#KANYKUBJ BHURJI BHOJWAL VAISHYA
भुर्जी शब्द की उत्त्पति कहाँ से और कैसे हुई
हिन्दू धार्मिक ग्रंथों – शास्त्रों से ज्ञात होता है कि गुण एवं कर्म के अनुसार वर्ण-व्यवस्था स्थापित की गयी. इस वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आते हैं, जिससे अनेक जातियों का विकाश हुआ तथा उनकी कई उपजातियां उत्पन्न हुईं. सभी के अपने-अपने गोत्र हैं, जो ऋषियों-महर्षियों-गौतम, अत्रि, जमदग्नि, भरद्वाज, वशिष्ठ, विश्वामित्र, कश्यप आदि के नाम पर आधारित हैं. कालांतर में गोत्रों की संख्या बढ़ गयी. धार्मिक-ग्रंथों के अनुसार ब्राह्मण एवं क्षत्रिय वर्ण की जातियों का सम्बन्ध गौतम, वशिष्ठ, विश्वामित्र, भरद्वाज, शाण्डिल्य, गर्ग, अगस्त्य आदि ऋषियों से है. शेष सभी जातिओं को महर्षि कश्यप ने स्वीकार कर लिया.
वैश्य :- कृषिवाणिज्यगोरक्षम वैश्यकर्म स्वभावाकम . अर्थात खेती, व्यापार-धंधा तथा गोपालन वैश्य का कर्म है. इसलिए इन्हें वैश्य कहा जाता है. वैश्य में कई वर्ग हैं जैसे- कान्यकुब्ज, अयोध्यावासी, चंद्रवंशी, मध्यदेशीय, ओमरवैश्य, धोसरवैश्य, गाँधीवैश्य, अग्रहरिवैश्य आदि. इनकी भी अनके उपजातियां हैं.
प्राचीन इतिहास में कोल, भील, गोंड़ और द्रविण जातियों का उल्लेख आता हैं. इन्हें आदिवासी या जनजाति कहा गया हैं. उत्तरप्रदेश के कहार जाति को ही प्रचलित भाषा में गोंड़ कहा जाता है. ये विवाह आदि शुभ-प्रसंगों एवं अन्य संस्कारों में डोली ले जाने,पानी भरने और बर्तन साफ़ करने का काम अभी से लगभग चालीस-पैतालिस वर्ष पीछे के समय तक करते थे, किन्तु अभी भी इनका कुछ काम ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया है. ये लोग दाना भी भूनते हैं. ये समाज में कभी अछूत नहीं रहे हैं. इसप्रकार के कामों से जुड़े रहने के कारण ही समाज में इन्हें पिछड़ा माना गया तथा पिछड़े वर्ग में सम्मिलित किया गया. कुछ समय पश्चात् अनुसूचीत जाति (S.C.) तथा अनुसूचीत जनजाति (S.T.) की तरह आरक्षण की इनकी मांग तेज हो गई. सन २००१ तक की जन-गणना में इस जाति को अनुसूचीत जाति (S.C.) सूची में तथा सन २००२ में अनुसूचीत जनजाति (S.T.) सूची में दर्ज कर लिया गया. दाना भूनने के कारण गोंड अर्थात कहार को कुछ अनभिज्ञ लोग भुर्जी, भडभूजा, भुंज, भुजवा समज लेते हैं. इसी भूल के कारण गोंड जाति के लोग कहीं - कहीं “गुप्ता” लिखकर या बताकर वैवाहिक सम्बन्ध भी बना लेते हैं. याद रखिये हम लोग कान्यकुब्ज वैश्य हैं. गोंड अर्थात कहार वैश्य नहीं हैं.
