बनिया की खासियत क्या है?
सिन्धु घाटी सभ्यता के साथ भारत की पहचान जुड़ी हुई है। यह सभ्यता कौनसी भाषाएँ बोलती थी इस पर विवाद हो सकता है किन्तु इस सभ्यता की सम्पन्नता पर कोई विवाद नहीं है।
इस सम्पन्नता का एक महत्वपूर्ण कारक सिन्धु घाटी सभ्यता का अन्य प्राचीन सभ्यताओं से व्यापार रहा है। इस व्यापार में वे अपेक्षाकृत प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न अपने गृहक्षेत्र से अनेक उत्पाद अन्य स्थानों तक पहुँचा कर अच्छा लाभ पाते थे। इस लाभ का अंश इन वस्तुओं को उपजाने अथवा बनाने वाले व्यक्तियों तक भी पहुँचता रहा; अतः, सिन्धु घाटी सभ्यता एक साधन सम्पन्न सभ्यता रही है।
उदाहरणार्थ, प्राचीन काल में नीले वर्ण का एकमात्र ज्ञात प्राकृतिक स्रोत राजावर्त्त (लाजवर्त) रत्न था; यह पामीर की गाँठ के निकट अफ़ग़ानिस्तान ले आमू दरिया (वैदिक चक्षु नदी महाभारत वङ्क्षु नदी) के निकट शोर्तुगाय ( شورتوگای) के पर्वतीय क्षेत्र में पाया जाता था। लगभग ईसा पूर्व 3300–2800 के काल में हरियाणा के भिरड़ाना (अङ्ग्रेज़ी वर्तनी : Bhirrana) से पाए पुरातत्त्व महत्त्व के अवशेषों में राजावर्त्त भी मिला है। ध्यान दें कि यह स्थान लगभग आठवीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व से सभ्यता का केन्द्र रहा है; और वैदिक सरस्वती के क्षेत्र में है
सिन्धु घाटी सभ्यता में राजावर्त अनेक स्थानों पर और सभी कालों के अवशेषों में मिला है। सिन्धु घाटी सभ्यता से इस रत्न को मेसोपोटेमिया और मिस्र की सभ्यता को निर्यात भी किया जाता रहा। मिस्र की गिरजा (جيزرة) काल की सभ्यता (ईसा पूर्व 3500—3200) के काल से वहाँ राजावर्त के अवशेष मिलते हैं।
किशोरावस्था में काल के गाल में समाने वाले मिस्र के फरोह तुतनखामुन (ईसा पूर्व 1341-1323) के मरणोत्तर मुखौटे में राजावर्त का प्रयोग हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का न केवल अफ़ग़ानिस्तान से व्यापारिक सम्बन्ध रहा है; अपितु वहाँ के वणिज मिस्र तक अपने उत्पादों का व्यापार करने में समर्थ थे। यह सम्भवतः विश्व के सबसे प्राचीन सुचारु रूप से चलने वाले व्यापारिक मार्गों में एक है।
ताम्र के इन मणिभों के बीच रेशम के तन्तु मिले हैं।
वस्तुतः हड़प्पा और चान्हूदड़ो में ईसा पूर्व 2450–2000 के काल से घिया-पत्थर और ताम्र की मणियों के भीतर रेशम के तन्तु मिले हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता प्राचीन रेशम के नवीन प्रमाण (NEW EVIDENCE FOR EARLY SILK IN THE INDUS CIVILIZATION) में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के आयरीन एल गुड (I. L. GOOD), एवं विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय के जेम्स एम केनोयर (J. M. KENOYER) तथा आर एच मीडो (R. H. MEADOW) ने नेवासा में ईसा पूर्व 1500 काल के रेशम के प्रमाण दिए हैं।
यह प्रमाण इस काल में रेशम व्यापारिक मार्गों की उपस्थिति का द्योतक हैं। नेवासा महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में है। यहाँ रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक सम्बन्धों के भी प्रमाण मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिण पथ; तथा उत्तर पथ से होते हुए यह स्थान प्राचीन रेशम मार्ग से जुड़ा हुआ था।
