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Sunday, February 11, 2024

पितृ-पक्ष और मारवाड़ी अग्रवाल सेठ

पितृ-पक्ष और मारवाड़ी अग्रवाल सेठ

इस जमाने में भी जो समझदार हैं एवं उनकी श्राद्धक्रिया नहीं होती वे पितृलोक में नहीं, प्रेतलोक में जाते हैं। वे प्रेतलोक में गये हुए समझदार लोग समय लेकर अपने समझदार संबंधियों अथवा धार्मिक लोगों को आकर प्रेरणा देते हैं किः "हमारा श्राद्ध करो ताकि हमारी सदगति हो।"

राजस्थान में कस्तूरचंद गड़ोदिया एक बड़े मारवाड़ी अग्रवाल सेठ थे । उनकी गणना बड़े-बड़े धनाढयों में होती है। उनके कुटुम्बियों में किसी का स्वर्गवास हो गया। गड़ोदिया फर्म के कन्हैयालालजी गया जी में उनका श्राद्ध करने गये, तब उन्हे वहाँ एक प्रेतात्मा दिखी। उस प्रेतात्मा ने कहाः "मैं राजस्थान में आपके ही गाँव का हूँ, लेकिन मेरे कुटुम्बियों ने मेरी उत्तरक्रिया नहीं की है, इसलिए मैं भटक रहा हूँ। आप कन्हैयालाल गड़ोदिया सेठ !अपने कुटुम्बों का श्राद्ध करने के लिए आये हैं तो कृपा करके मेरे निमित्त भी आप श्राद्ध कर दीजिए। मैं आपके गाँव का हूँ, मेरा हजाम का धंधा था और मोहन नाई मेरा नाम है।"

कन्हैयालाल जी को तो पता नहीं था कि उनके गाँव का कौन सा नाई था लेकिन उन्होंने उस नाई के निमित्त श्राद्ध कर दिया। राजस्थान वापस आये तो उन्होंने जाँच करवायी तब उन्हें पता चला कि थोड़े से वर्ष पूर्व ही कोई जवान मर गया था वह मोहन नाई था।

ऐसे ही एक बार एक पारसी प्रेतात्मा ने आकर हनुमान प्रसाद पोद्दार से प्रार्थना की किः "हमारे धर्म में तो श्राद्ध को नहीं मानते परन्तु मेरी जीवात्मा प्रेत के रूप में भटक रही है। आप कृपा करके हमारे उद्धार के लिए कुछ करें।"
हनुमान प्रसाद पोद्दार ने उस प्रेतात्मा के निमित्त श्राद्ध किया तो उसका उद्धार हो गया एवं उसने प्रभात काल में प्रसन्नवदन उनका अभिवादन किया कि मेरी सदगति हुई।

श्राद्धकर्म करने वालों में कृतज्ञता के संस्कार सहज में दृढ़ होते हैं जो शरीर की मौत के बाद भी कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं। श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते हैं और श्राद्ध करनेवाले का अंतःकरण भी तृप्ति-संतुष्टि का अनुभव करता है। बूढ़े-बुजुर्गों ने आपकी उन्नति के लिए बहुत कुछ किया है तो उनकी सदगति के लिए आप भी कुछ करेंगे तो आपके हृदय में भी तृप्ति-संतुष्टि का अनुभव होगा।

औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया था तब शाहजहाँ ने अपने बेटे को लिख भेजाः "धन्य हैं हिन्दू जो अपने मृतक माता-पिता को भी खीर और हलुए-पूरी से तृप्त करते हैं और तू जिन्दे बाप को भी एक पानी की मटकी तक नहीं दे सकता? तुझसे तो वे हिन्दू अच्छे, जो मृतक माता-पिता की भी सेवा कर लेते हैं।"
भारतीय संस्कृति अपने माता-पिता या कुटुम्ब-परिवार का ही हित नहीं, अपने समाज और देश का ही हित नहीं वरन् पूरे विश्व का हित चाहती है।

साभार : prakhar agrawal

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