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Friday, October 25, 2024

HISTORY OF AYODHYAVASI VAISHYA - श्री अयोध्यावासी वैश्यों का इतिहास


HISTORY OF AYODHYAVASI VAISHYA - श्री अयोध्यावासी वैश्यों का इतिहास

अयोध्यावासी वैश्यों के इतिहास पर विभिन्न प्रमाणिक पुस्तकों के अनुसार शोध की हुई श्री उमाशंकर जी गुप्ता, कानपुर द्वारा लिखित पुस्तक के कुछ उद्धारण आपके समक्ष रखने की कोशिश करूँगा। आशा है आप सभी लोगो को अपना इतिहास जानने की उत्सुकता अवश्य होगी। तो आइये खुद जाने और दूसरों को भी बताये अयोध्यावासी वैश्यों का इतिहास

श्री अयोध्यावासी वैश्यों का इतिहास*

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में वैश्य वर्ण उत्पत्ति के संदर्भ में प्रमाण मिलता है - 'उरु तदस्य वद्वैस्य' ऋग्वेद 10/90/12 यजुर्वेद अ0 31 मं0 11
अर्थात वैश्य जाति उसके (ब्रह्मा) की दोनों जंघाओं से उत्पन्न हुई है।
 
इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में लिखा है-

 *भूरित वै प्रजापर्ति ब्रम्हा अजन्यत्।*
*भुवि इति क्षत्रं स्व इति वैश्यम् ।।*
*एता वद्वै इदं सर्व यद् ब्रम्हा क्षत्रं विट् ।।*

अर्थात्

भू यह शब्द उच्चारण करके प्रजापति ने ब्राह्मण को, भुव इस शब्द से क्षत्रिय को और स्वः यह शब्द उच्चारण करके वैश्य को उत्पन्न किया, यह समस्त विश्व मंडल ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि वैश्य वर्ण का अस्तित्व वैदिक काल में होने के प्रमाण मिलते हैं यद्यपि सृष्टि के आदि पुरुष मनु के बारे में विभिन्न श्रुतियां मिलती है यथा प्रत्येक वर्ण की मनु अलग अलग थे किंतु हमें इन विवादों में ना पड़कर वैश्य वर्ण के प्रादुर्भाव, कर्म इत्यादि का अध्ययन करना है । यथा - आदिकवि महर्षि बाल्मीकि अपने अमर ग्रंथ 'वाल्मीकि रामायण' में मानव मात्र के जन्म के बारे में जटायु राम मिलन प्रसंग में उल्लेख किया है । उक्त ग्रंथ में भगवान राम से जटायु कहता है - हे नर श्रेष्ठ ! महात्मा कश्यप की पत्नी मनु ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जाति वाले मनुष्यों को जन्म दिया। प्रमाणार्थ देखें -

*मनुर्मनुष्या चनयत् कश्यप्स्य महात्मनः ।*
*ब्रम्हणान् क्षत्रियान वैश्या च शूद्रान्च ममुजर्षभ ।।* (३/६४/२९)

उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट होता है कि वर्ण आधारित जाति व्यवस्था अति प्राचीन है यही चार वर्ण प्रधान हैं शेष वर्ण संकर हैं मनुस्मृति में हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में लिखा है-

' *ब्राम्हण: क्षत्रियो वैश्यश्त्रयो वर्षा द्विजतयः ।*
*चतुर्थ एक जातिस्तु शूद्रो नास्ति तु प चमः ।।*
(मनुस्मृति 10/4)

अर्थात्
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों द्विजाति और चौथा वर्ण शूद्र पांचवा वर्ण कोई नहीं है। भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है-
*चतुर्वण्यं मया सृष्टम् गुण कर्म विभागशः ।*
अर्थात् गुण और कर्म भेद से मेरे चार वर्ण बनाए गए हैं इन सभी वर्णों में कोई भ्रम ना उत्पन्न होने पावे इसी कारण प्रत्येक वर्ण की कर्तव्य (कर्म ) भी मनु जी ने निर्धारित कर दिए हैं यथा-

*ब्राह्मण: तपो ज्ञान: तपः क्षत्रियस्य रक्षणम् ।*
*वैशस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रस्य सेवनम्।।*
(मनुस्मृति 11/235)