जिस प्रकार से भारतीय वणिजों का जाल फैला था यह अनुमान किया जाता है कि भारतीय सङ्गठित व्यापार करते थे; जिसमें नौकाओं और बैलगाड़ियों का परिवहन के लिए उपयोग होता रहा। सिन्धु घाटी की मृण्मुद्राओं तथा अन्य पदार्थों की मुद्राओ को सम्भवतः व्यापारिक सङ्घों तथा अन्य व्यावसायिक (यथा शिल्पी) सङ्घों के सदस्य एक सदस्यता की पहचान के चिह्न के रूप में काम लेते हों।
यह सम्भवतः गज (हाथी), वृषभ (बैल), तथा गण्ड (गैंडा) के प्रतीक चिह्नों वाले व्यावसायिक सङ्घों की मुद्राएँ हैं।
वैदिक काल में वणिज शब्द का प्रयोग उस समय में भी बनियों के होने का वर्णन करते हैं।
याभिः सुदानू औशिजाय वणिजे दीर्घश्रवसे मधु कोशो अक्षरत् ।
कक्षीवन्तं स्तोतारं याभिरावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥११॥ — ऋग्वेदः सूक्तं १.११२
[इस ऋचा का सन्दर्भ दीर्घतमा की पत्नी उशिज के पुत्र, दीर्घश्रवा ऋषि, अकाल-सूखे के समय आजीविका के लिए वाणिज्य में लगे हुए थे। उन्होंने वर्षा के लिए अश्विनीकुमारों की भी प्रशंसा की। और अश्विनी कुमार युगल ने बादलों को प्रेरित किया। हे सुदानव (शोभनदान करने वाले), उशिज के पुत्र औशिजा को, जो वणिज वृत्ति करता है, ऋषि दीर्घश्रवस को, उसकी प्रार्थना पर आपकी प्रेरणा से बादलों ने मधु जैसा जल बरसाया। कक्षिवन्त के स्तुति करने पर हे अश्विनी कुमारों आप उनके पास गए।]
यह ऋचा ऋग्वेद के रचना काल में वणिज (बनिया) के व्यवसाय का होना दर्शाती है। यही नहीं सूखे की स्थिति का भी विवरण देती है। इस कारण बहुधा ऋग्वेद का रचना काल सिन्धु सभ्यता के पतन काल से जोड़ा जाता है।
एता धियं कर्णवामा सखायो ऽप या मातां रणुत वरजं गोः ।
यया मनुर विशिशिप्रं जिगाय यया वणिग वङकुर आपा पुरीषम ॥ — ऋग्वेदः सूक्तं 5.45.6
[आओ, हे मित्रों, हम उस उद्देश्य को पूरा करें जिसके लिए माता रुपी उषा ने किरणों का समूह को प्रकाशित किया; जिसके लिए मनु ने विशिशिप्र पर विजय पाई को जीता था; जिसके लिए भटकते हुए बनिये ने स्वर्ग का जल प्राप्त किया था।]
संस्कृत ग्रन्थों में बनिया के लिए वैदेहक, सार्थवाह, नैगम, वाणिज, वणिज्, पण्याजीव, आपणिक, क्रयविक्रयक, आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।
गौतम बुद्ध के समय तक वणिज सङ्घ (जिन्हें श्रेणि कहा जाता था) प्रभावी हो चुके थे। इस समय चीन और भारत से मध्य एशिया से होते हुए भूमध्यसागर तक जाने वाले व्यापारिक मार्ग सुव्यवस्थित रूप से चलने लगे थे। यद्यपि इन मार्गों को उस समय प्रचलित इन क्षेत्रों के सभी धर्मों के वणिज उपयोग करते थे; बौद्ध धर्म के के व्यापक प्रचार और प्रसार के लिए यह मार्ग माध्यम बनें। अठारहवीं शताब्दी में इन मार्गों को सामूहिक रूप से रेशम मार्ग (सिल्क रूट) का नाम दिया गया। पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से ऐसी अनेक श्रेणियों के जैन अथवा बौद्ध मत अपनाने के उल्लेख मिलते हैं। प्राचीन भारत में वणिज ही नहीं; अन्य व्यवसायों की भी श्रेणियाँ थीं।
