"भगवान काशी विश्वनाथ के आशीर्वाद से जन्मे सूर्यवंशी अग्रसेन "
जब जब दुनिया में अनाचार और अत्याचार हद से आगे बढ़ जाता है तो दुष्टों के विनाश और सज्जनों के प्रकाश के लिए भगवान स्वयं विभिन्न रूपों में इस दुनिया में अवतार लेते हैं। भगवान #राम का अवतार रावण की सत्ता और राक्षसी संस्कृति के विनाश के लिए हुआ था। भगवान राम #सूर्यवंशी कहलाते हैं क्योंकि ये सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु के वंश में हुए थे। इस वंश में और भी अनेक सदाचारी और प्रतापवान राजा हुए हैं जिनके नाम मात्र की चर्चा से उनके बारे में जानने की इच्छा प्रबल हो जाती है और उनके सम्मान में सिर स्वयं ही झुक जाता है।
इस प्रतापी वंश में इक्ष्वाकु, हरिश्चन्द्र, भगीरथ और #मान्धाता आदि अनेक राजा-महाराजा हुए हैं। राजा मान्धाता के दो पुत्र थे, गुणधि और #मोहन। इसी मोहन के वंश में राजपूताने के एक छोटे से राज्य प्रतापनगर के महाराजा #वृहत्सेन के दो पुत्र हुए - वल्लभसेन और कुंदसेन। बड़े राजकुमार वल्लभ बड़े दयालु और प्रजावत्सल थे। पाण्डवों के राजसूय यज्ञ के समय वल्लभ की मित्रता #अर्जुन से हो गई थी। छोटे राजकुमार #कुंदसेन बहुत ऐय्याश और अहंकारी थे। समय आने पर महाराजा वृहत्सेन ने राज्य की बागडोर अपने बड़े राजकुमार वल्लभसेन को सौंप दी और स्वयं संयास लेकर अपने परलोक साधन के लिए हिमालय में तप करने चले गए।
महाराजा वल्लभसेन का राज्य सरस्वती, ईष्टवती और घग्घर नदी के #संगम पर स्थित था, इसलिये प्रतापनगर हर तरह से खुशहाल था। दूर दूर के राजा भी महाराजा वल्लभ का दिल से सम्मान करते थे क्योंकि उन्होंने कभी भी अन्याय से किसी के राज्य पर आक्रमण नहीं किया और उनकी कोई भी समस्या पड़ने पर उन्हें यथासंभव मदद की। सब सुख होने पर भी महाराजा वल्लभ और महारानी #भगवती खुश नहीं थे। कारण एक ही था कि आधी आयु बीत जाने पर भी महाराज को कोई सन्तान नहीं थी। तब परिजनों ने उन्हें दूसरा विवाह करने का सुझाव दिया, मगर भगवान राम के वंशज होने के कारण उनकी आन के कारण उन्होंने दूसरे विवाह से मना कर दिया। इससे उनका छोटा भाई मन ही मन बहुत खुश था, क्योंकि महाराजा वल्लभ के सन्तानहीन होने के कारण राजसत्ता वल्लभ के बाद उसे या उसके पुत्र को ही मिलने वाली थी।
एक दिन महारानी भगवती के जोर देने पर महाराज वल्लभ और महारानी भगवती अपने कुलगुरु गर्गाचार्य जी के आश्रम में पहुंचे। आश्रम से कुछ दूर पहले ही उन्होंने रथ और राजसी #आभूषण त्याग दिये और पैदल ही चलते हुए मुनि गर्गाचार्य के आश्रम में प्रवेश किया। शिष्यों के सूचना देने पर गर्गमुनि अपनी कुटिया से बाहर आये। उन्हें देखते ही महाराज और महारानी उनके चरणों पर गिर पड़े और अपने आँसुओं से उनके चरणों को भिगोने लगे।
गर्गाचार्य जी ने महाराजा वल्लभ और महारानी भगवती को उठाकर आसन पर बिठाया और बड़े प्रेम से उनका स्वागत-सत्कार किया। उनके कुछ स्वस्थ होने पर मुनि ने राजा से पूछा, "वल्लभ, तुम कुछ #उद्विग्न से दिखाई देते हो। तुम्हारा शरीर स्वस्थ तो है? परिवार में सब कुशल से तो हैं? राज्य की प्रजा को कोई कष्ट तो नहीं है? राजकोश, सेना, मन्त्रियों, मित्रों और शत्रुओं में से किसी की कोई परेशानी तो नहीं है? राज्य में वर्षा समय पर तो होती है? तुम्हारे राज्य के किसान, व्यापारी और कर्मचारी कामचोर और आलसी तो नहीं हैं? तुम्हारी सेना युद्धाभ्यास तो करती रहती है न? कहीं सेना आराम और सुविधा में पड़कर कायर तो नहीं हो गई? किसी शत्रु ने तुम्हारे राज्य पर #आक्रमण तो नहीं किया है?"
