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Friday, February 28, 2025

MARWADI VAISHYA IN POLITICS - राजनीति में मारवाड़ी समाज का योगदान

MARWADI VAISHYA IN POLITICS - राजनीति में मारवाड़ी समाज का योगदान

मारवाड़ राजस्थान में है और ‘राज’ शब्द जुड़ा है राजस्थान में तो मारवाड़ी राजनीति से भिन्न अथवा दूर कैसे हो सकता है? राजस्थान का पुराना नाम राजपूताना, तो यहाँ भी बात राज की ही हो रही है। इसका अर्थ यह हुआ है कि प्रारम्भिक काल से ही इस प्रदेश का प्रत्येक व्यक्ति राजनीति से न्यूनाधिक परिचित व सम्बन्धित रहा है।

मारवाड़ी लोग राजस्थान से बाहर गये तो राजनीतिक चेतनता की अपनी इस विशेषता का परित्याग नहीं किया। मुगल बादशाह अकबर के प्रमुख सेनापति राजा मानसिंह जब दिल्ली से कूच कर पूर्वी भारत में मुगल साम्राज्य के विस्तार के क्रम में आये तो अपने साथ अनेक मारवाड़ी प्रशासनिक, व्यापारिक एवं युद्ध कौशल वीरों को लेकर आये। इनमें से कई मारवाड़ी पुनः लौट कर नहीं गये। यहीं रह गये। इस तरह यह कहा जा सकता है कि लगभग सोलहवीं सदी के आस-पास की अवधी में अच्छी संख्या में लोगों का मारवाड़ के क्षेत्रों से चलकर पूर्वी भारत में बिहार, बंगाल, उड़ीसा और आसाम आना प्रारम्भ हुआ जो निरन्तर बढ़ते चले गये। इसी तरह आक्रमण के समय मराठवाड़ा, विदर्भ तथा अन्य प्रदेशों में मारवाड़ी लोग गये। राज्य में कई तरह के दायित्व होते हैं। राजाओं के रूप में, भिन्न-भिन्न भांति की व्यवस्थाओं का दायित्व। सभी दायित्वों को निभा कर राजनीति में मारवाड़ी समाज का योगदान हुआ।

मारवाड़ में रहने वालों को अनेक विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करने का अभ्यास होता है। श्रम उनका स्वभाव। ईमानदारी, विनम्रता एवं समरसता उनके संस्कार। इन विशेषताओं का उन्हें सर्वत्र लाभ मिला। जहाँ भी जिस प्रदेश में गये, वहाँ की भाषा सीखली, वहाँ के लोगों में घुलमिल गये। उदारता, औरों की भलाई, जैसे मारवाड़ियों के गुणों के कारण ही इस समाज ने पैसा भी कमाया और सर्वत्र चिकित्सालय, शिक्षालय, कुँए, बावड़ी, प्याऊ, अनाथालय, गौशालाओं का अम्बार लगा दिया जो इस समाज की देश भर में अपनी अलग पहचान बनाती है।

राजस्थान से जो लोग अन्य प्रदेशों में गये, उन्हें मारवाड़ी कहा जाने लगा। यद्यपि मारवाड़ राजस्थान का एक क्षेत्र है। पूरा राजस्थान मारवाड़ नहीं है। जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर का विस्तृत हिस्सा बालू के अधिक्य वाला है। मरु प्रदेश अथवा बालू या फिर रेत की अधिकता वाला क्षेत्र इसमें रहने वाले मारवाड़ी स्वभावतः मारवाड़ी कहाये।

ऐसे मारवाड़ से आने वाले लोग मारवाड़ी समाज की पहचान व्यापारी के रूप में बनी। उपरोक्त वर्णित विशेषता लिये हुए थे। बाद में उदयपुर (मेवाड़) हो या जयपुर स्टेट या हाड़ोती क्षेत्र या राजस्थान के किसी भी हिस्से से आये लोग मारवाड़ी ही कहलाये।

क्षत्रित्व की पृष्ठभूमि: यद्यपि राजस्थान से आने वाले लोग प्रायः व्यापारी थे, लेकिन इनके पूर्वज क्षत्रिय राजा थे। जैसे मारवाड़ी समाज में अग्रवालों की संख्या सर्वाधिक रही थी जो महाराज अग्रसेन की सन्तान हैं। अग्रसेन एक क्षत्रिय राजा थे, जो किवदन्तियों के अनुसार लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व महारानी लक्ष्मी के आदेश पर वैश्य बने। इनके रीतिरिवाजों में आज भी राजाओं के प्रतीकों का उपयोग होता है। इसी तरह एक बड़ा वर्ग माहेश्वरी समाज है। जैन समाज, खण्डेलवाल आदि क्षत्रिय थे जो बाद में वैश्य बने। तब से लेकर इस अवधि में जो लोग देश के कोने-कोने से आये वे अग्रवाल, माहेश्वरी, खण्डेलवाल आदि कहलाये। इस तरह कहना चाहिये कि यह व्यापारी समाज राजघरानों की पष्ठभूमि से आया है। इसलिये राजनीति इनके लिये नयी नहीं है। इनके खून में है। मुगल काल हो या इसके पूर्व का, यह स्पष्ट उल्लेख प्रायः मिलता है कि राजाओं के दीवान व खाजांची तथा अन्य व्यवस्थायें वैश्य समाज करता था। इसलिये राजाओं के रूप में इनकी संख्या कम होती चली गयी, लेकिन राज्य को स्थिर कर व्यवस्था का प्रमुख स्तम्भ इन्हीं लोगों के हाथ में रहा। राजनीति के क्षेत्र में यह सबसे बड़ा योगदान है।