इस काल में भी यह मार्ग जोखिम से भरे थे। अतः इस मार्ग पर व्यापारी न केवल समूह में जाते थे; अपितु इस कार्य के लिए वे व्यावसायिक सङ्घ भी बनाते थे। इन सङ्घों के कर्ता-धर्ता गणतान्त्रिक विधि से चुने जाते और यह सङ्घ अपने सदस्यों के हितों की रक्षा के लिए अपनी सेनाएँ भी रखते थे। इस सङ्घ में अपने सदस्यों के हितों की रक्षा के सामर्थ्य ने प्राचीन भारत को समृद्ध बनाया। अपने अतिरिक्त आर्थिक संसाधनों को यह श्रेणियाँ ऋण देने का भी कार्य करती थीं; और जनसाधारण के धन को सुरक्षित रखने के भी विश्वसनीय संस्थान थीं। एक प्रकार से यह आधुनिक बैंकों की भूमिका भी निभाते थे। इन श्रेणियों के अधिकारी ज्येष्ठ कहलाते थे।
भारतीय राज्यों को तथा इनके राजाओं को भी इन व्यवसायियों पर लगाए गए करों से बहुत आमदनी होती; तथा इसके प्रतिकार में यह सङ्घ सुरक्षित व्यापारिक मार्गों तथा व्यावसायिक सुरक्षा की अपेक्षा करते थे।
बुद्ध के कुछ समय उपरान्त शक्तिशाली नन्द वंश का मगध साम्राज्य उत्तर भारत के एक वृहद क्षेत्र में अपनी जड़ें जमा चुका था। किन्तु, नन्द साम्राज्य का अन्त एक साधारण लगभग साधनहीन वैश्य परिवार में जन्मे चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया। इसमें आचार्य चाणक्य की भूमिका पर कोई भी प्रश्न नहीं है। किन्तु, क्या आपने विचार किया है कि चन्द्रगुप्त मौर्य तथा चाणक्य को अचानक ही इतनी बडी सेना और समृद्धि कहाँ से मिल गई। इसके लिए अनेक दन्तकथाएँ कही जाती हैं। किन्तु, इसका एक बहुत सहज कारण है। सम्राट घनानन्द को दिए करों का समुचित लाभ न पाकर व्यापारिक सङ्घों ने चन्द्रगुप्त मौर्य को न केवल धन अपितु अपनी सेनाएँ भी उपलब्ध करवाईं; और यही नहीं चन्द्रगुप्त मौर्य को भाड़े के यवन सैनिक भी उपलब्ध करवाने में सहायता दी। परस्पर लाभ के चलते ही मौर्य साम्राज्य का विस्तार भी हुआ। उत्तरापथ (ग्रांड ट्रंक रोड) तथा दक्षिणापथ का पूर्ण विकास भी इस काल से हुआ है।
भारत की नैतिकता और बुद्धिमत्ता का प्रचार-प्रसार भारत से ही विदेश-व्यापार करने वाले वणिकों ने किया; पञ्चतन्त्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर, बृहत्कथा, जैसी अनेक कथाएँ वाणिज्य के साथ ही मध्य एशिया से होते हुए फ़ारस, अरब प्रायःद्वीप, यूनान तक पहुँच गईं। पञ्चतन्त्र के मित्रभेद की बारहवीं कथा में ‘वणिजारकसार्थ’ का विवरण मिलता है; सार्थ वस्तुतः (सारथी वाले) वाहनों के समूह को कहा गया है; और वणिजारक वाणिज्य करने वाले को; जिससे बंजारा शब्द की व्युत्पत्ति हुई है।
श्रेणियाँ व्यवसाय पर आधारित थीं; इनमें सम्प्रदाय आधारित भेद नहीं किया जाता था। यह मुख्यतः बाजार के नियमन, मूल्य नियमन, गुणवत्ता नियमन, आधारभूत ढाँचे की व्यवस्था और प्रबन्धन, विवादों का समाधान, और कराधान का कार्य करती रहीं।
अर्थशास्त्र में वर्णित चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में हुए कुछ प्रशासनिक सुधार (समान कराधान की व्यवस्था) इन श्रेणियों को समानान्तर सत्ता केन्द्र न बनने देने के लिए किए गए।
