#HUMAD JAIN VAISHYA SAMAJ
इतिहास – हूमड़ समाज - Humad Samaj
इतिहास हमारे गौरवशाली अतीत के स्वर्ण पृष्ठों का प्रामाणिक दस्तावेज है । वह हमें एक और हमारे सामाजिक व सांस्कृतिक परम्पराओं का बोध कराता है तो दूसरी और हमें अपने वर्तमान का आकलन करने का भी सुअवसर प्रदान करता है । समाज के इतिहासकार एवं शोधकर्ताओं ने ग्रंथो एवं स्थल पर उपलब्ध अवशेषों का अध्ययन करके अपने शोध – पत्रों और लेख के माध्यम से हूमड़ समाज के उद्गम , नामकरण , विस्थापन , स्थानांतरण , साधु – संतो , संस्कृति इत्यादि की जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयत्न किया है । इस परम सेवा के क्षेत्र में कार्य करने हेतु श्रीमान हीरालालजी सालगिया – अहमदाबाद के कुशल नेतृत्व में हुमड़ समाज शोध समिति के अंतर्गत सम्पूर्ण भारतवर्ष से कई शिक्षाविद् , चिंतक , समाज – सेवी और इतिहासकारों , शोधकर्ताओं के योगदान से नवम्बर 1945 एवं अगस्त 2000 में ‘ हूमड़ समाज का सांस्कृतिक इतिहास ‘ नाम से दो ग्रंथों का प्रकाशन किया गया था | अभी भी इस क्षेत्र में ” शोध ‘ की अत्यन्त आवश्यकता है । आपके लिए प्रस्तुत संक्षिप्त इतिहास की जानकारी उक्त ग्रंथों से ली गई है ।
हूमड़ पुराण का मंगलाचरण
श्रीमद् हिरण्य गंगा तट सुमनधरा उत्तरा दिग्वैगे ।
सोमा सागत्य जायात् वरमुख चतुर मिष्ट गौत्र शर्तते ।।
स्नातास्ते ब्रह्म बाला जिमति निरता सश्र अष्टादशश्च ।
ते सर्वे सौख्यसुक्त धन स्वजन युता मंगल विस्तुरन्तु ।।
हूमड़ समाज का उदगम
हूमड़ समाज के उदगम की जानकारी उदगम स्थल पर उपलब्ध अवशेषों , शिलालेखों एवं हूमड़ पुराण , हूमड़ वंशावली , ब्राह्मणोत्पति मातृण्ड , भूवलय जैसे ग्रंथो से मिलती है ।
हूमड़ की उत्पत्ति एवं गौत्र
हूमड़ पुराण के मंगलाचरण की पंक्तियों से ज्ञात होता है कि हूमड़ों के पूर्वजों का मूल निवास स्थान गुजरात , जिसे प्राचीन समय में लाट देश कहा जाता था , के साबरा कांठा जिला मुख्यालय से 65 किलो मीटर दूर खेड़ब्रह्मा ( प्राचीन ब्रह्म / देवपुरी ) तथा उसके पास से बहने वाली हिरण्य गंगा के गाँव जिन्हें वर्तमान में रायदेश कहा जाता है , में था । ये लोग खेड़ब्रह्मा से 50 कि.मी. की परिधि में बसे हुए थे ।
उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार पौराणिक काल में खेडब्रह्मा एक समृद्ध शहर था तथा त्रिवेणी ( काशाम्बी , मौमशकरी और हिरण्य गंगा ) संगम स्थल होने से प्रसिद्ध तीर्थस्थल था| वहाँ के क्षत्रिय लाट देश ( गुजरात ) के निवासी होने से लाडवंशी कहे जाते थे । इनके मुख्य कुल चौहान , चाणक्य , प्रतिहार और परमार थे । ये कुल , उपकुलों तथा शाखाओं में बटे हुए थे | इनमे से कई क्षत्रियों ने परिस्थितिवश क्षत्रिय संस्कारों