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Tuesday, April 28, 2020

AGRAHARI VAISHYA - अग्रहरि वैश्य की उत्पत्ति एवं इतिहास

अग्रहरि वैश्य की उत्पत्ति एवं इतिहास

आज भारत में वैश्यों की कुल जनसंख्या २५ करोड़ हैं, जिनमें अग्रवालों की संख्या ७-८ करोड़ के लगभग और अग्रहरि वैश्यों की संख्या ४५-५० लाख के लगभग हैं। इतिहास इस बात का साक्षी हैं की अग्रवालों से कुछ व्यक्तिगत समस्याओं और खान-पान को लेकर अग्रहरि अलग हो गये। अग्रहरियों ने कभी मुग़लो व अंग्रेजो का साथ नहीं दिया और स्वाभाविक पूर्वक ऐकनेक प्रकारेण जीवन की नौका आगे बढ़ाते रहे। 

अग्रहरि वैश्य वर्ण की एक प्रमुख जाति है । इनका मूल निवास प्राय: पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार का है। इस क्षेत्र को अवध कहते है। अग्रहरि अवधी भाषा बोलते है। अग्रहरि परिवारो के सबसे पुराने अयोध्या मे स्थित पंचायती मंदिर(स्वर्ग द्वार) का नाम "अग्रहरि वैश्य वंशज : श्रीसीतारमण जी, पंचमहला "' रखा गया है। पच महला के पूरे नाम पर ध्यान देने से यह संकेत मिलता है कि अग्रहरी श्री राम के वंशज हैं। अग्रहरियों के परिवारो के रीति-रिवाज, खाना-पीना, तौर तरीका प्राय: अवधी संस्कृति से मिलता-जुलता है । अग्रहरि परिवारो का गोत्र कश्यप है जो सूर्यवंशी क्षत्रियों का है, कुछ परिवारों का गोत्र भरद्वाज है जो श्रीराम जी के पुरोहितों का था। अग्रहरि समाज के परिवारों का एक बड़ा हिस्सा मुख्यतः ग्रामीणांचल क्षेत्रों में ही पाया जाता है | अग्रहरि परिवारो का सरनेम अग्रहरि, वैश्य, गुप्ता, गुप्त, साव, साह, बैश्य, बनिया, आदि भी लिखा जाता रहा है। 

साभार: ..https://agraharisamajpatrika.com 

अग्रहरि परिवारो मे सिख समुदाय भी है जो नौवे गुरू तेगबहादुर जी के पूर्वी भारत के दौरे के दौरान उनके सतसंग से प्रभावित होकर सिक्ख पन्थ धारण किये । सिख पन्थ के अग्रहरि सरनेम "सिंह" के साथ अपने मूल अग्रहरि टाईटिल का प्रयोग करते हैं और उनका गोत्र कश्यप/ भरद्वाज है। अग्रहरि वर्तमान समय में भारत के प्रमुख महानगरों, नगरों एंव कस्बों में भी निवास कर रहे हैं। विदेशों में भी इनकी पहुंच हो चुकी है।

विश्व शब्कोष में अग्रहरि शब्द का उल्लेख मिलता है, जिसके वहाँ तीन अर्थ बताये गए है। 

राजा की ओर से ब्राह्मणों को दी गई जमीन। 
देवताओं को अर्पित की हुई संपत्ति। 
धान्यपूर्ण खेत। 

चूँकि वैश्य वर्ग कृषि कार्य भी करते थे/हैं, इसीलिए धान्यपूर्ण खेत के मालिको के लिए अग्रहरि शब्द प्रयुक्त हुआ, ऐसा संभव है। यह भी संभव हैं कि, हमारे पितामह परमपूज्य श्री महाराजा अग्रसेन जी दानी थें, जिनके द्वारा कोई भू-भाग एवं संपत्ति ब्राह्मणों को अर्पित हो और उसका अपभ्रंश होकर अग्रहरि बना हो। जिस प्रकार महेश्वरी शब्द से महेश्वर मूल स्थान का बोध होता है, उसी प्रकार अग्रोहा (जो हमारे पूर्वज महाराजा अग्रसेन की राजधानी थी) और अंत में अग्रहारी से अग्रहरि बन गया हो, ऐसा भी मानते है। 

अग्रहरि शब्द अग्र+हरि से बना है। हारी शब्द का अर्थ हार करने वाला होता है। हार शब्द ह्रा धातु से बना है। इसका अर्थ होता है जुटाना, एकत्र करना, यानि कलेक्शन (Collection) करना। फ़ारसी लमें अग्रहरि शब्द का अर्थ हासिल करने वाला तहसील (वसूली) से बना है। सम्राट अशोक के शासन का में अग्रहार का उल्लेख प्राप्त होता है। दंडीकृत "दसकुमार चरितम"में अग्रहार जनपद का विवरण है, जैसे "कसिमाश्चंग्रहार" (किसी अग्रसार में) शब्द से किसी स्थान बोध होता है। अतः वहां के निवासियों क नाम अग्रसार तथा स्त्री प्रत्यय लगाने पर अग्रहरि बन जाता है। आगे चल कर वही शब्द अग्रहरि में परिणत हो गया। 

