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Friday, March 7, 2025

गहोई बनिया (Baniya Gahoi) का इतिहास

गहोई बनिया (Baniya Gahoi) का इतिहास

वैश्य/बनिया समुदाय अनेक उप समूहों में विभाजित है जैसे कि बर्णवाल, साहू, केशरी, जायसवाल, अग्रवाल, बनिया, गुप्ता, खण्डेवाल, माहेश्वरी, पौद्दार, शाह, मारवाड़ी, ओसवाल, आदि. बनिया समाज की एक ऐसी प्रसिद्ध उपजाति है, जिसकी उत्पत्ति बुंदेलखंड के ऐतिहासिक भूमि से हुई है. यह व्यापार के क्षेत्र में अपने व्यापारिक कौशल और बेहतर व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के लिए प्रसिद्ध है. यह बनियों के बीच उच्च सामाजिक स्थिति पर कब्जा रखते हैं और अग्रवालों के समान सम्मानित माने जाते हैं. मैथिलीशरण गुप्त का जन्म इस जाति में हुआ था जिन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रकवि की संज्ञा दी थी. आइए जानते हैं गहोई बनिया का इतिहास

गहोई बनिया का इतिहास

जब कोई समुदाय आगे बढ़ता है तो समय के साथ उसमें कई परिवर्तन आते हैं. कई प्रकार के प्रभावों से गुजरने के बाद उस समूह के भीतर नई परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं का आगमन हो जाता है. फलस्वरूप, कालांतर में वह समूह वृहद समुदाय के अंदर हीं अपनी एक विशिष्ट स्वतंत्र पहचान निर्मित कर लेता है. ठीक इसी तरह से जब वैश्य समुदाय आगे बढा तो उसके भीतर कई उप समूह विकसित हो गए हैं और उसी में से एक है- गहोई बनिया समाज. गहोई (Gahoi) या गहोई बनिया मुख्य रूप से मध्य भारत में पाया जाने वाला एक व्यापारी वैश्य-बनिया (Vaishya-Baniya) समुदाय है. मूलत: इनका संबंध मध्य भारत में स्थित बुंदेलखंड से है, जो ऐतिहासिक गौरव, स्वाभिमान, वीरता, त्याग और बलिदान की धरती मानी जाती है. बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल हैं और यह अपने सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है.
गहोई वैश्य जाति की उत्पत्ति

इस समुदाय की उत्पत्ति और विकास के के विषय में रॉबर्ट वेन रसेल‌ (Robert Vane Russell) और विलियम क्रुक (William Crooke) ने विस्तार से बताया है. लेकिन सबसे पहले जानते हैं कि इस समुदाय के लोग अपनी उत्पत्ति, इतिहास और विकास के बारे में क्या कहते हैं.
क्या कहते हैं गहोई समाज के लोग

•मानव संस्कृति के जन्म और विकास की श्रृंखला करोड़ो साल प्राचीन है. यह सारा संसार पांच तत्वों से निर्मित है और इन पांच तत्वों के तीन गुण हैं- सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण. इन्हीं 3 गुणों के बल पर सारा संसार चलता है. सृष्टि के प्रारंभ में इन्हीं तीनों गुणों के आधार पर मनुष्य को चार वर्णों में बाटा गया था.
सतोगुण प्रधान व्यक्ति “ब्राह्मण”,‌ रजोगुण व्यक्ति “क्षत्रिय”, रजोगुण और तमोगुण प्रधान व्यक्ति “वैश्य” और तमोगुण प्रधान व्यक्ति “शूद्र” कहलाए. ब्राह्मणों को “शर्मा”, क्षत्रियों को “वर्मा”, वैश्यों को “गुप्ता” और शूद्रों को “दास” की उपाधि दी गई. वर्ण के अनुसार हीं सबके स्वाभाविक कर्म भी निश्चित किये गये.

•समय का चक्र जैसे-जैसे आगे बढ़ा, मानवों की संख्या भी बढ़ती गई. स्थानीय समुदाय अपनी विशेष पहचान, परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं के साथ जीने के अभ्यस्त हो गए.

•वैश्य वर्ण की एक शाखा “गहोई वैश्य” मुख्यतः बुंदेलखण्ड क्षेत्र में थी. इस समुदाय के अधिकांश लोग ग्रामों में रहकर कृषि, व्यवसाय और गोपालन करके जीवन निर्वाह करते थे. यह मुख्य रूप से वर्तमान झांसी, दतिया, उरई, कालपी, और जालौन के समीपवर्ती क्षेत्रो में निवास करते थे.

•इनमें से अधिकांश वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षित होकर कंठी, घुटनो तक धोती, सलूका, कुर्ता और पगड़ी धारण करते थे.

