VARSHNEYA VAISHYA CASTE - वृष्णि वंश से हुई वाष्र्णेय समाज की उत्पत्ति
बारहसैनी समाज का उद्गम महाभारत के समय या भगवान श्री कृष्ण की सदी से है। हमारे इष्ट देव श्री अक्रूर जी महाराज हैं जो वृष्णि वंश में उत्पन्न हुये। यह वृष्णि वंश यदुकुल की एक शाखा थी जिसमें भगवान श्री कृष्ण जी का भी अवतार हुआ।
श्री अक्रूर जी महाराज का जन्म श्री कृष्ण जी के पितृकुल में हुआ था अत: वे श्री कृष्ण जी के रिश्ते में चाचा लगते थे। इन सभी तथ्यों में कोई विरोधाभास नहीं मिलता है और पौराणिक सभी ग्रन्थ इन तथ्यों की पुष्टि करते है।
वृष्णि वंश के विषय में सभी पौराणिक ग्रन्थों में इस प्रकार व्याख्या दी गयी है–
वृषस्य पुत्रो मथुरासीम।तस्यापि वृष्णि प्रमुखं पुत्रं शातगसति।
यतो वृष्णि सलामेत दगोत्र भवाय।
विष्णु पुराण।
अर्थात् वृश का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र हुये जिनमें पहला वृष्णि था। इसी के नाम से ही यह कुल वृष्णिकुल हुआ।
वृष्णिकुल का सीधा सम्बन्ध क्षत्रीय समाज से है लेकिन इतिहास यह दर्शाता है कि जिन क्षत्रियों या ब्राह्मणो ने अपने कर्मों को आधार ‘‘व्यापार’’ बनाया वे ‘‘ वैश्यो’’
वंश के जिस क्षत्रिय समुदाय ने व्यापार को अपनाया उनका कुल ‘‘ बारहसैनी’’ और बाद में ‘‘वार्ष्णेय’’ शब्द से सम्बोन्धित किया गया।
वाष्र्णेय (बारह सैनी) जाति का विकास मथुरा के वृष्णि वंश से हुआ है जिनके कुल प्रवर्तक अक्रूर जी हैं, जो वैश्य वर्ण के धर्म का पालन करने से वाष्र्णेय कहलाये गये थे। जिनके वंशज आज बारह सैनी वैश्य वाष्र्णेय कहलाये जाते हैं।
वाष्र्णेय समाज के कुल प्रवर्तक अक्रूर जी का जन्म मथुरा के वंश में हुआ था। इनके पिता का नाम शवफल्क और माता का नाम गान्दिनी था। विदुरजी के चचेरे भाई थे। अक्रूर जी के पिता शवफल्क के यहां मनु दारा बताये गये वैश्य वर्ण के सभी कार्य उच्च स्तर पर होते थे। उनके क्षेत्र में सदैव खुशहाली रहती थी। भागवत में लिखा है। कि जहां शवफल्क रहते थे वहां गरीबी और भुखमरी दूर ही रहती थी। अक्रूर जी ने अपने पिता काम-काज की परम्परा को आगे बढ़ाया और वह अपने समय में बडे धनी माने जाते थे। वह सदैव वैश्य वर्ण के धर्मो का ईमानदारी से पालन करते थे। इसलिए उनका कुल वैश्य कुल माना जाता था और वृष्णि वंश में होने से वह वाष्र्णेय नाम से प्रसिद्ध हुए। कंस जैसा प्रभावशाली परन्तु क्रूर शासक भी अक्रूर जी के प्रभाव को स्वीकार करता था। श्रीकृष्ण को मथुरा बुलाने के लिए कंस ने अक्रूर जी का ही सहारा लिया था। बाद में कंस वध के पश्चात श्रीकृष्ण अक्रूरजी के घर गये थे और उन्हें गुरु और चाचा कह कर उनका मान बढ़ाया था। इतना ही नहीं उनकी कार्य क्षमता पर मुग्ध होकर द्वारिका बसाने के बाद वहां की अर्थव्यवस्था का दायित्व भी अक्रूर जी को सौंपा था। वैश्यों के सभी काम-काज करने के कारण उनका कुल वाष्र्णेय (बारह सैनी) वैश्य के नाम से जाना जाने लगा। देश भर में वाष्र्णेय (बारह सैनी) समाज के लोग अक्रूर जी को अपना कुल प्रवर्तक मानते हैं। मथुरा जनपद में वृन्दावन के समीप अक्रूर गांव भी है जहां वाष्र्णेय समाज के तीर्थ के रूप में एक मन्दिर विकसित हो रहा है।
सुरीर माना जाता है अक्रूर जी का मुख्य केंद्र
मथुरा जनपद के कस्बा सुरीर को अक्रूर जी के कार्य क्षेत्र का मुख्य केंद्र माना गया है। वाष्र्णेय समाज के लोग सुरीर को अक्रूर जी की राजधानी बताते हैं। वाष्र्णेय समाज के लाल बहादुर आर्य ने बताया कि मथुरा के कस्बा सुरीर में पहले अक्रूर जी की राजधानी थी। यहां से ही वह अपने काम काज का संचालन करते थे। जिनके प्रमाण आज भी अभिलेखों में देखने को मिलते हैं। अक्रूरजी के सुरीर में जुड़े प्रमाणों को देखकर ही वाष्र्णेय समाज ने यहां उनकी यादगार को संजोये रखने के उद्देश्य से एक मन्दिर का निर्माण कराया है। जो वाष्र्णेय समाज को अपने कुल प्रवर्तक की याद दिलाता रहेगा।
देश में बसते हैं 50 लाख वाष्र्णेय
बाजना के मुकेश वाष्र्णेय ने बताया कि वाष्र्णेय समाज की उत्पत्ति भले ही जनपद मथुरा के सुरीर से हुई है लेकिन आज देशभर में वाष्र्णेय समाज की आबादी करीब 50 लाख है।
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