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Saturday, March 8, 2025

VAISHYA SANT SUNDAR DAS JI - संत श्री श्री १००८ श्री सुंदरदासजी

SANT SUNDAR DAS JI - संत श्री श्री १००८ श्री सुंदरदासजी


खंडेलवाल समाज संत श्री सुन्दरदास जी (सन 1596 से 1689) का जन्म -दौसा स्थित बुसरो का ढूंढा,व्यास मोहल्ला में बुसर गोत्र परिवार में मिति चैत्र नवमी को दोपहर को 1653(संवत वर्ष ) में हुआ। आपके पिता का नाम परमानन्द तथा माता का नाम 'सती' (आमेर सोखिया परिवार )था।

विश्वबन्धुत्व के संदेशवाहक, मानवजाति के दिग्दर्शक, विश्व विभूति, महान सन्त व कवि शिरोमणि दादूजी के शिष्य श्री सुन्दरदास जी का स्थान आध्यात्मिक, साहित्यिक, सामाजिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में सूर,
तुलसी, कबीर व नानक के समतुल्य व कुछ विषयों में उनसे भी उच्च है। उन्हें द्वितीय शंकराचार्य व आचार्य के रूप में भी माना गया है।
जिस प्रकार रामचरित मानस के साथ गोस्वामी तुलसीदास का नाम अमर है उसी प्रकार हिन्दी साहित्य के अमर ग्रंथ ज्ञान समुद्र, सुन्दरविलास तथा अन्य ग्रंथों (कुल 48 ग्रंथ) के रचयिता तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में अमर नाम पाने वाले साधक, महान सन्त, धर्म एवं समाज सुधारक व कवि शिरोमणि श्री सुन्दरदास जी है ।

दादू सम्प्रदाय की प्रचलित मान्यता के अनुसार सन्त सुन्दरदास जी दादूदयाल जी के वरदान से चोखा साहूकार के घर उत्पन्न हुए थे।
दादूजी जब आमेर में प्रवास पर थे तब एक दिन उनके परम शिष्य जग्गाजी रोटी व सूत मांगने शहर गये। जब वे अपने फकीरी बोल बोलते हुए कन्या सती के घर के आगे से गुजर रहे थे दे माईसूत, हो तेरे पूत तो सती उस समय सूत कात रही थी। सती ने बाहर आकर जग्गा जी को आवाज देकर कहा लो बाबाजी सूत तो जग्गाजी ने कूकड़ी लेकर उत्तर में कह दिया हो माई तेरे पूत और वे आश्रम लौट आये।
दादूजी अन्तर्यामी थे तथा उन्होंने जान लिया था कि जिस लड़की के भाग्य में पुत्र नहीं था उसे जग्गाजी पुत्र का वचन दे आये। दादूजी ने जग्गाजी से कहा कि आज तो तुम ठगा आये । अब अपने वचन को सत्य करने के लिए जाओ। जग्गाजी के होश उड़ गये। उन्होंने कहा जो आज्ञा परन्तु सदैव आपके चरणों में ही रहूँ । दादूजी ने कहा ऐसा ही होगा। जग्गाजी ने ऐसा ही किया। कन्या सती के विवाह के कई वर्ष बाद जग्गाजी शरीर त्याग कर सती के गर्भ से सुन्दरदासजी के रूप में अवतरित हुए। यह एक अलौकिक घटना थी ।
संवत् 1659 में जब दादूजी दौसा में पधारे तब सुन्दरदासजी 6-7 वर्ष के थे। उनके माता-पिता भक्तिपूर्वक दर्शनों के लिए दादूजी के पास गये तथा सुन्दरदासजी को उनके चरणों में रख दिया। दादूजी ने बालक के सिर पर बड़े प्यार से हाथ रखकर कहा कि 'सुन्दर तू आ गया' । तभी से बालक का नाम सुन्दरदास पड़ा और तभी से सुन्दरदासजी उनके शिष्य हो गये। फिर दादूजी और टहलड़ी (दौसा) के स्थानधारी दादू शिष्य जगजीवनजी के साथ नरायणा कस्बे में आये। यहाँ संवत् 1660 में दादूजी का परमपद हो गया तथा जगजीवन जी के आदेश पर वापस टहलड़ी आ गये । सुन्दरदासजी ने छोटी अवस्था में ही दादूजी से दीक्षा व आध्यात्मिक उपदेश पा लिया था। पूर्व जन्म के संचित ज्ञान के कारण वे बड़े ही चमत्कारी और होनहार बालक थे। जगजीवन जी के सत्संग से वे दादूवाणी सिख कविता लेखन से सबके प्रिय हो गये थे.