यद्यपि इन श्रेणियों से सभी प्रकार के व्यवसायों को अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए अनुकूल वातावरण स्थापित करने में सहायता मिलती थी; किन्तु इनमें चार वर्णों से के इतर व्यवसाय पर आधारित अनेक जातियों के बीज भी इन श्रेणियों में हैं। क्योंकि यह व्यवसाय बहुधा पैतृक व्यवसाय ही हुआ करते थे। इन श्रेणियों में सौ से हजारों तक सदस्य होते थे। अर्थशास्त्र में वर्णित चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में हुए कुछ प्रशासनिक सुधार (समान कराधान की व्यवस्था) इन श्रेणियों को समानान्तर सत्ता केन्द्र न बनने देने के लिए किए गए।
वैश्य वंशज गुप्त साम्राज्य के काल में भी श्रेणियों की यह भूमिका रही। राज्य के विधि-विधान से इतर श्रेणियों के अपने विधि-विधान होते थे। तथा इनके सभी सदस्यों को इन्हें मानना करनी पड़ती थी। चीनी बौद्ध भिक्षुक मोक्षदेव को ह्सुइन त्सांग (玄奘; सरलीकरण : ह्वेन सांग) नाम से जाना जाता है। उन्होनें सम्राट हर्षवर्धन के राज्यकाल में भारत यात्रा की थी। उनकी पुस्तक दा तंग क्सी यू जी (大唐西域記; पश्चिमी साम्राज्यों के अभिलेख) में इस यात्रा का विस्तार से वर्णन है। इस पुस्तक में सम्राट हर्षवर्धन के पूर्वजों के वैश्य (बनिया) होने का वर्णन है; जिन्हें गुप्त साम्राज्य में सामन्त पद दिया गया। इस वंश के पुष्यभूति ने मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरान्त लगभग 500 ईस्वी में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। इससे यह सङ्केत मिलता है कि कुछ श्रेणियाँ अत्यधिक प्रभावशाली थीं; और उनके वणिज प्रमुखों का राज्य के कार्य-कलापों तथा विधानों में हस्तक्षेप भी था।
हर्षवर्धन के काल में श्रेष्ठि (व्यापारियों के प्रमुख), सार्थवाह (व्यापारिक वाहनों के सङ्घ के सदस्य), कुलिक (विभिन्न प्रकार की वस्तुओं तथा कलाकृतियों को बनाने वाले तथा कायस्थ (लेखा-जोखा) रखने वाले साम्राज्य के अधिकारियों में सम्मिलित थे। इस काल में व्यापारिक गतिविधियों और श्रेणियों की सम्पन्नता में गिरावट हुई।
हर्षवर्धन के काल में ही भारत में इस्लाम का आगमन हुआ; यद्यपि, यह हर्षवर्धन के राज्यक्षेत्र में न होकर केरल में था। प्रायःद्वीपीय भारत के व्यापारिक न केवल अरब और मिस्र से थे; अपितु, वहाँ के पुरावशेषों में रोमन सिक्कों की अनेक निधियाँ भी मिली हैं। पूर्व में वे दक्षिण पूर्वी एशिया और चीन तक से अपने व्यापारिक सम्बन्ध बनाकर रखते थे। दक्षिण-भारत में इस प्रकार इस्लाम का प्रसार भी मित्रवत व्यापारियों के माध्यम से हुआ। वस्तुतः, इन अरब व्यापारियों के केरल में वैवाहिक सम्बन्धों से केरल के मपिल्ला (മാപ്പിള/ तमिळ மாப்பிள்ளை / माप्पिल्लै; जामाता) होने के कारण मोपला कहलाने वाले मुस्लिम समाज का आविर्भाव हुआ है।
दक्षिण भारत के व्यापारी चीन से पट्टु (பட்டு; संस्कृत पट्ट से रेशम) और दक्षिण-पूर्वी एशिया से मसाले लेकर आते थे; इस कारण दक्षिण के व्यापारी भी बहुत समृद्ध थे। इनसे हुए कराधान से दक्षिण में इस काल से सशक्त साम्राज्यों का युग यौवन पर आया। चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय ने सम्राट हर्षवर्धन को पराजित कर उनका साम्राज्य विस्तार विन्ध्य के उत्तर तक ही सीमित रखने को विवश कर दिया था।
