हर्ष वर्धन: हर्ष साम्राज्य के दौरान प्रशासन, धर्म और सामाजिक जीवन | Read this article to learn about the Administration, Religion and Social Life during Harsha Empire.
1. हर्षकालीन संस्कृति का शासन-प्रबन्ध (Administration during Harsha Empire):
एक विजेता तथा साम्राज्य निर्माता होने के साथ-साथ हर्ष एक कुशल प्रशासक भी धा । उसकी शासन-व्यवस्था का ज्ञान हमें बाण के हर्षचरित तथा हुएनसांग के यात्रा-विवरण के साथ-साथ उसके कुछ लेखों से प्राप्त होता है ।
यहां उल्लेखनीय है कि हर्ष ने किसी नवीन शासन-प्रणाली को जन्म नहीं दिया, अपितु उसने वैश्य गुप्त शासन-प्रणाली को ही कुछ संशोधनों एवं परिवर्तनों के साथ अपना लिया । यहां तक कि शासन के विभागों एवं कर्मचारियों के नाम भी एक समान ही दिखाई देते है ।
हर्ष के समय में भी शासन-व्यवस्था का स्वरूप राजतन्त्रात्मक था । राजा अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता था । वह महाराजाधिराज, परमभट्टारक, चक्रवर्ती, परमेश्वर जैसी महान् उपाधियाँ धारण करता था । हर्षचरित में हर्षवर्द्धन को ‘सभी देवताओं का सम्मिलित अवतार’ कहा गया है । उसकी शिव, इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर आदि से करते हुए सभी में सम्राट को श्रेष्ठ बताया गया है ।
उल्लेखनीय है कि मौर्यकाल के पश्चात् राजत्व में देवत्व के आरोपण की जो भावना प्रचलित हुई वह इस समय तक पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो गयी थी । वह प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी था सम्राट कार्यपालिका का प्रधान अध्यक्ष, न्याय का प्रधान न्यायाधीश तथा सेना का सबसे बड़ा सेनापति हुआ करता था ।
किन्तु महान् उपाधियों से युक्त एवं शक्ति सम्पन्न होने के बावजूद भी हर्ष निरंकुश नहीं था । उसका राजत्व सम्बन्धी अत्यन्त ऊँचा था । प्राचीन शास्त्रों के आदेशों का अनुकरण करते हुए उसने प्रजा रक्षण तथा पालन को अपना सर्वोच्च लक्ष्य बनाया ।
बंसखेड़ा तथा मधुबन के दानपत्रों में हर्ष अपनी प्रजावत्सल भावनाओं को इस प्रकार व्यक्त करता है- ‘लक्ष्मी (धन) का फल दान देने तथा दूसरों के यश की रक्षा करने में है । मनुष्य को मन, वाणी तथा कर्म से प्राणियों का हित करना चाहिए । पुण्यार्जन का यह उत्तम उपार्थ है’ ।
अत: इसमें संदेह नहीं कि हर्ष ने ध्यवहारिक जीवन में इस आदर्श को मूर्त रूप दिया होगा । चन्द्रगुप्त तथा अशोक की भाँति हर्ष व्यक्तिगत रूप से शासन के विविध कार्यों में भाग लेता था । उसने भी प्रजापालन एवं प्रजारक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी ।
हुएनसांग हमें बताता है ‘हर्ष का सम्पूर्ण दिन तीन भागों में विभक्त था । एक भाग में वह प्रशासनिक कार्य करता था तथा शेष दो भागों को धार्मिक कार्यों में व्यतीत करता था । वह अथक था और इन कार्यों के लिये दिन उसे अत्यन्त छोटा पड़ता था ।’ अपनी प्रजा की दशा को जानने के लिये हर्ष साम्राज्य के विभिन्न भागों में दौरे पर निकलता था ।
ऐसे अवसरों पर उसके रहने के लिये अस्थाई आवास बनाये जाते थे जिन्हें ‘जयस्कन्धावार’ कहा जाता था । बंसखेड़ा तथा मधुबन लेखों में क्रमश: वर्धमानकोटि एवं कपिधिका जयस्कन्धावारों का उल्लेख मिलता है । एक अन्य जयस्कन्धावार अचिरावती नदी के तट पर स्थित मणितारा में था । यहीं सर्वप्रथम बाण की हर्ष से भेंट हुई थी ।
हर्ष के अधीनस्थ शासक ‘महाराज’ अथवा ‘महासामन्त’ कहे जाते थे । प्रशासन में सामन्तों का विशिष्ट स्थान था । हर्षचरित तथा कादम्बरी में विभिन्न प्रकार के सामन्तों का उल्लेख मिलता है, जैसे- सामन्त, महासामन्त, आप्त सामन्त, प्रधान सामन्त, शत्रु सामन्त तथा प्रति सामन्त । हर्षचरित के अनुसार ‘हर्ष ने महासामन्तों को अपना करद बना लिया था (करदीकृत महासामन्त) ।
बंसखेड़ा तथा मधुबन के लेखों में महासामन्त स्कन्दगुप्त तथा महासामन्त महाराज ईश्वरगुप्त के नाम मिलते हैं । वे समय-समय पर उसकी राजसभा में उपस्थिति होते, विभिन्न समारोहों में भाग लेते तथा युद्धों के अवसर पर सम्राट को सैनिक सहायता देते थे ।
हर्ष काल तक आते-आते सामन्त शब्द का प्रयोग भूस्वामियों, अधीन राजाओं तथा उच्च पदाधिकारियों के लिये होने लगा था । अमात्य तथा कुमारामात्य जैसे पद भी सामन्ती विरुद बन गये थे । ऐहोल लेख से पता चलता है कि हर्ष की सेना में बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली सामन्त सम्मिलित थे । आप्त सामन्त वे थे जिन्होंने स्वेच्छा से अपने स्वामी की अधीनता मान ली थी ।
शत्रु सामन्त शायद अर्ध-स्वतंत्र राजकुमार होते थे । प्रति सामन्त का अर्थ स्पष्ट नहीं है । आर॰एस॰ शर्मा इन्हें राजा का विरोधभाव रखने वाले अथवा अविनयी सामन्त मानते है । देवाहूति के अनुसार इससे तात्पर्य शत्रु राजाओं के सामन्त से है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हर्षकालीन प्रशासन पहले से कहीं अधिक सामन्ती तथा विकेन्द्रित हो गया था ।
सम्राट को सहायता देने के लिये एक मंत्रिपरिषद भी होती थी । मन्त्री को सचिव अथवा अमात्य कहा जाता था । हर्ष के समय में भण्डि उसका प्रधान सचिव था । उत्तराधिकार जैसे महत्वपूर्ण प्रश्नों के ऊपर भी मंत्रिपरिषद् की राय आवश्यक समझी जाती थी । राज्यवर्द्धन की मृत्यु के याद उत्तराधिकार के प्रश्न को तय करने के लिये भण्डि ने मंत्रिपरिषद् की बैठक बुलाई थी ।