महाराजा अग्रसेन के ज्येष्ठ पुत्र का नाम विभूंथा (विभू) का अर्थ विष्णु हरि होता हैं। संभव है, विभु समानार्थी हरि से अग्रहरि वंश की उत्पत्ति हुई हो। महाराजा अग्रसेन की पाँचवी पीढ़ी में राजा हरि हुए। इसलिए संभव हैं कि दोनों राजाओ अग्र (महाराजा अग्रसेन) और हरि (राजा हरि) के नाम अग्र+हरि = अग्रहरि रखा हो। हरि जी अग्रवालों से पृथक होकर अग्रवंश की स्मृतियों को चिरस्थायी रखने के लिए अपने नाम के आगे "अग्र" विशेषण अपने को अग्रहरि कहलाने लगे। वें अग्रवाल जो हरि जी के शाखा हैं, वें अग्रहरि नाम से विख्यात हुए। 

अग्रहरि जाति का सम्बन्ध निर्विवाद रूप से अग्रवालों से है। दोनों ही महाराजा अगसेन जी के वंशज हैं। अग्रवालों से किसी कारण विशेष से यह जाति पृथक हुई थी। 

श्री गुलाब चन्द ऐरण के मतानुसार सन ११९४ ई. में अग्रहरि जाति अग्रवाल जाति से पृथक हो गई। यह जाति भी अग्रवंश की एक शाखा ही हैं, हरि जी ने हिंसा के कार्यों में सहयोग न देकर अपने आप को अग्रवालों से अलग कर लिया। इस प्रकार "अल्गाहारी" (अलग+अहारी) बनकर अपना शुद्ध भोजन बना कर खाने लगे। अल्गाहारी का रूपांतरण आगे चलकर अग्रहरि बन गया। 

दूसरे विद्वान का मत है कि, ये लोग "अगर" नामक एक सुगन्धित लकड़ी का व्यापार करते थे। इसलिए इन्हें "अगर" से हारने वाले अर्थात बेचने वाले को अग्रहरि कहा गया। 

प्रसिद्ध विद्वान नेस्फील्ड ने लिखा है, अग्रहरियों का घनिष्ठ सम्बन्ध अग्रवालों से हैं. ये दोनों जातियां एक ही जाति का विभाग है, जो आपस में सिर्फ खान-पान के कारन अलग हो गए। विलियम क्रूक ने लिखा है कि-  

अग्रहरियों का एक विभाग इलाहबाद, बनारस, गोरखपुर, फैजाबाद जिलों में बहुधा पाया जाता है। ये लोग जनेऊ धारण करते है व इनका नाम अग्रोहा से सम्बन्ध रखता है। 

"द पीपल ऑफ़ इंडिया" के लेखक मि. रिजले ने लगभग सन १८७५ में लिखी गई पुस्तक में अग्रहरि जाति के विषय में इस प्रकार लिखा - 

भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास में अग्रहरि वें गाँव कहलाते थे, जो राज्य की ओर से गुरूप्रणाली की शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के लिए नियत थे। इन ग्रामों की आम शिक्षा कार्य में लगती थी। दक्षिण भारत में उन मुहल्लों को अग्रहरि कहते थे जहां पर उन गुरुकुलों में शिक्षा देने वाले अध्यापकगण रहा करते थें। ये अध्यापकगण दक्षिण भारत से उत्तर भारत में गए थे और दक्षिण में उन्हें ब्राह्मणों का आदर प्राप्त था तथा उन्हें अग्रहारम या अग्रहरि कहा जाता था। दक्षिण में मुस्लिम शासन में अग्रहरि समाप्त हो गए परन्तु गुरुकुल शिक्षा प्रणाली लागू थी। एक यह भी विचार है कि दक्षिण भारत में विजयनगर राज्य नष्ट होने पर और हिन्दी शिक्षण संस्थाओं का विनाश होने पर बहुत से अग्रहरि पुनः नर्मदा नदी पार कर मध्य प्रदेश होते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार नेपाल वापस आ गये जहाँ से इनके पूर्वज दक्षिण गए थे। यहाँ पर आजीविका के लिए उन्हें कृषि, वाणिज्य कार्य अपनाना पडा। कालांतर में उन्हें अपने को वैश्य समुदाय के अंग में स्थापित कर लिया। कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी की माँग को अस्वीकार कर अपन अग्रोहा नगर छोड़कर गंगा-यमुना के बीच शरणार्थी की तरह भाग निकले और एक जत्थे के रूप में गंगातट डलमऊ, रायबरेली में एकत्र हुए। यह स्थान उस समय बहुत ही मनोहारी व रमणीक था जहाँ का राजा हिन्दू थ। यही से लोग पूर्व उत्तर, दक्षिण प्रस्थान किये। 

अग्रहरि शब्द आग्रेय शब्द है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार यह एक जाति का रूप माना जाता था। यह आग्रेय (अग्रोहा) का ही रूप है। इसका हिन्दी में अर्थ है अग्रका। अग्रहरि व अग्रवाल जाति के पूर्वज अग्रसेन थे, जिनके वंशज आगे चलकर आग्रेय अर्थात अग्रहरि व अग्रवाल कहलाये। अग्रहरि शब्द का बोध अगर नामक स्थान से भी होता हैं। 

आज के अग्रहरि जाति पुराने समय में आग्रेयण, आग्रय, तथा अग्रवंशी भी कहलाते थे। ऑक्सफ़ोर्ड (इंग्लैंड) की इंडियन इंस्टिट्यूट लाइब्रेरी में प्राप्त पद्मपुराण की एक हस्तलिखित प्रति में अग्रवंश के मुरारीदास नामक व्यक्ति ने कुछ इस तरह लिखा है, - 

