बनिया समुदाय का व्यापार में कुशल होने का क्या कारण है?
बनिया समाज में अग्रवाल, माहेश्वरी और जैन (ओसवाल, पोरवाल आदि) लोगों को लिया जाता है - मैं यहाँ पर राजस्थान के इन लोगों के बारे में बताऊंगा जिनको मारवाड़ी भी कहा जाता है. ये एक अफ़सोस है की साम्यवादी लेखकों के निहित लक्ष्यों के कारण मारवाड़ी को हर साहित्य और हर फिल्म में एक लोभी लालची के रूप में दर्शाया जाता रहा है. कोई भी फिल्म देखिये या कोई भी काल्पनिक उपन्यास पढ़िए - कुछ पात्र इस प्रकार लिखे जाएंगे - एक मारवाड़ी होगा जो बहुत लोभी और निर्दयी होगा और एक पठान होगा जो बहुत सहयोगी होगा - ये जानबूझ कर इस समाज को हीनभावना से भरने का षड्यंत्र था. मारवाड़ी समाज के बारे में कुछ शोध-आधारित सामग्री प्रस्तुत है - अगर आप फिल्मों में दिए हुए इम्प्रैशन को एक बार के लिए हटाएंगे तो इसको पढ़ पाएंगे नहीं तो आप ये ही मान कर चलेंगे - मारवाड़ी यानी .... .परिवर्तन संसार का नियम है और इसका कोई अपवाद नहीं है. हर अगली पीढ़ी को अपनी पिछली पीढ़ी पुरानी, दकियानूसी, पुरातनपंथी और अविकसित नजर आती है और इसी कारण हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की व्यवस्थाओं को बदल देती है और नयी व्यवस्थाएं स्थापित करने का प्रयास करती है. इसी प्रक्रिया में कई परम्पराएं लुप्त हो जाती है और फिर हम चाह कर भी उनको नहीं सहेज सकते हैं. ऐसी ही एक व्यवस्था है मारवाड़ी प्रबंधन शैली. नयी पीढ़ी ने पाश्चात्य शिक्षा को अपना लिया है और वे अपने आपको मारवाड़ी कहने में भी संकोच करते हैं. जो मारवाड़ी प्रबंध शैली अनेक वर्षों की गुलामी के बाद भी सलामत रह गयी वो आजादी के बाद उपेक्षा का शिकार हुई और कुछ ही दशकों में लुप्त हो गयी. सरकार या किसी भी प्रबंध संस्थान की तरफ से इस अद्भुत प्रबंध शैली को लिपिबद्ध करने के लिए कोई प्रयास नहीं हुए. भारतीय प्रबंध संस्थानों ने विदेशों की प्रबंध शैलियों को सीखने और समझने में अपना सारा समय लगा दिया और उन्ही प्रबंध शैलियों को आगे बढ़ावा दिया लेकिन इस अद्भुत प्रबंध शैली को हीन दृष्टि से देखा और उस उपहास के कारण ये व्यवस्था आज लुप्त हो चुकी है. आज का ये फैशन बन गया है की प्रबंध सीखना है तो अमेरिका की कुछ प्रबंध संस्थाओं में जाओ (वो संस्थाएं वाकई महान है) लेकिन अफ़सोस तो ये है की अद्भुत प्रबंध दक्षता रखने वाले मारवाड़ी अपनी नयी पीढ़ी को अपनी प्रबंध दक्षता सिखाने की बजाय इसी फैशन में बह कर विदेश से प्रशिक्षित करवा रहे हैं. आधुनिक शिक्षित लोगों ने ऐसा चश्मा पहना है की उनको भारतीय व्यवस्थाओं में अच्छाइयां ढूंढने से भी नहीं मिलती हैं - शायद उनको मेरे इस लेख में भी कुछ भी काम का न मिले. लेकिन १०० साल बाद पश्चिम से किसी ने भारत पर अध्ययन किया और फिर किसी ने पूछा की अद्भुत भारतीय व्यवस्थाओं को समूल नष्ट करने के लिए कौन जिम्मेदार है तो क्या जवाब देंगे ?
