SHREE PARSHVANATH TEERTH - NAKODA JI
राजस्थान के अरावली पहाड़ियों की आडावल पर्वत श्रृंखला की गोद में रेगिस्तानी रेतीले टीबो की ओट में प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों वाला श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ बसा हुआ हैं। यह जगत विख्यात जैन तीर्थ पश्चिमी राजस्थान के सीमावर्ती रेगिस्तानी बाड़मेर जिले बालोतरा उपखण्ड में वस्त्रों पर रंगाई-छपाई के लिए विख्यात बालोतरा से दस किलोमीटर एवं ऐतिहासिक औद्योगिक बस्ती जसोल से पांच किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर पहाड़ियों की श्रृंखला की गोद में विद्यमान हैं। श्री नाकोड़ा जैन तीर्थ में पहुंचने के लिये जोधपुर-बाड़मेर के बीच चलने वाली बड़ी रेल लाईन पर आये बालोतरा जंक्शन रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। यहां से बस एवं सड़क यातायात के विभिन्न साधनों से बालोतरा से जसोल होते हुए पक्के सड़क मार्ग से भारत विख्यात जैन तीर्थ नाकोड़ा आसानी से पहुुंचा जा सकता हैं। बालोतरा-जसोल एवं आसपास के स्थानों से श्री नाकोड़ा के लिए आसानी से हर समय सड़क यातायात के साधन उपलब्ध रहते हैं। आवागमन की सुविधा के अतिरिक्त देश व प्रदेश के कई स्थानों से नाकोड़ा के लिए बस यातायात की सुविधा भी है और वैसे निजी वाहनों से नाकोड़ा जैन तीर्थ की यात्रा पर आना अधिक सुगम हो जाने से इस तीर्थ स्थल पर यात्रियों का जमघट लगा रहता हैं।
श्री नाकोड़ा जैन धर्मावलम्बियों का अति प्राचीन तीर्थ स्थल है। जनश्रुतियों, दंत कथाओं एवं लोक आख्यानों के आधार पर बताया जाता है कि मालव जैन शासक ने वीरमपुर एवं नाकोर नगर बसाया था। ये दोनों स्थान वर्तमान में बाड़मेर जिले के प्राचीन महेवा राज्य के स्थान रहे है। वीरमपुर बालोतरा के समीप वर्तमान श्री नाकोड़ा के नाम से इतिहास प्रसिद्ध स्थल रहा है। वहां नाकोर नगर सिणधरी के समीप नाकोड़ा गांव से परिचायक है।
वीरमपुर (नाकोड़ा) के तत्कालिन शासक वीरमदत्त ने ईसा की तीसरी शताब्दी के पूर्व आठवें जैन तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभजी का मंदिर बनाया था, जिसकी प्रतिष्ठा श्री स्थुलिभद्रजी द्वारा सम्पन्न करवाई गई थी। उसका जीर्णोद्धार विक्रम पूर्व 189 में सम्राट सम्प्रति ने आषाढ़ सुदि 9 को इसकी प्रतिष्ठा आर्य श्री सुहास्तिसूरिजी द्वारा सम्पन्न करवाई। इसके पश्चात इस मंदिर का वि.सं. 35 में उज्जैन शासक वीर विक्रमादित्य ने जिर्णोद्धार करवाकर आचार्य श्री सिद्धसेनजी दिवाकर के हाथों मिगसर सुदि 11, वि.सं. 62 चैत्र सुदि 15 को भक्तामर रचियता आचार्य श्री मानतुंगसूरिजी ने जिर्णोद्धार के बाद वि.सं. 415 ज्येष्ठ सुदि 10 बुधवार को आचार्य श्री देवसूरिजी ने भी जिर्णोद्धार के बाद एवं वि.सं. 813 मिगसर सुदि 13 को ग्वालियर महाराजा जयसेन ने जिर्णोद्धार करवाकर आचार्य श्री यशोदेवसूरिजी से इस मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई।