संवत् १७१९ वर्ष भाद्रपदमास शुक्ल पक्षे दशम्यां तिथौगुरू वासरे इदं पद्मपुराण लिखितम अग्रेशे शाधु साह श्री गजाधर तत्पुत्र पुराय प्रतिपालक साह श्री स्वयं आत्मपाठनार्थ धर्मानंद विनोदार्थम।। 

इस उदहारण से स्पष्ट है कि अग्रहरि जाति को अगरवंशी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त परंपरा का अनुशरण करते हुए या धर्मशास्त्रों का व्यवस्थानुसार अग्रहरि जाति के लोग अपने नामों के साथ प्रायः साह, गुप्त वर्तमान में अग्रहरि लिखते रहे, अग्रवंश के उतमता के विषय में ऐसा प्रमाण मिलता हैं- 

एवं सुर्यग्रहे वंशश्चिरया युस्ततः परम। 
अग्रवं महाश्रेष्ठ मन्निवेश्यदयोमिच। । 
एवं वंश महाश्रेष्ठों धर्मरक्षक केवल। 
यदुवं शेषु संम्यूतोविष्णु धर्मात हेतेवे। । 

भावार्थ सुर्यवंश में महाश्रेष्ठ व धर्मरक्षक अग्रवंश हुआ इस जाति के बारे में लिखते हैं। 

Their name has been connected with the cities of AGRA AND AGROHA. अर्थात इस जाति का सम्बन्ध आगरा व अग्रोहा से है. Their is no doubt that they are closely connected with the Agrawals. (Cand T.P. 133) अर्थात इसमें कोई संदेह नहीं कि इस जाति का अग्रवालों से बड़ा ही समीपस्थ सम्बन्ध है. 

The group most have been section of one and the same cost which quesseled on same trifling questions connected with cooking or eating and have remained separated ever since. (N Field C.S.) 

अग्रहरि जाति की उत्पत्ति के विषय में विश्व कोष का उदहारण यहाँ प्रस्तुतु है- 

हे लोक बानिया असून पांचा 
जबलपुर व राजगढ़ या भांगानील 
अगिरयांशी संबंध आहे मुख्य बेकरून 
उत्तर प्रदेशात ही जात आढलते 

अग्रहरि जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेको मत हैं- कुछ लोगो का कहना हैं कि, अग्रोहा पर आक्रमण होने से अग्रहरि लोग अग्रोहा छोड़कर चले गए और इसका संबोधन, अग्रोहा हारे, अग्रहारे और सक्षिप्त होते होते बाद में अग्रहरि पड़ गया। इस वर्ग के लोग बिहार, उत्तर प्रदेश, वाराणसी, मध्य प्रदेश, भागलपुर, रायबरेली, डलमऊ, ऊंचाहार, प्रतापगढ़, लखनऊ, आगरा, पूर्वी-पश्चिमी चंपारण, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, फतेहपुर, सुल्तानपुर, इलाहबाद, आजमगढ़, फैजाबाद, जौनपुर, कानपुर, जबलपुर, नेपाल, बर्मा (म्यांमार), आदि स्थानों में रहते है। वर्तमान में ये अग्रहरि जाति के लोग पुरे भारत वर्ष में फ़ैल गए है। 
साभार: allaboutagrahari.com/2016/05/OriginAndHistoryOfAgrahari.html

अग्रहरि जाति का संक्षिप परिचय

अग्रहरि इतिहास

१२वीं शताब्दी सन ११९४ इसवी मे वैश्य शिरोमणि महाराजा अग्रसेन की खुशहाल नगरी अग्रोहा मे एक विदेशी मुग़ल आक्रांता शहाबुद्दीन गौरी ने अपनी सेना के साथ अग्रोहा प्रदेश पर मध्य रात्रि को में आक्रमण कर दिया। आक्रमण भी उस समय किया जिस वक्त पूरी नगरी निद्रा में सोया पड़ा था। इस घटना मे कुछ अग्रसेन वंशज इस युद्ध मे लोहा लेते हुऐ शहीद हो गये और कुछ को कैदी बना लिया गया और कुछ को धन व जागीर का लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया गया।

१) अग्रोहा धाम २) अग्रोहा का खंडहर ३) गंगा नदी के तट पर स्थित अग्रहरि उद्गमस्थल डलमऊ



पितामह महाराजा अग्रसेन एवं माता माधवी, वैश्यों की कुलदेवी महालक्ष्मी और नाग देवता 

इस प्रकार से अग्रोहा गणराज्य पर मुगल सम्राज्य स्थापित हो गया। तत्पश्चात मुसलमानो के दुर्व्यवहार और दमन से खिन्न होकर वहा बसे लाखो अग्र वैश्य अन्य प्रदेशो की और पलायन कर दिये। इसी क्रम में मे अग्रसेन वंशजो का ९४वें परिवार का एक जत्था अग्रोहा छोड युमुना नदी पार कते हुए वर्तमान के उत्तर प्रदेश प्रान्त मे गंगा किनारे बसे डलमऊ नगर में डेरा डाल कर यहीं बस गया। शुरुआत से आज तक यही डलमऊ नगरी इनका केन्द्र बिन्दु रहा। डलमऊ के निकट ही हमारे पूर्वजो द्वारा बसाया गया बैसवारा (संभवतः वैश्यवाडा, जो कालांतर में बैसवारा हो गया हों) एक नगर है, जहाँ पर आज भी ज्यादा संख्या मे अग्रहरि रहते है। किन्तु वर्तमान में ये देश के हर कोने में फ़ैल गये हैं। अनुमानतः हमारे समाज की जनसंख्या करीब 30-40 लाख के आसपास है। 