एक समय मारवाड़ी व्यावसायिक दक्षता पूरी दुनिया में अपनी अद्भुत पहचान स्थापित कर चुकी थी लेकिन आज ये कला लुप्त होने के कगार पर है. मारवाड़ी प्रबंध शैली दुनिया में कहीं पर भी पूरी तरह से लिखी हुई नहीं है और ये उन लोगों के साथ ही विदा हो गयी है जो लोग इस कला में मर्मज्ञ थे. लेकिन जैसे ही ये पूरी तरह लुप्त हो जायेगी - वैसे ही हमें अहसास होगा की एक बहुत ही शानदार प्रबंध व्यवस्था हमने खो दी है.
लुप्त हुई मारवाड़ी व्यवस्था का आज कोई जिक्र बेमानी है लेकिन फिर भी उनकी कुछ व्यवस्थाओं के बारे में मैं अवश्य जिक्र करना चाहूँगा: -
१. मौद्रिक प्रबंधन और ब्याज गणना की अद्भुत व्यवस्था : - मारवाड़ी प्रबंध व्यवस्था का आधार मौद्रिक गणना है और इसी कारण ब्याज को नियमित रूप से गिना जाता है जो की पैसे के समुचित सदुपयोग के लिए जरुरी है. फिल्मों में मारवाड़ी ब्याज पर बहुत ही उपहास और व्यंग्य नजर आते हैं लेकिन आज ये ही व्यवस्थाएं आधुनिक बैंकिंग संस्थाएं अपना रही है. बाल्यकाल से ही गणना (गणित) का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था और इसी कारण बिना केलकुलेटर के भी कोई भी व्यक्ति दशमलव अंकों की गुना-भाग भी आसानी से कर लिया करते थे और गणना में छोटी से छोटी गलती की भी बड़ी सजा मिलती थी. ब्याज जितना होता है उतना ही लेना सिखाया जाता है - एक पैसा भी हराम का लेना पाप है और इसी प्रशिक्षण के कारण मारवाड़ी ब्याज की गणना भी करता है लेकिन अपने धर्म का भी पालन करता है - लेकिन अफ़सोस ये है की आपने तो फिल्मों में उसको हमेशा लोभी और लालची के रूप में ही देखा है - आप जब तक मारवाड़ी परिवारों में रह कर ये सब नहीं देखोगे विश्वास नहीं करोगे - मैंने तो बचपन से ये सब देखा भी है और बार बार आजमाया भी है - कई बार जान बुझ कर ज्यादा भुगतान कर के भी देखा और एक एक पाई वापिस लेनी पड़ेगी क्योंकि हराम का नहीं लेना बचपन से सिखाया जाता है - बचपन से ये ही प्रशिक्षण मिलता है की सही नियत रखिये और सही गणना करिये
२. जीवन पर्यन्त की प्रबंध कारिणी - यानी मुनीम व्यवस्था: मारवाड़ी व्यवस्था में मुनीम को बहुत ही अधिक महत्त्व दिया जाता था. मुनीम को आधुनिक व्यवस्था के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के सामान इज्जत और सम्मान दिया जाता था और उसके ऊपर पूरा विश्वास किया जाता था. उसको पारिवारिक सदस्य की तरह सम्मान मिलता था. उसको जीवन पर्यन्त के लिए व्यवसाय का प्रबंधक नियुक्त कर दिया जाता था. उसके परिवार की जिम्मेदारियां भी उठाई जाती थी ताकि उसके परिवार को कोई परेशानी न हो.
३. पड़ता व्यवस्था : मारवाड़ी निर्णय का आधार पड़ता यानी शुद्ध लाभ. शुद्ध लाभ की गणना का ये तरीका अद्भुत था. इसमें सिर्फ अस्थायी आय और अस्थायी खर्चों के आधार पर हर निर्णय से मिलने वाले शुद्ध लाभ या हानि पर चिंतन कर के ये निर्णय लिया जाता था की मूल्य क्या रखा जाए.
४. संसाधन बचत : मारवाड़ी अपने हर निर्णय में संसाधनों का कमसे कम इस्तेमाल कर के अधिक से अधिक बचत करने का प्रयास करते थे और इस प्रकार पर्यावरण की बचत में योगदान देते थे. मारवाड़ी एक दूसरे को चिठ्ठी भी लिखते थे तो उसमे कम से कम कागजों का इस्तेमाल करते हुए अधिक से अधिक जानकारियां प्रेषित करते थे.
