GOPINATH MOHAN SAHA - महान क्रांतिकारी बलिदानी
गोपी मोहन साहा
भूखा भेड़िया और घायल शेर

सन् 1922, 'टेगार्ट' कोलकाता का पुलिस कमिश्नर, ईस्ट इंडिया कंपनी के चरित्र का असली वारिस। भारत के साथ व्यापार करने वालों के लिए महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने सन् 1600 ईस्वी में 'ईस्ट इंडिया कंपनी' की स्थापना की थी। उसी समय एलिजाबेथ ने एक फरमान जारी किया था जिसका भाव इस प्रकार है। "ईस्ट इंडिया कंपनी' ऐसे दुःसाहसी लोगों की एक मंडली (Society of Adventurers) है जो लूट, सट्टा अथवा सच-झूठ, न्याय-अन्याय एवं ईमानदारी या बेईमानी का ख्याल न रखते हुए धन कमाने के लिये निकले हैं।" इस कंपनी के निदेशकों को प्रारंभ से ही निर्देश था कि वह इसमें किसी भी जिम्मेदारी के पद पर शरीफ आदमी को नियुक्त न करें। ब्रिटिश शासन तंत्र कंपनी की पीठ पर था। अतः व्यापारिक कंपनी अपने चरित्र के बल पर भारत की शासक बन बैठी। यद्यपि 1858 में अत्याचारों की सीमाएं लांघने के कारण कंपनी का शासन समाप्त हुआ और भारत ब्रिटिश उपनिवेश बन गया। लेकिन अपनी स्थापना के तीन सौ वर्ष बीतने के बाद भी भारत को अपने कब्जे में बनाये रखने के लिये चुन- चुन कर उसी चरित्र के अधिकारी भेजे जाते रहे। ऐसे ही चरित्र का प्रतीक था 'टेगार्ट'।
वर्ष 1921-22 में इसी टेगार्ट ने बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों पर लगाम लगा दी थी। 'बंगाल आर्डिनेंस एक्ट 1918' के अंतर्गत गिरफ्तारी के लिए कोई कारण बताने की आवश्यकता नहीं थी। बिना कोर्ट में पेश किये अनिश्चितकाल तक किसी को भी जेल में सड़ने के लिए बाध्य किया जा सकता था। टेगार्ट ने इसी आर्डिनेंस का सहारा लेकर बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन को कुचला प्रमुख क्रांतिकारियों को या तो फांसी पर लटका दिया गया या उन्हें लंबी अवधि के लिए अलीपुर और अंडमान की जेलों में कठोर यातनाएं सहने के लिए डाल दिया गया। लोग टेगार्ट के नाम से घबराने लगे ।
आई.सी.एस. की नौकरी से त्यागपत्र देकर जिस दिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हावड़ा स्टेशन पर उतरे, उसी दिन से टेगार्ट ने उनके पीछे जासूसों का जाल बिछा दिया था। दिनांक 24 दिसम्बर 1921 को प्रिंस ऑफ वेल्स के कोलकाता पहुंचने पर वहां पूर्ण हड़ताल रही। विरोध में जगह-जगह प्रदर्शन हुए। विरोध प्रदर्शन हेतु चितरंजन दास और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी ताकत लगा दी।
प्रिंस आफ वेल्स के साथ उसका चचेरा भाई डिकी माउंटबेटन उसका ए.डी.सी. बनकर आया था। डिकी माउंटबेटन सुभाष के साथ अपनी छोटी सी मुलाकात में ही भांप गया कि सुभाष के अंदर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध ज्वालामुखी धधक रहा है। अतः उसने टेंगार्ट को निर्देश दिया - "बोस नाम का यह व्यक्ति एक खतरनाक क्रांतिकारी है। इसके पर काटने आवश्यक हैं। इस पर कड़ी नजर रखी जाय।" इस पर टेंगार्ट ने उत्तर दिया था
"यस, योर मेजेस्टी, इसके लिए लोहे का पिंजरा तैयार है, बस मौके की तलाश है।" गोपी मोहन प्रिंस आफ वेल्स के विरोध और असहयोग आंदोलन के सभी प्रदर्शनों में भागीदार था। उसने चितरंजन दास की पत्नी बासंती देवी को जब आंदोलन का नेतृत्व करते देखा तो उसका रोम-रोम रोमांचित हो उठा। गोपी मोहन अभी मात्र 18-19 वर्ष का युवक ही था, लेकिन वह आंदोलन की योजना हेतु सभाओं में प्रायः भाग लेता रहता था। बासंती देवी की गिरफ्तारी से उसका मन टेगार्ट की यातनाओं से कांप गया।