इस काल के अजन्ता के गुहाचित्रों में ईरान के सासानी साम्राज्य से आए व्यापारियों का भी चित्रण है। जिनसे चालुक्य साम्राज्य के व्यापारियों की समृद्धि से उनकी सैन्यशक्ति का भी बढ़ना दृष्टिगोचर होता है।
इस्लाम के आगमन के उपरान्त भारत के अनेक पत्तनों के माध्यम से अरब विश्व और दक्षिणपूर्व से होते हुए चीन तक जलमार्ग से भी व्यापार बढ़ने लगा। अतः भारतीय वणिज श्रेणियाँ भी समृद्ध होने लगीं। सम्पन्न बनियों का वर्ग श्रेष्ठि कहलाता है; जिससे विभिन्न भाषाओं में शेट्टी (तेलुगु శెట్టి/ कन्नड़ ಶೆಟ್ಟಿ), चेट्टी / चेट्टियार (तमिळ செட்டி / செட்டியார்), सेठ, ह्क्यित्ती (बर्मी : ချစ်တီး) जैसे शब्दों की रचना हुई है। दक्षिण भारतीय बनियों में कुछ इतने प्रभावशाली थे कि उनकी मृत्यु होने पर राजा भी अनेक दिन यात्रा कर श्रद्धाञ्जलि देने जाते थे।
दक्षिण भारत से ही चोल (சோழ) साम्राज्य ने भारत से बाहर श्रीलङ्का, बर्मा, मलय प्रायःद्वीप, सुमात्रा, यावा, पर विजय पाई थी। किन्तु, यह अल्पज्ञात तथ्य है कि इस विजय के लिए आवश्यक जलसेना, जलपोतों, तथा धन को वणिजों ने उपलब्ध करवाया था। इस अभियान का मुख्य कारण दक्षिण-पूर्वी एशिया के श्रीविजय साम्राज्य का जल-दस्युओं को समर्थन देकर व्यापारिक गतिविधियों में भारी बाधा डालना था। तब दक्षिण भारत की व्यापारिक श्रेणियों विशेषकर मणिग्रामं श्रेणि ने चोल सम्राट राजराज चोल को आवश्यक संसाधन उपलब्ध करा कर श्रीविजय साम्राज्य को चोल नियन्त्रण में लाने में सहायता की। चोल साम्राज्य ने चीन तक मार्ग सुरक्षित करने की लिए आवश्यक प्रयास किये।
इनमें से एक केरल की अञ्जुवन्नं (അഞ്ചുവണ്ണം) श्रेणी के एक अरब व्यापारी द्वारा चोल साम्राज्य को लाखों स्वर्ण-मुद्राएँ उपलब्ध करवाने का विवरण मिलता है। अञ्जुवन्नं सम्भवतः मलयालयम അഞ്ചു - पञ्चम तथा संस्कृत वर्ण का मेल है; जो हिन्दू चतुर्वर्ण व्यवस्था के सदस्य नहीं थे; किन्तु, यह अधिक सम्भव है कि यह शब्द फ़ारसी अन्जुमन (انجمن; सङ्गठन) का मलयालयम में अपनाया गया रूप हो। यह सभी श्रेणियाँ वर्तमान कर्णाटक में ऐहोल (ಐಹೊಳೆ) के महासङ्घ ऐन्नूरवर् (तमिळ : ஐந்நூற்றுவர்; पाँचसौ श्रेष्ठ) से सम्बन्ध रखते थे। इन श्रेणियों के बारे में ज्ञात अभिलेख यह बताते हैं कि यह श्रेणियाँ अर्द्धसैनिक बलों के जैसे भी काम करती थीं; और इनमें भारतीय हिन्दू, जैन, बौद्ध, व्यापारियों के अतरिक्त मुस्लिम, सीरियाई कैथोलिक, पारसी (जरथ्रुष्ट के अनुयायियों), तथा यहूदी व्यापारियों के भी सदस्य होने का विवरण मिलता है। अतः बनिये और उनके सङ्घ अपनी व्यक्तिगत धार्मिक पहचान रखते हुए भी एक समूह के रूप में सामूहिक हितों के लिए काम करते रहे हैं।