उसका विदेश सचिव अवन्ती था । विदेश सचिव की सका वहाँ सान्धिविग्रहिक थी । उसी के जिम्मे युद्ध तथा शान्ति (मैत्री) की घोषणा करना होता था । हर्षचरित से पता चलता है कि अवन्ति के माध्यम से ही हर्ष ने यह घोषणा करवाई थी कि समस्त शासक या तो सम्राट की अधीनता स्वीकार करें या फिर युद्ध के लिये प्रस्तुत हो जायें । सिंहनाद उसका प्रधान सेनापति था ।
वह प्रभाकरवर्धन के समय से ही कार्यरत था । अनेक युद्धों का सफल संचालन उसने किया तथा उसकी राजभक्ति उल्लेखनीय थी । शासन में उसका अत्यन्त सम्मानित स्थान था । कुन्तल, अश्वारोही सेना का सर्वोच्च अधिकारी तथा स्कन्दगुप्त गज सेना का प्रधान था । राजस्थात्रांद संम्भवत: वायसराय अथवा गवर्नर होता था ।
हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि साधारणतया मन्त्रियों तथा केन्द्रीय कर्मचारियों को नकद वेतन नहीं मिलता था, वल्कि उन्हें भूमि-खण्ड दिये जाते थे, लेकिन सैनिक पदाधिकारियों को नकद वेतन मिलता था । वह लिखता है कि निजी खर्च चलाने के लिए प्रत्येक गवर्नर, यंत्री, मजिस्ट्रेट और अधिकारी को जमीन मिली हुई थी
इस प्रकार के अधिकारियों में दीस्साधसाधनिकों, प्रमातारों, राजस्थानीयों, उपरिकी तथा विषयपतियों को शामिल किया जा सकता है जिनका उल्लेख हर्ष के लेखों में मिलता है । सम्पन्न है कि अब अनुदान स्वरूप राजस्व न केवल पुरोहितों और विद्वानों को वल्कि प्रशासनिक अधिकारियों को भी दिया जाता था । इस प्रथा की पुष्टि उस काल में सिर्फों की कमी से भी होती ।
प्रशासन की सुविधा के लिए हर्ष का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था । किन्तु हर्षकालीन प्रान्तों की संख्या अथवा उनके शासकों के विषय में हमें ज्ञात नहीं है । हर्षचरित थे प्रान्तीय शासक के लिये ‘लोकपाल’ शब्द आया है । प्रान्त को ‘भुक्ति’ कहा जाता था । प्रत्येक भुक्ति का शासक राजस्थानीय, उपरिक अथवा राष्ट्रीय कहलाता था ।
मधुवन तथा बंसखेड़ा के लेखों में क्रमश: श्रावस्ती तथा अहिच्छत्र भुक्तियों का उल्लेख है जो साम्राज्य के उत्तरी तथा उत्तरी-पश्चिमी भागों में स्थित थीं । मधुवन तथा बंसखेड़ा के लेखों में क्रमश: कडधानी तथा अगदीय विषयों के नाम हैं । मुनि का विभाजन जिलों में हुआ था ।
जिले की संज्ञा थी विषय जिसका प्रधान विषयपति होता था । विषय के अन्तर्गत कई पाठक होते थे जो आजकल की तहसीलों के बराबर रहे होंगे । ग्राम शासन की सबसे छोटी ईकाई थी । ग्राम शासन का प्रधान ‘ग्रामाक्षपटलिक’ कहा जाता था । उसकी सहायता के लिये अनेक चरलिक होते थे ।
हर्षकालीन साहित्य तथा लेखों में कुछ अन्य पटतीग्कारियों के नाम मिलते हैं, जैसे- महत्तर, दीस्साधसाधनिक, प्रमातार, भोगिक आदि । किन्तु इनके वारविक अभिज्ञान के विषद निश्चित रूप से बता सकना कठिन है । इनमें महत्तर गाँव का मुखिया था ।
दौस्साधसाधनिक का शाब्दिक अर्थ है ‘कठिन कार्य को सम्पन्न करने वाला’ । कुछ लोग इसे द्वारपाल या ग्रामाध्यक्ष मानते हैं । प्रमातार का संबंध भूमि की पैमाइश से लगता है जबकि भौलिक राजस्व विभाग से संबंधित कोई अधिकारी रहा होगा ।
हर्षचरित में लेखहारक तथा दीर्घाध्वग का उल्लेख मिलता है । ये संदेशवाहक प्रतीत होते हैं । कुमारामात्य, दूतक, दिविर आदि का भी उल्लेख मिलता है । कुमारामात्य गुप्त प्रशासन में उच्चाधिकारियों का एक वर्ग था जो किसी भी पद पर कार्य कर सकते थे ।
हर्षकाल में भी यही स्थिति रही होगी । दूतक प्राय उच्च श्रेणी का मंत्री होता था । कभी-कभी राजपरिवार से संबंधित व्यक्ति भी इस पद पर रखे जाते थे । उनका मुख्य कार्य दानग्रहीता को भूमि हस्तान्तरित करवाना था । दिविर को लेखक भी कहा गया है । इसका पद भी अमात्य जैसा ही था ।
प्रशासन मृदु सिद्धान्तों पर आधारित था । सरकार की माँगे कम थीं तथा परिवारों को अपनी रजिस्ट्री नहीं करानी पड़ती थी और न ही लोगों से बेगार लिये जाते थे । हुएनसांग लिखता है कि शासन का संचालन ईमानदारी से होता था तथा लोग परस्पर प्रेम एवं सद्भावपूर्वक निवास करते थे । परन्तु सड़कों पर आवागमन पूर्णतया सुरक्षित नहीं था ।
हुएनसांग स्वयं कई बार चोर-डाकुओं के चंगुल में फँस चुका था । वह लिखता है कि एक बार जब वह गंगा नदी से यात्रा कर रहा था, समुद्री डाकुओं ने उसे घेर लिया । उन्होंने उसे देवी दुर्गा की बलि देने के लिए चुना । तभी भीषण तूफान आया जिससे उसकी जान बच गयी । चन्द्रगुप्त मौर्य अथवा चन्दगुप्त द्वितीय के काल में ऐसी स्थिति नहीं थी । हमें ज्ञात है कि फाह्वान ने संकुशल भारत का भ्रमण किया था ।
अपराधों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था भी थी । राजद्रोहियों को आजीवन कारावास दिया जाता था । ऐसा पता चलता है कि बन्दियों के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया जाता था । दण्डविधान गुप्त काल की अपेक्षा कठोर थे । सामाजिक नैतिकता एवं सदाचार के विरुद्ध किये गये अपराधों में नाक, कान, हाथ, पैर आदि काट लिये जाते थे । कभी-कभी अपराधियों को देश से बाहर भी निकाल दिया जाता था ।
अपराधी अथवा निर्दोष सिद्ध करने के लिये कभी-कभी अग्नि, जल, विष आदि के द्वारा दिव्य परीक्षायें भी ली जाती थीं । कुछ विशेष अवसरों पर वन्दियों को मुक्त किये जाने की भी प्रथा थी । हुएनसांग के अनुसार लोग नैतिक दृष्टि से उठते थे ।