बचपन मे जगजीवन जी के सत्संग से उन्होंने दादूवाणी सीखी और कविता करने लगे थे। उनकी प्रतिभा को देख लगभग 11 वर्ष की उम्र में काशी भेजा गया ।संवत 1664 में रजजब्जी आदि के साथ काशी गए । वहाँ उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, योग,करण कोष, शटशास्त्र, पुराण, वेदान्त आदि का 20 वर्ष तक अध्ययन तथा योगाभ्यास व चिन्तन किया। भाषा काव्य के समस्त अंग छन्द, अलंकार, रस और सब प्रकार की काव्य चातुरी में उन्होंने विशेष योग्यता अर्जित करते हुए बहुत से ग्रंथों की रचना की।

सांख्य योग, वेदान्त के बहुत से शास्त्र. उपनिषद, गीता, योग वशिष्ठ, शंकर भाष्य आदि का उन्होंने भली भांति मनन किया था। योग साधना, महात्माओंके सत्संग, गोस्वामी तूलसीदासजी के दर्शन का उन्होंने लाभ उठाया था। उनकी स्मरण शक्ति स्फूर्ति तथा हाजिर जवाबी बहुत प्रबल थी ।
काशी में उनकी विद्वता से सभी प्रभावित थे। उनकी विद्वता के सन्दर्भ में एक किंवदंती है। एक विद्वान काशी में नित्य कथा सुनाते थे। सुन्दरदासजी सहित अनेक श्रोता नित्य कथा सुनने आते थे। एक दिन कथा वाचक को सुन्दरदास जी नहीं दिखे । कथा वाचक उनकी प्रतीक्षा करने लगे। श्रोतागण नाराज हो कहने लगे एक युवक के कारण हम जैसे विद्वानों का अनादर किया है। इतने में सुन्दरदास जी वहाँ आ गये और कथा वाचक ने अपनी कथा सुनाना शुरू किया। जब कथा समाप्त हो गई तब विद्वान कथा वाचक ने उन पण्डित श्रोताओं से कहा कि अभी आपने जो कथा सुनी है,
उसे कल आप पद्य में लिखकर लावें। अगले दिन केवल सुन्दर दास जी ही उस कथा को पद्यमय लिखकर लाये अन्य कोई श्रोता लिखकर न ला सका उनकी प्रस्तुति से उनकी विलक्षण बुद्धि व स्मृति का अहसास हो गया तथा सभी श्रोतागण अवाक् रह गये और शर्मिन्दा हुए।
काशी से सुन्दरदासजी कभी-कभी प्रयाग, दिल्ली,बिहार आदि को भी थोड़े दिन के लिए सत्संग आदि के लिए चले जाया करते थे। संवत् 1682 में वे काशी से चले आये । नरायणा तथा डीडवाना आदि अनेक
स्थानों से होकर जयपुर राज्य के शेखावाटी प्रान्त के शहर फतेहपुर नामक नगर में कार्तिक सुदी 14 संवत् 1682 में आये । सेवकों और भक्तों ने उनके लिए यहाँ मठ बना
दिया तथा कुआ निर्माण भी करवा दिया। फतेहपुर में 12 वर्ष तक बड़े त्याग और वैराग्य के साथ सन्तों से मिलकर योगाभ्यास,कथा ,कीर्तन,ध्यान आदि करते रहे ।
उनके योग बल,बुद्धि, कविता और सिद्धि से लोग जुड़ते जा रहे थे।