अर्थात्
ब्राह्मण का तप ज्ञान क्षत्रिय का तप रक्षा करना, वैश्य का तप व्यापार करना तथा शुद्र का तप सेवा करना है। उस समय वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित न होकर कर्म आधारित थी जो कालांतर में परंपराओं के कारण हो गई । 'प्रमाण स्वरूप मनु जी ने वैश्य कर्म एवं विशेष परिस्थितियों में वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में स्पष्ट लिखा है-

*पशनाम् रक्षणम् दानमिंज्याध्ययमेव च ।*
*वणिक्यथम् कुसीदेच वैश्यस्य कृषिमेव च ।।*
(मनुस्मृति 10/90)

अर्थात्
पशुपालन, दान, यज्ञ, वेद अध्ययन , वाणिज्य और कृषि , वैश्य के कर्म नियत किए गए हैं। और देखें -

'* वैश्योअजीवंसवधर्मेण शूद्र वृत्यति वर्तयते ।*
*अनाचारणनकार्यनि निवर्तेत च शक्तिमान् ।।*
(मनुस्मृति 10/98)

अर्थात्
'वैश्य अपने कर्म से निर्वाह न कर सके तो शूद्र वृत्ति से जीविका करें और जब समर्थ हो जावे तब शूद्र वृत्ति छोड़ दे।'

इस प्रकार स्पष्ट है वर्ण व्यवस्था अनुसार वैश्य पुत्र वैश्य कर्म ही करता था । क्योंकि व्यापार में एक स्थान से दूसरे स्थान जाना पड़ता था इसी कारण वैश्यजनों का सर्वत्र प्रसार होता गया और जिसका व्यापार जहां स्थापित हो गया वह वहीं के होकर रह गए । कालांतर में उन्होंने अन्य वर्गों की अपेक्षा अपनी अलग पहचान बनाने के लिए एक नया नाम( उप वर्ग) रख लिया, जिससे प्रारंभ में एक वैश्य समाज तमाम उपवर्गों में बंट गया। मुगल बादशाह अकबर के समय में लिखी *आईने अकबरी* में 84 वैश्यों के नाम उल्लिखित हैं। साथ ही उसी समय 354 वैश्य उप वर्गों के अस्तित्व का पता लगा था जिनके नाम *डॉ रामेश्वर दयाल गुप्ता द्वारा लिखी वैश्य समुदाय के इतिहास* के द्वितीय अध्याय में उल्लिखित है इतना ही नहीं अंग्रेजी शासनकाल में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतविद टाड महोदय ने एक जैनयति की सहायता से वैश्य उपवर्गों की एक वृहत सूची बनाने का प्रयत्न किया था, उसमें अट्ठारह सौ जातियों की सूची मिली किंतु फिर भी पूर्ति का ठिकाना न जानकर टाड उससे विरत रहे।( देखें जाति भास्कर पृष्ठ 273)

जारी है अयोध्यावासी वैश्यों का इतिहास

*अयोध्यावासी वैश्य कौन*- इन्हीं में से एक उपजाति अयोध्या नगरी में निवास करती थी यह काफी समृद्ध और वैभवशाली थी। *श्री ज्वाला प्रसाद मिश्र कृत जाति भास्कर ग्रंथ ( पृष्ठ 320 ) के अनुसार* - "अयोध्या में निवास करने के कारण यह अयोध्यावासी वैश्य कहलाए, युक्त प्रदेश के अनेक स्थान और बिहार प्रांत में इनका निवास है।" इनके संदर्भ में *पंडित छोटे लाल शर्मा वैश्य जयपुर फुलेरा अपने ग्रन्थ 'जाति अन्वेषण' प्रथम भाग के पृष्ठ 224 पर लिखते हैं -* यह एक व्यस्त जाति है इन्हें अवधी बनिया कहते हैं । यह जाति बिहार तथा युक्त प्रदेश में है । हिंदुओं को सप्त पुरी में अयोध्या भी एक पुरी है । प्राचीन इतिहास व पुराणों में अयोध्यापुरी की बड़ी महिमा है। भगवान राम के समय जो वैश्य थे उन पर मुसलमानी अत्याचार हुआ। औरंगजेब ने अयोध्या का नाश किया वहीं मंदिरों की मस्जिद बनवाई। तब यह व्यस्त जाति भी विपत्ति बस इधर-उधर भाग निकली और दूर दूर जाकर *अवधी बनिया और अयोध्यावासी बनिया* कहे जाने लगे ।