गांधी जी द्वारा संचालित असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था। तुर्की के खलीफा के कारण भारत के मुसलमानों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़े गये खिलाफत आंदोलन के असहयोग आंदोलन में विलय से पूरे भारत के हिंदू और मुसलमान एक मंच से अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिये आतुर हो उठे। गांधी जी की 'एक वर्ष में स्वराज्य' की घोषणा सफल होती प्रतीत होने लगी।
इस सबके ठीक-ठाक चलते हुए भी गोपी मोहन चिंतित था । उसे लग रहा था कि टेगार्ट सुभाष को छोड़ने वाला नहीं है। अतः अपने साथियों के साथ वह भविष्य की योजना बनाने में व्यस्त था। तभी दौड़ा हुआ जतिन दास आया और उसने हांफते हुए सूचना दी- 'अरे गोपी! कुछ सुना तुमने ? मैं तुम्हें एक राज की बात बताना चाहता हूं। टेगार्ट 44 सुभाष को अपने चंगुल में फंसाने वाला है। गुप्त सूचना से पता चला है कि वह हमेशा के लिए सुभाष को बंगाल से अलग करने वाला है। “जतिन, तुमने तो मेरी शंका को और भी पक्का कर दिया। टेगार्ट सुभाष पर अपना पंजा कसे, उससे पूर्व ही हमें उसे ठिकाने लगा देना चाहिये ।"
इसके बाद गोपी मोहन के जीवन का उद्देश्य ही 'टेगार्ट का खात्मा' बन गया। वह हर समय टेगार्ट के बारे में ही सोचता रहता। असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने से उसके मस्तिष्क को गहरा आघात लगा था। रात्रि में कई बार सोते-सोते वह 'टेगार्ट'-'टेगार्ट' चिल्लाने लगता था। उसने क्रांतिकारी संगठनों से सम्पर्क कर पिस्टल का प्रबंध किया। निशाना साधने का अभ्यास किया। टैगार्ट की शक्ल, पोशाक आदि की खूब पहचान कर ली। हर समय पिस्टल कांख में दबाये गार्ट की तलाश में घूमता रहता।
दिनांक 12 जनवरी 1924, प्रात: लगभग 7 बजे का समय। कोलकाता की चौरंगी रोड के निकट पार्क स्ट्रीट का चौराहा धुंध के कारण दस फुट की दूरी का आदमी भी साफ दिखाई नहीं दे रहा था। गोपी मोहन ने देखा कि गोरी चमड़ी का एक व्यक्ति ओवरकोट और सिर पर हैट पहने था। उसे लगा कि वह निश्चित ही टेंगार्ट है। उसने तुरंत अपना रिवाल्वर निकाला और उसके निकट जाकर गोली दाग दी। वह व्यक्ति कुछ संभलता, उससे पूर्व ही तीन गोलियां और दागीं। वह व्यक्ति वहीं गिर पड़ा और उसने दम तोड़ दिया। गोपी मोहन थोड़ी दूर चला होगा कि उसे टैक्सी दिखाई पड़ी। उसने ड्राईवर को चलने के लिये कहा। ड्राईवर के मना करने पर एक गोली उस पर भी चलाई लेकिन ड्राईवर बच गया क्योंकि उसकी कमर में एक चौड़ा पट्टा बंधा था। गोली उसी से टकरा कर निकल गई। अब लोगों ने उसको पकड़ने हेतु उसका पीछा किया। एक व्यक्ति उसके निकट पहुँच गया। गोपी मोहन ने उसे भी गोली मार कर गिरा दिया। वह भाग कर पास से गुजर रही एक बग्घी के पायदान पर चढ़ गया। तभी एक साहसी युवक ने बग्घी पर चढ़कर उसे पकड़ कर नीचे गिरा लिया। फिर तो अनेक लोगों ने मिलकर गोपी मोहन को काबू कर लिया। उसके पास एक पिस्टल, एक रिवाल्वर और पैंतालीस जीवित कारतूस निकले, गोपी मोहन को पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया।
पकड़े जाने के बाद जब गोपी मोहन को पता चला कि उसकी गोलियों से मरने वाला गार्ट नहीं अपितु किलवर्न व्यापारी कंपनी का अंग्रेज कर्मचारी ई. डे. था, तो उसे बेहद अफसोस हुआ। अभी तक यह किसी को भी मालूम नहीं था कि आखिर उसने डे. को क्यों मारा? उसे हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़ कर टेगार्ट के सम्मुख लाया गया। टेंगार्ट ने अपनी खूंखार आंखें तरेरीं, कमर से अपनी लोहे के बकल वाली बैल्ट खोली और गुर्राता हुआ बोला
"बता तूने डे को क्यों मारा? उससे तेरी क्या दुश्मनी थी ?"