हम इस आलेख में राजनीति के क्षेत्र में मारवाड़ी समाज के योगदान की बात कर रहे हैं, उसे अंग्रेजी काल की अवधि के योगदान की बात भारत की स्वतत्रंता के लिये किये गये संघर्ष में रही राजनैतिक हिस्सेदारी का विवरण प्रस्तुत करना है।

मारवाड़ी शब्द एक संस्कार विशेष से जुड़ गया। संस्कृति का प्रतीक बन गया। शाकाहार, सात्विकता, सादगी व समरसता तथा समन्वय की क्षमता वाला क्षमाशील व्यापारी। ईमानदारी, उदारवृत्ति आदि इसकी प्रारम्भिक पहचान बनी। ये गुण राजनीतिक कुशलता के लक्षण माने जाते थे।

यह सर्वविदित है कि मारवाड़ी में अद्भुत सहनशीलता होती है, और अंग्रेजों के समय इसी गुण के कारण ये व्यापार व उद्योग के शीर्ष पर पहुँच गये। व्यापार का सीधा सम्बन्ध प्रशासन से होता है। इसलिये राज्य जिसका भी होगा व्यापारी हो या उद्योगपति, उसे ‘राजा’ से मिल कर चलना पड़ेगा। व्यापार ही क्यों यदि राजा अत्याचारी, शासक, दबंग होगा तो हर नागरिक को झुक कर चलना पड़ेगा। कौन नहीं जानता कि सात समन्दर पार से आये अंग्रेजों ने जो दमन चक्र चलाया, उसके सभी वर्ग शिकार हुए लेकिन जब अन्याय व जुल्मों-सितम के विरुद्ध विद्रोह की टीस ने अंगड़ाई ली तो देश का कोई कोना बाकी नहीं रहा। बाल, लाल, पाल की त्रिवेणी अवतरित हुई। बाल अर्थात् बाल गंगाधर तिलक, लाल अर्थात लाला लाजपत राय और पाल अर्थात विपिनचन्द्र पाल। इनमें लाला लाजपत राय अग्रवाल समाज में उत्पन्न हुए। फिर शेष मारवाड़ी समाज कैसे पीछे रहता। अंग्रेजों ने पूरे भारत में लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक राज किया। सन् 1857 में खुला विद्रोह हुआ तो विद्रोह बढ़ता ही चला गया। बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गान्धी, लाला लाजपत राय, वीर सावरकर, भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस जैसे राष्ट्र भक्तों ने एवं उनके साथ जिन महत्त्वपूर्ण लोगों ने स्वतन्त्रता संघर्ष यात्रा का पथ पकड़ा, ऐसे शूरवीरों की शंृखला में मारवाड़ी समाज के सैंकड़ों प्रमुख लोगों ने अपने जीवन की आहुति दी, कई विख्यात हैं। अनेकों के नाम मालूम नहीं हंै और अधिकांश अंधेरे की ओट में शहीद बन कर गुमनाम हो गये।