महाराजा वल्लभ ने मुनि गर्गाचार्य को #आश्वस्त किया, "गुरुदेव, आपकी कृपा से राज्य के सभी अंग स्वस्थ हैं और राज्य में #खुशहाली के लिए निरन्तर कार्य कर रहे हैं। परिवारजन और सभी मित्र भी कुशल से हैं तथा मैं स्वस्थ शरीर के साथ महारानी भगवती के साथ आपकी सेवा में उपस्थित हूँ ही। मगर मुझे मात्र एक ही चिन्ता सता रही है कि मेरे बाद राज्य का कोई #उत्तराधिकारी नहीं है। यद्यपि कुंदसेन और उसका पुत्र भी मेरे अपने ही हैं मगर उनके विलासी और लालची स्वभाव के कारण प्रजा उन्हें राजा के रूप में नहीं चाहती। मुझे राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में #प्रजापालक, वीर, गुणवान और #परोपकारी पुत्र की कामना है जो आपके शुभाशीष के बिना पूरी नहीं हो सकती।"
महर्षि गर्गाचार्य ने राजा वल्लभ की ओर ध्यान से देखा फिर अपनी आँखें कुछ पल के लिए बन्द कर ली, जो कुछ ध्यान कर रहे हों या अपने ज्ञान से राजा वल्लभ के बारे में कुछ जानना चाह रहे हों। थोड़ी देर बाद मुनिवर ने अपनी आँखें खोलकर लम्बी साँस ली और कहने लगे, "राजन, तुम्हारी चिन्ता स्वाभाविक है और तुम्हारे भाग्य में दो पुत्रों का योग भी है मगर एक प्रतापी पुत्र की आपकी कामना तो केवल भगवान #शिव ही पूरी कर सकते हैं। इसलिए तुम्हें महारानी के साथ काशी जी में भगवान #विश्वनाथ की आराधना और #तपस्या करनी पड़ेगी।"
महाराजा वल्लभसेन ने मुनि गर्गाचार्य से पुनः प्रार्थना की, "गुरुदेव, मैं आपके वचनों को सुनकर अनुगृहीत हुआ। अब आप मुझे शिव आराधना के लिए #दीक्षा दीजिये, ताकि मैं अपना मनोरथ प्राप्त कर सकूँ।"
प्रसन्नचित मुनि गर्गाचार्य ने महाराजा वल्लभसेन और महारानी भगवती को #शिवतत्त्वका उपदेश किया और शिव आराधना के लिए शिव मन्त्र की विधिवत दीक्षा दी। दीक्षा ग्रहण करके महाराज ने अपनी राजधानी प्रतापनगर में आकर कुछ समय के लिए राज्य का भार अपने छोटे भाई कुंदसेन को सौंप दिया और सारी मन्त्रि-परिषद से अनुमति लेकर काशी में काशी विश्वनाथ की आराधना के लिए चल दिये।
महाराजा वल्लभसेन अपने गुरुदेव महर्षि #गर्गाचार्य जी से अनुमति लेकर काशी के लिए निकल पड़े। कई दिनों की अनवरत यात्रा के बाद महाराजा वल्लभसेन और महारानी भगवती काशी जी पहुँचे। उनके आने की खबर उनसे पहुँचने से पहले काशी नरेश तक पहुँच चुकी थी इसलिए काशी नरेश ने स्वयं आगे बढ़कर पूरे सम्मान के साथ महाराजा वल्लभसेन का स्वागत किया। काशी नरेश चाहते थे कि महाराजा वल्लभसेन उनके राजकीय अतिथि बनकर उनके राजमहल में रहें, मगर महाराजा वल्लभसेन ने विनम्रता से अपने काशी आने का उद्देश्य बताकर उनके #आतिथ्य से इन्कार कर दिया। तब काशी नरेश ने काशी विश्वनाथ के मन्दिर में महाराजा वल्लभसेन की विशेष पूजा आराधना के लिए व्यवस्था करवा दी। वे जब चाहे, जब तक चाहें, बेरोकटोक महादेव के मन्दिर में आकर उपासना कर सकते थे।