जैसा कि स्पष्ट हो चुका है कि अयोध्यावासी वैश्य, वैश्य समाज का ही एक अंग है , और अयोध्या के आदि निवासी होने के कारण अयोध्यावासी कहलाए । किंतु इनका प्रथक से से भी पूर्ण इतिहास है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अयोध्यावासी वैश्य का संपूर्ण भारत में विस्तार कैसे हुआ अयोध्यावासी वैश्य महासभा के तत्कालीन *महामंत्री श्री दुर्गा प्रसाद गुप्ता* द्वारा प्रकाशित विवरण अनुसार हिंदू समाज व्यवस्था में वैश्य वर्ण का विशेष महत्व है वैश्य वर्ण अपने स्थान वंश व व्यवसाय आदि कारणों से विभिन्न वर्गों मैं विभाजित हो गया यथा अग्रवाल ओमर दोसर माथुर आदि इन्हीं रूपों में से एक उप वर्ग है अयोध्यावासी वैश्य। अयोध्यावासी वैश्य का विस्तार रामायण काल से प्रारंभ होता है रामचरितमानस में उल्लेखनीय है

*जहां राम तहाँ सबुई समजू।*
*बिनु रघुबीर अवध नहीं काजू ।।*
और रामचंद्र जी के वन गमन पर
*सहि न सके रघुवीर बिरहागी ।*
*चले लोग सब ब्याकुल भागी ।।*
*चलत राम लखि अवध अनाथा ।*
*निकल लोग सब लागे साथा ।।*

अयोध्या नगर निवासी तमसा नदी के तट तक आए। एक रात जब अवध निवासी निद्रा लीन थे तभी रामबन चले गए । जाग्रत अवस्था में वह रामचंद्र जी को न पाकर बहुत दुखी हुए। रामचंद्र जी किधर गए-
 
*"राम राम कहि चहुँ दिशि धावहिं ।"*
अंत में अधिकांश नर-नारी अयोध्या वापस लौट आए।
*'यह विधि करत प्रलाप कलापा।*
*आये अवध भरे परितापा ।।*

परंतु वैश्य समाज नहीं लौटा। रामचरितमानस में उल्लिखित यह चौपाई हमारा प्रमाण है-
 
*'भयहु विकल बड़ बनिक समाजू '* और इस प्रकार वैश्य वर्ण कि लोग वापस घर नहीं लौटे,चित्रकूट के निकटवर्ती स्थानों एवं मध्य प्रदेश महाराष्ट्र बिहार आदि प्रदेशों में फैल गए। वैश्योचित कर्म कृषि व्यापार एवं उद्योग से संबंधित कार्यों में लग गए। मूलतः अयोध्या के निवासी होने के कारण *अयोध्यावासी वैश्य* कहलाए।

यह तो था महासभा द्वारा प्रकाशित विवरण अनुसार विस्तार का कारण जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बांदा इत्यादि क्षेत्रों में अयोध्यावासी वैश्य का बाहुल्य क्यों है ? (भगवान राम चित्रकूट में बनवास करते थे) किंतु दक्षिण भारतीय क्षेत्रों (महाराष्ट्र, गुजरात) में अयोध्यावासी वैश्यों के पहुंचने के संदर्भ में अन्वेषण जारी रहा। क्योंकि भगवान राम जब रात्रि में उठकर बनवास गए थे तभी सभी लोग अनुमान से ही चारों दिशाओं में उन्हें खोजने गए थे फलस्वरूप वह चारों दिशाओं में अन्य स्थानों पर पहुंचते गए क्योंकि उनका राम प्रेम इतना अधिक था कि वे बिना राम के अयोध्या लौटना ही नहीं चाहते थे फलस्वरुप वह वहीं पर निवास करने लगे इसी कारण न केवल अयोध्या एवं बांदा एवं चित्रकूट के समीपवर्ती क्षेत्रों में वरन संपूर्ण भारत में अयोध्यावासी वैश्य निवास करते है ।

Courtesy:
सुनील कुमार गुप्ता, रायबरेली
राष्ट्रीय महामंत्री
मणिकुण्डल सेवा संस्थान, भारत।

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