मारवाड़ी एसोसियेशन: 1885 में कांग्रेस का जन्म हुआ जिसका राष्ट्रीय स्वरूप बना। देश भर में अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त हो रहा था उसकी अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनी। अंग्रेजों ने राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली एकता को तोड़ने का प्रयास किया और इसी क्रम में बंगाल में मारवाड़ी समाज का, जो विशेष रूप से उद्योग एवं व्यापार में अपना प्रभुत्व बढ़ाता जा रहा था, के साथ राजनैतिक भेदभाव किया जाने लगा। इसीके विरुद्ध 1898 में मारवाड़ी एसोसियेशन नामक संगठन बना जो मारवाड़ी समाज के हितों का प्रहरी बना। इसने राजनैतिक लड़ाई लड़ी। आगे जाकर यह संस्था अपना अस्तित्व सुरक्षित नहीं रख पायी। यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस संस्था के कई लोगों का अंग्रेजों के साथ ताल-मेल बन गया, लेकिन यह स्वरूप सामने आया कि इस संस्था से जुड़े कुछ लोगों का ध्यान अंग्रेजों से उपाधियाँ लेने में अधिक रहा। जैसे राय साहब, राय बहादुर, सर आदि। बदनाम होने पर यह संस्था समाप्त हो गयी। पुनः मारवाड़ी समाज को बंगाल में दोयम श्रेणी का नागरिक बनाये जाने का खतरा उत्पन्न हुआ तो इसका जोरदार विरोध हुआ। प्रतिक्रियास्वरूप 1935 में रामदेव जी चोखानी की अध्यक्षता में अ.भा. मारवाड़ी सम्मेलन की स्थापना हुई। मारवाड़ी सम्मेलन ने अपने प्रारम्भिक काल से लेकर आज तक राजनैतिक चेतना और समाज सुधार के लिये अनेक संघर्ष किये। हम स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय में अ.भा.मारवाड़ी सम्मेलन के कार्यकत्र्ताओं द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध किये गये संघर्ष का मूल्यांकन किसी से कम नहीं मानते। उसीका प्रभाव बिहार के मारवाड़ी समाज पर पड़ा तथा राजनीति में समाज का अद्भुत योगदान रहा तथा 1940 में सशक्त बिहार प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन की स्थापना हुई।

जमनालाल बजाज: मैं यहाँ मारवाड़ी समाज के सबसे चर्चित नाम जमनालाल बजाज से प्रारम्भ करता हूँ। जमनालाल जी को शतप्रतिशत मारवाड़ी समाज के प्रतिनिधि के रूप में स्वतन्त्रता सेनानी कह सकते हैं। एक सीधे सादे, सज्जन प्रवृत्ति के चरम सीमा के ईमानदार, सम्पन्न, दानवीर मारवाड़ी व्यवसायी। अनेक गुणों से परिपूर्ण सन् 1915 से ही आप राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से प्रभावित हो उनके सम्पर्क में आये, और गांधीजी ने भी जमनालाल जी को भरपूर अपनत्व दिया, यहाँ तक कि गांधीजी के 5वें पुत्र के रूप में जमनालाल जी कहाये जाने लगे। बजाज जी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने में गांधी के सत्याग्रह का नेतृत्व किया। बहुत बड़े उद्योगपति, सुकोमल शरीर, परन्तु न केवल स्वयं, अपनी पत्नी जानकी देवी को खद्दर के कपड़े पहनाये। जमनालाल जी के इस त्याग का प्रभाव यह पड़ा कि मारवाड़ी समाज के नवयुवकों तथा महिलाओं ने स्वतंत्रता के इस आन्दोलन में अपने को जोड़ लिया। यदि किसी राष्ट्रीय नेता की गिरफ्तारी होती तो मारवाड़ी समाज की संख्या वाले बाजार पहले बन्द होते थे।

27 अगस्त 1930 में एक अंग्रेज अधिकारी ए.एच. गजनवी द्वारा तत्कालीन वायसराय के कार्यालय को एक निजी पत्र भेजा गया। उसमें उल्लेख किया कि यदि महात्मा गांधी के आन्दोलनों से मारवाड़ी समाज को अलग कर दिया जाय तथा बंगाल का आंदोलन केवल बंगाल वासियों के हाथ में छोड़ दिया जाय तो नब्बे प्रतिशत आंदोलन अपने आप ही समाप्त हो सकता है। गजनवी ने मारवाड़ी समाज के उन स्वतन्त्रता प्रेमियों की सूची भी भेजी जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सहस्त्रों लोगों को जेल में डाल दिया, उनके घर का खर्च चलाने, आजादी के अवसर पर होने वाले व्यय का अधिकांश हिस्सा मारवाड़ी समाज के लोगों ने प्रदान किया। स्वयं भी जेल में गये। कई क्रान्तिकारी बने, कइयों को फांसी हुई।

गांधीजी ने जमनालाल जी की सहायता से दक्षिण में हिन्दी प्रचार के कार्य में सुविधा का अनुभव किया, अग्रवाल समाज को तथा मारवाड़ी समाज को संगठित कर उन्हें स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा। श्री कृष्ण जाजू ने अपने को स्वतंत्रता के लिये समर्पित कर दिया। मुम्बई के श्री मदनलाल जालान जैसे सैंकड़ों मारवाड़ी कार्यकत्र्ताओं ने जेल भर दिया। साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय की पीठ पर इतनी लाठियाँ पड़ी कि अन्त में इसी पीड़ा से उनकी मृत्यु हो गयी। बंगाल स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख केन्द्र बना हुआ था। 1930 के नमक सत्याग्रह में देश भर में मारवाड़ी समाज ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