महाराज और महारानी भगवती ने काशी नरेश का आभार प्रकट किया और सब राजसी ठाठबाट छोड़कर अपनी शिव-आराधना में लग गये। सबसे पहले उन्होंने #मणिकर्णिका घाट पर जाकर #शिवसहस्रनाम जप के साथ विधिवत स्नान किया, फिर काशी विश्वनाथ के मन्दिर में जाकर भोलेनाथ का दर्शन और अभिषेक किया। उसके बाद पुजारियों से अनुमति लेकर वे काशी के उत्तर में जंगल में एक निर्जन स्थान पर कुटिया बनाकर शिव-आराधना और तपस्या करने लगे। महारानी भी उनके साथ पूर्ण संयम और नियम के साथ तपस्या में सहचरी बनी।
सुबह उठते ही दोनों नित्यकर्म के बाद गंगा में स्नान करते, #पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसमें #विश्वनाथ का #आव्हान करके उनका विधिवत अभिषेक करते, फिर आसन जमाकर मुनि गर्गाचार्य के द्वारा दीक्षित #नवाक्षर मन्त्र का जप करते रहते। शाम को फिर से शिव-अभिषेक के बाद दोनों देर रात्रि तक शिवमन्त्र का जप करते रहते। कुछ समय पश्चात दोनों ने एक समय ही भोजन करना शुरू कर दिया, बाकी समय दोनों उपवास में रहते हुए शिव-आराधन करते रहते। जब इसके बाद भी भोलेनाथ उनके सामने प्रकट नहीं हुए तो उन्होंने एक वक्त का भोजन भी त्याग दिया और केवल जल पीकर दिनरात #तपस्या करने लगे।
जब इतने पर भी भोलेनाथ नहीं पसीजे तो महाराज वल्लभसेन और महारानी भगवती ने जल भी त्याग दिया। वे #आमरण #अनशन पर आ गये थे। या तो भोलेनाथ प्रसन्न होकर दर्शन देंगे या फिर वे दोनों भोजन पानी के बिना देह छोड़ देंगे। एक दिन बिना अन्नजल के बीत गया। दूसरा दिन भी किसी तरह बीता मगर रात तो शायद #काल की रात थी। महाराजा और महारानी दोनों भूख-प्यास से #बेहाल थे मगर साथ ही वे दोनों अपने निर्णय पर भी अटल थे कि जब तक भगवान शंकर प्रसन्न होकर उन्हें #मनोवाञ्छित वरदान नहीं देंगे तो वे दोनों अन्नजल ग्रहण नहीं करेंगे चाहे प्राण ही क्यों न निकल जायें।
सुबह होते होते दोनों #अचेत हो गये। अब भगवान शिव से नहीं रहा गया। 'मेरी उपासना में भक्त प्राण त्याग दे' यह उन्हें कभी भी स्वीकार नहीं था। सत्ययुग में विष्णु की तपस्या की अति से उन्हें प्रकट होना पड़ा था। त्रेता युग में रावण और राम दोनों अपनी आराधना से भगवान शिव को प्रसन्न करने में सफल हो गये थे तो इस द्वापर युग में अपने भक्त-वत्सलता के स्वभाव को भगवान शिव कैसे छोड़ देते?
आखिरकार अचेतावस्था में ही उन्होंने देखा कि भोलेनाथ स्वयं अपने हाथों से उन्हें उठा रहे हैं। आश्चर्य! शिवजी का स्पर्श पाते ही दोनों की भूख और प्यास दोनों गायब हो गई। तपस्या से कमजोर शरीर में न जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई कि उन्होंने भगवान शंकर के चरण पकड़ लिये। शरीर में जैसे किसी भी प्रकार की कमजोरी बाकी न रही हो। बस उन दोनों के मुँह से एक साथ यही निकला, "प्रभु! आप आ गये? हम आपके #शरणागत हैं? हमें आपके साक्षात् दर्शन चाहिए, इस प्रकार अचेतावस्था में नहीं।"
भगवान शंकर हँसने लगे, "क्यों, वल्लभ? विश्वास नहीं हो रहा कि मैं साक्षात् तुम्हारे सामने हूँ? आँखें खोलकर देख लो, आप दोनों कोई सपना नहीं देख रहे हो। तुम्हारी कठिन तपस्या ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं तुम्हारे सामने प्रकट होकर तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँ। मांगों, तुम्हें क्या चाहिए? किसलिए इतनी कठिन तपस्या कर रहे थे?"
