SHRIMAL VAISHYA
12वीं शताब्दी तक पोरवाड ज्ञानी के इतिहास के बारे में जानने का कोई तरीका नहीं है। उसके बाद श्रीमाल पुराण और जैन धर्म की कुछ पुस्तकें हमारी ज्ञाति के बारे में कुछ विवरण देती हैं। लेकिन ये ज्ञानी के बारे में कई असमानताओं को उजागर करते हैं। ग्नती की उत्पत्ति के बारे में कई कहानियाँ हैं। इतिहासकार भी मानते हैं कि तार्किक दृष्टि से श्रीमाल पुराण और विमल प्रबंध में दिए गए विवरण सर्वाधिक विश्वसनीय हैं।
प्रश्न यह है कि पोरवाड़ श्रीमाल के पास कब आये? शिरमाल (वर्तमान में भिन्नामल के नाम से जाना जाता है) मारवाड़ में आबू रोड से 50 मील की दूरी पर स्थित है। ऐसा प्रतीत होता है कि पोरवाड़ वनराज चावड़ा के काल (720 ई.-780 ई.) के दौरान श्रीमाल में रुके थे। श्रीमाली ब्राह्मण और बनिया (पोरवाड सहित) कनिष्क, जो एक क्षत्रप थे, के साथ भिन्नामल (जिन्हें श्रीमाल भी कहा जाता है) आए थे। कथित तौर पर पोरवाड दूसरी शताब्दी में श्रीमल आये थे।
श्रीमाल में पोरवाड़ किस स्थान से आये, इसके बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। एक मान्यता यह है कि पोरवाड राजा कनिष्क के साथ कश्मीर से आये थे। क्षत्रप मूलतः कश्मीर में रहते थे। परंतु शोधकर्ता श्री मणिलाल बकोरभाई व्यास ने 'विमल प्रबंध' में 'खंभनगर' अर्थात 'खंभात'नगर शब्द का प्रयोग किया है और कहा है कि पोरवाड़ खंभात से श्रीमाल में आये। गुजरात के इतिहास के अनुसार, पोरवाड सीधे कश्मीर से गुजरात नहीं आए थे। वे श्रीमाल के पूर्व के किसी नगर से आये थे।
वे कनिष्क (78 ई. - 108 ई.) के समय उत्तर-पश्चिम से भारत आये। वे सिंधुप्रदेश में रहे, मथुरा गए और गुप्तों के समय (300 ई.) में राजपूताना गए और कोटा के रास्ते गुजरात और मालवा से मंडेसर के रास्ते गुजरात आये।
पोरवाड शब्द पुर (शहर) और वट (दिशा) से आया प्रतीत होता है। इसकी उत्पत्ति 'प्रग्वत्' शब्द से भी हुई हो सकती है।
श्रीमाल पुराण में पोरवाड़ों को वैश्य बताया गया है लेकिन विमल प्रबन्ध में उन्हें क्षत्रिय बताया गया है। राजस्थान में पोरवाड़ क्षत्रिय थे। 1891 में प्रकाशित एक जनगणना में पोरवाड़ों को पाटन के अन्हिलवाड के राजपूत शासकों के वंशजों के रूप में वर्णित किया गया था। इस प्रकार, पोरवाड सोलंकी राजपूतों के वंशज प्रतीत होते हैं। गुजरात के इतिहास में सोलंकियों को गुज्जर माना जाता है। ये गुज्जर शुद्ध क्षत्रिय नहीं बल्कि विदेशी खानाबदोश थे। वे किसान थे और युद्ध भी लड़ते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि गुर्जरों में सोलंकी क्षत्रिय थे। गुज्जरों की एक बड़ी आबादी गुजरात और मारवाड़ में आकर बस गयी और विभिन्न व्यवसायों के कारण विभिन्न गणतियों में विभाजित हो गयी। उनका मुख्य व्यवसाय खेती, पशुपालन और व्यापार था। चूँकि वे व्यापारी थे इसलिए उन्हें बनिया कहा जाता था। हमारे देश के लोग अपनी वीरता और राज्य के प्रति समर्पण के लिए जाने जाते हैं। यह मानने के मजबूत कारण हैं कि वास्तुपाल और तेजपाल - दो भाई जिन्होंने आबू में प्रसिद्ध जैन मंदिरों का निर्माण किया था, पोरवाड़ थे। गुर्जरेश्वर भीम की सेना का नेता विमल भी पोरवाड़ था। पोरवाड अपनी दानशीलता के लिए भी जाने जाते हैं। अम्बाजी के निकट बने भव्य मन्दिरों का निर्माण चन्द्रावती के पोरवाड़ों द्वारा करवाया गया था।
13वीं शताब्दी तक पोरवाड दशा और विश में विभाजित हो गये। धर्म ने उनके बीच और भी गुट बनाये - श्रावक (जैन) पोरवाड़ और कंठीबंध (वैष्णव) पोरवाड़। श्रीमाल के पास आकर उन्होंने वेदानुसार धर्म का पालन किया। फिर उनमें से एक बड़े भाग ने जैन धर्म अपना लिया। इस प्रकार, 1500 ई. के दौरान पोरवाड़ों के दो बड़े गुट थे - जैन और वैष्णव। वैष्णव बड़े पैमाने पर वल्लभ संप्रदाय का पालन करते हैं। कुछ तो स्वामीनारायणी और आर्यसमाजी भी हैं। आर्यसमाजी कंठी के स्थान पर जनोई पहनते हैं। वसिह्नव तुलसी नी कंठी पहनते हैं। इसीलिए इन्हें कंठीबंध के नाम से जाना जाता है। दशा पोरवाड अधिकतर वैष्णव हैं और विश जैन हैं।
काठियावाड़ सर्व संग्रह के अनुसार पंच नामक एक तीसरा गुट भी है। लेकिन यह गुट कब अस्तित्व में आया, इसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। कदाचित उन्होंने शास्त्र या परंपरा के विरुद्ध आचरण किया हो इसलिए उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। अब सुरती, खंभती, कपडवानजी, अमदावाडी, मंगरोली और भावनगरी जैसे गुट भी हैं।
पोरवाड की आबादी सौराष्ट्र, कच्छ, गुजरात, दमन, मारवाड़, खानदेश, नंदुरबार, वराद, हैदराबाद, औरंगाबाद, दहानू, मुंबई, चिनचन, तारापोर, बुरहानपुर, काशी, मुरादाबाद और कलकत्ता में रहती है।
हमारी कुलदेवी महालक्ष्मी हैं और कुलगोर शिरमाली ब्राह्मण हैं।
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