#GUPT OR GUPTA A VAISHYA SURNAME - गुप्त या गुप्ता एक वैश्य उपनाम
वैश्यों में "गुप्ता" जाति के रूप में लिखा जाना
गुप्त या गुप्ता पारस्कर संहिता के अनुसार "गुप्त' उपाधि का प्रयोग वैश्य समुदाय के लोगों के लिये होता है। "गुप्तेति वैश्यस्यं" संभवतः अपने व्यापारिक रहस्यों को गूढ़ (गोपनीय) बनाये रखने के कारण ही उनके लिये इस संबोधन का प्रचलन हुआ। अंग्रेजी के प्रभाव के कारण यहां गुप्त शब्द अपभ्रंश होकर गुप्ता हो गया। इसलिये अग्रवाल समाज में भी इस शब्द का व्यापकता से प्रयोग किया जाता है। इसके साथ ही विष्णु पुराण में भी एक श्लोक आया है जिसके अनुसार भी वैश्यों को गुप्त कहा जाता है -
शर्मा देवस्य विप्रस्य वर्मा गाता च भू भर्वः। भूर्वि गुप्तस्य वैश्यस्य दास शुद्रस्य कारयेतः ।।
लेकिन गुप्ता शब्द का प्रयोग संपूर्ण वैश्य समाज के लिये होने के कारण उससे केवल अग्रवाल होने का बोध नहीं होता। इसे अग्रवाल समाज के अलावा अनेक वैश्य समुदाय के लोग प्रयोग में लाते हैं जैसे खंडेलवाल, केसरवानी, रोनियार, माथुरिये, गहोई, वाष्र्णेय, तेली आदि। प. बंगाल में सेनगुप्ता, दास गुप्ता, वैद आदि। महाराष्ट्र में इसे गुप्ते के नाम से लिखा जाता है। दक्षिण के कोमती शेट्टी समुदाय के लोग भी अपने को गुप्ता शब्द से संबोधित करते हैं। इस शब्द का शुद्ध रूप "गुप्त" है न कि गुप्ता। पुराने समय में वर्ण व्यवस्था के आधार पर तथा कर्म के आधार पर अपने नाम के साथ जाति लिखी जाती थी। (जो पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी विद्यमान है) जिससे यह बोध होता था कि वह परिवार क्या करता है। जैसे:-
क्षत्रिय अर्थात् देश, राज्य या साम्राज्य की सुरक्षा का दायित्व निभाने वाला। इस प्रकार राज्य की सुरक्षा करने वाला या सेना में रहने वाला क्षत्रिय होता था तथा इसको सिंह लगाने का अधिकार होता था। ये सिंह नाम से जाने जाते थे। हम देखते हैं कि अनेक जातियाँ तथा वैश्य समाज के लोग भी सिंह लगाते हैं। इनके पूर्वज भी सिंह लगाते थे। वैसे क्षत्रियों के बारे में यह भी कहा जाता है कि क्षत्रिय एक वर्ण है, यानि युद्धप्रिय जातियों का समूह, जिसमें राजपूत, मराठा आदि जातियां आती हैं।
2. बाहम्मण - ब्राहम्णत्व कर्म करने वाला अथवा शिक्षा या उपदेश देने वाला ब्राहम्मण कहलाता था तथा ब्राहम्मणों को शर्मा लिखने का अधिकार था। आज सैंकड़ो तरह के ब्राहम्मण शर्मा लिखते हैं।
ठीक इसी प्रकार -
वैश्य का कर्म करने वाला अर्थात् व्यापार करने वाले वैश्य कहलाते थे तथा सभी वैश्य 3 कर्म करने वाले अपने नाम के साथ "गुप्त" का प्रयोग करते थे। यह गुप्त आज गुप्ता हो गया। (गुप्त अर्थात् व्यापार संबंधी बातों को गुप्त (मन में) रखने वाला व्यापारी) शब्दकोश में गुप्त का अर्थ गहन, गहरा, गूढ, रक्षित, प्रकांड व कठिनता से जानने योग्य माना गया है। अंग्रेजी में व्यंजन (Consonant) के साथ स्वर (Vowel) शामिल नहीं होता लेकिन हिंदी में व्यंजन के साथ मिला होता है। इसलिए अंग्रेजी में संज्ञा (नाम) के साथ व्यंजन में स्वर लगाना पड़ता है। इसलिए GUPT में A जुड़ा तथा GUPTA हो गया। जैसे RAMA, KRISHNA, BUDDHA आदि। गुप्त लगाने की परंपरा वैश्यों में ही है और धर्मग्रंथों में भी इसका विधान है।
ऐलन, अयंगर, अल्टेकर जैसे प्रसिद्ध इतिहासकारों ने गुप्त शासकों को वैश्य माना है। उन्होंने अपने मत की पुष्टि में धर्मशास्त्र विष्णु पुराण का वह श्लोक उद्धृत किया है, जहां पर यह लिखा है कि "वैश्य अपने को गुप्त लिखें।" चद्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुव स्वामिनी "धारण" गोत्रीय थीं जो अग्रवालों का एक गोत्र है।
