KHARE VAISHYA - अखिल भारतीय श्री खरे वैश्य समाज का इतिहास
विश्व की रचना के सम्बन्ध में प्राचीन धर्मग्रन्थो मे वर्णन मिलता है कि शेष शस्या पर विराजमान भगवान विष्णु जी की नाभि से एक कमल प्रगट हुए। विश्व के पालन का भार श्री विष्णु को विश्व रचना का भार श्री ब्रह्मा जी को तथा संहार का भार श्री शिव जी को सौपा गया।
सृष्टि रचना के लिए ब्रह्मा जी ने कई मानस पुत्र उत्पन्न किए। उनमें महर्षि मारीच के पुत्र उत्पन्न किए। उनमें महर्षि मारीच के पुत्र कष्यप मुनि का सृष्टि रचना में सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
आज विश्व की अधिकांश प्रजातियाँ कश्यप मुनि की सन्ताने हैं। वैश्य समाज भी महर्षि कष्यप ऋषि की सन्तान है अतः हमलोग अपने को कष्यप गोत्र में पैदा होना मानते हैं।
अनेक ग्रन्थों से प्राप्त जानकारी के अनुसार वैश्य समुदाय के लोग प्राचीन समय में काश्मीर के निवासी थे वे कृषि गोपालन व व्यापार का व्यवसाय करते थे। जिसमें केशर की खेती करना प्रमुख व्यवसाय था। ये केशर का व्यापार करने के लिए कश्मीर से दक्षिण की तरफ आते थे जो वर्तमान में गुजरत, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश कहलाते हैं।
आवागमन के सुगम साधन नहीं थे, कुछ लोग इन्हीं स्िानों पर बस गए तथा कुछ लोग कश्मीर से केसर लाकर व्यापार करते रहे हैं।
रीवा राज्य के इतिहास से जानकारी मिलती है गुजरात के कुछ बघेल सरदार भ्रमण करते हुए यहाँ आए यह क्षेत्र पठारी तथा जंगली था आवादी बहुत कम थी अतः यहाँ अपना राज्य स्थापित किया। बाद में इस स्थान का नाम नर्मदा नदी के कारण रेवा तथा बाद में रीवा पड़ा। प्रथम बघेल क्षत्रिय का नाम राजा व्याघ्रदेव था। इन्होंने कुछ व्यापारी वैश्य को गुजरात से बुला लिया था। केशर का व्यापार करने के कारण केशरवानी व केशरी कहलाते थे। कुछ लेखकों का मानना है कि हमारे पुर्वज कश्मीर से कड़ा मानिकपुर आए तथा यहीं बस गए वाद में पूरे भारत में फैल गए। वैश्य भोग शाकाहारी थे तथा धार्मिक विचार के पालन करने वाले थे। इनका शादी व्याह अपने ही जाति बिरादरी में होती थी। इनमें बाल विवाह की प्रथा प्रचलित थी।
अतः जो महिलाए विधवा हो जाती थी वे शेष जीवन भर विधवा रहती थीं समाज में विधवा से सादी करना दोष माना जाता था।
कुछ समय पश्चात कुछ परिवार विधवा विवाह करने लगे उन्हें दुसरिया कहा जाने लगा तथा जिनमें विधवा विवाह का चलन नहीं हुआ उन्हें खरिया कहा जाने गला। आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व तक आवागमन के साधन होने के कारण सीमित क्षेत्र में ही शादी व्याह करते थे।
रीवा राज्य में खरिया थोक में नादन थोक व सोहाग पुर शामिल था। किन्तु सामाजिक विरोध पैदा होने के कारण तीन गुट अलग बन गए तथा अपने गुट में ही शादी व्याह करने लगे।
खरिया गुट जिसको वाद में श्री खरे वैश्य के नाम से जाना जाने लगा यह ज्यादा तर रीवा, सीधी, तथा सतना जिला में निवास करता है। अब कुछ परिवार मरवाही, सूरजपुर, पटना आदि जगहों में बस गए हैं।
रीवा राज्य में खरिया समाज की व्यवस्था के लिए राजा द्वारा चौधरी नियुक्त किए गए थे जो समाज में नियमों के पालन कराने में प्रमुख भूमिका निभाते थे, कई बार चौधरी लोग समाज में मनमानी भी करते थे।