५. बदला व्यवस्था: मारवाड़ी अपने सौदों को भविष्य में स्थानांतरित करने के लिए बदला व्यवस्था काम में लेते थे जिसके तहत सौदों को आगे की तारीख पर करने के लिए निश्चित दर से ब्याज की गणना होती थी. (ऐसी ही कुछ व्यवस्था विकसित करने के लिए दो अर्थशास्त्रियों को हाल ही में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया लेकिन मारवाड़ियों की इस व्यवस्था को रोक दिया गया था)
६. हुंडी व्यवस्था: आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था के शुरू होने से भी अनेक वर्ष पहले से मारवाड़ी व्यापारी हुंडी व्यवस्था को चलाते आ रहे हैं जिसको अंग्रेजों ने पूरी तरह से रोक दिया और फिर आजादी के बाद आधुनिक सरकार ने पूरी तरह से ख़तम कर दिया था. ये हुंडी व्यवस्था आज की आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था से कम लागत पर मुद्रा के स्थानांतरण का माध्यम था जिसमे बिना तकनीक या बिना इंटरनेट के भी आज की तरह ही एक जगह से दूसरी जगह पर मुद्रा का आदान प्रदान होता था.
७. पर्यावरण अनुकूल निर्णय: मारवाड़ी हमेशा पर्यावरण अनुकूल निर्णय लिया करते थे - जिसमे वे स्थानीय पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाए बिना ही व्यापार और व्यवसाय को बढ़ावा देने का प्रयास करते थे.
८. धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना : व्यापार शुरू करने से पहले वे मंदिर बनाते थे और शुभ - लाभ लिखते थे. शुभ यानी हर व्यक्ति का कल्याण लाभ से पहले लिखते थे ताकि हर निर्णय को सबके कल्याण के लिए ले सकें. हर निर्णय को धर्म - और अध्यात्म के आधार पर जांचा जाता था. तकनीक के देवता विश्वकर्मा की पूजा की जाती थी तो धन के देवता गणेश और लक्ष्मी को आराध्य माना जाता था. सभी निर्णय सिद्धांतों पर आधारित होते थे और सबसे बड़ा सिद्धांत ये था की जो भी निर्णय हो वो जीवन को जन-कल्याण और आत्मकल्याण की तरफ ले जाए. जीवन का मकसद था केवलयज्ञान की तरफ जाना और इसी लिए हर निर्णय को पुण्य का अवसर के रूप में देखा जाता था और पाप से बचने के प्रयास किये जाते थे. ऐसी तकनीक नहीं अपनायी जाती थी जिससे जीवों का नाश हो. शुरुआत करते समय से ही सकल भ्रमांड के कल्याण को आदर्श के रूप में रखा जाता था.
९. देवों को अर्पण : - हर व्यापारिक निर्णय श्री गणेश और रिद्धि सिद्धी की आराधना के बाद किया जाता है. श्री गणेश विघ्नहर्ता हैं तो उनकी पत्नियां ऋद्धि-सिद्धि यशस्वी, वैभवशाली व प्रतिष्ठित बनाने वाली होती है. आय का कुछ हिस्सा देवों को अर्पित कर दिया जाता था जो किसी न किसी रूप में समाज के कल्याण के काम में आता था. व्यापार की आम्दानी का कुछ भाग गोशाला या ऐसी ही अन्य किसी संस्था को देने से ये माना जाता था की देवताओं का हिस्सा उनको अर्पित कर दिया गया है. प्राचीन भारत में इसी कारण मंदिरों में प्रचुर संपति दान में आती थी जो किसी न किसी रूप में समाज के कल्याण हेतु अर्पित की जाती थी.
१०. गद्दियों की व्यवस्था: आधुनिक तड़क भड़क की जगह मारवाड़ी अपने व्यापारिक प्रतिष्ठानों में गद्दियों की व्यस्था रखते थे जो बहुत ही आरामदायक, आत्मीयता पूर्ण और स्वच्छता पर आधारित माहौल बनाती थी. ये मेहमानों के ढहरने के लिए भी काम आती थी. किसी मेहमान को जरुरत के समय इन्हीं गद्दियों में रुकने के लिए पर्याप्त व्यवस्था कर दी जाती थी ताकि अनावश्यक होटल का खर्च भी नहीं होता था. आधुनिक एयर कंडीशन ऑफिसों से तुलना करके पर्यावरण के ज्यादा अनुकूल क्या है ये आप स्वयं तय कर सकते हैं.
