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Friday, May 3, 2024

DOSAR DHUSAR VAISHYA - HISTORY & ORIGIN

#DOSAR DHUSAR VAISHYA - HISTORY & ORIGIN


दोसर वैश्य ( बनिया ) समाज का इतिहास……

आज दोसर वैश्य समाज के हर व्यक्ति के मन में एक प्रश्न उठता है कि दोसर वैश्य समाज में जन्म लिया है तो इसकी उत्पत्ति कहाँ और कैसे हुई। इसकी जानकारी ज्ञात हो सके इसके लिए मैंने समाज और राजनीती में कार्य करते हुए और विभिन्न प्राचीन पुस्तको से जो जानकारी प्राप्त हुई वह मैं आप सबकी जानकारी के लिए लिख रहा हूँ ।

गोत्र – महाभारत व जातक आदि प्राचीन ग्रंथो में व्यक्ति का परिचय पूछते समय उसका नाम तथा गोत्र दोनों विषय में पुछा जाता था । गोत्रो की परंपरा प्राचीन ऋषियों से चली आ रही है , मान्यता है कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र – भ्रगु , अंगिरा , मरीचि और अत्रि हुए । ये चार ऋषि गोत्रकर्ता थे ।

ऋषि मरीचि के पुत्र कश्यप थे , हमारा दोसर वैश्य समाज कश्यप ऋषि का गोत्र है ।

उत्पत्ति का स्थल -दोसर वैश्य ,”दूसर वैश्य “का कालांतर में परिवर्तित रूप है । डा . मोतीलाल भार्गव द्वारा लिखी पुस्तक “हेमू और उसका युग “से पता चलता है कि दूसर वैश्य हरियाणा में दूसी गाँव क़े मूल निवासी थे ।जो कि गुरगाव जनपद के उपनगर रिवाड़ी के पास स्थित है ।यह स्थान बलराम जी (बलदाऊ)की ससुराल जो वधुसर कि दूसर और बाद में दूसी कहलाया।

दोसर वैश्य समाज की विजय गाथा / दिल्ली विजय –

हेमू की दिल्ली विजय – भारतीय इतिहास में प्रशिद्ध हेमचन्द्र विक्रमादित्य ‘हेमू’ दोसर वैश्य जाति के थे । हेमू के पिता का नाम पूरन दास और चाचा का नाम नवलदास था जो दोसर वैश्य समाज के प्रशिद्ध संत थे । हेमू ने 6 अक्टूबर सन 1556 को दिल्ली विजय प्राप्त की । 300 वर्षो बाद किसी हिन्दू शासक ने दिल्ली की सत्ता प्राप्त की थी ।

दॊसर वैश्य का वर्गीकरण -पंडित कामता प्रसाद द्वारा लिखी पुस्तक “जाति भास्कर ” सम्वत 1960 विक्रमी के लगभग से पता चलता है कि इसमें लगभग 400 वैश्य उप-जातियों का विवरण है ।इस सूची में दोसर वैश्य के स्थान पर दूसर वैश्य का विविरण मिलता है जो कि दिल्ली और मिर्जापुर के बीच गंगा किनारे निवास करते है ।
दोसर वैश्य समाज की धार्मिक मान्यताएं – दोसर वैश्य समाज गाय को बहुत ही सुभ एवं पवित्र मानते थे । दोसर वैश्य समाज वैष्णव् मत को मानने वाले है । उत्तर भारत में केवल दोसर वैश्य समाज में विवाह में वधू को निगोड़ा पहनाया जाता था । आज भी दोसर वैश्य समाज के अतिरिक्त आज किसी समाज में निगोड़ा नहीं पहनाया जाता है |

मोती लाल जी का शॊध – ब्रिटिश शासनकाल में सन 1880 में मोतीलाल भार्गव द्वारा दिए गए शॊध पुत्र “हेमू और उसका युग” में वर्रण है – दूसी जो हेमू का जन्म स्थान था वहां वैश्य को दूसी वैश्य जो वर्तमान में दॊसर वैश्य कहा गया है ।

हरियाणा में रेवारी के पास ऊबड़-खाबड़ धोसी पहाड़ियों से आने वाले धूसर वैश्य, जिन्हें दोसर वशिष्ठ या केवल दोसर के नाम से भी जाना जाता है, एक समुदाय है जो अस्पष्टता और साज़िश दोनों में डूबा हुआ है। उनके इतिहास में शाही वंशावली, मार्शल कौशल और गहरी व्यावसायिक कौशल की झलक मिलती है जो एक समय उत्तरी भारत के व्यापार मार्गों पर हावी थी। यह लेख धूसर वैश्यों की आकर्षक टेपेस्ट्री पर प्रकाश डालता है, उनकी उत्पत्ति का पता लगाता है, भारतीय समाज में उनके महत्वपूर्ण योगदान पर प्रकाश डालता है, और उन प्रतिष्ठित सदस्यों की उपलब्धियों का जश्न मनाता है जिन्होंने देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया है।