अग्रहरि एक अदभुत योद्धा, पराक्रमी, और तेजस्वी व धार्मिक प्रब्रत्ति के होते है। आज भी यज्ञ करते है और जनेऊ धारण करते है। एक स्त्री से विवाह करते हैं। वैश्य धर्म का पालन करते हुए मांस-मदिरा से दूर रहते है व प्राचीन मान्यताओ से जुडे हुऐ है। यह लोग आज भी श्रवण माह मे नाग देवता की पूजा करते है। नागपंचमी को पर्व की तरह मनाते है एवं घरो मे नागदेवता का चित्र बनाते है। शादी-ब्याह और शुभ कार्यो मे मोर मौरी और नाग-नागिन की पूजन करते है। इनका मुख्य कार्य क्रषि और व्यापार है क्योकि पितामह महाराजा अग्रसेन का सीधा सम्बन्ध नागवंश से रहा है। व्यापारीगण दीपावली के दिन माता लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा-अर्चन करते हैं। बड़े-पुरुष, काले-गोरे, गाजी मियाँ आदि भी कुलदेवता के रूप में पूजे जाते हैं।

अग्रहरि महाराजा अग्रसेन को पितामह मानते हैं और उन्हें आराध्य की तरह पूजते हैं। इन्होने १२वीं शताब्दी की त्रासदी मे मुगलो से किसी तरह का समझौता नही किया परिणामस्वरूप इन्हे सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पडा। 

संभवतः तभी इन्हे अपना मूल गोत्र और नाम छिपाकर रहना पडा क्योकि मुगलो ने इनका आखिरी छोर तक पीछा किया था आज भी अग्रहरि अपनी आन, बान और शान के लिये जाना जाता है। कुलदेवी महालक्ष्मी का वरदान और पितामह अग्रसेन का आशीष ही कहेंगे कि एक अग्रहरि गरीब हो सकता हैं, लेकिन कभी वह भूखा नहीं मरता। वह अपने स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं करता। 

नागों से क्या हैं अग्रहरियों का सम्बंध?


अग्रहरि समाज के अधिकांश परिवारों के कुल देवता "काले-गोर" कहे जाते हैं, इसका तात्पर्य सर्प से हैं। कहा जाता हैं कि महाराजा अग्रसेन की दो रानियाँ थी, एक राज कन्या थी, दूजी नाग कन्या। सत्यनारायण गुप्त अग्रहरि जी अपनी पुस्तक हम कौन हैं: अग्रहरि समाज का प्रमाणिक इतिहास में लिखते हैं, "नाग कन्या से जो संतान हुई वो अग्रहरि कहलाई, और दूसरी रानी से जो संतान हुई, वो राजवंशी कहलाई।"

हमारे पितामह अग्रोहा नरेश महाराज अग्रसेन का विवाह नाग वंश की कन्या राजकुमारी माधवी से हुआ था। हम सभी महाराजा अग्रसेन की वंशज हैं, इस प्रकार हमारा नाग वंश से भी सम्बन्ध हुआ।

आज भी अग्रहरि समुदाय व अग्रवंश की अन्य उपजातिय शाखाओं के अधिकांश परिवारों कुल देवता 'काले-गोरे' है, जिसका तात्पर्य नाग से है। 

क्या नाग से तात्पर्य सर्प से हैं? या नाग वंश से? एक मानव का एक नागिन से विवाह होना विश्वसनीय नही है। नाग से तात्पर्य नाग नामक वंश से हैं, जो मानवों का हैं। 

अति प्राचीन काल में जब मानव पूर्ण रूप से असभ्य था। उस समय मानव की आदिम जातियां किसी वृक्ष, प्राकृतिक वस्तु, पशु की उपासना करती थी और अपने को उसी के नाम से प्रकट करती थी। हमारे इतिहास पूराण में जो पशु, वृक्ष, अधिकांश बाते करते दिखाए गये हैं जैसे गरुण, वानर, नाग, वृक्ष, हंस, मत्स्य, शुक, काग आदि इत्यादि वें वास्तव में पशु-पक्षी नहीं थे। वें मानव ही थे जो अपने टॉटेम के नाम पर पुकारी जाती थी। 

जनमेजय के नागयज्ञ में भी नाग से तात्पर्य नाग वंश से हैं। अग्रोत्कान्वय के पृष्ठ २१ पर उल्लेखित किया गया हैं कि "जनमेजय के नाग यज्ञ के समय नागों (वैश्यों) का सामूहिक रूप से ह्रास हुआ। उसका प्रभाव भी अग्रोहा के अभ्युदय को धुल में मिलाने वाला सिद्ध हुआ। 

नागराज समाह्रेयो गौड़ राजा भविष्यति,अन्ते तस्य नृपे तिष्ठं ध्यांवर्नत द्रिशौ।
वैश्येः परिवृता वैश्यं नागा ह्रेयो समन्ततः॥
(मंंजु श्रीमूल कल्प, पृष्ठ ५५-५६)