अब हँसने की बारी महाराजा वल्लभ की थी। दण्डवत प्रणाम करके वल्लभ हँसते हुए कहने लगे, "प्रभु! आप तो हमारे हृदय में विराजमान हैं। आप #अन्तर्यामी प्रभु से कुछ छिपा है क्या? हम दोनों निःसंतान हैं और हमें एक सन्तान चाहिए जो हमारे कुल को आगे चला सके।"
भोलेनाथ ने कहा, "एक नहीं, तुम्हारे भाग्य में तो दो सन्तानें हैं और इसके लिए तुम्हें तपस्या करने की भी जरूरत नहीं थी। अब तुम्हारे सन्तान योग का समय आने वाला है और जल्दी ही तुम पुत्रवान हो जाओगे।"
महाराज वल्लभसेन ने कहा, "प्रभु! इतनी सी बात जानने के लिए हमने तपस्या नहीं की। यह तो हमारे कुलगुरु गर्गाचार्य जी ने ही हमें बता दिया था। मगर हमने इसलिये आपकी आराधना की है क्योंकि हमें आपकी तरह #प्रतापवान, #युगस्रष्टा और उदार सन्तान चाहिए, जिसके कारण हमारे वंश का नाम युगों युगों तक और उसकी कीर्ति दिग्दिगन्त तक फैलती रहे। हमें ऐसा पुत्र चाहिए जो सही अर्थों में समस्त विश्व के प्राणियों के प्रति दयावान और कल्याण की भावना वाला हो।"
भगवान शंकर महाराजा वल्लभसेन की बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा से कहा, "राजन! अब तक तपस्या करके वरदान मांगने वाले सभी लोगों ने केवल अपने लिए ही मांगा। पहली बार एक ऐसा भक्त मिला है जिसने कुछ माँगा है तो वह भी #जनकल्याण के लिए। तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी और तुम्हारा पुत्र मेरा ही #अंशभूत होगा। जब तक यह सृष्टि रहेगी, आर्यवर्त में तुम्हारे वीर पुत्र और उसके वंश का नाम हमेशा कायम रहेगा। तुम्हारे वंश के लोग अपने समाज के अलावा दूसरे लोगों के कल्याण के लिए भी निष्काम भाव से लगे रहेंगे, जिससे उनका यश, और उनकी कीर्ति हमेशा चारों ओर फैलती रहेगी।"
फिर भगवान शिव ने महारानी भगवती की ओर देखकर कहा, "महारानी भगवती, आप भी बताइये कि आपका मनोरथ क्या है? हम उसे भी अवश्य पूर्ण करेंगे।"
महारानी भगवती ने हाथ जोड़कर कहा, "भगवन्! महाराज ने जो कुछ माँगा है वह केवल उनका ही नहीं, हम दोनों का मनोरथ है। आपने महाराज की इच्छा पूरी कर दी तो मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए। मेरा मनोरथ तो उनके मनोरथ के साथ ही पूर्ण हो गया। बस एक ही विनती है कि आप हमेशा हमारे #कुलदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हों, अपनी कृपा हमारे वंशजों पर बनाये रखें।"
भोलेनाथ ने कहा, "#एवमस्तु। तुम्हारे कुल के लोग यदि मुझे मानसिक रूप से भी याद करेंगे तो मैं उनकी रक्षा के लिए उनके साथ रहूँगा। जो लोग नियमित रूप से विधिवत उपासना करेंगे उनकी तो बात ही क्या? उनके मनोरथ तो बिना माँगे ही पूरे होते रहेंगे।"
भगवान शिव की बात सुनकर महाराज वल्लभसेन और महारानी भगवती ने एक स्वर में कहा, "भगवन्! हम लोग #कृतार्थ हुए जो आपने हमें अपना लिया।" और दोनों भगवान शंकर के चरणों पर गिर पड़े। उनके देखते देखते भगवान शिव #अन्तर्ध्यान हो गये।
SABHAR Prakhar Agrawal
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