अतीत की गूँज:

धूसर वैश्यों की उत्पत्ति का पता लगाने से एक जटिल और विवादित कथा का पता चलता है। कुछ लोग राजा दुष्यन्त और शकुन्तला के वंशज होने का दावा करते हैं, जो पौराणिक भव्यता से ओत-प्रोत वंश है। अन्य लोग राजपूत वंश की ओर इशारा करते हैं, जमींदारों और योद्धाओं के रूप में उनकी ऐतिहासिक भूमिका पर जोर देते हैं। फिर भी अन्य लोग धूसर जनजाति से संबंध का सुझाव देते हैं, जो पत्थरबाजी और हथियार बनाने में अपनी विशेषज्ञता के लिए जाने जाते हैं। सटीक उत्पत्ति के बावजूद, ऐतिहासिक साक्ष्य प्राचीन भारत में उनकी उपस्थिति स्थापित करते हैं। 642 ई. के सकरारी शिलालेख में धारकटा समुदाय के साथ उनका उल्लेख किया गया है, जो उनकी प्रारंभिक आर्थिक और सामाजिक स्थिति की ओर इशारा करता है।

व्यापार के परास्नातक:

धूसर वैश्य केवल योद्धा या जमींदार नहीं थे; वे चतुर व्यापारी भी थे जो वाणिज्य को एक शक्तिशाली हथियार के रूप में इस्तेमाल करते थे। आयुर्वेद में उनकी महारत और हथियारों के व्यापार ने उनकी प्रसिद्धि को बढ़ाया। उन्होंने महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों को नियंत्रित किया, जो उत्तरी भारत के हलचल भरे बाजारों को दूर-दराज के क्षेत्रों से जोड़ते थे। उनका प्रभाव भौतिक वस्तुओं से परे, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और ज्ञान के प्रसार तक फैला हुआ था। यह व्यावसायिक कौशल उद्योग और व्यवसाय से लेकर सरकार और सशस्त्र बलों तक विभिन्न क्षेत्रों में समुदाय की वर्तमान सफलता में स्पष्ट है।

भारतीय समाज में योगदान:

भारतीय समाज पर धूसर वैश्यों का प्रभाव महज व्यापार और आर्थिक समृद्धि से कहीं आगे तक फैला हुआ है। उनकी विरासत साहित्य, धर्म और सामाजिक आंदोलनों के ताने-बाने में बुनी गई है।

साहित्यिक दिग्गज: समुदाय संत कवि सहजो बाई जैसे प्रमुख व्यक्तियों पर गर्व करता है, जिनकी भक्ति कविताएँ पूरे भारत में गूंजती थीं। प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह 'नवल किशोर प्रेस' के संस्थापक, प्रकाशक मुंशी नवल किशोर ने भारतीय साहित्यिक परिदृश्य को और समृद्ध किया।

राजनीतिक चैंपियन: दिल्ली के अंतिम हिंदू शासक हेमू विक्रमादित्य धूसर बहादुरी और नेतृत्व के प्रतीक के रूप में खड़े थे। मुगल सम्राट अकबर के खिलाफ उनकी अवज्ञा आज भी वीरता और प्रतिरोध की कहानियों को प्रेरित करती है।

समाज सुधारक: समुदाय ने सामाजिक सुधार आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया है, डॉ. रूप राम शास्त्री ने हरियाणा में सती प्रथा को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

प्रख्यात धूसर वैश्य:

धूसर वैश्य समुदाय ने प्रतिभा का खजाना तैयार किया है जिसने भारतीय जीवन के विभिन्न पहलुओं को सुशोभित किया है। यहां कुछ उल्लेखनीय उदाहरण दिए गए हैं:

श्याम लाल गुप्ता: प्रतिष्ठित झंडा गीत, "विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा" के लिए जिम्मेदार प्रसिद्ध गीतकार।

पहेली को सुलझाना:

उनके असंख्य योगदानों के बावजूद, धूसर वैश्य अपेक्षाकृत अप्रलेखित समुदाय बने हुए हैं। उनका समृद्ध इतिहास, अद्वितीय सामाजिक रीति-रिवाज और विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान अधिक अन्वेषण और अकादमिक ध्यान देने योग्य है। जैसे-जैसे भारत अपनी जटिल सामाजिक परंपरा में गहराई से उतरता है, धूसर वैश्यों को पहचानना और समझना अनिवार्य हो जाता है। यह न केवल ऐतिहासिक पुनर्खोज की यात्रा है, बल्कि उस समुदाय के योगदान का जश्न मनाने की भी है जिसने देश को मूर्त और अमूर्त दोनों तरीकों से समृद्ध किया है।

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