यद्यपि उत्तर भारत में इस समय घमासान छिड़ा था। अतः व्यावसायिक गतिविधियों में जोखिम बढ़ने लगा था। अतः जहाँ तक सम्भव हो व्यापारी उस पक्ष के साथ रहते थे जो उनका संरक्षण कर पाए। दिल्ली पर मुहम्मद गौरी की विजय के उपरान्त वहाँ इस्लामिक शासन का आरम्भ हो गया था। इस परिस्थिति में अनेक व्यापारी दिल्ली की सल्तनत के निकट रहकर लाभान्वित भी हुए। 1276 ईस्वी के पालम बावड़ी के संस्कृत अभिलेख में एक जैन व्यवसायी उड्ढर ठक्कुर द्वारा लिखवाया है जिन्हें अभिलेख में योगिनीपुरा ढिल्ली का पुरपति कहा गया है। यह अभिलेख तत्कालीन सुल्तान ग़यासुद्दीन बलबन की प्रशस्ति में भी है। यह अभिलेख वणिजों द्वारा सहज रूप से शासन के विश्वासपात्र होकर उच्चपद पाने की क्षमता को दर्शाता है।
सोलहवीं शताब्दी में मुगलों का भारत पर आक्रमण हुआ; किन्तु, मुग़ल साम्राज्य को शेरशाह सूरी ने परास्त किया। इस काल में में जन्में हेमचन्द्र ने एक व्यापारी के रूप में अपना व्यावसायिक जीवन आरम्भ किया। वह अपने व्यापारिक, कूटनीतिक और सैन्य कौशल से शेरशाह के उत्तराधिकारी आदिलशाह के मुख्यमन्त्री बने। अन्ततः 7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली पर विजय पाकर वह हेमचन्द्र विक्रमादित्य के रूप में सम्राट बने। यद्यपि, दुर्भाग्य से यह राज अधिक दिन नहीं चल पाया। किन्तु, यह भी एक बनिये के रूप में अपना जीवन आरम्भ करने वाले व्यक्ति के चातुर्य कौशल को दर्शाता है।
[टिप्पणी : बचपन में हेमू बनिये का उल्लेख करते हुए "श्रीकृष्ण" का लिखा एक नाटक तोताराम पढ़ा था; यह स्मरण हो आया है।
हेमचन्द्र की भाँति भामाशाह का चरित्र भी बनियों के गुणों को दर्शाने के लिए उपयुक्त है। यह वही थे जिन्होंने अपनी सम्पत्ति महाराणा प्रताप के मेवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से बचाए रखने के सङ्कल्प को बनाए रखने के लिए अर्पित कर दी। उनके भाई ताराचन्द ने तो महाराणा प्रताप के पक्ष में मुगलों से युद्ध भी किया। अधिक आवश्यकता होने पर यह दोनों भेई भी तलवार उठाकर मुगल शासित मालवा से और भी अधिक धन ले आए।
गुरु तेग बहादुर के पार्थिव को ससम्मान विदा करने वाले लक्खीशाह बंजारे का विवरण मैं पूर्व में दिए आलेख में कर चुका हूँ। उनके पास अफ़ग़ानिस्तान से मध्य भारत तक व्यापार करने के लिए लाखों व्यक्तियों और गाड़ियों के कारवाँ थे।
इससे पूर्व पुर्तगाली भी भारत में प्रवेश पा चुके थे। यह उपनिवेश बनाने, ईसाई धर्म का प्रसार करने और व्यापारिक सम्बन्ध से अपनी समृद्धि बढाने के उद्देश्य से आए थे। सत्रहवीं शताब्दी का आरम्भ होते ही डच और अङ्ग्रेज व्यापारिक कम्पनियाँ बनाकर भारत से व्यापार करने के लिए आए। इन कम्पनियों की अपनी सेनाएँ भी थीं। यह भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक स्थानों पर अपने उपनिवेश स्थापित करने में सफल रहे। फ्रांस के नीदरलैंड्स पर आधिपत्य के उपरान्त डच ईस्ट इंडिया कम्पनी की भारत और श्रीलङ्का की सम्पत्तियों को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को हस्तान्तरित कर दिया गया।
भारतीय राजाओं के अतिरिक्त भारतीय वणिजों को भी ईस्ट इंडिया कम्पनी अपना प्रतिद्वन्द्वी मानती थी। अतः घुमक्कड़ व्यापारियों (विशेषकर बंजारा समुदाय को) आपराधिक जातियाँ घोषित कर दिया गया। व्यापारिक और व्यावसायिक श्रेणियाँ भी समाप्त हो चलीं। इससे भारतीय उपमहाद्वीप की समुदायों पर आधारित उद्योगों को भी हानि होने लगी। श्रेणियों का स्वरूप भी सङ्कुचित होने लगा। आज उनके अवशेष कुछ मुख्यतः व्यापार में लगे समुदायों (यथा, पारसी, बोहरा, जैन, आदि) के सामाजिक व्यवहार में देखने को मिलते हैं; जहाँ पारस्परिक सहयोग इन समुदायों को सम्पन्न बनाए रखने में सहायक है।