११. बचत और उत्पादकता पर जोर : मारवाड़ी व्यवस्था में बचत और उत्पादकता पर बहुत अधिक जोर दिया जाता था और इसी कारण विषम परिस्थितियों में भी मारवाड़ियों ने व्यापार कर के अपने आप को सफल बनाया. आधुनिक कंपनियों की जगह पर मारवाड़ियों ने बचत और उत्पादकता के क्षेत्र में शानदार कार्य किया और वैश्विक व्यापार स्थापित किया. रविवार की जगह पर अमावस्या की छुट्टी होती थी (यानि महीने में सिर्फ एक दिन की छुट्टी) - लेकिन सामान्य दिनों में भी कार्य के घंटे बहुत ज्यादा होते थे - लेकिन हर कर्मचारी को साल में एक महीने अपने गांव जाने की छुट्टी दी जाती थी.
१२. जरुरत पड़ने पर राज्य की मदद: - मारवाड़ी व्यवसायी उस समय के राजा की जरुरत के समय आर्थिक मदद किया करते थे और इसी कारन अनेक शहरों में मारवाड़ी व्यापारियों को नगर-शेठ की उपाधि दी जाती थी. कई बार देश हित में व्यापार और उद्यम की बलि भी चढ़ा दी जाती थी.
१३. स्थानीय लोगों की भागीदारी: मारवाड़ी जहाँ पर भी व्यापार करने के लिए जाते थे वहां के स्थानीय लोगों को अपने व्यापार और उद्योगों से लाभान्वित करने का प्रयास करते थे और इसी कारण उनको स्थानीय लोगों से पर्याप्त सहयोग और सम्मान मिलता था.
१४. शांतिपूर्ण ढंग से विरोध को सहना : मारवाड़ियों को अन्य भारतियों की तरह सत्ता पक्ष से विरोध का सामना करना पड़ा. डाकुओं, लुटेरों और अनेक अधिकारियों को मारवाड़ी सरल लक्ष्य नजर आते थे जिन पर वे अपने अत्याचार आसानी से कर लेते थे. सत्ताधारी उनसे मनमाना टैक्स वसूलते थे. ब्याज की सूक्ष्म गणना किसी को भी अच्छी नहीं लगती थी. लोग मारवाड़ियों से पैसे तो उधार लेना चाहते थे लेकिन ब्याज नहीं देना चाहते थे लेकिन मारवाड़ियों की सफलता का आधार ही उनकी सूक्ष्म गणना थी जिस के कारण वे पैसे के सही इस्तेमाल पर जोर देते थे. अंग्रेजों और उनके इतिहासकारों ने मारवाड़ियों को सूदखोर के रूप में स्थापित किया क्योंकि अंग्रेजों को मारवाड़ियों की व्यवस्था बैंकिंग व्यवस्था से बेहतर नजर आयी और वे आधुनिक बैंकिंग को बढ़ावा देने के लिए मारवाड़ियों को हटाना चाहते थे - जबकि मारवाड़ी खुद बैंकिंग व्यवस्था के समर्थक थे और बैंकें भी मारवाड़ियों की तरह चक्रवर्ती ब्याज लेती थी. मारवाड़ी किसानों को जरुरत के समय पर ऋण प्रदान करदेते थे और इसी कारण अनेक वर्षों से मारवाड़ियों ने किसानों के साथ मिल कर हर जगह पर कृषि को सफल बनाने में योगदान दिया था लेकिन ये आधुनिक व्यवस्था में नकारात्मकता के माहौल में तब्दील हो गया. अंग्रेजों के बाद में आधुनिक भारत में मारवाड़ियों के योगदान और उद्यमिता को पूरी तरह से विरोध का सामना करना पड़ा और उसी के कारण मारवाड़ियों ने परम्परागत व्यवस्थाओं को बदल दिया और नयी प्रोफेशनल प्रबंधन पर आधारित व्यवस्थाओं को अपना लिया ताकि उनका विरोध न हो. आधुनिक मीडिया द्वारा मारवाड़ियों का पूरी तरह से नकारात्मक चित्रण हुआ और इस प्रकार उनकी उद्यमिता को लगाम लग गयी. मारवाड़ियों की नयी पीढ़ी अपने आपको मारवाड़ी कहने में भी हिचकिचाने लगी.