ईसा से तीसरी शताब्दी पूर्व वाले वीरमपुर के श्री चन्द्रप्रभजी के मंदिर के बाद वि.सं. 909 में इस मंदिर के जीर्णौद्धार होने के पश्चात् यहां मूलनायक के रूप में जैन धर्मावलिम्बयों के चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा रही जो वि.सं. 1223 में जीर्णोद्धार होने के बाद तक रही। महेवा पर वि.सं. 1280 में बादशाह आलमशाह ने आक्रमण कर दिया तब महेवा राज्य का उपनगर वीरमपुर बुरी तरह से प्रभाावित होकर उजड़ गया। उस समय यहां के जैन मंदिर की सभी प्रतिमाओं को नाकोर नगर (सिणधरी) के पास नाकोड़़ा गांव के कालीद्रह-नागद्रह (तालाब) में छिपा दिया।
वि.सं. 1313 में राव वीरम ने वीरमपुर को पुनः बसाया। इसके बाद नाकोर नगर (नाकोड़ा गांव) से श्यामवर्णी श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा नागद्रह तालाब से मिली, जिसे वि.सं. 1429 में वीरमपुर के प्राचीन पूर्व वाले श्री चन्द्रप्रभजी, श्री महावीर स्वामी वाले मंदिर में मूलनायक के रूप में द्वितीय वैषाख वदी 10 को आचार्य श्री जिनोदयसूरिजी ने प्रतिष्ठा की। तब से वीरमपुर का यह मंदिर नाकोड़ा पार्श्वनाथ के नाम से परिचायक बन गया। वि.सं. 1443 वैषाख षुक्ल 13 को मुगल बादशाह वाबीसी ने आक्रमण किया और महेवा का वीरमपुर (नाकोड़ा) पुनः उजड़ गया। तब भी यहां केे जैन मंदिर की मूर्तियों को सिणधरी क्षेत्र के नाकोर नगर (नाकोड़ा गांव) के कालीद्रह-नागद्रह तालाब में सुरक्षा के लिए छिपाया गया। वि.सं. 1511 में रावल वीदा ने वीरमपुर को पुनः आबाद किया। तब वि.सं. 1512 में आचार्यश्री कीर्तिरत्नसूरिजी ने स्वप्न के आधाार पर नाकोड़ा गांव के तालाब से मूर्ति प्राप्त कर यहां प्रतिष्ठित की। इसके बाद श्राविका लाछी बाई ने श्री आदिनाथ भगवान का एवं मालाशाह संखलेचा ने अपनी माता की इच्छा से श्री शांतिनाथ भगवान का मंदिर बनाकर क्रमशः आचार्य श्री हेेमविमलसूरिजी एवं आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी से प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई।
वीरमपुर का श्री पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ के नाम से अपनी धार्मिक पहचान तब से बनाए हुए आज भी जनप्रिय बना हुआ है। लेकिन सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्थ एवं अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में यहां के शासक पुत्र नगर सेठ संखलेचा नानक की लम्बे बालों वाली चोेटी काटकर अपने घोड़े पर भिनभिनाती मक्ख्यिों को उड़ाने के लिये झवरी बनाने के निर्णय से भयभीत होकर नाकोड़ा से जैसलमेर तीर्थ यात्रा का बहाना बनाकर नाकोड़ा छोड़कर हमेशा के लिये चले गये। इसके बाद उजड़ा नाकोड़ा बाद में जनबस्ती के रूप में आज दिन तक वापिस नहीं बसा।