"मैं तो साहब, तेरा खून करना चाहता था। बेचारा डे. तो गलती से मारा गया। उसकी दाढ़ी-मूंछें बिलकुल तेरी ही जैसी थी न।"
इतना सुनकर टेगार्ट वहां खड़े पुलिसकर्मियों को गालियां बकने लगा-
'सुन लिया वे! तुम क्लबों में जवान छोकरियों के पीछे दुम हिलाते फिरते हो और 44 यहां मेरी, 'टेगार्ट' की हत्या की साजिश चल रही है, जिसकी तुम्हें कोई खबर ही नहीं। डूब मरो सब चुल्लू भर पानी में।"
"साहब इन बेचारों को क्यों डांटता है तू मेरे हाथों से तो बच गया पर मेरे साथी तुझे छोड़ेंगे क्या ?"
'जिस टेगार्ट के नाम से सारा बंगाल थर्राता हो, आज उसी टेगार्ट के जीवन को चुनौती दी जा रही थी। रेगार्ट भूखे भेड़िये की तरह गोपी मोहन पर टूट पड़ा। पांच-छः सिपाहियों ने उसे जकड़कर मुंह के बल औधा लिटा दिया और उसके गर्दन और पैरों पर इस तरह बैठ गये कि वह हिल भी न सके। उसकी नंगी पीठ पर धड़ाधड़ बैल्ट बरसने लगी। लोहे के बकल से गोपी की कमर लहू-लुहान हो गयी। लेकिन वाह रे क्रांतिवीर ! उस मार को तू ऐसे सहता चला गया कि न चीखा, न कराहा और न ही मुंह से आह तक निकाली।
रेगार्ट दहाड़ा "बोल तू किसका आदमी है ?"
"मैं किसी का आदमी नहीं, मैं तो भारत मां का वीर पुत्र हूं।" "मेरी हत्या क्यों करना चाहता था ?"
"साहब, तूने मेरे कितने ही भाईयों को जेलों की काल कोठरियों में सड़ा रखा है, अनेक को फांसी पर लटकाया है, उन सबका तुझसे हिसाब चुकाना था।" गार्ट भूखे भेड़िये की तरह गोपी मोहन की तरफ गुर्राता रहा। और घायल शेर को पिंजरे में बंद कर दिया गया।
दिनांक 21 जनवरी 1924 को गोपी मोहन को अदालत में पेश किया गया। गोपी मोहन ने अपने बयान में स्वीकार किया- "मैं पुलिस कमिश्नर टेगार्ट के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाने के लिए उसकी हत्या करना चाहता था, लेकिन मेरी गलती से वह बच गया।"
दिनांक पहली मार्च 1924,
सूर्योदय से पूर्व ही जेल के बाहर लोगों की भीड़ इकट्ठा होने लगी। स्वराज्य दल के अन्य लोगों और परिजनों के साथ सुभाष चन्द्र बोस भी प्रेसीडेंसी जेल के बाहर मौजूद थे। सुभाष चन्द्र बोस ने प्रयत्न किया कि फांसी के बाद गोपी का शव उसके घर वालों को सौंपा जाए। लेकिन ऊपर से आदेश था कि गोपी का अंतिम संस्कार जेल में ही किया जाय। अतः मुखाग्नि देने हेतु केवल गोपी मोहन के भाई मदन मोहन को ही अन्दर जाने की आज्ञा प्रदान की गई।
दोपहर तक जेल के बाहर 'गोपी मोहन...... जिंदाबाद' और 'वन्देमातरम्' के नारे लगते रहे। अंतिम संस्कार के बाद जब मदन मोहन अपने भाई के कपड़ों को लेकर जेल के दरवाजे से बाहर निकले तो सारा वातावरण सिसकियों में डूब गया। सुभाष चन्द्र बोस ने उन कपड़ों को अपने हाथों में लेकर चूमा और भावुक हो उठे। गोपी मोहन के कपड़ों पर जब सुभाष के अश्रु गिरे तो सारा वातावरण गमगीन हो गया। पश्चिम बंगाल के सिरामपुर (हुगली) में विजय कृष्ण साहा के घर में 1904 में जन्मा गोपी केवल अठारह वर्ष की आयु में ही मातृवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर सदैव के लिये अमरत्व प्राप्त कर गया।