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"तुलसी पंछी के पिये सरिता घटे न नीर,
दान दिया धन न घटे जो सहाय रघुवीर।"
भारत के वैश्य व्यापारी तुलसीदास जी की इस सूक्ति में विश्वास रखते थे. उनका मानना था की जो दूसरों की की मदद करते हैं सिर्फ वही सार्थक जीवन जी रहे हैं.
D. K. Taknet जी ने अपनी पुस्तक 'थ मारवाड़ी हेरिटेज' में लिखा है की- भारत में 18वीं सदी के अंत में से 19वीं सदी तक अकाल और दुर्भिक्ष पुनवर्ती थे और उसमे लगभग 6 करोड़ लोगों की जान गयी थी। आखिरी सबसे बड़ा अकाल बंगाल का 1943 में पढ़ा था. इतिहास में दर्ज है की वैश्य व्यापारियों ने इस दुर्भिक्ष अकालों में बहुत दान-धर्म किया था। जबकि ऐसा कोई तत्कालीन नियम भी नहीं था। भारत के वैश्य महामारी और अकाल के समय अपने खाद्य भंडार और तिजोरी जनता के लिए खोल दिया करते थे और कई धर्मशालाएं, घाट, जोहड़, कुएं, बावड़ी और सड़कों के किनारे छाया वाले प्यायु बनवाते थे अकाल पीड़ित और प्यासे यात्रियों के लिए.
गीता के परम प्रचारक पुस्तक में गीता प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयनका जी के 1943 के बंगाल अकाल में किये गए कार्य का वर्णन है-
सेठजी बाँकुड़ा (बंगाल) में रहते थे। 1943 वहाँ भीषण अकाल पड़ा। सेठजी ने लगभग एक सौ चालीस सेवा केन्द्र खोल दिये, कोई आये, दो घंटा कीर्तन करके एक निश्चित मात्रामें अन्न ले जाय। इसमें काफी धन लगने लगा। एक दिन उनके छोटे भाईने पूछा—भाईजी! यह काम कबतक चलेगा? उन्होंने उत्तर दिया—जबतक हमलोग इनकी स्थितिमें न आ जायँ तबतक। अकालकी स्थिति लगभग छ: महीने रही तबतक सेवाकार्य चला। अकाल समाप्त होनेके बाद स्थानीय लोगोंने अभिनन्दन समारोह किया। अन्य वक्ताओंके बोलनेके बाद सेठजीने कहा—हमने तो आपसे अर्जित धन भी पूरा आपकी सेवामें नहीं लगाया। आपसे अर्जित पूरा धन लगानेके बाद यदि हम मारवाड़से धन लाकर आपकी सेवामें लगाते तो कहा जा सकता था कि हमने कुछ किया। हमने तो आपकी चीज भी पूरी आपको नहीं दी।
सेठानी का जोहड़ा(तालाब)
संवत 1956 (सन् 1899-90) में देश मे भयानक अकाल पड़ा था जिसे छपन्निया अकाल के नाम से भी जाना जाता है.. उस अकाल में लोगों को राहत देने के लिए अग्रवाल सेठ भगवान दास बागला जी की पत्नी द्वारा संवत 1856 में चुरू (शेखावटी, राजस्थान) में करवाया गया था। ये राजस्थान टूरिज्म में प्रमुख स्मारकों में से एक है.
लेख साभार: प्रखर अग्रवाल
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