वे पारलौकिक जीवन के दुखों से डरते थे और इस कारण उनके द्वारा पाप नहीं किये जाते थे । देश में शान्ति और व्यवस्था वनाये रखने के निमित्त पुलिस विभाग की स्थापना हुई थी । पुलिस कर्मियों को ‘चाट’ या ‘भाट’ कहा गया है । दण्डपाशिक तथा दाण्डिक पुलिस विभाग के अधिकारी होते थे ।
हर्ष का प्रशासन उदार तथा नरम था । साम्राज्य में बहुत कम कर लगाये गये थे । हर्षकालीन ताम्रपत्रों में केवल तीन करों का उल्लेख मिलता है- भाग, हिरण्य तथा बलि । प्रथम अर्थात् भाग भूमिकर था । यह राज्य की आय का प्रधान साधन था तथा कृषकों से उनकी उपज का छठी भाग लिया जाता था ।
हिरण्यकर नकद लिया जाता था जिसे संम्भवत: व्यापारी देते थे । बलिकर के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है । सम्भव है यह एक प्रकार का धार्मिक कर रहा हो । व्यापारिक मार्गों, घाटों, बिक्री की वस्तुओं आदि पर भी कर लगते थे जिससे राज्य को पर्याप्त धन प्राप्त होता था ।
‘तुल्यमेय’ नामक एक कर का भी उल्लेख मिलता है जो तौल अथवा माप के अनुसार वस्तुओं पर लगाया जाता था । जुर्माने के रूप में भी धन प्राप्त होता था । राजकीय भूमि से जो आमदनी होती थी उसे चार प्रकार से खर्च किया जाता था ।
उसका एक भाग धार्मिक और सरकारी कार्यों में, दूसरा भाग राजकीय पदाधिकारियों के ऊपर, तीसरा भाग विद्वानों को पुरस्कार देने में तथा चौथा भाग विविध सम्प्रदायों को दान देने में खर्च किया जाता था ।
हुएनसांग हमें बताता है कि यदि किसी शहर या गाँव में कोई गड़बड़ी होती थी तो सम्राट तुरन्त ही वहाँ जाता था । वर्षा ऋतु को छोड़कर शेष तीनों ऋतुओं में हर्ष एक स्थान से दूसरे स्थान का दौरा किया करता था जहाँ लोग उससे अपने कष्टों के विषय में बताते थे ।
लेखों से इस प्रकार के दो स्थानों का पता चलता है जहाँ हर्ष अपनी यात्राओं के दौरान टिका हुआ था:
(i) वर्धमानकोटि तथा
(ii) कपित्थिका ।
इन स्थानों से क्रमश: बंसखेड़ा तथा मधुवन के दानपत्र प्रसारित किये गये थे ।
हर्षवर्द्धन के पास पक विशाल और संगठित सेना थी । बाण के हर्षचरित तथा हुएनसांग के विवरण से इसकी पुष्टि होती है । हर्षचरित से पता चलता है कि ‘दिग्विजय के लिये कूच करने के समय हर्ष के सैनिकों की संख्या इतनी घड़ी थी कि अपने सामने एकत्र विशाल सैन्य समूह को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया ।’
हुएनसांग के अनुसार उसकी सेना में 60 हजार हाथी तथा एक लाख घोड़े थे । पैदल सैनिकों की संख्या भी काफी घड़ी रही होगी । स्पष्टत: यह सेना सामन्तों तथा अधीन राजाओं द्वारा एकत्रित की गयी थी । ऐहोल लेख से भी सूचित होता है कि हर्ष की सेना में अनेक वैभवशाली सामन्त थे ।
सेना के सामग्रियों को सुरक्षित रखने के लिये एक अलग विभाग होता था जिसे रणभाण्डागाराधि करण कहते थे । बसाढ़ से प्राप्त मुद्रा में इसका उल्लेख मिलता है । इस विभाग का प्रधान रणभाण्डगारिक होता था । कभी-कभी सैनिकों के व्यवहार से जनता को महान् कष्ट उठाना पड़ता था ।
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन के संबंध में यह पता चलता है कि किसान युद्ध क्षेत्र के पास ही अपने खेतों पर निविष्ट काम करते थे किन्तु हर्ष के समय में ऐसी वात नहीं थी । हर्ष के सैनिक शान्त एवं सुसंयमित नहीं रहते थे तथा अभियानों के अवसर पर वे खड़ी फसलों को नष्ट कर देते तथा मार्ग में पड़ने वाले घरों एवं झोपड़ियों को जला देते थे ।
सम्राट भी इस कठिनाई की ओर बहुत कम ध्यान दिया करता था। इस कारण लोग राजा की निन्दा करते थे तथा उसे कोसते भी थे । ‘चाट’ और ‘भाट’ जैसे पुलिस कर्मचारियों के दुर्व्यवहार में भी ग्रामीण जनता अक्सर दुखी रहती थी ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यद्यपि हर्ष ने गुप्तों की शासन-प्रणाली का अनुकरण किया तथापि उसमें वह गुप्तशासन के समान उदारता, सुरक्षा तथा लोकोपकारिता नहीं स्थापित कर सका । उसका प्रशासन मौर्यों के समान सुसंगठित भी नहीं था ।
सड़के असुरक्षित थी तथा कानून-व्यवस्था में गिरावट आ गयी थी । सैनिकों तथा पुलिसकर्मियों के दुर्व्यवहार से जनता त्रस्त थी । प्रशासन पर सामन्तों के बढ़ते प्रभाव के कारण सम्राट की शक्ति का क्रमिक हास प्रारम्भ हो गया था तथा विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों प्रबल हो रही थीं ।
इस प्रकार जैसा कि आर॰के॰ मुकर्जी ने लिखा है- उर्ष का शासन प्रबन्ध गुप्त राजाओं के शासन प्रबन्ध की तुलना नहीं कर सकता, यद्यपि उसके पास महान सैनिक शक्ति थी, उसकी स्थायी सेना में 60 हजार हाथी तथा एक लाख घोड़े थे, राष्ट्रीय रक्षक दल में बड़े-घड़े योद्धा सम्मिलित थे जो शान्ति के समय सम्राट के निवास स्थान की रक्षा करते और युद्ध के समय सेना के निर्भीक, अग्रगामी दल में शामिल होते थे ।
2. हर्षकालीन संस्कृति के धर्म तथा धार्मिक जीवन (Religion and Religious Life of Harsha Empire):
हर्ष के व्यक्तिगत धर्म तथा उसके समय की धार्मिक अवस्था के विषय में हम हर्षचरित तथा हुएनसांग के भ्रमण-वृत्तान्त से जानकारी प्राप्त करते है । हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और के अनन्य उपासक थे । अत: प्रारम्भ में हर्ष भी अपने कुल देवता शिव का परम भक्त था ।