फतेहपुर के नवाब से उनका सम्पर्क भी एक चमत्कारिक घटना के कारण हुआ था। एक बार नवाब अलफखाँ फतेहपुर के बीहड़ वन में आखेट खेलते समय भीषण गर्मी में वन में रास्ता भटक जाने तथा पानी न मिलने से परेशान थे। मार्ग में सुन्दरदासजी हाथ में तूंबी (जलपात्र) लिये जाते दिखाई पड़े। एक सैनिक के जल पिलाने के अनुरोध पर सन्त जी ने तंबी में छाछ बतलायी और एक सैनिक को भरपेट पिलाने के बाद अन्य सैनिक तो क्या पूरी सेना की टुकड़ी को छाछ से तृप्त कर दिया। समाचार सुन नवाब स्वयं उनके आश्रम में गये संत जी ने कहा यह सम्पूर्ण जगत प्रभु का चमत्कार है। नवाब के बार-बार अनुरोध करने पर सन्तजी ने नवाब से कहा आप जिस आसन पर वे बैठे है उसके चारों कोने उठाकर देखे । पहले कोने के नीचे फतेहपुर नगर, दूसरे कोने के नीचे फतेहपुर का बड़ा तालाब, तीसरे कोने के नीचे सम्पूर्ण सेना तथा चौथे कोने के नीचे बीहड़ वन दिखाई दिया। नवाब भयभीत होकर
उस समय तो चला गया परन्तु कुछ दिनों बाद आश्रम पहुँच कर हाथ जोड़कर सन्त जी से कहने लगा कि उसे भी खुदा के दीदार कराने की इनायत बख्शे। उस पर सुन्दरदासजी उन्हें एक पात्र में गंदे पानी में मुँह देखने को कहा, इसके बाद हिलते हुए पानी में तथा अन्त में स्थिर पानी में। स्थिर पानी में नवाब का चेहरा साफ दिखने पर सन्तजी ने कहा मनुष्यका अन्तरकरण जब गंदे जल की तरह होता है तब उसे प्रभु के दर्शन नहीं होते हैं। पर स्थिर जल की भांति जब अन्तःकरण साफ व स्थिर होता है, तभी वह प्रभु के दर्शन करने में सक्षम होता है।
अलफ खाँ का पुत्र दौलत खाँ भी सन्तजी का परम भक्त था। एक बार वह सन्तजी के पास बैठा था। संत जी ने नवाब से अपनी अश्वशाला से 200 से अधिक सभी घोड़े व मनुष्यों को तुरन्त निकालने का आदेश दिया। अश्वशाला से खाली होते ही वह धराशाही हो गयी तथा सभी घोड़े व मनुष्य दुर्घटना से बच गये।

फतेहपुर की चमत्कारिक घटना का विवरण और मिलता है। रायचन्द पोद्दार बंसल गोत्रीय अग्रवाल बीस वर्ष की अल्पायु में लकवे का शिकार हो गया था। उसकी पत्नी बहुत सुन्दर थी। नवाब दौलत खाँ
एक दिन उसे कुएं पर देखकर मुग्ध हो गया। उसकी एक सहेली को प्रलोभन देकर उसको अपनी पत्नी बनाने के लिए राजी करने को कहा। उसकी सास व पति ने जब दुखी होकर सन्तजी को वृतान्त सुनाया
तथा रक्षा करने की प्रार्थना की तो सन्त जी ने नवाब को शिक्षा व उपदेश देकर इस घृणित कार्य से उसका मन हटा दिया। रायचन्दने अपना सिर सन्तजी के चरणों में रख दिया। सन्तजी ने हाथ पकड़कर
उसे उठाया तो उसका लकवा सदा के लिए दूर हो गया । सन्त जी के आर्शीवाद उसके तेरह पुत्र उत्पन्न हुए।
चूरू आश्रम में बिराजते समय एक बार कुछ चोर घुस गये और उनका पलंग, जाजम तथा अन्य सामान चोरी करके ले गये। लोगों ने पीछा किया तो पता लगा कि चोर स्वतः अन्धे हो गये और पकड़े गये। बाद में सन्तजी ने भविष्य में चोरी न करने का वचन लेकर उनको छोड दिया तथा उनको वापस दिखने भी लग गया।
संवत् 1710 में वे बनारस गये उस समय सन्तजी 57 वर्ष के पूर्ण अनुभवी और ज्ञानी सन्त थे। काशी में पण्डितों व विद्या गुरुओं के सत्संग से उन्होंने ज्ञान समुद्र अनुपम ग्रंथ की रचना की। जिसकी
श्रेणी का शायद ही कोई ग्रंथ हो। यह वेदान्त परक सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। वेदांत विद्या,भक्ति मय ज्ञान,सुमधुर सरल उच्च काव्य रचना,अद्वेत ब्रम्ह विद्या के प्रचार करने और पहुचवाँ न होने के कारण दादूपंथियो ने उन्हें द्वितीय शंकराचार्य कहा ।