का त्याग कर आजीविका हेतु वैश्य कर्म ( व्यापार ) अपना लिया । ऐसे क्षत्रियों को लाइवणिक भी कहा जाता था | वहाँ के कई क्षत्रिय एवं वैश्य ( पूर्व में क्षत्रिय ) जैन धर्म के आचार – व्यवहार का पालन करते थे और पंच णमोकार मंत्र , देवपूजा , गुरूपूजा , स्वाध्याय , सामायिक एवं पात्रदान यज्ञ को मानते थे । क्षत्रिय द्वारा जैन धर्म पालन के कारण नन्दी संघ के मुनियों द्वारा प्रभारी प्रचार था ।
जब नन्दी संघ के आचार्य मागनन्दी के शिष्य मुनि हेमचन्द्र खेड़ब्रह्मा पहुंचे तब इन्होंने आसपास के जैन मतावलंबियों एवं अन्य क्षत्रियों तथा वैश्यों को संगठित कर एक नये समाज की स्थापना की जो आज हूमड़ समाज के नाम से जाना जाता है ।
इन्होंने हूमड़ों के 18 गौत्र निर्धारित किये तथा क्षत्रियों के विविध संस्कारों को सम्पन्न कराने वाले पुराहितों को “ खेडुवा “ नाम दिया और उनके 9 गोत्र स्थापित किये ।
खेडब्रह्मा में नये समाज के संस्कार स्थल पर आज भी विशाल गोत्र कुण्ड ( बावड़ी ) है जिसमें हूमड़ों के 18 गोत्र की मातृवेदियों के गोखले ( मूर्ति स्थान ) मौजूद हैं ।उपरोक्त अध्ययनों से हूमड़ समाज का उत्पत्ति वर्ष विक्रम संवत् 101 के लगभग निश्चित होना प्रतीत होता है ।
वर्तमान खेड़ब्रह्मा के निकट देरोल नामक स्थान है , ( जो पूर्व में खेड़ब्रह्मा का ही भाग था ) , में नन्दीश्वर बावन जिन चैत्यालय एवं अन्य जैन मन्दिर के खंडर मौजूद है । वहाँ की 150 से अधिक प्रतिमाएं आज भी ईडरगढ़ , तारंगातीर्थ , भीलूडा तथा राजस्थान के अनेक स्थलों पर उपलब्ध है ।
लाड़वंशी क्षत्रिय - हूमड़ों के आदिपुरूष
गुजरात राज्य के प्राचीन इतिहास के अनुसार आज से साढ़े चार हजार वर्ष पूर्व ( इ.पू. 2000 ) सुरेन्द्र सेन लाइवंशीय राजा हुए उनके पुत्र वीरसेन की रानीचुण्डावती ने पावागढ़ के मदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था ।
इसी तरह गुहिल लाइवंशीय राजा कनकसेन ने सन् 144 में गुजरात में वीरनगर बसाया था ।
जैन ग्रंथ ‘ भूवलय ‘ निर्माण गाथा में बताया गया है कि उर्जयन्त पर्वत ( गिरनार ) से श्री नेमिनाथ , प्रद्युम्न , संबुकुमार , अनिरूद्दव यादव कुमार तथा उनके लाड़वंशीय राजाओं सहित बहत्तर करोड़ सात सौ मुनि मोक्ष गये , जो लाइवंशीय क्षत्रिय हूमड़ों के आदिपुरूष थे ।
हूमड़ शब्द की उत्पत्ती
प्रथम मत – लाड़ क्षत्रिय ने जब जैन धर्म को स्वीकार किया तब उन्होंने अपने सारे अस्त्र – शस्त्रों का त्याग कर अग्नि में इनका होम किया । अत : होम द्वारा आयुधों का त्याग के महत्व को चिरस्थायी रखने की दृष्टि से होम + आयुध = होमायुध के नये नाम से क्षत्रिय पहचाने जाने लगे । कालान्तर में होमायुध से हूमड़ शब्द की उत्पत्ति हुई है ।