हर्षचरित से पता चलता कि शशांक पर आक्रमण करने से पहले उसने शिव की पूजा की थी । लगता है कि बचपन से ही उसकी प्रवृत्ति बौद्ध धर्म की ओर हो गयी थी । उसने विन्ध्यवन में दिवाकरमित्र नामक बौद्ध भिक्षु से साक्षात्कार किया था जिसका प्रभाव हर्ष पर बहुत अधिक पड़ा ।
चीनी यात्री हुएनसांग से मिलने के बाद तो उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया था तथा वह पूर्ण वौद्ध बन गया । अन्य धर्मों में महायान की उत्कृष्टता सिद्ध करने के लिये हर्ष ने कब्रौंज में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के आचार्यों की एक विशाल सभा बुलवायी ।
चीनी साक्ष्यों से पता चलता है कि इस सभा में वीस देशों के राजा अपने देशों के प्रसिद्ध ब्राह्मणों, श्रमणों, सैनिकों, राजपुरुषों आदि के साथ उपस्थित हुए थे । ‘जीवनी’ के अनुसार इसमें महायान तथा हीनयान मत के तीस हजार विद्वान् भिक्षु, तीन हजार ब्राह्मण तथा निर्ग्रन्थ तथा नालन्दा के एक हजार आचार्य शामिल हुए थे ।
यह समारोह बीस दिनों तक चला तथा इक्कीसवें दिन बुद्ध की लगभग तीन फिट ऊँची स्वर्ण मूर्ति को सुसज्जित हाथी पर रख कर एक भव्य जुलूस निकाला गया। हर्ष ने इस अवसर पर मोतियों तथा बहुमूल्य वस्तुओं का खूब वितरण किया। इस सभा की अध्यक्षता हुएनसांग ने की ।
इसके परिणामस्वरूप महायान बौद्धधर्म के सिद्धान्तों का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हुआ । उसने बौद्ध विहार एवं स्तूप भी निर्मित करवाये थे । हर्ष बौद्ध भिक्षुओं एवंस श्रमणों का सम्मान करता तथा समय-समय पर उन्हें पुरस्कृत भी करता था । आर॰के॰ मुकर्जी का मत है कि इस सभा में हर्ष ने धार्मिक असहिष्णुता का प्रदर्शन किया जो उसकी मान्य शासन नीति के अनुकूल नहीं था ।
राजा की ओर से सभा के पूर्व ही यह घोषणा प्रसारित की गयी थी । हुएनसांग के विरुद्ध बोलने वाले व्यक्ति की जीभ काट ली जायेगी । इससे किसी ने भी उसके साथ शास्त्रार्थ करने का साहस नहीं किया और सभी ने दबाववंश उसकी बातों को स्वीकार कर लिया ।
हुएनसांग अन्यत्र लिखता है कि उस सभा में उपस्थित ब्राह्मण हर्ष की नीति से असंतुष्ट हो गये तथा उत्सव के अन्तिम दिन सभागार में उन्होंने आग लगा दी और हर्ष को मार डालने का षड़यन्त्र किया किन्तु इसका भेद खुल गया और हर्ष ने 500 कट्टरपन्थियों को देश निकाला कर दिया ।
हर्ष का यह कार्य दूरदर्शितापूर्ण नहीं कहा जा सकता । इससे उसकी प्रतिष्ठा ही घटी । जी॰एस॰ चटर्जी ने सही ही लिखा है कि यद्यपि उसमें बहुत अधिक धार्मिक उत्साह था और बौद्ध धर्म की उन्नति के लिये उसने बहुत कुछ किया तथापि भारत के धार्मिक इतिहास में वह अपना नाम अमर करने में असफल रहा ।
अशोक और कनिष्ठ की भाँति जो बौद्ध धर्म के इतिहास में महान् व्यक्ति हैं तथा जिन्होंने उस धर्म पर अपने व्यक्तित्व की छाप लगा दी-हर्ष अपना नाम नहीं कर सका । उपने उत्तरकालीन जीवन में उसने जिस धर्म को अपनाया उसके लिये वह कोई ऐसा कार्य नहीं कर सका जो स्थायी होता ।
हर्षकालीन संस्कृति 491 यद्यपि अपने उत्तरकालीन जीवन में हर्ष ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया तथापि वह एक धर्म-सहिष्णु सम्राट था जो विधिज्ञ धर्मों एवं सम्प्रदायों का सम्मान करता था । हर्षचरित में कई स्थानों पर ब्राह्मणों के प्रति उसकी उदारता का उल्लेख हुआ है ।
हर्ष के समय में प्रयाग के संगमक्षेत्र में प्रति पाँचवें वर्ष एक समारोह आयोजित किया जाता था जिसे अहामोक्षपरिषद कहा गया है । हुएनसांग स्वयं छठे समारोह में सम्मिलित हुआ था । वह लिखता है कि इसमें 18 अधीन देशों के राजा उपस्थित हुये थे । इसमें बलभी तथा कामरूप के शासक भी थे ।
इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों, साधुओं, अनाथों एवं बौद्ध भिक्षुओं की संख्या भी बहुत बड़ी थी । यह समारोह लगभग 75 दिनों तक चला । हर्ष ने बारी-बारी से युद्ध, सूर्य तथा शिव की प्रतिमाओं की पूजा की थी । प्रयाग के इस धार्मिक समारोह में हर्ष दीन-दुखियों एवं अनाथों में प्रभूत दान वितरित किया करता था । यहाँ तक कि वह अपने बहुमूल्य वस्त्रों तथा व्यक्तिगत आभूषणों तक को लुटा दिया करता था ।
हर्षवर्धन के समय तक धर्मों तथा सम्प्रदायों की संख्या बहुत बढ़ चुकी थी । हिम धर्म के अन्तर्गत शैव सम्प्रदाय सर्वाधिक लोकप्रिय था । हर्षचरित के अनुसार थानेश्वर के प्रत्येक पर में भगवान शिव की पूजा होती थी । शिव की उपासना के लिये मूर्तियाँ तथा लिंग स्थापित किये जाते थे ।
मालवा तथा वाराणसी में शिव के विशाल मन्दिर बने थे जहाँ उनके सहस्रों भक्त निवास करते थे । शिव के अतिरिक्त विष्णु तथा सूर्य की भी उपासना होती थी । दिवाकर मित्र के आश्रम में पाउचरात्र तथा भागवत सम्प्रदायों के अनुयायी भी निवास करते थे जिनकी पूजा पद्धति भिन्न प्रकार की थी । हुएनसांग मूलस्थानपुर में सूर्य के मन्दिर का उल्लेख करता है ।
यहाँ सूर्य की स्वर्ण निर्मित मूर्ति विभिन्न पदार्थों से अलंकृत थी । यह अपनी अलौकिक शक्ति के लिये दूर-दूर तक विख्यात थी । बाण उज्जैनीवाताओं को सूर्य का उपासक बताते है । हर्षचरित में कई स्थानों पर दुर्गा देवी की पूजा का उल्लेख हुआ है। कुछ लोग प्राचीन वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान करते थे । प्रयाग के संगम तीर्थ का धर महत्व था ।