संत सुन्दरदास जी की सभी रचनाएं भगवत्संबंधी, शान्तरस, भक्तिज्ञान, शिक्षा नीति और उपदेश से भरी है। ब्रजभाषा की मिती पर राजस्थानी और खड़ी बोली मिश्रित सुनिष्ठ मनोरंजक भाषा का विकास है। सन्त सुन्दरदास का ब्रजभाषा के साथ राजस्थानी और खड़ी बोली मिश्रित भाषा का विकास , फारसी शब्द मिश्रित पंजाबी पूर्वी तथा गुजराती भाषाओं में भी कविताएं लेखन प्रमुख है। सर्वांग योग प्रदीपिका में भक्तियोग एवं सांख्य योग का वर्णन किया है जिसमें योग साधना से उनका तात्पर्य पूरे मानव जीवन के निर्माण से है।

संतजी का लक्ष्य था पथ भ्रष्ट जनता को सदमार्ग पर लाना. अन्धकार की ओर अग्रसर मानव को प्रकाश प्रदर्शन करना, विश्व कल्याण हेतु विश्व बन्धुत्व की भावना का प्रसार करना तथा क्षमा, दया तथा त्याग आदि मानवोचित गुणों का जनता में व्यवहार बढ़ाना।
हिन्दू, मुस्लिम, कुलीन अन्त्यज, ऊंच-नीच आदि सभी उनके उपदेशों व जीवन दर्शन से प्रभावित एवम लाभान्वित हुए है।
रज्जब आदि से सत्संग करते हुए उनके परलोक वास के दुखद व असह्य समाचारों के चित्त प्रहार व रोग ग्रस्त होने के कारण सुन्दरदासजी का परमपद गमन उनके अपने स्थान सांगानेर में मिति कार्तिक शुक्ला अष्टमी (गोपाष्टमी) बहस्पतिवार के तीसरे प्रहर विक्रम संवत् 1746 में हुआ था। उस समय उनकी आय 93 वर्ष की थी।

सन्त सुन्दरदासजी की जन्म स्थली दौसा, तपस्थली टहलड़ी (दौसा) कर्मस्थली फतेहपुर तथा निर्वाण स्थलीसांगानेर थी। परमपद गमन के समय उन्हीं के शब्दों में -
सात बरस सौ में घटे उतने दिन की देह । सुन्दर न्योरा आत्मा देह षेह की षेह ।।
-
सुन्दर संसै को नहीं, बड़ो महोत्सव येह । आतम परमातम मिल्यो रहौ कि बिनसौ देह ।।
सांगानेर में उनका चबूतरा छतरी तथा चरण पादुका है और उस पर निम्न लेख लिखा हुआ है-
संवत् सतरह सौ छियाला, कार्तिक सुदी अष्टमी उजियाला ।
जालीला
तीजे प्रहर बृहस्पतिवार, सुन्दर मिलिया सुन्दरसार ।।

सन्त सुन्दरदासजी ने अन्तिम समय पर ये साखियाँ उच्चारण की-
मान लिये अन्तकरण जे इन्द्रिन के भोग ।
सुन्दर न्यारौ आत्मा लग्यो देह को रोग ।
वैद्य हमारे रामजी औषधहु हरिराम ।
सुन्दर यहै उपाय अब सुमरण आठो जाम ।
आत्मा परमात्मा मिल्यौ, किवनसौ देह ।
सुन्दर आत्मा अमर है देह षेह की षेह ।

सन्त सुन्दरदासजी का व्यक्तित्व तीन दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है-
(1) आध्यात्मिक साधक (2) धर्म एवं समाज सुधारक (3) कवि

संत जी ने 48 ग्रथो की रचना की
1. ज्ञान समुद्र
2. सर्वागयोग प्रदीपिका
3. पंचेन्द्रियचरित्र
4. सुख समाधि
5. स्वप्न प्रबोध
6. वेदविचार
7. उक्तअनूप
8. अद्भुत उपदेश
9. पंच प्रभाव
10. गुरु सम्प्रदाय
11. गुन उत्पत्ति निसांनी
12. सदा महिमा निसांनी
13. बावनी
14. तर्कचितावनी
15. भ्रमविध्वंस अष्टक
16. गुरुकृपा अष्टक
17. गुरु उपदेश ज्ञानाष्टक
18. गुरुदेव महिमा
स्तोत्राष्टक
19. रामाष्टक
20.
नामाष्टक
21. आत्मा अचलाष्टक
22. पंजाबी भाषा अष्टक
23. ब्रह्मस्त्रोत अष्टक
24. पीर मुराद अष्टक
25. अजब ख्याल अष्टक
26. ज्ञानझूलना अष्टक
27. सहजानंद
28. गृहवैराग्य बोध
29. हरिबोल चितावनी
30. ज्ञानविचार (छप्पय एकादशी)
31. विवेक चितावनी
32. पवंगम छंद
33. अडिल्ला छंद
34. मडिना छंद
35. बारहमासी
36. आयुर्बलभेद-आत्मविचार
37. त्रिविध अन्तरूकरण भेद ।
38. पूर्वी भाषा बरबै
39. सवैया ग्रंथ -सुन्दर विलास
40. साखी ग्रंथ
41. पदावली ग्रंथ
42. गूढार्थक रचनाएं
43. चित्रकाव्य
44. कविता लक्षण
45. गुरु दया षटपदी
दशी) 46. देशाटन सवैया
47. बाईजी की भेंट के छंद सवैया
48. संस्कृत श्लोक