सत्रहवीं शताब्दी में उजड़ने के बाद वि.सं. 1960 में जैन साध्वी श्री सुन्दरश्रीजी ने बड़ी लगन, निष्ठा, परिश्रम एवं प्रयास के बाद इसका जिर्णोद्धार करवाकर इसकी वि.सं. 1991 माघ शुक्ला 13 को श्री हिम्मतविजयजी (आचार्य श्री मद् विजयहिमाचलसूरीश्वरजी) द्वारा प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई गई। इस प्रतिष्ठा के बाद नाकोड़ा तीर्थ उत्तरोत्तर प्रगति एवं विकास के पथ पर निरन्तर अग्रसर हो रहा हैं। इस प्रतिष्ठा के बाद वि.सं. 2000 में बाड़मेर के यति श्री नेमिचन्द्रजी ने दादा श्री जिनदत्तसूरि दादाबाड़ी, प्रन्यास श्री कल्याणविजयजी ने वि.सं. 2005 में श्री आदिनाथ भगवान मंदिर में बने चौमुखी मंदिर की आचार्य श्री जिनरत्नसूरिजी ने वि.सं. 2008 में दादा श्री कीर्तिरत्नसूरि दादाबाड़ी की आचार्य श्रीमद्विजय हिमाचलसूरीश्वरजी ने वि.सं. 2016 में विभिन्न जैन प्रतिमाओं की, आचार्यश्रीमद्विजय हिमाचलसूरीश्वरजी ने वि.सं. 2029 में पुनः नाकोड़ा के विभिन्न जैन प्रतिमाओं की,आचार्य श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी ने वि.सं. 2046 में सिद्धचक्र मंदिर की आचार्य श्री अरिहंत सिद्ध सूरीश्वरजी ने वि.सं. 2055 में श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ, ज्ञानशाला चतुर्मुख मंदिर की श्री रत्नाकर विजयजी ने वि.सं. 2055 में श्री लक्ष्मीसूरि गुरू मंदिर की एवं वि.सं. 2062 में श्री कलाप्रभसागरसूरीश्वरजी ने ज्ञानशाला के जैन आराधना मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। तीर्थ क्षेत्र में वि.सं. 1500 से लेकर 2062 तक होने वाली विभिन्न प्रतिष्ठाओं में प्रतिष्ठित की कई प्रतिमाएं विद्यमान हैं। जिन पर इन अवधि के कई शिलालेख उत्कीर्ण किये हुए हैं।
इन प्रतिष्ठाओं के आयोजन के साथ जैन तीर्थ धार्मिक दृष्टि से दिनों दिन प्रगति की ऊचाईयों को छूने लगा है। वहां तीर्थ में बने अन्य धार्मिक स्थलों में भगवान महावीर स्मृति भवन, मंगल कलश, निर्माणाधीन समवसरण मंदिर, भक्तामर पट्टशाला आदि ने इस जैन तीर्थ की धार्मिक ख्याति को जनप्रिय बना दिया है। नाकोड़ा के अधिष्ठायक श्री भैरवदेवजी के चमत्कारों ने तो इस तीर्थ की महिमा में चार चाँद जड़ दिये है। तीर्थ अन्य कई धार्मिक स्थलों को अपनी गोद में लिये जन-जन में धार्मिक आस्था, विश्वास एवं श्रद्धा बनाए हुए है। तीर्थ जैन मंदिरों के जीर्णोद्धार, मानव सेवा, जीवदया, चिकित्सा, शिक्षा, सधर्मी सेवा, जैन साधु-साध्वी वै्यावच्य, साहित्य प्रकाशन, ज्ञानशाला संचालन, गौशाला संचालन आदि कई प्रकार की मानवोपयोगी एवं धार्मिक गतिविधियों का संचालन कर अपनी अनोखी कीर्ति बनाए हुए है। भगवान श्री पार्श्वनाथजी के जन्मोत्सव पर प्रतिवर्ष पोष वदी दशमी को आयोजित होने वाले त्रिदिवसीय मेले में हजारों श्रद्धालु लोग सम्मिलित होते हैं। यात्रियों, दर्शनार्थियों की सुविधा हेतु भोजनशाला, आधुनिक सुविधायुक्त आवासीय व्यवस्था, बिजली, पानी, टेलिफोन, सुरक्षा, यातायात सुविधा आदि का उचित प्रबंध किया हुआ है। सम्पूर्ण तीर्थ की व्यवस्था हेतु श्री जैन श्वेतांबर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ ट्रस्टमण्डल गठित है।
No comments:
Post a Comment
हमारा वैश्य समाज के पाठक और टिप्पणीकार के रुप में आपका स्वागत है! आपके सुझावों से हमें प्रोत्साहन मिलता है कृपया ध्यान रखें: अपनी राय देते समय किसी प्रकार के अभद्र शब्द, भाषा का प्रयॊग न करें।