ब्राह्मण धर्म के साथ बौद्ध और जैन धर्मों का भी कुछ प्रदेशों में प्रचलन था । परन्तु इन धर्मों की अवनति प्रारम्भ हो चुकी थी। बौद्ध धर्म की महायान शाखा उब्रति पर थी। हर्ष ने इसी शाखा को संरक्षण प्रदान किया था । हुएनसांग मगध के महायान सम्प्रदाय के 10 हजार भिक्षुओं का उल्लेख करता है ।
देश में अनेक खूप, मठ तथा विहार थे । नालन्दा महाविहार में महायान बौद्ध धर्म की ही शिक्षा दी जाती थी । जैन धर्म, बौद्ध धर्म के समान लोकप्रिय नहीं था । पंजाव, बकल तथा दक्षिणी भारत के कुछ भागों में नैन-मतानुयायी निवास करते थे ।
3. हर्षकालीन संस्कृति का सामाजिक जीवन (Social Life of Harsha Empire):
हर्षकालीन समाज वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था । परम्परागत चारों वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अतिरिक्त समाज में अन्य अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ थीं । ब्राह्मणों का समाज में प्रतिष्ठित स्थान था । हर्षचरित से पता चलता है कि स्वयं हर्ष उनका बड़ा सम्मान करता था ।
हुएनसांग भी ब्राह्मणों की प्रशंसा करता है तथा उन्हें फबसे अधिक पवित्र एवं सम्मानित कहता है । उसके अनुसार ब्राह्मणों की अच्छी ख्याति के कारण ही भारत को भ्राह्मण देश भी कहा जाता था । इस काल के ब्राह्मणों ने अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ-याजन के पारम्परिक व्यवसाय के अतिरिक्त कृषि तथा व्यापार करना भी प्रारम्भ कर दिया था ।
प्रशासन में भी उन्हें प्रतिष्ठित पद दिये जाते थे । इस काल के ब्राह्मण अपने गोत्र, प्रवर, चरण अथवा शाखा के नाम से प्रसिद्ध थे । इस समय ब्राह्मणों के हाथ में काफी भूमि आ गयी थी जो उन्हें अनुदान में प्राप्त हुई थी ।
हर्षचरित से पता चलता है कि एक सैनिक अभियान पर निकलने के पूर्व हर्ष ने मध्य देश में ब्राह्मणों को 1,000 हलों के साथ 100 गाँव दान में दिये थे । यह भूमि लगभग दस हजार एकड़ रही होगी । इस प्रकार ब्राह्मण अब भू-सम्पन्न किसान बन गये थे । ब्राह्मण जन्मना श्रेष्ठता का दावा करते थे, कर्मणा नहीं ।
हर्षचरित में एक स्थान पर कहा गया है ‘केवल जो जन्म से ब्राह्मण हैं, परन्तु जिनकी बुद्धि संस्कार से रहित है, वे भी सम्मान-योग्य है (असंष्कृतमतयोपि जात्येव द्विजन्मनो माननीया) । समाज का दूसरा वर्ग क्षत्रियों का था लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति के विषय में कह सकना कठिन है । हुएनसांग उन्हें ‘राजाओं की जाति’ कहता है ।
किन्तु हर्षकाल में अधिकतर शासक क्षत्रियेतर जाति के थे । हर्ष स्वयं वैश्य जाति का था । कामरूप के शासक ब्राह्मण तथा सिंध का शासक शूद्र था । बलभी तथा चालुक्य शासक क्षत्रिय थे । क्षत्रिय अपने नाम के अन्त में वर्मा, त्राता, आदि लिखते थे । बलभी के राजाओं की उपाधियां सेन, भट्ट आदि थीं । क्षत्रिय ब्राह्मणों का बहुत सम्मान करते थे ।
वर्ण-व्यवस्था में तीसरे स्थान पर वैश्य थे । ये मुख्यत: व्यापार करते तथा लाभ के लिये निकट और दूरस्थ देशों की यात्रा करते थे । पहले वे कृषि कार्य भी करते थे लेकिन बाद में उन्होंने कृषि छोड़ दिया तथा पूर्णतया व्यापारी हो गये । कुछ इतिहासकार इसके पीछे बौद्ध धर्म का प्रभाव मानते है ।
चूँकि अधिकतर वैश्य बौद्ध थे अत: उन्होंने अहिंसा सिद्धान्त का अक्षरश: पालन किया । वे कृषि करके किसी प्रकार की हिंसा नहीं करना चाहते थे । पञ्चतन्त्र (पांचवी-छठिं शती) में वाणिज्य को ही उत्तम कर्म निरुपित किया गया है । बौद्धों ने भी इसे सम्मानित पेशा बताया है ।
ब्राह्मणों के पश्चात् समाज में वैश्यों का ही महत्वपूर्ण स्थान था क्योंकि वे आर्थिक गतिविधियों के नियामक थे । अपनी आर्थिक समृद्धि के वल पर उन्होंने कुछ राजनीतिक शक्ति भी प्राप्त कर लिया था । प्रशासन में भी वैश्यों को कुछ महत्वपूर्ण पद दिये जाते थे । वे गुप्त तथा दत्त जैसी उपाधियां धारण करते थे ।
शूद्र, सामाजिक व्यवस्था में चौथे स्थान पर थे । हुएनसांग ने शूद्रों को कृषक कहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि वैश्यों द्वारा कृषि कर्म छोड़ देने के बाद शूद्रों ने उस पर अपना अधिकार जमा लिया । उन्होंने कुछ राजनीतिक शक्ति भी प्राप्त कर ली थी । सिंध देश का राजा शूद्र था तथा बौद्ध धर्म में उसकी आस्था थी ।
मणिपुर के राजा को भी शूद्र बताया गया है । इससे पता चलता है कि शूद्रों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ । जनसंख्या का एक बड़ा भाग अछूत समझा जाता था । हुएनसांग कसाई, मछुये, जल्लाद, भंगी आदि जातियों के नाम गिनाता है जो अछूत थीं । वे नगरों और गाँवों के बाहर रहते थे तथा आते समय छड़ी पीटकर अपने आगमन की सूचना देते थे ताकि लोग उनके स्पर्श से बच सकें ।
कादम्बरी में चाण्डाल स्त्री को ‘स्पर्शवर्जित’ अछूत ! तथा ‘दर्शनमात्रफल’ (जिसे केवल देखा जाय) कहकर संबोंधित किया है । स्त्रियों की स्थिति के विषय में हमें जो सूचना मिलती है उसके आधार पर उसे अच्छी नहीं, कहा जा सकता । सिद्धान्तत सजातीय विवाह ही मान्य थे लेकिन व्यवहार में अन्तर्जातीय विवाह होते थे । स्वयं हर्ष की वहन राज्यश्री, जो वैश्य थी, कझौज के मौखरिवश (क्षत्रिय) में व्याही गयी थी ।