मंजू श्रीमूूूल कल्प मेंं नागवंश का वृत्तान्त दिया गया हैं और नागो को वैश्य या वैश्यनाग लिखा गया हैं।

श्री सत्यकेतु विद्यालंकार जी ने भी इसी मत की पुष्टि अग्रवाल जाति के प्राचीन इतिहास नामक पुस्तक में की हैं। 

प्रत्येक टॉटेम अपने इष्ट पशु-पक्षियों के नामों पर अपने वंश का नाम रखते थे। उनसे सम्बंधित चिन्हों का प्रयोग करते थे। उनकी पूजा करते थे। वानर को इष्ट मानने वाली आदिम जाति वानरों की खाल का प्रयोग वस्त्रो के रूप में करती थी। उस खाल की निर्जीव पूछ आदि अंगो का वह सम्मान करती थी। नाग, गरुड़ आदि जाति के लोग अपने मुकुट आदि आभूषण इन्हीं चिन्हों विशेष में अंकित करते थे। 

यह सोचना कि नाग वास्तव में प्राचीन काल में मनुष्य नहीं सांप थे गलत है, क्योंकि प्रत्येक जगह के नाग मनुष्याकरण धारण कर लेना वर्णित हैं। और नागों की संस्कृत का भी आभास उसमें प्राप्त होता हैं। 

अग्रहरि समाज के सामान ही अग्रवालों की मातृका 'नाग' (सर्प) ही मानी जाती हैं। आज भी विवाह के अवसर पर वधु को चुनरी ओढाने की प्रथा प्रचलित हैं। 'चुनरी' सर्प की केचुली का प्रतीक मात्र हैं। अप्रत्यक्ष रूप से हम हर वधु को नागकन्या बना कर विवाह करते हैं। 

निष्कर्ष: 

प्राचीन काल में संभवतः हम टॉटेम थे, जिनका नाग वंश से सम्बंध था। इसीलिए हम काले-गोरे के रूप में आज भी नाग देवता की पूजा करते हैं। नाग वंश और नाग/सर्प में अंतर हैं। नाग वंश एक मानव समुदाय था, जो नागो पर आस्था रखता था, ना कि वें खुद नाग या साँप थे। 

शब्दार्थ: 

१) टॉटेम: एक विशेष समुदाय/समाज जो किसी प्राकृतिक वस्तु अथवा पशु, पक्षी अथवा जानवर में अध्यात्मिक/दैवीय महत्व देखता हैं और उसे मानता हैं और उसे (जानवर,पशु,पक्षी को) अपने समुदाय के प्रतीक अथवा कुलचिन्ह अथवा कुलदेवता के रूप में अपनाता हैं।

२) मातृका: हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय में मातृका का वर्णन महाशक्ति की सककारी सात देवियों के लिये हुआ है। ये देवियाँ- ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही और चामुण्डा हैं। इन्हें 'सप्तमातृका' या 'मातर' भी कहते हैं।

अग्रहरि समाज के प्रथम एवं द्वितीय व्यक्तियों की सूची

अग्रहरि समाज के प्रथम व्यक्ति

१) अग्रहरि जाति से प्रथम सांसद (Member of Parliament) : स्वर्गीय भगवान दास गुप्ता
२) अग्रहरि जाति से प्रथम विधायक (Member of Legislative Assembly) (आजादी से पहले) : स्व. सुन्दर लाल गुप्ता 
3) अग्रहरि जाति से स्वतंत्र भारत में प्रथम विधायक : स्व. गौरीराम गुप्ता 
४) अग्रहरि जाति से पहली विधायिका/महिला विधायक : स्व. प्यारी देवी अग्रहरि
५) अग्रहरि जाति से प्रथम मंत्री : स्व. दीनदयाल गुप्ता
६) अग्रहरि जाति से प्रथम महापौर (Mayor) : श्यामा चरण गुप्ता 
७) अग्रहरि जाति से प्रथम भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी (IAS Officer) : डॉ० शांतनु अग्रहरि 

अग्रहरि समाज के द्वितीय व्यक्ति

१) अग्रहरि समाज से द्वितीय सांसद : ब्रजेश कुमार गुप्ता
२) अग्रहरि जाति से द्वितीय विधायक : स्व. प्यारी देवी अग्रहरि 
3) अग्रहरि जाति से द्वितीय मंत्री : राधेश्याम गुप्ता 
४) अग्रहरि जाति से द्वितीय भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी : सचिन कुमार वैश्य (AIR 96, 2014-15)

स्वाधीनता संग्राम में रहा अग्रहरियों का महत्वपूर्ण योगदान

देश की गुलामी से मुक्त होने की दृढ इच्छा शक्ति सर्वप्रथम विद्रोह के रूप में वर्ष १८५७ में स्वतंत्रता की चेतना के साथ अभिव्यक्त हुई जो कि लगभग ९० वर्षो के निरंतर संघर्ष के पश्चात १५ अगस्त १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ पूरी हुई। स्वाधीनता के इस आन्दोलन में अनेक क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। एक ओर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, जयप्रकाश नारायण, महात्मा गाँधी, विनोबा भावे, जवाहरलाल नेहरु, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि महापुरुषों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई वहीं दूसरी ओर हमारे अग्रहरि वैश्य समाज के रणबांकुरों ने भी स्वाधीनता के आन्दोलन में पीछे नही हटे और देश की आज़ादी के इस महासंघर्ष में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। देश की आजादी में अग्रहरि समाज का योगदान अमूल्य रहा है। इसे कोई भी कभी भुला नहीं सकता। आज हम अपने समाज के ऐसे ही वीर महापुरुषों के बारे में जानेंगे, जिन पर समाज को फक्र हैं।