१५. सामाजिक उद्यमिता : मारवाड़ी उद्यमी अपनी आय में से कुछ राशि बचा कर के समाज के लिए कुछ करना चाहते थे और इसी क्रम में उन्होंने प्याऊ, गोशालाएं, मंदिर, शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल और धर्मशालाओं का निर्माण किया. उनके प्रयासों से राजस्थान में विकट परिस्थितियों में भी लोगों को रहने में दिक्कत नहीं आयी. आजादी से पहले अनेक शिक्षण संस्थाएं मारवाड़ियों ने इस प्रकार स्थापित की ताकि भारतीय संस्कृति भी सलामत रहे और युवा पीढ़ी भी शिक्षित हो सके.
१६. विपणन की व्यक्तिगत शैली: - आधुनिक विज्ञापन आधारित व्यवस्था की जगह पर मारवाड़ी व्यवसायी व्यक्तिगत संपर्क और व्यक्तिगत सेवा पर आधारित विपणन व्यवस्था अपनाते थे जिसमे एक व्यक्ति को ग्राहक बनाने के बाद पूरी जिंदगी उसकी जरूरतों के अनुसार उत्पाद उसको प्रदान करते थे. व्यापारिक रिश्तों को पूरी जिंदगी निभाया जाता था और व्यापारिक सम्बन्ध मधुर व्यवहार, वैयक्तिक संबंधों और आपसी विश्वास पर आधारित होते थे. "अच्छी नियत" के आधार पर ही सारे निर्णय लिए जाते थे ताकि पूरी जिंदगी व्यापारिक सम्बन्ध बना रहे और इसी लिए आपसे मेलजोल, जमाखर्च, लेनदेन और आपसी खातों के मिलान पर बहुत अधिक जोर दिया जाता था.
१७ दीर्धजीवी उत्पाद : मारवाड़ी ऐसे उत्पाद विकसित करते थे जो दीर्ध समय तक सलामत रह सके और इस प्रकार निवेश करते थे ताकि दीर्ध काल तक कोई दिक्कत न आये. आधुनिक कम्पनियाँ ऐसे उत्पाद बनाती है जो अलप काल में ही नष्ट हो जाएं. वे पैकेजिंग और विज्ञापन पर अत्यधिक अपव्यय करती है लेकिन मारवाड़ी लोग इस प्रकार के अपव्यय को बचाते थे.
१८. साख पर बल: मारवाड़ी अपने व्यापर में साख बनाने पर सबसे अधिक जोर देते थे और साख पर किसी भी हालत में आंच नहीं आने देते थे. इसी कारण "गुडविल" शब्द के आने से बहुत पहले से साख और "नाम" जैसे शब्द मारवाड़ी व्यापारिक जगत में काम आते थे.
१९. कार्य विभाजन व युवाओं को मार्गदर्शन : मारवाड़ी व्यापर में बुजुर्ग लोग नीतिगत निर्णय लेते हैं लेकिन युवा रोज का काम देखते हैं - अतः इस प्रकार सभी लोगों में काम बंटे रहते थे और आपसी तालमेल भी बना रहता था. सबसे बड़ा पुरुष व्यक्ति कर्ता कहलाता था और वो सभी नीतिगत निर्णय लेता था. परिवार के युवा उससे मार्गदर्शन ले कर रोजमर्रा के निर्णय लेते थे और उसको एक एक पैसे का हिसाब देते थे. पूरे घर में एक ही रसोई होती थी और अन्न का एक दाना भी व्यर्थ में नहीं बहाया जाता था. अन्न का सबसे पहला टुकड़ा गाय, फिर अन्य प्रमुख जानवरों जैसे कुत्तों आदि के लिए निकला जाता था और फिर घर के लोग खाना कहते थे. भोजन सामान्य लेकिन होता था लेकिन बड़े प्यार से मिल कर खाने में अलग ही आनंद होता था. थाली में एक भी दाना व्यर्थ नहीं छोड़ा जाता था. थाली में सबसे पहले कर्ता भोजन की शुरुआत करता था और आखिर में भी वो ये ही देखता की कोई भी भूखा नहीं रह गया है और सबसे आखिरी दाना (अगर कुछ बच जाए) गृह स्वामिनी उठाती थी. आज की बड़ी कंपनियों की पांच सितारा संस्कृति की तुलना में बहुत कम भोजन व्यर्थ जाता था. भोजन के समय ही अच्छे उद्यमियों और अच्छे सामाजिक आदर्शों का वृत्तांत सुनाया जाता था जो युवाओं को श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए प्रेरित करता था. ऐसा माना जाता था की साथ में भोजन करने से आपसी प्रेम बढ़ता है. साल में कम से कम एक बार पूरा परिवार तीर्थयात्रा के लिए या सत्संग के लिए जाता था जो परिवार के लोगों को जीवन मूल्यों से जोड़ देता था. व्यवसाय का केंद्र परिवार था - परिवार का आपसी प्रेम व्यापारिक संबंधों में भी परिलक्षित होता था.