विभिन्न विद्वानों के मत
(1) डॉ शंकरदयाल शर्मा 6/2/93 सुंदरग्रंथावली का विमोचन करते हुए कहा उस समय राजनीतिक उथल पुथल के वातावरण में संत सुंदरदास ने पूरे देश को निराशा के गर्त से उबारकर ऊंच नीच भेदभाव की भावना से मुक्त कर देश को एकजुट रखने का कार्य किया ।
(2)रविंद्रनाथ टैगोर - (सुंदर ग्रथावली 1936 )संत सुंदरदास केवल कवि ही नही एक अनुसंधानकर्ता भी थे साधक कवियों में एकमात्र शास्त्रज्ञ पंडित थे।

(3) आचार्य रामचंद्र शुक्ल- (हिंदी साहित्य का इतिहास बुक में पृष्ठ 87 से 90 तक ) इनका सम्पूर्ण सार लिखा की ये खंडेलवाल बनिए थे ये पूर्ण ब्रह्मचारी थे निर्गुण पंथियो में ये ही ऐसे व्यक्ति है जिन्हे समुचित शिक्षा मिली, काव्य रीति के जानकार थे इनकी रचना साहित्यिक,सरस है भाषा ब्रजभाषा है ।ये संत और कवि दोनो थे।
(4) डा त्रिलोकी नारायण दीक्षित एम ए एल बी पी एच डी - (संवत 1890) वे एक आध्यात्मिक साधक, धर्म एवम समाज सुधारक और कवि तीनो थे ।परब्रह्म के प्रति बाल्यकाल से ही उनका अनुराग विश्व कल्याण का साधन बना ।
हिंदू ,मुसलमान ,कुलीन, ऊंच ,नीच समाज आदि सभी उनके दर्शन एवम् आदर्श से प्रभावित लाभान्वित हुए ।वे सामाजिक एकता की मिसाल थे ।

(5) डॉ विजेंद्र स्नातक- नवभारत टाइम्स 7/2/93 सुर और तुलसी जैसे महत्वपूर्ण है संत सुंदरदास।
संत परंपरा के कवियों में इनका विशिष्ट स्थान है ।खंडेलवाल वैश्य होने पर भी काशी के पंडितो में प्रिय हो गए।
(6)श्री वियोगी हारिजी- संत सधा सार 1953 अनुसार पृष्ठ 568 से 663 तक - वे एक पहुंचे हुए बीतराग संत थे अति दयालु, भगवत प्रेम में निरंतर विभोर,ऊंचे ज्ञानी और हरिभक्त थे।भाषा,भाव, छंद, अलंकार,ध्वनि आदि काव्यांगों की दृष्टि से विशेष स्थान रखते थे।गोसाई तुलसीदास की तरह इन्होंने भी नाना पुराण, निगमागम तथा अनेक संस्कृत एवम् भाषा ग्रंथो का अध्ययन किया तथा अनेक देशों का पर्यटन भी।
(7) आचार्य नलिनी विलोचन शर्मा एवम् प्रो रामदीन मिश्र की पुस्तक संत परंपरा और साहित्य में पेज 212 से 222 में लिखा है उनका उद्देश्य आत्म ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति था ।
ऐसे ही बाबू श्याम सुंदरदास , डॉ रमेश चंद्र मिश्र,डॉ त्रिलोचन शास्त्री, डॉ रमेशचंद्र मिश्र पीतांबर दत्त बड़वाल ,हजारी प्रसाद दिवेदी आदि अनेक लेखकों विद्वानों समीक्षकों ने संत के बारे में लिखा है ।

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