विजय का श्रेय लवण प्रसाद को ही दिया गया है। सम्भवतः जयन्तसिंह के विद्रोह को शान्त करके चालुक्य राज्याधिकार द्वितीय भीम के लिये पुनः प्राप्त करने में उन्होंने जो सहायता की थी उससे अभिभूत और विवश होकर भीम ने उन्हें प्रशासन में पूरी छूट दे दी थी।। 76 धीरे-धीरे उनका अधिकार 'राज्य के भीतर राज्य' जैसा हो गया और भीम की मृत्यु के बाद वीरधवल का पुत्र वीसलदेव अण्हिलवाड़ का पूर्ण स्वतंत्र शासक हो गया। 177 कतिपय अभिलेखों में लवणप्रसाद और वीरधवल को महाराजाधिराज की सम्प्रभुतासूचक उपाधियों से अलंकृत किया गया है। 178 वीरधवल के पुत्र वीसलदेव ने होयसल राजकुमारी का हाथ भी प्राप्त किया था। 179 अर्थात विवाह किया था।
सेनापति बीचण
न केवल उत्तर भारत अपितु दक्षिण भारत में भी हम कुछ वैश्य जातीय मंत्रियों एवं सेनापतियों का उल्लेख पाते हैं। यादव राजवंश के प्रसिद्ध शासक सिंहण (1210 ई०) का सेनापति बीचण वैश्य जाति का ही था। यह उसके सर्वाधिक प्रसिद्ध सेनापतियों में एक था। इसे विध्वंस में यम और राजनीतिक बुद्धिमत्ता में नवीन चाणक्य अथवा विष्णु गुप्त के रूप में वर्णित किया गया है। इसका स्वामी इस पर उतना ही विश्वास करता था जितना स्वयं अपने हृदय पर। सेनापति बीचण ने होयसलों के विरुद्ध युद्धों में महत्वपूर्ण भाग लिया था। इसके एक अभिलेख में कहा गया है कि इसने कावेरी नदी के तट पर एक विजय स्तम्भ स्थापित किया था।180 उसकी महत्वपूर्ण सेवाओं को मान्यता प्रदान करने के लिये उसे कर्णाटक का उपराजा नियुक्त किया गया तथा वहां पर उसने सामन्तों को दबाने और शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने में अपने अधिस्वामी की बड़ी सहायता की थी।
मल्लिसेट्टि
यह यादववंश के नरेश कृष्ण (1246-1260 ई०) का सेनापति तथा राज्यपाल था। यह सेनापति बीचण का बड़ा भाई था तथा कर्नाटक का राज्यपाल था। मल्ळिसेट्टि जो सिंहण के काल में केवल एक जिलाधिकारी था, कृष्ण के शासन काल के प्रारम्भ से ही सर्वदेशाधिकारी अर्थात सम्पूर्ण प्रदेश के उपराजा के पद पर पहुंच गया। 1250 ई० के लगभग उसका पुत्र चाँडिसेट्टि उसका उत्तराधिकारी बना, जिसने महाप्रधान तथा महामात्य की उपाधि धारण की।
चामुण्डराय
ये दक्षिण भारत के राजा राचमल्ल के मंत्री और सेनापति थे। 182 चामुण्ड राय का नाम 'गोम्मट' था और 'राय" राजा राचमल्ल द्वारा मिली हुई पदवी थी, इसलिये गोम्मट राय नाम से भी इनका उल्लेख मिलता है। राचमल्ल (चतुर्थ) का राज्यकाल शक संवत 896 से 906 (वि० सं० 1031-41) तक माना जाता है। चामुण्डराय केवल महामात्य (मंत्री) ही नहीं वीर सेनापति भी थे। उन्होंने अपने स्वामी के लिये अनेक युद्ध जीते थे। उन्होंने गोविन्दराज, वेकोंडुराज आदि अनेक राजाओं को परास्त किया था और इसके उपलक्ष में उन्हें समर-धुरन्धर, वीरमार्तण्ड, रणरंगसिंह, वैरिकुल-कालदण्ड, असहायपरिक्रम, प्रतिपक्षराक्षस, भुजविक्रम, समर-परशुराम आदि विरुद प्राप्त हुये थे। अपनी सत्यप्रियता के कारण ये सत्य युधिष्ठिर भी कहे जाते थे ।183 चामुण्डराय जैन धर्म के उपासक होने के साथ ही साथ उच्चकोटि के साहित्यकार भी थे।
प्राचीन भारत के राजनीतिक जीवन में वैश्य समुदाय की भूमिका की विस्तृत विवेचना के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रारम्भ से लेकर लगभग 1200 ई० सन् तक के पूरे आलोच्य काल में भारत के राजनीतिक जीवन में न केवल उनका महत्व था अपितु उनकी प्रभावी भूमिका भी रही है। इस तथ्य की ओर पहले ही संकेत किया जा चुका है कि वैश्य समुदाय प्रारम्भ से ही अर्थ का केन्द्र बिन्दु तो रहा ही लेकिन भारत की राजनीतिक सत्ता की बागडोर भी एक लम्बे समय तक इनके हाथों में केन्द्रित रही है। वैश्य राजवंश के शासकों समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त, हर्षवर्द्धन आदि न केवल कुशल शासक थे बल्कि अप्रतिम योद्धा भी थे। इन नरेशों ने अपनी बहुमुखी उपलब्धियों द्वारा भारतीय इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी है। वैश्य समुदाय में ऐसे शूरवीर योद्धा भी हुये जिन्होंने इस धारणा को निर्मूल सिद्ध कर दिया कि युद्धक्रीड़ा केवल क्षत्रियों के लिये ही है। वस्तुतः भारत के राजनीतिक जीवन में इस समुदाय का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से प्रारम्भ से लेकर आलोच्य काल तक प्रभावी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। राजसत्ता को स्थिर रखने में इनकी महती भूमिका रहती थी। अतः यह कहना उचित न होगा कि वैश्य समुदाय केवल अपने व्यवसाय-वाणिज्य-व्यापार आदि में लिप्त रहा, राजनीति में उसकी कोई विशेष भूमिका नहीं रही। वैश्य समुदाय के लोग न केवल अपने व्यवसाय के प्रति ही सजग थे अपितु राजनीतिक जीवन में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया।
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