मिट्ठूलाल अग्रहरि (Mitthulal Agrahari)

स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय श्री मिट्ठूलाल अग्रहरि जी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जम कर हिस्सा लिया था। दिनांक ३ सितंबर १९४२ को मिट्ठूलाल जी को गिरफ्तार कर उनके विरूद्ध ३८ तथा ३५ (४) डी.आई.आर. के तहत मुकदमा पंजीकृत कर कारावास भेज दिया गया था। इस दौरान आप ६ महीने तक जेल मे रहे। जेल से छूटने के बाद भी श्री अग्रहरि ने देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए संघर्षरत रहे। १०५ वर्षीय वयोवृद्ध सेनानी मिट्ठूलाल अग्रहरि को ५ अक्टूबर २००९ को ह्रदय की गति रुकने (Cordial attack) के कारण मृत्यु हो गई। अश्रुपूरित नयनो के बीच भारत माता के इस महान सपूत श्री मिट्ठूलाल अग्रहरि को उत्तर प्रदेश प्रशासन ने गार्ड ऑफ हॉनर सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी।

धर्मनाथ अग्रहरि (Dharmanath Agrahari)

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय श्री धर्मनाथ अग्रहरि जी बिहार प्रान्त से सिवान जनपद के चैनपुर, महावीर चौक के निवासीथें। आपने सन १९४२ में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान तत्कालीन छपरा जिलें के अंग्रेज दुश्मनो के छक्के छुड़ाने वाले रणबांकुरो में से एक थें। आपके पिता का नाम स्वर्गीय सरयू प्रसाद अग्रहरि था। ३ अक्टूबर २००८ को भारत माँ के वीर सपूत धर्मनाथ अग्रहरि जी का देहावसान हो गया। अंतिम संस्कार सरयू नदी के पावन तट पर हुआ।

हरिनारायण अग्रहरि (Hari Narayan Agrahari)

क्रांतिकारी स्वर्गीय श्री हरिनारायण अग्रहरि को बनारस के प्रसिद्ध धानापुर थाना काण्ड के लिए जाना जाता हैं। श्री अग्रहरि ने सन १९४२ में भारत छोडो आन्दोलन में भाग लेते हुए क्रांतिकारी साथियों के साथ धानापुर पुलिस थाना को तहस नहस कर दिया। क्रांतिकारियों ने पुलिस अधिकारियो को मारने के बाद उनके मृत शरीर को गंगा में फेक दिया। और सरकारी ईमारत में भारत का झंडा लहराया। वाराणसी के इस प्रसिद्ध धानापुर थाना कांड में स्व. हरिनारायण अग्रहरि तथा अन्य साथी क्रांतिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आप जिला चंदौली के कमालपुर गाँव के निवासी थे। 

शिवशंकर गुप्ता (Shiv Shankar Gupta)

निज़ाम स्टेट के औंरंगाबाद जिला वर्तमान जालना (महाराष्ट्र) के मोकरपहन नामक गाँव में १४ नवम्बर सन १९१८ ई। में जन्में स्व. श्री शिवशंकर गुप्ता जी अल्पआयु में ही सेवा को अंगीकार कर लिए थे, इनका पैतृक गाँव उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित अगई कुसवापुर (लालगंज के पास) हैं। उस समय निज़ाम स्टेट में स्कूल सिर्फ चौथी कक्षा तक था। पढ़ाई मराठी एवं उर्दू में होती थी, उस जमाने में शिवशंकर जी ने ९वी तक उर्दू तथा मराठी में पढाई की। निजाम के ज़ुल्मों से तंग आकर शिवशंकर जी ने गाँव के नौजवानों को संगठित कर निजाम के खिलाफ बगावत कर दी। ये लोग दिन में भूमिगत रहते थे व रात को पुलिस स्टेशन आकर मिलिट्री कैंप आकर हमला करते थे। 

शिवशंकर जी ने अपने हाथ में भारत का तिरंगा साथ लेकर राष्ट्रीय गान गाकर आह्वाहन किये-

हम वीरो की संतान, लगा दो अपनी जान।
तब नया जमाना आएगा। जब-जब दुश्मन आयेंगे, 
हम उनको मार भागाएगें। बीत गए वह दिन 
जब तुमने भगत सिंह को फांसी पर लटकाया, 
नया जमाना आएगा।

यह गान गली मोहल्ला सभी जगह फैल गया, तब निज़ाम ने इनके घरो पर कब्ज़ा कर लिया। शिवशंकर जी तभी पीपल गाँव आकर आश्रय ले लिए। सरदार बल्लभभाई पटेल ने जब हैदराबाद पर धावा बोलकर १९ सितम्बर १९४७ को भारत सरकार के साथ मिलकर तिरंगा झंडा हैदराबाद स्टेट पर लहराया। ऐसे वीर पुरुष महान क्रांतिकारी सेनानी स्वर्गीय श्री शिवशंकर गुप्ता जी को हम सादर नमन करते हैं। 