दूसरा मत – हूमड़ों की उत्पत्ति के संबंध में यह भी मत है कि भगवान महावीर के निर्वाण स्थल वाली भूमि बिहार प्रान्त के ‘ सिंह भूमि या सुहयनग ‘ में एक दिगम्बर साधूरहते थे , जो विहार करते – करते खेड़ब्रह्मा पहुंचे , जहां के लाड़ क्षत्रियों ने जैन धर्म स्वीकार किया । अत : उस साधुका उपदेश सुनकर हूमड़ ‘ कहलायें ।
तीसरा मत – यह है कि विक्रम संवत् के प्रांरभिक वर्षों में गुजरात राज्य में राजनैतिक व सामाजिक अस्थिरता आई । ऐसे समय में लाट ( लाड़ ) क्षत्रियों की जागीर छीन ली गई तथा उन्हें सेना के विभिन्न पदों से निकाल दिया गया । ऐसे समय में वे क्षत्रिय धर्म को त्याग कर व्यापार करने लगे । व्यापार एवं वाणिज्य से संबधित कर्म करने से वे ‘वणिक ‘ कहलाये ।
चौथा मत – यह है कि वि.स. के दूसरी सदी में जैन धर्म के नदिसंघ के मुनि हुम्माचार्य ने खेडब्रह्मा में 18 खांप के क्षत्रियों को जैन धर्म की दीक्षा देकर हुमड़ नाम की जाति स्थापित की । अत : हुमाचार्य से “ हूमड़ ” कहलाये ।
भेद ( दशा - वीसा )
हूमड़ों में भेद मिलते हैं दशा हूमड़ एवं बीसा हूमड़ दोनों में गोत्र समान है । इससे यह ज्ञात होता है कि पूर्व में दोनों एक ही थे । भेद क्यों हुआ तथा दशा – बीसा नामकरण कैसे हुआ , शोध का विषय है परंतु इतना निश्चित है कि 17 वीं शताब्दी के मध्य तक यह भेद नहीं था । इससे पूर्व मूर्ति लेखों पर लघु शाखा एवं दीर्घ शाखा का उल्लेख मिलता है । इसे सिद्ध होता है कि दोनो में दशा – वीसा का जातीय भेद नही था । वर्तमान गुजरात प्रान्त में खेड़ा , बडौदा , अंकलेश्वर तथा अहमदाबाद में जो बीसा मेवाडा समाज है , और आर्थिक दृष्टि से काफी समृद्ध है वे हूमड़ समाज का ही एक भाग है । यह समाज भटेवर ( राजस्थान ) से आकर वहाँ बसा है । उसी स्थान से 125 परिवार प्रतापगढ़ ( राज . ) में भी बसे | भटेवर से शासन देवी वती लाये थे , जो मूल खेड़ ब्रह्मा से लायी गई थी।यह मूर्ति सोजिन्न जिला खेड़ा ( गुजरात ) में विराजमान है । इस समाज के गोत्र हुमड़ो के 18 गोत्रों में से ही है ।
धार्मिक दृष्टि से वर्तमान में हूमड़ों में भेद अवश्य है । इसमें दिगम्बर श्वेताम्बर तथा कुछ स्थानक वासी है । प्रारंभ से सभी मूल संघी थे , परंतु विक्रम संवत् 1425 में हूमड़ समाज के एक समुदाय ने काष्ठा संघ स्वीकार किया | पंथ की दृष्टि से कुछ बीस पंथी और कुछ तेरह पंथी है । अभी कुछ सोनगढ़ के कानजी पंथ के मानने वाले भी हो गये है
हूमड़ों का स्थानतरंण
हूमड़ अधिकांश संख्या में गुजरात , राजस्थान , महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश में है । शेष भारत में इनकी संख्या अत्यल्प है । इन सभी के पूर्वज खेड़ब्रह्मा तथा उसके आसपास के निवासी थे तथा मूलतः क्षत्रिय थे ।