बलभी नरेश ध्रुव भट्ट जो एक क्षत्रिय था का विवाह हर्ष की पुत्री से हुआ था । अनुलोम तथा प्रतिलोम, दोनों विवाहों का प्रचलन था । पहले में निम्न वर्ण की कन्या तथा दूसरे में उच्च वर्ण की कन्या के साथ विवाह किया जाता था । पुनर्विवाह नहीं होते थे तथा सतीप्रथा का प्रचलन था ।
हर्षचरित से पता चलता है कि हर्ष की माता यशोमती सती हो गयी थी । राज्यश्री भी चिता बनाकर जलने जा रही थी लेकिन हर्ष ने उसे बचा लिया । कुलीन परिवार के लोग कई पत्नियों रखते थे । वाल विवाह का प्रचलन था । इससे ऐसा लगता है कि कन्याओं को पर्याप्त शिक्षा नहीं मिल पाती होगी ।
केवल कुलीन परिवार की कन्यायें ही शिक्षित होती थीं । कहीं-कहीं पर्दाप्रथा का भी प्रचलन था । सामान्यत लोगों का जीवन सुखी और आमोदपूर्ण था । लोग नाच गाने के शौकीन थे । जन्म विवाह आदि के अवसरों पर समाज के सभी लोग स्वच्छन्दता पूर्वक नाचते तथा गाते थे । कभी-कभी ये प्रदर्शन काफी अश्लील हो जाते थे ।
हुएनसांग हर्षकालीन भारतीयों के भोजन तथा वस्त्रों का भी उल्लेख करता है । लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे । हुएनसांग के अनुसार भेड़ तथा हरिण का मास रख मछलियाँ खाई जाती थीं । श्राद्ध के अवसर पर पितरों को पसन्न करने के लिये मांसाहारी भोजन बनाया जाता था तथा ब्राह्मण लोग यज्ञों में पशुबलि देते थे ।
वैश्य मांसाहार से प्राय परहेज करते थे । गेहूँ तथा चावल का प्रयोग अधिक मात्रा में होता था । घी, दूध, दही, चीनी, मिश्री विविध प्रकार के फल आदि भी बहुतायत से प्रयोग में लाये जाते थे । कुछ लोग मदिरा का भी सेवन करते थे ।
साधारणत: भारतीयों को श्वेत वस्त्र प्रिय थे । स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आभूषण धारण करते थे । देश के विभिन्न भागों में सूत, रेशम तथा ऊन से बारीक वस्त्र तैयार किये जाते थे । ‘चीनांशुक’ नामक वस्त्र कुलीन समाज के लोगों में काफी प्रचलित था । हार, मुकुट, अंगूठी, कड़े आदि मुख्य आभूषण थे ।
4. हर्षकालीन संस्कृति के अर्थिक दशा (Economic Condition of Harsha Empire):
हर्षकालीन भारत की आर्थिक दशा के विषय में हगें बाण के ग्रन्थों, चीनी स्रोतों तथा तत्कालीन लेखों से जानकारी मिलती है । सभी स्रोतों से स्पष्ट हो जाता है कि उस समय देश की आर्थिक दशा उठती थी । कृषि जनता की जीविका का मुख्य आधार थी । हुएनसांग लिखता है कि अन्न तथा फलों का उत्पादन प्रभूत मात्रा में होता था ।
हर्षचरित के अनुसार श्रीकण्ठ जनपद में चावल, गेहूँ ईख आदि के अतिरिक्त सेब, अंगूर, अनार आदि भी उपजाये जाते थे । भूमि का अधिकांश भाग सामन्तों के हाथ में था । कुछ भूमि ब्राह्मणों को दान के रूप में दी जाती थी । इसे ‘ब्रह्मदेय’ कहा जाता था । इस प्रकार की भूमि से सम्बन्धित सभी प्रकार के अधिकार दानग्राही को मिल जाते थे ।
मधुबन तथा बंसखेड़ा के लेखों में हर्ष द्वारा ग्राम दान में दिये जाने का विवरण मिलता है । भूमि के विविध प्रकारों जैसे अप्रदा (न रहने योग्य) अप्रहता (जिसमें खेती न हो सके), खिल (बंजर) आदि का उल्लेख मिलता है । कृषि के लिये सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी हर्षकालीन संस्कृति 493 थी । हर्षचरित में सिंचाई के साधन के रूप में ‘तुलायन्त्र’ (जलपम्प) का उल्लेख मिलता है ।
कृषि के अतिरिक्त वाणिज्य, व्यवसाय, उद्योग-धन्धे तथा व्यापार भी उन्नति पर थे । देश में कई प्रमुख व्यापारिक नगर थे । व्यापार-व्यवसाय का कार्य श्रेणियों द्वारा होता था । विभिन्न व्यवसायियों को अलग-अलग श्रेणियाँ होती थीं । वे अपने सदस्यों को व्यवसाय की भी शिक्षा देती थीं ताकि वे उनमें निपुणता प्राप्त कर सकें ।
हर्षचरित में उल्लेख मिलता है कि राज्यश्री के विवाह के समय निपुण कलाकारों की श्रेणियाँ राजमहल को सजाने के निमित्त बुलायी गयी थीं । प्रमुख स्थानों पर बाजारें लगती थीं तथा वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता था । समकालीन लेखों में शौल्किक, तारिक, हडुमति आदि पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है जो बाजार व्यवस्था से संबंधित थे ।
शौत्किक चुंगी वक्तने वाला, तारिक नदी के घाट पर कर वसूलने वाला तथा हट्टमति बाजार में क्रय-विक्रय होने वाली वस्तुओं पर कर वसूलने वाला अधिकारी था । कुछ नगर अपने व्यापार के कारण काफी समृद्ध हो गये थे । हुएनसांग बताता कि थानेश्वर देश की समृद्धि का प्रधान कारण वह का व्यापार ही था । वाण ने थानेश्वर नगरी को अतिथियों के लिये चिन्तामणि भूमि तथा व्यापारियों के लिये ‘लालभूमि’ बताया है ।
यहाँ के निवासी अधिकांशत: व्यापारी थे जो विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करते थे । मथुरा सूती वस्त्रों के निर्माण के लिये प्रसिद्ध था । उज्जयिनी तथा कन्नौज भी आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध थे । बाण ने उज्जयिनी के निवासियों को करोड़पति (कोट्याधीश) बताया है । वहां के बाजारों में बहुमूल्य हीरे-जवाहरात एवं मणियाँ बिक्री के लिए सजी रहती थीं ।
कन्नौज दुर्लभ वस्तुओं के लिये प्रसिद्ध था जो दूर-दूर देशों के व्यापारियों से खरीदी जाती थी । अयोध्या के लोग विविध शिल्पों में अग्रणी थे । देश वे सोने तथा चांदी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे । सिक्के विनिमय के माध्यम थे । किन्तु इस काल के बहुत कम सिक्के मिलते है जो व्यापार-वाणिज्य की पतनोन्मुख दशा का सूचक है ।