दीनदयाल गुप्त (DEEN DAYAL GUPTA)

परिवार एवं समाज की अविद्या व आर्थिक दशा से संघर्ष करते हुए स्व. श्री दीनदयाल गुप्त जी, नागपुर, (महारष्ट्र) क्षेत्र में अपनी जीवन नौका को राष्ट्रीय प्रवाह में खेते हुए आगे बढ़ने वाले अग्रहरि सपूत थे। राष्ट्रीय विद्यालय में अपनी शिक्षा प्राप्त कर देश में होने वाले आन्दोलनों में भी आप सक्रिय भाग लेते थे। सन १९२६ का झंडा सत्याग्रह के रूप में, और सन १९३० के सविनय अविज्ञा आन्दोलन में युद्ध मंडल के एक सर्वमान्य कर्याकर्ता के रूप में जाने गए। राष्ट्रभाषा प्रचार, हरिजन शिक्षा, अखाड़ों का संगठन तथा श्रमिक संगठन इत्यादि कार्यो के साथ वें नागपुर कांग्रेस कमिटी के विभिन्न पदों पर रहे। सन १९४० का व्यक्तिगत सत्याग्रह और सन १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन संगठित करने में आपका अत्यधिक योगदान था। सन १९४५ में जेल से आने के बाद आपने व्यवसाय भी किया किन्तु जनसेवा की प्रवित्ति के कारण न कर सके तथा नागपुर कांग्रेस के सभापति बन गए। सन १९५२ में विधान सभा चुनाव में विजयी हुए। इन्हें मंत्री मंडल में भी लिया गया तथा खाद्य मंत्री बनाये गए। खाद्य के साथ ही साथ आपको आपको श्रम विभाग एवं समाज कल्याण विभाग भी सौंपा गया, जो आपके महत्व को दर्शाता हैं। सन १९५ में कनाडा में समाज कल्याण परिषद में भी आपने देश का प्रतिनिधित्व किया।

सन १९५६ में प्रदेशो की पुनर्रचना हुई। इस कारण वें विशाल बम्बई राज्य के श्रम मंत्री बने रहे और बाद में १९५७ से १९६२ तक विधान सभा के उपाध्यक्ष एवं राज्य खादी गृह उद्योग मंडल के सभापति रहे। सन १९६२ के बाद वें सत्ता की राजनीति से निवृत्त होकर खादी जन जागरण स्वास्थ्य सेवा आदि कार्यों में पूर्ण रूप से निमग्न हो गए।

गौरीराम गुप्त (अग्रहरि) (GAURIRAM GUPTA)

स्व. गौरीराम गुप्त अग्रहरि, उत्तर प्रदेश के धानी बाज़ार जिला गोरखपुर के निवासी थे।बाल्यावस्था से ही आपका जीवन संघर्ष में व्यतीत हुआ। इसी कारण आपली शिक्षा-दीक्षा भी ठीक से नहीं हो सकी और आप मिडिल परीक्षा (आठवीं) उत्तीर्ण करने के बाद आगे पढ़ न सके। श्री गुप्त जी अपने साहस, परिश्रम और कुशल व्यवहार के लिए विख्यात थे। गरीबों पर हो रहे अत्याचार का आपने डटकर सामना किया। जमींदार और लेहड़ा स्टेट (एक रियासत) के अंग्रेजों से आप सदा ही संघर्ष करते रहे। वास्तव में आप सच्चे अर्थों में गरीबो के मसीहा थे। आकस्मिक घटनाओ के समय तो आप सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते ही थे, दैनिक जीवन में भी दीन -दुखियों की सहायता करना आपका स्वाभाव था। गाँधीवादी विचारधारा रखने वाले गुप्त जी का कांग्रेस में अटूट विश्वास था। देश की आज़ादी के लिए आप अनेको बार जेल गए। सन १९४२ में आपको अंग्रेजो द्वारा नाना प्रकार की यातनाये दी गई। घर से बेघर कर दिया गया किन्तु आपने धैर्यपूर्वक सबकुछ सहन किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उत्तर प्रदेश के प्रथम विधानसभा चुनाव १९५२ में कांग्रेस पार्टी की टिकट से चुनाव जीतकर विधायक बने। आप लगातार १५ वर्षो तक विधान सभा के सदस्य रहे। आपका प्रभाव विधान सभा में भी था, यही कारण हैं कि अनेक मुख्यमंत्री जैसे स्व. श्री गोविन्द बल्लभ पंत, स्व. संपूर्णा नंद, स्व. श्रीमती सुचिता कृपलानी, स्व. श्री सी.वी. गुप्त, स्व. श्री चौधरी चरण सिंह जैसे प्रख्यात राजनीतिज्ञ आपके प्रशंशक में थे। ७८ वर्ष की आयु में इनका स्वर्गवास हो गया। उस समय प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी ने गहरा दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि - "श्री गुप्त जी एक समर्पित राष्ट्रभक्त थे, जिन्होंने देश के आज़ादी के लिए निरंतर संघर्ष किया। उनके निधन से राष्ट्र और प्रांत को भारी क्षति हुई हैं।"

रामाधार प्रसाद "सुमन" (Ramadhar Prasad "Suman")

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. रामाधार प्रसाद "सुमन" जी भेलाही, पूर्वी चंपारण से थे। आपको नेपाल सर्कार से भी स्वतंत्रता सेनानी का प्रमाण पत्र प्राप्त हैं। 