बंधुओं हमारे समाज के अधिकतर स्त्री-पुरुष नाम के आगे टाइटल में ‘गुप्ता’ लिखते हैं, जबकि स्त्रीलिंग के लिए ‘गुप्ता’ तथा पुल्लिंग के लिए ‘गुप्त’ होना चाहिए. जैसे पुल्लिंग में चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, मैथिलीशरणगुप्त आदि तथा स्त्रीलिंग में – शोभना गुप्ता, निहारिका गुप्ता, श्रेया गुप्ता आदि. हमारे समाज के लोगों के अतिरिक्त तेली, कलवार, ओमर, कसौधन, अग्रहरि अदि भी गुप्ता लिखते हैं. परिचय के समय असमंजस उत्पन्न हो जाता है और तब पूछना पड़ता है कि आप कौन गुप्ता हैं ? इस गंभीर समस्या के निवारणार्थ जैसे कलवार – जायसवाल, अग्रहरि – अग्रवाल, हलवाई – मोदनवाल लिखने लगे, उसी प्रकार हमारे समाज के कुछ वरिष्ठ एवं विद्वान बंधुओं ने सन १९९२ में उत्तर प्रदेश के मछलीशहर जिला जौनपुर में कान्यकुब्ज वैश्य के दो-दिवसीय सम्मलेन में भुर्जी, भडभूजा, भुंज, भुजवा जाति का टाइटल ‘गुप्ता’ के स्थान पर ‘भोज्यवाल’ सुनिश्चित किया तथा राष्ट्रिय स्तर पर इसका प्रचार-प्रसार करने का सुझाव भी दिया. भोज्य का अर्थ है – खाने योग्य. इसमें वाल प्रत्यय है और सम्बन्ध सूचक है. इस प्रकार भोज्यवाल का अर्थ हुआ – खाने योग्य पदार्थ, चीज-वस्तुएं बनाने वाला. हमारे समाज के लोग भोज्य अर्थात खाने योग्य चीजें- चरवन – दाना-चना, मुरमुरा (लाई), पोहा (चिउरा), पाकवस्तु – हलवा, पूरी, मिठाई आदि बनाते हैं. जिसे सभी वर्ग एवं सभी जाति के लोग बड़े चाव से खाते हैं. इसीलिए उन्हें भोज्यवाल कहा जाता है. अभी तो लोग साधारण बोलचाल की भाषा में सीधे भोजवाल लिखने लगे हैं. शायद उन्हें भोज्यवाल लिखने, पढने तथा बोलने में असहज लगता हो अथवा कुछ लोग संभवतः राजाभोज से सम्बन्ध जोड़ते हों. ज्ञात रहे की भारतवर्ष में ‘भोज’ नाम के कई राजा हुए हैं. उनका कई ग्रथों में उल्लेख मिलता है. उनके नाम, स्थान व वंश का विस्तार से उल्लेख करना आवश्यक नहीं है. इन राजवंशों से भुर्जी, भडभूजा, भुंज जाति का कोई सम्बन्ध नहीं है. संस्कृत में ‘भुज’ परस्मै और उभयपदी धातु है. संस्कृत शब्दकोष में इस धातु के जितने भी अर्थ हैं, उनसे ‘भोज’ रूप की उत्पत्ति सिद्ध नहीं होती है.
कान्यकुब्ज वैश्य के अंतर्गत – भुर्जी,भडभूजा, भुंज, भुजवा, कान्दू, कंदोई, क्रोंच, कौशल, कान्दव, कन्नौजिया, मध्यदेशीय (मधेसिया), हलवाई, यज्ञसेनी, साव, परदेसी आदि आते हैं. पश्चिमी उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान आदि प्रदेशों में सक्सेना तथा श्रीवास्तव के नाम से भी जाने जाते हैं. भुर्जी शब्द की उत्पत्ति कहाँ से और कैसे हुई ? इसके सम्बन्ध में सम्पूर्ण वृतांत विष्णुपुराण एवं हरिवंशपुराण के २९वें अध्याय से विदित हो जाता है. यदि किसी बंधु को विस्तार से जानने की इक्षा हो तो वे उपरोक्त दोनों ग्रंथों का अध्ययन कर सकते हैं. पुनः विदित हो कि संस्कृत भाषा में एक ‘भुज’ धातु है. भुज का अर्थ है – भोजन बनाना, अन्न भुजना, पालन करना. यथा नाम: तथा गुण: के आधार पर भोजन बनाकर, मिट्टी के भाड़ में अन्न भूजकर पालन करने वाले लोगों को भुर्जी, भडभूजा, भुंज, भुजवा की संज्ञा दी गयी. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भुर्जी, भडभूजा, भुंज, भुजवा शब्द की उत्पत्ति कान्यकुब्ज अर्थात कन्नौज से हुई है. कान्यकुब्ज नाम कैसे पड़ा ? – इसका सम्पूर्ण वृतांत वाल्मिकी रामायण के बालकाण्ड में वर्णित है. हम सब कश्यप ऋषि की संताने हैं. हमारा गोत्र ‘काश्यप’ है.
सक्सेना वैश्य की उत्पत्ति सांकसा जिला फर्रुखाबाद बताई जाती है. सांकसा का वर्णन वाल्मिकी रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में मिलता है. कायस्थ, सक्सेना, श्रीवास्तव के पूज्य इष्ट चित्रगुप्त, शाकंभरीदेवी एवं लक्ष्मीजी हैं. आप सब से अनुरोध हैं कि आप लोग जिस ऋषि – महर्षि, देवी – देवता को इष्ट मानते हों तथा उनके प्रति आस्था एवं श्रद्धा रखते हों, उन्हें मानते रहिये तथा उनके प्रति श्रद्धावान बने रहिये. इसमें किसी को भी किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए. अतः गोत्र एवं इष्ट के विवाद में उलझने के बजाय समाज की भलाई के लिए एकजुट हो कर एक मंच पर आने की आवश्यकता है.