•इनकी स्थानीय पंचायतें होती थीं जिसके माध्यम से झगड़े और वाद-विवाद का निपटारा किया जाता था.

•विभिन्न प्रकार के संस्कारों, धार्मिक अनुष्ठानों और विवाह आदि के लिए गहोईयों के विशेष पुरोहित होते थे.

•समय के साथ गहोई वैश्य जाति बुंदेलखण्ड तक ही सीमित ना रहकर पूरे भारत में दूर-दूर तक फैल गई.
इस समुदाय में कई प्रथाएं और परंपराएं थीं जो कालांतर में लुप्त हो गईं. परंपरागत पुरोहित भी नहीं रहे. आधुनिकीकरण, वैज्ञानिक विकास तथा अन्य जातियों के संपर्क में आने के कारण इनकी परंपराएं बदलती गईं. समय और घटनाओं के लंबे प्रवाह के कारण वैश्य वर्ण कई उपसमूहों में विभाजित होता चला गया. इनमें अग्रवाल, महेश्वरी और जैन आदि कुछ उपजातियां अग्रणी रहीं.
गहोई समाज के उत्पति विलियम क्रुक के अनुसार

ब्रिटिश प्राच्यविद् विलियम क्रुक ने अपनी किताब
“The Tribes and Castes of the North-western Provinces and Oudh
Volume 2” में गहोई बनिया समुदाय के बारे में निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया है-

•गहोई- बनियों की एक उपजाति, जो मुख्य रूप से बुंदेलखंड और मुरादाबाद में पाई जाती है.

•मिर्जापुर के गहोई का कहना है कि पिंडारियों द्वारा बार-बार धावा बोलने के दबाव के कारण वह इस सदी के प्रारंभ में बुंदेलखंड से यहां आकर बस गए.

•एक बिया पांडे ब्राह्मण ने उनके दुर्भाग्य में उनके परिवारों की रक्षा की, और उन्हें 12 गोत्रों और 72 अलों में विभाजित किया कहा जाता है कि वह ब्राह्मण एक स्कूल मास्टर और उनके पुजारी थे.

•मिर्जापुर में उनके द्वारा दिए गए 12 गोत्र हैं- तुलसी, गोल या गोयल, गंगल, बंदाल, जैताल, कौंथिल, कछिल, बछल, कसाब या कश्यप, भारल और पाटिया. पाटिया दूसरों के लिए भट और वंशावली बनाने वाले के रूप में कार्य करते हैं. इन्हें विवाह और अन्य आयोजनों पर भोज और उपहार दिया जाता है. यह अपने घटकों के साथ समान रूप से खाते-पीते हैं.

•इनमें बहिर्विवाह (exogamy) का नियम है कि यह अपने स्वयं के गोत्रों या मामा, पिता के मामा और माता के मामा के अल के भीतर विवाह नहीं करते हैं. विधवा-विवाह वर्जित है.

•गोहोई वैष्णव हैं. मांस मदिरा से परहेज करते हैं. इनके परंपरागत पुजारी बुंदेलखंड के भार्गव हैं.

•इनके मुख्य देवता श्रीकृष्ण हैं, जिन्हें वे बिहारी लाल के नाम से पूजते हैं.

•इन्हें बनियों में उच्च स्थान प्राप्त है और उच्च श्रेणी का माना जाता है. समाज में यह अग्रवालों की तरह सम्मानित हैं.

•जहां तक इनके व्यवसाय का बात है यह देशी उत्पादों के व्यापारी, कमीशन एजेंट, मुद्रा परिवर्तक और बैंकर के रूप में काम करते हैं.
गहोई समाज के उत्पति रॉबर्ट वेन रसेल के अनुसार

ब्रिटिश सिविल सेवक और लेखक रॉबर्ट वेन रसेल ने अपनी किताब “The Tribes and Castes of the Central Provinces of India” में इस समुदाय के बारे में निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया है-

•गहोई एक हिंदू जाति है जो सागर, जबलपुर और नरसिंहपुर जिलों की रियासत से संबंधित है. इनका मूल निवास बुंदेलखंड और इससे सटे जिले हैं. इनका मूल मुख्यालय बुंदेलखंड के खड़गपुर में था, जहां से वे आसपास के देश में फैल गए.