अग्रहरि गिरधारी लाल "आर्य" (Agrahari Girdhari Lal "Arya")

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय श्री गिरधारी लाल "आर्य" सुपुत्र स्व। शिवराजराम अग्रहरि, का जन्म विक्रम संवत १८७६ को नौतनवा (गोरखपुर, उ.प्र.) में हुआ। सन १९४२ 'भारत छोडो आन्दोलन' में आपने सक्रियतापूर्ण भाग लिए और एक वर्ष की कारावास की सजा हुई। आप एक अच्छे कवि भी थें। 

रामप्रसाद लाल गुप्ता (Ram Prasad Lal Gupta)

स्वर्गीय रामप्रसाद लाल गुप्ता (अग्रहरि) स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में ख्याति प्राप्त योद्धा थें, जिन्होंने दो बार लम्बी जेल यात्राएं की थी और अपने जीवन के स्वर्णिम-यौवन गलियों में घूम-घूमकर आज़ादी का अलख जागते थे। उन दिनों अपराध मने जाने वाले अपने इन्ही कृत्यों के कारण कई बार अंग्रेजो के डंडे खाते हुए जेल की यात्राएं करनी पड़ी। आपका जन्म बिहार प्रान्त के पटना जिला के बख्तियारपुर नगर के एक जमींदार परिवार में हुआ था। 

खोमारी साह (Khomari Sah)

स्व. खोमारी साह का जन्म प्रसौनीभाठा, नेपाल में हुआ। आप एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी रहें हैं। सन १९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में पड़ोसी देश भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और रक्सौल, भेलवा, सुगौली रेलवे लाइन को क्रांतिकारियों ने खाड़ फेका। आपको सजा भी हुई। आप सुप्रसिद्ध साहित्यकार, कवि एवं लेखक डॉ० (इंजी) हरिकृष्ण गुप्त अग्रहरि (BSc, P.hd, Hungry) के पिता हैं।

डॉ सुरेन्द्र नाथ अग्रहरि (Dr. Surendra Nath Agrahari)


स्वर्गीय डॉ सुरेन्द्र नाथ अग्रहरि ने स्वाधीनता संग्राम में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। जिसके लिए इन्हें बहुत सी यातनाये झेलनी पड़ी। पहले इन्हें नैनी जेल में रखा गया था बाद में बरेली जेल भेज दिया गया। इनसे तो जेल अधीक्षक भी भय खाता था क्योंकि ये कब क्या कर दें किसी को मालूम नही होता था। जेल प्रशासन इनके लिए इतना सख्ती बरतता था जिससे इनके परिजन बहुत मशक्कत के बाद ही जेल में इनसे मिल पाते थे। फैजाबाद नगर पालिका ने इनकी स्मृति में एक रोड का नामकरण इनके नाम पर किया है।

साभार: agraharicommunity.blogspot.com

15 comments:

  1. Jai agrahari samaj mai shiv kumar agrahari aaj agrahari samaj aur veer puruso ko sat sat naman karta hu

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  2. अग्रहरि अग्रोहा अग्रवाल अब नारा नहीं रहा, हमारा इतिहास कभी अग्वालों के साथ साझा नहीं रहा। हम पूर्वी भारत के क्षत्रिय वंश से संबंध रखते थे और श्री राम के वंशज कहलाये जाते थे! भारतेन्दु जी और कतिपय अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा भ्रामक तथ्यों को अब तिरोहित करने का समय आ गया है।
    राकेश अग्रहरि शास्त्री,
    जबलपुर

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  4. जय श्री अग्रसेन
    हमें गर्व है कि हम सूर्यवंश कुलभूषण महाराजा श्री अग्रसेन के वंशज हैं

    रघुवंश अग्रहरि, इंदौर

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  5. जय श्री अग्रसेन महाराज जी।।
    जय अग्रोहा

    🚩
    सनी अग्रहरि (वैश्य), यूपी चित्रकूट

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  6. Bahut lamba itihaas hai
    Jai shree Agrasen Maharajji

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  7. हमें यह अग्रहरियों का इतिहास बहुत गौरवान्वित करता है । हमे अपने अग्रहरि होने पर गर्व होना चाहिए । जय श्री अग्रसेन जी महाराज की ।

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  8. हमारा संबंध सूर्यवंश क्षत्रिय कुल से रहा है हम भगवान श्रीराम के वंशज है ये अलग तथ्य है कि भारतेन्दु जी एवं यात्री लेखको एवं इतिहासकारो द्वारा हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को निम्न स्तर पर उल्लेखित किया गया...
    और वर्तमान में यही कार्य अग्रहरि समाज के कथित पालनहार सामाजिक नेतृत्व द्वारा किया जा रहा है हमे नही लगता कि वर्तमान में अग्रहरि समाज के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा सामाजिक हित में एक भी सकारात्मक निर्णय लिया गया हो और न ही समाज की भलाई के लिए कोई प्रयास किया गया हो.... मात्र अवध के आसपास के अग्रहरि बंधुओ के द्वारा आयोजित किए जाने वाले अग्रहरि समाज भोज सम्मेलन में नारेबाजी के....

    अभिजीत अग्रहरि
    कवि एवं दर्शन वक्ता

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    1. आपके बात से सहमत हूं, कृपया संभव हो तो हमे अपना संपर्क नंबर दें।

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