यहा से इनका निष्क्रमण विभिन्न समय में हुआ तथा वे विभिन्न स्थानों पर जा बसे । वे और उनकी पीढ़ियां किसी एक स्थान पर स्थाई रूपसे नही रही ।
यह बताना कठिन है कि किस परिवार ने कितने और कब स्थान बदले और वर्तमान पीढ़ी के पूर्वज कब वर्तमान स्थान पर बसे । हूमड़ों के खेड़ब्रह्मा से निष्क्रमण के सम्बन्ध में एक किवदन्ति प्रचलित है कि एक भील राजा के समय राजपुत्र तथा नगर के श्रेष्ठि पुत्र में घनिष्ठ मित्रता थी ।
राजपुत्र के पास घोड़ा तथा भील पुत्र के पास घोड़ी थी । एक दिन दोनों घूमने निकले । राजपुत्र ने दौड़ का प्रस्ताव किया । श्रेष्ठि पुत्र इसके लिये तैयार नहीं था परंतु राजपुत्र के आग्रह को टाल नहीं सका | नही चाहते हुए भी राजपुत्र का प्रस्ताव स्वीकार किया , दौड़ शुरू हुई । श्रेष्ठी पुत्र की घोडी तेज तर्राट तथा बलिष्ठ थी अत : वह आगे निकल गयी । अकेला पड़ जाने के कारण राजपुत्र का घोडा गिर गया तथा राजपुत्र को नीचे गिरा दिया | इस घटना के कारण राजपुत्र ने श्रेष्ठि पुत्र की घोड़ी खरीद लेने को कहा । राजा ने श्रेष्ठि को बुलाकर बात की । श्रेष्ठि ने कहा आपका पुत्र एवं मेरा पुत्र दोनो घनिष्ठ मित्र है वे ही आपस में तय कर लेगें । श्रेष्ठि पुत्र को बुलाया गया |
उसने कहा “ राजन् । आज तो मेरी घोड़ी मांगी जा रही है कल को अगर राजपुत्र मेरी पत्नी मांगेगा तो क्या मैं उसे दे दूंगा ? नही कदापि नही । यह बात राजा को तीर के समान चुभ गई । उसने सभी जैनियों ( श्रेष्ठि ) को बंदी बनाने का आदेश दिया तथा उन्हें जेल में डाल दिया | तब एक – एक ब्राह्मण ने दो – दो श्रेष्ठियों को जमानत देकर उन्हें जेल से छुड़वाया । इस घटना से उत्पीड़ित जैन एवं ब्राह्मण समाज के बुद्धिजीवियों ने सलाह मशवीरा कर खेड़ब्रह्मा छोड़ देने का निश्चय किया ।
खेड़ब्रह्मा छोडने का एक अन्य कारण राजाओं के आपसी युद्ध तथा म्लेच्छ शासकों के आक्रमण भी रहे हैं । खेड़ब्रह्मा और उनके आसपास के क्षेत्र ( रायदेश ) तीन तरफ ईडर सत्तर तालुका खड़ग क्षषत्र के पहाड़ो से घीरा हुआ होने से चित्तौड़ पर आक्रमण करने की दृष्टि से तैयारी करने हेतु सुरक्षित था । अतः इस क्षेत्र पर आक्रमण कर इसे अधिनस्थ करने का प्रयास किया गया । इन आक्रमणों से मन्दिर एवं भवन खण्डित कर दिये गये तथा लोग जिनमें जैन भी सम्मिलीत थे खेड़ब्रह्मा छोड़कर गुजरात के अन्य क्षेत्रों , दक्षिणी राजस्थान के मेवाड़ , वागड़ , खडक , मध्यप्रदेश के मालवा – इन्दौर , महाराष्ट्र के फल्टन , पूना , शोलापुर तथा आजादी के बाद से व्यापार के लिए कर्नाटक , तमिलनाडू तथा विदेशों तक जा बसे ।
SABHAR : humadjainsamaj.com/itihas-humad-samaj
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