•अपनी उत्पत्ति के बारे में इस समुदाय के लोग एक अनोखी और दिलचस्प कहानी कहते हैं, जो इस प्रकार है- “एक बिया पांडे ब्राह्मण स्कूल मास्टर थे. वह भविष्यवाणी कर सकते थे. एक दिन वह अपने विद्यार्थियों के साथ अपने स्कूल में थे जब उन्होंने देखा कि भूकंप आने वाला है. उन्होंने अपने विद्यार्थियों से फौरन इमारत से बाहर निकलने को कहा, और खुद रास्ते का नेतृत्व किया. अभी उनके पीछे केवल 12 लड़के हीं निकल पाए थे कि भूकंप शुरू हो गया. स्कूल में हलचल मच गई और सभी मलबे में दब गए. स्कूल मास्टर ने बचे हुए लड़कों को लेकर एक जाति का गठन किया और “गहोई” नाम दिया, जिसका अर्थ होता है-” बचा हुआ या अवशेष”. उन्होंने यह निश्चित किया कि वह और उनके वंशज नई जाति के याचक/पुजारी (priests) होंगे. गहोई की शादी में घर की दीवार पर स्कूल मास्टर की एक छवि चित्रित की जाती है, और दूल्हा-दुल्हन मक्खन और फूलों के प्रसाद के साथ इसकी पूजा करता है. कहानी स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि गहोई कई जातियों के मिश्रित वंश के हैं”.

•बनियों के इस उपजाति में 12 गोत्र या खंड होते हैं, और 72 अल या अंकेन, जो गोत्रों के उपखंड हैं. इन में पाए जाने वाले प्रमुख अलो के नाम इस प्रकार हैं- मोर, सोहनिया, नागरिया, पहाड़िया, माटेले, पिपरवानिया, आदि

•बहिर्विवाह के नियम के अनुसार, एक व्यक्ति को अपने गोत्र में तथा अपनी मां और दादी के अल में शादी नहीं करनी चाहिए.

•गहोई अपने पुजारियों के रूप में भार्गव ब्राह्मणों को नियुक्त करते हैं, और ये संभवतः उस स्कूल मास्टर के वंशज हैं जिन्होंने जाति की स्थापना की थी.

•दीवाली के त्योहार पर गहोई अपने व्यापार के औजारों, कलम और स्याही, और अपनी लेखा-पुस्तकों (account-books) की पूजा करते हैं.

•गहोई वैष्णव हिंदू हैं, और मांस और शराब से दूर रहते हैं.

•जीवन यापन के लिए यह अनाज और किराना का व्यापार करते हैं, और बैंकर तथा साहूकार के रूप में काम करते हैं. इन्हें व्यापार में बहुत कुशल माना जाता है.
गहोई दिवस

चुंकि गहोई वैश्य जाति में आदित्य सूर्य को कहते हैं अतः खुर्देव बाबा को सूर्यावतार मानकर और उनके द्वारा गहोई वंश के एक बालक की रक्षा कर बीज रूप में बचा लिया जिससे गहोई वंश की वृद्धि होती गई। यह समाज खुद को सूर्यवंशी समाज से जोड़कर देखता है क्योंकि इनका सूर्य ध्वज है और खुर्देव बाबा सूर्यदेव के अवतार है। इनकी विवाह की परंपराए में महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीतों में वर के रूप में राम और वधू के रूप में सीता का नाम भी लिया जाता रहा है। इसलिए प्रतिवर्ष जनवरी संक्रांति को ‘गहोई दिवस’ घोषित कर दिया जो सूर्य उपासना का एक महान पर्व है।
ग्रहापति कोक्काल शिलालेख में मौजूद

शिवजी के वरदान से यक्षराज कुबेर को ‘गहोईयो के अधिपति’ का दर्जा प्राप्त है। इससे इस समाज का पौराणिक संबंध भी जाहिर होता है। हालांकि ग्रहापति कोक्काल शिलालेख में उल्लिखित ‘ग्रहापति’ परिवार को उसी समुदाय से माना जाता है जिसे अब गहोई के नाम से जाना जाता है। खजुराहो अवस्थित यह शिलालेख जिसपर विक्रम संवत 1056, कार्तिक मास अंकित है, ग्रहपति परिवार का सबसे प्राचीन सबूत है।
गहोई समाज के उल्लेखनीय व्यक्ति

गहोई समाज में अनेक विभूतियों ने जन्म लिया है.
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म
वैश्य गहोई परिवार में सेठ रामचरन गुप्ता और माता काशीबाई की तीसरी संतान के रूप में हुआ था. मैथिलीशरण गुप्त को महात्मा गांधी ने ‘राष्ट्रकवि’ की उपमा दी थी. 1954 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया था.हर साल गहोई वैश्य समाज के सामाजिक संगठनों द्वारा राष्टकवि मैथलीशरण गुप्त की जयंती मनाई जाती है और उनकी रचनाओं के माध्यम से उन्हें याद किया जाता है.

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