4. बाकी सब जातियां अपने कर्म अर्थात् काम के आधार के हिसाब से पहचानी जाती थीं। जैसे - नाई, धोबी, कुम्हार, सुनार, बढ़ई, लुहार, मोची, रंगरेज, आदि। (वर्ण व्यवस्था के अनुसार)।
इस प्रकार कोई भी व्यापार का कर्म करने वाला व्यक्ति अपने नाम के साथ गुप्त लगा सकता है। भारत में लगभग 100 से भी अधिक वैश्य जातियां गुप्ता का प्रयोग करती हैं। ये वैश्य जातियां देश के हर भाग में रहती हैं। जैसे अग्रवाल, खंडेलवाल, वाष्र्णेय (बारहसेनी), केसरवानी, मथुरिये, विजयवर्गीय, गहोई, महावर, बरनवाल, हेहई, रोनियार, भुजिया, तेली, पोरवाल आदि। अब तो यह भी देखने भी आया है कि कुछ अन्य जातियों में भी गुप्ता का लिखा जाना प्रचलन में है। जानकारी के अभाव में हम कई बार गुप्ता लिखने वाले को अग्रवाल मान लेते हैं और उनके द्वारा किए गए कार्यों से गौरवान्वित होते हैं। जैसे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त तथा सियारामशरण गुप्त-गहोई वैश्य थे। श्री श्याम लाल गुप्त पार्षद जिन्होंने विश्व विजयी तिरंगा प्यारा लिखा था दोसर वैश्य थे तथा दोसर वैश्य सभा कानपुर के संस्थापक भी थे। प्रसिद्ध कवि व साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद गुप्त कान्यकुब्ज हलवाई वैश्य थे इन्होंन 1900 में हलवाई युवक दल संगठित किया था। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री श्री चंद्रभानु गुप्त - माहौर वैश्य थे आपका जन्म अलीगढ़ में हुआ था। अनेक गुप्ता लिखने वाली महान् विभूतियों को पद्म विभूषण, पद्म भूषण सहित अनेक सम्मान मिले हैं तथा समय-समय पर डाक टिकट भी छपे हैं।
गुप्त अथवा वैश्य
वामन पुराण में कहा गया है कि वैश्य गण यज्ञाध्ययन से संपन्न दाता, कृक्षिकर्ता तथा वाणिज्य जीवी हों तथा पशुपालन का कर्म करें। अर्थात् उस काल में वर्ण व्यवस्था में परिवर्तन आया। उसका मुख्य कारण विज्ञान में होने वाले नये आविष्कार होना था, इसके आधार पर जो व्यक्ति जिस कार्य में निपुणता और कुशलता ग्रहण कर लेता वे उसी व्यसाय से जाने गये। इस प्रकाण वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर स्थाई हो गई। इनमें कुंभकार, लुहार चर्मकार, सुनार आदि अनेक जातियों का प्रादुर्भाव हुआ। परंतु उस काल में अपनी पहचान बनाने के लिए किसी विशेष विशेषण को नाम के साथ जोड़ने का प्रचलन जानने में नहीं आया।
ईस्वी सन् से लगभग 350 वर्ष पूर्व तक इतिहास में वैश्य समाज के देश से बाहर जाकर व्यापार करने वालों के नाम तो उपलब्ध हैं परंतु तब उन व्यक्तियों ने जिसको अग्रोहा छोड़ना पड़ा उन्होंने गोत्र अथवा अग्रवाल शब्द का प्रयोग किया हो, ऐसी जानकारी नहीं है। ईस्वी सन् के आरंभ के 300 वर्षों में कुछ शासक हुए हैं जिन्होंने गुप्त अथवा 'गुप्ता' शब्दों का नाम के साथ प्रयोग किया। आधुनिक काल में गुप्त अथवा गुप्ता शब्दों का नाम के साथ प्रयोग उसको वैश्य जाति का होना माना जाता है। चंद्रगुप्त को मौर्य साम्राज्य का संस्थापक माना गया है। डा. नरेन्द्र नाथ वसु ने अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहा कि 'गुप्तेति वैस्यस्ये'। उन्होंने गिरनार पर्वत से मिले एक शिलालेख का प्रमाण देते हुए बताया कि चंद्रगुप्त मौर्य का विवाह एक वैश्य कन्या से हुआ था और उसके साले का नाम पुष्पगुप्त था जो वैश्यवंशी था। गुप्त काल लंबे समय तक रहा। उस काल में पहचान बनाने के लिये किसी शब्द को प्रयुक्त नहीं किय गया परंतु अन्य वर्ग के लोग इसके लोगों को वणिक, बनिया, गुप्त या गुप्ता, महाजन, शाह, सेठ और श्रेष्ठ शब्दों से बुलाते थे। आधुनिक काल में इस वर्ण के व्यक्ति उपरोक्त शब्दों के प्रयोग के अतिरिक्त अग्रवाल और उपने गोत्रों का उपयोग करते हैं।
लेख साभार: श्री अशोक गुप्ता जी, जोधपुर
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