२०. प्रेम भरा संवाद : मारवाड़ी लोगों ने अनेक व्यवस्थाएं की थी जिनमे आपसी मधुर संवाद हो सके. सब पुरुष लोग एक साथ एक ही थाली में भोजन करते थे और सब महिलायें एक साथ एक ही थाली में भोजन करती थी. इस प्रकार भोजन के दौरान आपस में मधुर संवाद स्थापित हो जाता था. रात्रि में युवा वर्ग बुजुर्गों के पैर दबाता था और उसी दौरान बुजुर्ग लोग युवाओं को व्यापारिक सीख भी दिया करते थे और दिन भर के समाचार भी पूछ लेते थे. उसी समय वे उनको व्यावसायिक नीतियों और परम्पराओं की शिक्षा भी प्रदान करते थे. इसी प्रकार मारवाड़ी उद्यमी अपने कर्मचारियों से भी प्रेम से बात करते थे और इस प्रकार एक सौहार्द-पूर्ण माहौल बनाया करते थे.
२१. सुव्यवस्थित खाते और सुव्यवस्थित वार्षिक विवरण : - मारवाड़ी उद्यमी दिवाली से दिवाली अपने व्यापार के बही - खाते रखते थे. बहीखाते बहुत ही सुन्दर अक्षरों में लिखे जाते थे जिनमे कभी भी कोई त्रुटि नहीं होती थी. हर विवरण बहुत ही सहेज कर रखा जाता था. हर दिवाली को नयी पुस्तकों में खाते - बही की पूजा कर के शुरुआत की जाती थी. हर खाता पूरी तरह से व्यवस्थित होता था. उस जमाने में कम्प्यूटर नहीं था अतः सारे खाते वर्षों तक सुरक्षित रखे जाते थे.
पूरी दुनिया जानती है किस प्रकार बजाज, बिरला, सिंघानिया, पीरामल, लोहिया, दुगड़, गोलछा, संघवी, मित्तल, पोद्दार, रुइया, और बियानी आदि घराने अपने व्यापारिक कौशल से आगे बढे हैं. बिरला समूह तो इस बात के लिए जाना जाता है की वो फैक्ट्री बाद में लगाता है - पहले वहां लक्ष्मी नारायण का मंदिर बनाता है, लोगों को रहने के लिए मकान देता है और फिर फैक्ट्री लगाता है. है न अद्भुत बात. भामा शाह ने राणा प्रताप को दिल खोल कर मदद की तो जमनालाल बजाज ने गाँधी जी को दिल खोल कर मदद की. इन्हीं नीतियों के कारण अंग्रेजों के आने से पहले भारत में लाखों गुरुकुल, उपासरे, पोशालाएँ, धर्मशालाएं, भोजनशलायें कार्यरत थी और उस समय की शिक्षा मूल्य परक थी. उस समय में हर घर में श्रवण कुमार जैसे पुत्र होते थे जो अपने व्यापार से ज्यादा अपने माँ - बाप और देश की सेवा को तबज्जु देते थे. मारवाड़ी व्यवस्था में कमियां निकालना बहुत आसान है लेकिन उसकी जो अच्छाइयां हैं उनको अगर आज का उद्यमी अपनाता है तो वो निश्चित रूप से पर्यावरण के अनुकूल प्रबंध व्यवस्था स्थापित कर पायेगा और इससे उसका और इस दुनिया का दोनों का भला ही होगा. लेकिन लुप्त हो रही इस व्यवस्था से सीखना और इसको आगे बचाना अब तो मुश्किल ही है. अमेरिका की आधुनिक प्रबंध शिक्षा हो सकता है अधिक आर्थिक सफलता प्रदान कर दे लेकिन जो सुकून और पर्यावरण से जो जुड़ाव भारतीय व्यवस्थाओं ने स्थापित किया था वो तो अब लुप्त ही हो गया है और इसके लिए वर्तमान पीढ़ी ही जिम्मेदार है.
साभार - त्रिलोक जैन जी
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