बंधुओं बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि कान्यकुब्ज वैश्य के उपरोक्त सभी घटकों में अभी भी एकता का अभाव है. हमारा समाज अभी भी कई क्षेत्रों में पिछड़ा है. एकता एवं संगठन के अभाव के कारण ही हमारा समाज किसी भी राजनीतिक दल या राजनेता का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट करने में असफल रहा है. सरकार में भागीदारी तो बहुत दूर की बात है. अतः संगठित हो कर समाज को शक्तिशाली बनाकर अपनी संख्याबल एवं उपस्तिथि प्रदर्शित करने का प्रयास करें, न की अनावश्यक विवादों में उलझे रहें.
इतिहास से प्राप्त इसकी जानकारी विस्तृत रूप से नहीं वरन संक्षेप में प्रस्तुत है .-
1- कान्यकुब्ज:-प्राचीनकाल में कन्नौज को कान्यकुब्ज कहा जाता था. कान्यकुब्ज नाम कैसे पड़ा ? इसका उल्लेख बाल्मीकि रामायण में पाया जाता है . कुशनाभ राजा की सौ कन्याओं ने वायुदेवता के विवाह –प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था . वायुदेवता के प्रचंड कोप से वे कुबड़ी हो गयीं . संस्कृत भाषा में कुबड़ी को कुब्जा कहते है. कन्यायें कुब्जा हो गयीं, यह घटना जिस क्षेत्र /राज्य में हुई थी उसे “कान्यकुब्ज” कहा जाने लगा . वर्तमान समय में कान्यकुब्ज को कन्नौज कहा जाता है.
2- कान्यकुब्ज वैश्य:- हिन्दू धर्मग्रंथो में ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र चार वर्णों का उल्लेख आता है. धंधा-व्यापार,कृषि एवं गोपालन करने वालों को वैश्यवर्ग में रखा गया है. कृषिवाणिज्यगोरक्षम वैश्यकर्म स्वभावकम. हमारे पूर्वज मूलतः कान्यकुब्ज अर्थात कन्नौज के निवासी थे और व्यापार-धंधा करते थे. इसलिए उन्हें कान्यकुब्ज वैश्य कहा जाता है. ध्यान रहे कान्यकुब्ज ब्राह्मण भी होते हैं.
3- गोत्र:- धार्मिक एवं शुभ-मांगलिक प्रसंगों में गोत्र पूछा जाता है . हमलोग “कश्यप” ऋषि की संतानें हैं. हमारा गोत्र “कश्यप” है.
कान्यकुब्ज अर्थात कन्नौज बौध्दकाल में एक वैभवशाली राज्य था. यहाँ वैश्य जाति के राजा ग्रहवर्मन थे. इनकी मृत्यु के बाद मालवा नरेश देवगुप्त तथा गौड़ देश के राजा शशांकगुप्त नामक वैश्य राजाओं ने बारी-बारी से कान्यकुब्ज अर्थात कन्नौज पर आक्रमण कर दिया,जिससे वहां की सुरक्षा,अर्थव्यवस्था तथा व्यापार-धंधा सब अस्त-व्यस्त हो गया. सम्पूर्ण कान्यकुब्ज राज्य में भगदड़ मच गयी. हमारे पूर्वज जीविकोपार्जन हेतु कान्यकुब्ज राज्य से बाहर निकलकर भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों में जाकर धंधा-व्यापार करने लगे. व्यापार-धंधे में सफल होने के बाद वे वहीँ स्थायी हो गए. वे अपने – अपने धंधे के अनुसार अपनी जाति का नाम रख लिए. जो लोग दाना भूनने अथवा चरवन का काम करते थे, वे भुर्जी ,भडभूजा, भुजवा,भूज आदि लिखने लगे तथा जो लोग पाकवस्तु-हलवा, मिठाई आदि बनाते थे, वे हलवाई लिखने लगे. इसीप्रकार अन्य लोग भी अपने-अपने धंधे के अनुसार अपनी जाति लिखने लगे.कुछ लोग कन्नौज से सम्बन्ध होने के कारण कन्नौजिया लिखते हैं. कुछ लोग परदेशी लिखते है. ध्यान रहे उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों में धोबी जाति के लोग भी कन्नौजिया लिखते है. अधिकतर स्वजातीय बंधु गुप्त या गुप्ता लिखते है. इसका सम्बन्ध गुप्तकाल के शासकों से भी जोड़ा जाता है. .
साभार : bhojwalsamaj.blogspot.com
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