देश में आन्तरिक तथा वाह्य दोनों ही प्रकार का व्यापार होता था । इसके लिये थल तथा जल-मार्गों का उपयोग किया जाता था । कपिशा का वर्णन करते हुए हुएनसांग लिखता है कि वहाँ भारत के प्रत्येक कोने से व्यापारिक सामग्रियों पहुंचायी जाती थीं । यही से भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों को जाते थे । कश्मीर से होकर मध्य एशिया तथा चीन तक पहुँचा जाता था ।
पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति तथा पश्चिमी भारत में भड़ौच सुप्रसिद्ध व्यापारिक वन्दरगाह थे । चीन तथा पूर्वी द्वीप समूहों के साथ भारत का धनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था । ताम्रलिप्ति से जहाज मलय प्रायद्वीप तक जाते थे । यहाँ में एक मांग पश्चिम की ओर जाता था ।
इत्सिंग लिखता है कि जब वह यहाँ से पश्चिम की ओर चला तो कई सौ व्यापारी उसके साथ बोधगया तक गये थे । अयोध्या तथा ताम्रलिप्ति के बीच भी एक व्यापारिक मार्ग था । इस प्रकार यद्यपि साहित्य में हर्षकालीन भारत की समृद्धि का चित्रण है तथापि भौतिक प्रमाणों से इस वात की सुचना मिलती है कि आर्थिक दृष्टि से यह पतन का काल था ।
अहिच्छत्र तथा कौशाम्बी जैसे नगरों की खुदाइयों के उत्तरगुप्तकालीन स्तर उनके पतन की सूचना देते है । चीनी यात्री हुएनसांग के विवरण से भी इस बात की पुष्टि होती है कि सातवीं शती तक कई नगर तथा शहर निर्जन हो चुके थे ।
इस काल में मुद्राओं तथा व्यापारिक-व्यावसायिक श्रेणियों की मुहरों का चोर अभाव देखने को मिलता है । इन सभी प्रमाणों से सिद्ध होता है कि यह काल व्यापार-वाणिज्य के पतन का काल था और समाज उत्तरोत्तर कृषि-मूलक होता जा रहा था ।
5. हर्षकालीन संस्कृति के शिक्षा और साहित्य (Education and Literature of Harsha Empire):
हर्षवर्धन स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान् था, अत: अपने शासन-काल में उसने शिक्षा एवं साहित्य की उग्रति को पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान किया । पूरे देश में अनेक आश्रम एवं विहार थे जहाँ विद्यार्थियों को विविध विद्याओं की शिक्षा दी जाती थी ।
बाण के विवरण से पता चलता है कि वेदों तथा वेदांगों का सम्यक् अध्ययन होता था । अनेक विहद गोष्ठियाँ आयोजित होती थी जहाँ महत्वपूर्ण विषयों पर वाद-विवाद होते थे । व्याकरण, पुराण, रामायण, महाभारत आदि के अध्ययन में लोगों की विशेष रुचि थी ।
हुएनसांग ने पन्चविद्याओं- शब्द विद्या (व्याकरण), शिल्पस्थान विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या (न्याय अथवा तर्क) तथा अध्यात्म विद्या, का उल्लेख किया है जो बालकों के पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग थी । ब्राह्मण चार वेदों का अध्ययन करते थे वैदिक विद्यालयों के अतिरिक्त मठ तथा विहार भी शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र थे ।
हर्ष को संस्कृत के तीन नाटक ग्रन्थों का रचयिता माना जाता है- प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानन्द । वाणभट्ट के हर्षचरित में उनके काव्य-चातुर्य की प्रशंसा की गयी है तथा बताया गया है कि ‘उसकी कविता का शब्दों द्वारा पर्याप्त रूप से वर्णन नहीं किया जा सकता ।’
अन्यत्र वाण लिखते हैं कि ‘काव्य कथाओं में वह अमृत की वर्षा करता था जो उसकी अपनी वस्तु थी, दूसरे से प्राप्त हुई नहीं’ । भारत की साहित्यिक परम्परा में कवि के रूप में हर्ष को सत्रहवीं शती तक स्मरण किया गया है ।
ग्यारहवीं शती के कवि सोडढल ने अपने ग्रन्थ अवन्ति सुन्दरी कथा में उसके विषय में लिखा है कि ‘सैकड़ों करोड़ मुद्राओं से बाण की पूजा करने वाला वह केवल नाम से ही हर्ष नहीं था, साकार में वाणी (सरस्वती) का हर्ष था’ । जयदेव ने हर्ष को भास, कालिदास, बाण, मयूर आदि कवियों की समकक्षता में रखते हुये उसे ‘कविताकामिनी का साक्षात् हर्ष’ निरूपित किया है ।
सत्रहवीं शती के सुप्रसिद्ध दार्शनिक मधुसूदन सरस्वती ने भी हर्ष को रत्नावली नामक नाटक का लेखक स्वीकार किया है । भारतीय साहित्य के अतिरिक्त चीनी यात्री इत्सिंग ने भी हर्ष के विद्या-प्रेम की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि ‘उसने जीमूतवाहन की कथा के आधार पर एक नाटक ग्रन्थ लिखा तथा बाद में उसका मंचन करवाया ।
इससे उसकी लोकप्रियता काफी बढ़ गयी थी ।’ इस नाटक से तात्पर्य नागानन्द से लगता है । प्रियदर्शिका चार अंकों का नाटक है जिसमें वत्सराज उदयन तथा प्रियदर्शिका की प्रणयकथा का वर्णन हुआ है । ‘रत्नावली’ में भी चार अंक है तथा यह नाटक वत्सराज उदयन तथा उसकी रानी वासवदत्ता की परिचायिका नागरिका की प्रणय-कथा का बड़ा ही रोचक वर्णन करता है ।
नागानन्द बौद्ध धर्म से प्रभावित रचना है और इसमें पाँच अंक हैं । इस नाटक में जीमूतवाहन नामक एक विद्याधर राजकुमार के आत्महत्या की कथा वर्णित है । स्वयं विद्वान् एवं विद्याप्रेमी होने के साथ-साथ हर्ष विद्वानों का उदार संरक्षक भी था । हर्ष के दरवार में अनेक विद्वान् कवि एवं लेखक निवास करते थे ।