यह इतिहास मैने पत्र-पत्रिकाओं से पढ़कर वर्णन देखा व शामिल होकर कार्य किया वह निम्न प्रकार है।
सम्पूर्ण वैश्य समाज पूरे भारत वर्ष में उपवर्गों में बढ़ा हुआ है जो अपने अपने वर्गों में अपने अपने रीति रिवाज से शादी करते थे। सन् 1954 ई. में एक अविक भारतीय वैश्य सम्मेलन का आयोजन रीवा नगर में हुआ जिसके अध्यक्ष डॉ. दुखन राम गुप्ता पटना विहार के थे। सम्मेलन का प्रयास था कि सभी वैश्य वर्ग एक साथ मिल जॉय व शादी व्याह आदि आपस में करने लगे किन्तु विधवा विवाह कुछ अन्य कुरीतिया जैसा (टाचड़ा) विवाह आदि के कारण एकता स्िापित नही हो सकी। उसी सम्मेलन में खरे वैश्य समाज सोहागपुर थोक व नादन थोक आविल भारतीय वैश्य समाज में मिलने से असहमति रखते हुए आपस में तीनों गुट मिलकर एकता बनाने में सहमत हुए।
महासम्मेलन के दूसरे दिन अलग से रीवा के पचमठा मंदिर के प्रांगण में बैठक कर मेंल मिलाप का निर्णय किया गया जिसमें खरे वैश्य समाज व नादन थोक शामिल हुए व इसे श्री खरे केशरवानी समाज नाम दिया गया। इसमें सोहागपुर थोक शामिल नहीं हो सका। इस सम्मेलन के तुरन्त बाद अपने समाज में ही सम्मेलन का कड़ा विरोध प्रारंभ हो गया।
इसी समय समाज में रीवा नगर में दो पुनर्विवाह कराए गए इस विवाह का भी समाज में विरोध प्रारंभ हो गया, इसी बीच गढ़ में भोला प्रसाद के नाम पर भी विवाद प्रारंभ हुआ। रायपुर कर्चुलियान में भी नील कंठ के नाम पर समाज में वरोध उठा इस प्रकार समाज विभिन्न गुटों में बट गया व गुटों में भयंकर विरोध शादी व्याह में होने लगे। इस प्रकार सन् 1954 से सन् 1963 तक पूरे समाज में गुटवाजी के कारण खान पान से एक दूसरे का वहिष्कार करना चलता रहा।
कुछ समाज के व्यक्तियों ने मुझे प्रेरित किया कि कुछ प्रयास किया जाय जिससे समाज में समरसता आ सके। मैंने इसी भावना से प्रेरित होकर सन् 1969 में मार्तण्ड स्कूल रीवा में सभी गुटों के लोगों तथा पूरे समाज के लोगों को एक बैठक बुलाई जिसमें करीब 500 लोगों ने भाग लिया इस बैठक की अध्यक्षता श्री द्वारिका प्रसाद गुप्त मास्टर सा. बैकुण्ठपुर ने की। बैठक में मुझे सर्व सम्मति से संयोजक बनाया गया और तुरन्त पूरे खरे वैश्य समाज की एक महा सभा कराने का कार्यभार सौंपा गया। वर्ष 1970 में गोविन्दगढ़ के किला में पहली महासभा आयोजित हुई। उसमें निम्न प्रमुख निर्णय किए गए
(1) विभिन्न कारणों से समाज से अलग किए गए परिवारों को समाज में मिलाया गया।
(2) पुनर्विवाह करने वालों को समाज में मिलाया गया।
(3) विभिन्न गुटों के विवाद समाप्त किए गए।
(4) एवं सर्व अधिकार प्राप्ति केन्द्रीय समिति का गठन किया गया जिसने समय पर उपजे विवादों को समाप्त किया जिसके निम्न प्रमुख पदाधिकारी थे।
(1) श्री रामहित गुप्त वित्त मंत्री म.प्र. अध्यक्ष
(2) श्री राजवली गुप्ता रीवा महामंत्री
(3) श्री जगदीश प्रसाद गुप्त बैकुण्ठपुर उपाध्यक्ष समिति ने एक विकास समिति का भी गठन किया जिसके माध्यम से बाण सागर कॉलोनी रीवा में समाज के लिए 1 एकड़ 36 ढिसमिल जमीन खरीदी गई। अब समाज में अपने ही समाज में शादी करने का वन्धन टूट चुका है। विधवा विवाह प्रारंभ हो गया है। अन्तर्जातीय विवाह भी होने लगे है।
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