अंग्रेज़ों के काल में भी इनमें से अनेक वणिक समूहों ने प्रगति की और भारत का औद्योगीकरण भी किया। किन्तु, यह अन्य श्रेणियों के साथ न हो सका; उनके पारम्परिक व्यवसाय धीरे-धीरे अलाभकारी होते गए; और अन्य श्रेणियाँ (तथा उनसे जुड़ी जातियाँ) तेजी से विपन्न होने लगीं। लगभग 1750 तक विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति से अगले सौ वर्ष दूसरे स्थान पर रहते भारत की अर्थव्यवस्था का पतन भी व्यावसायिक श्रेणियों के पतन के साथ दृष्टिगोचर है।
भारत के प्रत्येक नगर-ग्राम में बनिये बसते हैं। वे अनेक संसाधनों की उपलब्धि का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी रहे हैं। बनिया होना एक व्यवसाय है; जोकि, जाति तथा धर्म की सीमाओं से परे रहा है। भारत में विभिन्न स्थानों पर प्रवास करते रहने वाले बनिये सांस्कृतिक एकता के भी ध्वजावाहक रहे हैं। गाँवों में बहुधा अधिक व्यक्ति शिक्षित नहीं होते थे; किन्तु, अपना लेखा-जोखा रखने वाले बनिये बहुधा शिक्षित होते थे; और इनमें से अनेक गाँवों में अपनी पण्यशालाओं में ही छोटी पाठशालाएँ भी चलाते थे। इस प्रकार, छोटे स्तर पर वे समाज तक शिक्षा पहुँचाने में सहायक भी रहे। गाँव के साहूकार (बैंकर) होने के कारण वे बहुधा ऊँची ब्याजदर पर ऋण भी देते रहे हैं। जिससे बनियों को बहुधा स्वार्थी जनों के रूप में देखा जाता है। एक-जुटता, व्यावसायिक बुद्धि, समय आने पर रक्षण करने का सामर्थ्य, जाति-धर्म से उठकर शान्ति से व्यवसाय कर पाने की क्षमता बनियों की विशेषताएँ कही जा सकती है; जोकि पूर्वोक्त विवरण से भी स्पष्ट है।
परम्परागत रूप से गुजरात के बनिये बहुधा अपना व्यवसाय वट-वृक्ष के नीचे करते थे। सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में सूरत में अपनी पहली व्यापारिक कोठी खोलने के उपरान्त अङ्ग्रेज़ व्यापारियों का इन बनियों से व्यापारिक व्यवहार स्थापित हुआ।
भारत के प्रभाव से दक्षिण पूर्व एशिया में भी बनिये वट-वृक्ष के नीचे व्यापार करते थे। यह चित्र इंडोनेशिया में वट-वृक्ष के नीचे पण्यशालाओं को दर्शाता है।
बनिया शब्द से अङ्ग्रेज़ी भाषा में वट-वृक्ष (बड़ के पेड़) के बनियों के व्यापारस्थल होने के कारण banyan (बैन्यान) शब्द प्रचलित हुआ।
अठारहवीं शताब्दी के मध्य की बनियान
यही नहीं; बनियों द्वारा पहनी जाने वाली सूती बण्डी को भी banyan कहा जाने लगा; जिसे हम अब बनियान कहते हैं।
यूरोप से आए व्यापारियों तथा भारत की व्यावसायिक श्रेणियों में कुछ समानता है; तो बहुत से अन्तर भी। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिस पर विचार किसी अन्य आलेख में।
साभार : अरविन्द व्यास
No comments:
Post a Comment
हमारा वैश्य समाज के पाठक और टिप्पणीकार के रुप में आपका स्वागत है! आपके सुझावों से हमें प्रोत्साहन मिलता है कृपया ध्यान रखें: अपनी राय देते समय किसी प्रकार के अभद्र शब्द, भाषा का प्रयॊग न करें।