इनमें बाणभट्ट, मयूर तथा मातंगदिवाकर के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । बाणभट्ट उसके दरबारी कवि थे । उन्होंने हर्षचरित तथा कादम्बरी की रचना की । मयूर ने सूर्य-शतक नामक एक सौ श्लोकों का संग्रह लिखा । मातंगदिवाकर की किसी भी रचना के विषय में हमें ज्ञात नहीं है ।
कुछ विद्वान् पूर्वमीमासा के प्रकाण्ड विद्वान् कुमारिलभट्ट को भी हर्षकालीन मानते है । इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध गणितज्ञ चह्मगुप्त का जन्म भी हर्ष के समय में ही हुआ था । उसका ग्रन्थ ‘ब्रह्मसिद्धान्त’ नाम से प्रसिद्ध है । जयादित्य तथा वामन ने ‘काशिकावृत्ति’ नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ इसी समय लिखा था ।
हर्ष के समय में नालन्दा महाविहार महायान बौद्धधर्म की शिक्षा का प्रधान केन्द्र था । नालन्दा, बिहार के पटना जिले में राजगृह से आठ मील की दूरी पर आधुनिक बड़गाओं नामक ग्राम के पास स्थित था । मूलत: इस महाविहार की स्थापना गुप्तशासक कुमारगुप्त प्रथम (415-445 ईस्वी) के समय हुई थी । यह लगभग एक मील लम्बा तथा आधा मील चौड़ा था ।
इसके बीच में आठ बड़े कमरे तथा व्याख्यान के लिए 300 छोटे कमरे बने थे । यहाँ तीन भवनों में स्थित धर्मगज्ज नामक विशाल पुस्तकालय था । नालन्दा से प्राप्त एक लेख में यहाँ के भवनों के भव्य एवं गगनचुम्बी होने का प्रमाण मिलता हौ3 हर्ष के समय नालन्दा विश्वविद्यालय अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर था । आचार्य शीलभद्र हर्ष के समय यहाँ के कुलपति थे । हर्ष ने एक सौ ग्रामों की आय इसका खर्च चलाने के लिये प्रदान किया तथा यहाँ लगभग 100 फीट ऊँचा पीतल का एक विहार बनवाया था ।
6. हर्ष का मूल्यांकन (Harsh Empire Evaluation):
हर्षवर्द्धन की उपलब्धियों के अध्ययन के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि वह एक महान् विजेता, कुशल प्रशासक, विद्वान् एवं विद्या का उदार संरक्षक था । इस प्रकार उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी । अशोक और कनिष्क के समान उसने भी बौद्ध धर्म को राज्याश्रय प्रदान किया ।
समुद्रगुप्त के समान वह एक नीति-निपुण सम्राट था । इस प्रकार उसके व्यक्तित्व में अशोक तथा समुद्रगुप्त इन दोनों महान् सम्राटों के गुणों का समन्वय दिखाई देता है । यद्यपि हर्ष न तो अशोक के समान महान् धर्म-प्रचारक बन पाया और न ही के समान अजेय योद्धा ही, तथापि उसने इन्हीं दोनों राजाओं के समान इतिहासकारों को अपनी ओर आकर्षित किया ।
जिस समय वह थानेश्वर का राजा हुआ उसकी आयु केवल सोलह वर्ष की थी । उसके चारों ओर कठिनाइयों के बादल मंडरा रहे थे । राज्यवर्द्धन की हत्या, सामन्तों के विद्रोह आदि ने मिलकर उसकी स्थिति अत्यन्त संकटपूर्ण कर दी थी । परन्तु अपनी योग्यता और पराक्रम के बल पर उसने कठिनाइयों के बीच से अपना मार्ग प्रशस्त किया तथा उत्तर भारत के एक बड़े भूभाग का चक्रवर्ती शासक वन बैठा ।
वह एक प्रजावत्सल सम्राट था जिसका हृदय दीनों एवं अनाथों के लिये द्रवित हो उठता था । प्रयाग के पंचवर्षीय समारोहों में वह दिल खोलकर धन लुटाता था । भारतीय इतिहास के पृष्ठों में किसी सम्राट की दानशीलता का यह एक अपूर्व उदाहरण है ।
अपनी रचना नागानन्द में अपने नायक के माध्यम से हर्ष स्वयं अपने हृदय की भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहता है- ‘जो दूसरे की भलाई के लिये अपना बलिदान करने के लिये स्वत: तत्पर रहता है वह भला सांसारिक राज्य के लिये मानव जाति का विनाश कैसे कर सकता है ।’
अत: इसमें संदेह नहीं कि हर्ष ने अपने उत्तरकालीन जीवन में इस आदर्श का पूर्णतया पालन किया था । उसे इस बात का संतोष था कि उसकी प्रजा का जीवन सुखी तथा सुविधापूर्ण है । नागानन्द में ही अन्यत्र वह कहता है- फैमस्त प्रजा सन्मार्ग पर चल रही है ।
सज्जन अनुकूल मार्ग का अनुसरण करते हैं । भाई बन्धु मेरी तरह ही सुख भोग रहे हैं । राज्य की सब प्रकार से सुरक्षा निश्चित हो चुकी है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी आदज्यकताओं को अपनी इच्छानुसार सम्पादित कर रहा है । हर्ष एक उच्चकोटि का विद्वान् था ।
उसकी रचनाओं का उल्लेख हम पीछे कर है। उसने शिक्षा और साहित्य की उग्रति को अत्यधिक प्रोत्साहन प्रदान किया। वह एक धर्म-सहिष्णु सम्राट भी था इस रूप में ब्राह्मणों तथा बौद्धों का सम्मान करता था । गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद भारत में फैली हुई अराजकता एवं अव्यवस्था का अन्त कर हर्ष ने देश की सांस्कृतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया ।
लेख साभार: hindilibraryindia.com/history/हर्ष-वर्धन-हर्ष-साम्राज्/22222
sach me apka articles padh kar maja aa gya or aisa lag raha hai ki aur padhe itna accha jankari dene ke liye dhanyawaad plz send more and more information
ReplyDeletetayammum-karne-ka-tarika-in-hindi
Are Bhai सम्राट हर्षवर्धन kab se वैश्य हो गया वो क्षत्रिय कुर्मी कुल थे
ReplyDeleteभाई मेरे सम्राट हर्षवर्धन वैश्य थे ये सभी इतिहासकारों ने बताया है. और तुम कब से क्षत्रिय होने लगे. आज केवल राजपूत ही क्षत्रिय हैं. कुर्मी पटेल तो वैश्य की श्रेणी में आते हैं.
DeleteBhai kripya galat jankari फैलाना बंद करो🙏🚩
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