बिहार में मारवाड़ी समाज की भूमिका: स्वतंत्रता संग्राम में रामकृष्ण डालमिया द्वारा दिये गये सहयोग से सब परिचित हैं। पूरे बिहार में चलने वाले कांग्रेस के अधिकांश व्यय का भार रामकृष्ण डालमिया ने उठाया। एक बार बिहार में कांग्रेस के खर्च को लेकर रामकृष्ण डालमिया और बिहार कांग्रेस के नेताओं में कोई विवाद हो गया तो जमनालाल बजाज ने समझौता करवाया। उस समय गांधी जी ने कहा ‘‘रामकृष्ण तुमने इलेक्सन का खर्चा देना स्वीकार करके मेरा बिहार का बोझ हल्का कर दिया।’’

उपरोक्त एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि बिहार के स्वतंत्रता आन्दोलन में मारवाड़ी समाज का कितना बड़ा योगदान रहा है।

वस्तुतः बंगाल द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन में जो मारवाड़ी समाज की भूमिका रहती थी उसका प्रभाव बिहार के मारवाड़ी समाज पर पड़ता था। मारवाड़ी समाज की एक अन्य महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अनेक प्रकाशनों तथा समाचार पत्रों के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने का और स्वतत्रंता के पश्चात् देश को आगे बढ़ाने का। बिहार और बंगाल के मिलेजुले प्रयत्न होते थे। बिहार के सत्यपाल धवले जैसे अनेक बिहारी कार्यकत्र्ताओं का पूरा व्यय कलकत्ते का मारवाड़ी समाज उठाता था जो बंगाल व बिहार में राजनीतिक चेतना की कड़ी बने हुए थे।

बात 1950 की है जब मैं राजस्थान से मैट्रिक कर आगे की पढ़ाई करने कोलकाता जाकर बसा। दो वर्ष के भीतर वहां के मारवाड़ी समाज के सम्पर्क में आ गया। उस समय लगभग 80 वर्षीय श्री ओंकारमल जी सराफ गांधीजी के आह्वान पर कई बार जेल हो आये थे। उनकी गिनती अग्रणी स्वतत्रंता सेनानियों में आती थी। चित्तरंजन एवेन्यू में उनका मकान था।

‘‘बंगाल के हिन्दी कवि’’ नाम से प्रकाशित की जाने वाली पुस्तक के सन्दर्भ में पटना एवं देवघर आने का मुझे कई बार अवसर पड़ा। उस समय श्री मोतीलाल जी केजरीवाल की गिनती बिहार के वरिष्ठ स्वतत्रंता सेनानियों में होती थी।

1930 के नमक सत्याग्रह में भाग लेने वाले कलकत्ता मारवाड़ी समाज के अग्रणी महानुभावों यथा सीताराम जी सेक्सरिया, बसन्त लाल मुरारका, राम कुमार भुवालका आदि के बारे में जानकारी हुई। बिहार के मुजफ्फरपुर में पैदा हुए ईश्वर दास जी जालान 1952 में प्रथम बंगाल विधान सभा के अध्यक्ष बने। उस समय बड़ाबाजार जोड़ा बागान, जोड़ासांकू की विधान सभाओं में मारवाड़ी समाज की जन संख्या कम नहीं थी। श्री आनन्दी लाल पोद्दार,बाद में दैवकी नन्दन पौद्दार, और सत्यनारायन बजाज भी इन्हीं क्षेत्रों से विजयी होकर बंगाल विधान सभा में पहुँचे। ईश्वर दास जी जालान के बाद रामकृष्ण सरावगी विधायक बने। श्री सरावगी अ.भा.मारवाड़ी समाज के अध्यक्ष भी रहे जिन्होंने रांची अधिवेशन में पदभार ग्रहण किया। वर्तमान में श्री दिनेश बजाज इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहें हैं।

स्वामी करपात्री जी द्वारा देश में अनेक जगह राम राज्य परिषद की स्थापना की गई। परिषद की ओर से कलकत्ता के बड़े बाजार से बाबू लाल सराफ खड़े होते थे। बिहार में भी मारवाड़ी समाज के आर्थिक सहयोग से 1952 की प्रथम विधान सभा में उस समय राम राज्य परिषद के 5 सदस्य निर्वाचित हुए। बिहार में भागलपुर क्षेत्र मारवाड़ी समाज का गढ़ है। यहाँ से सम्भवतः दूसरी लोकसभा के लिये श्री बनारसी दास झुनझुनवाला चुन कर गये। इसी तरह लोक सभा में चुन कर गये बांका से श्री बेणी शंकर शर्मा। जब वाजपेयी जी का मंत्रीमण्डल बना उस अवधि में चतरा से श्री धीरेन्द्र अग्रवाल लोक सभा से चुन कर गये। कलकत्ता में प्रभू दयाल जी हिम्मतसिंहका का नाम स्वतंत्रता संग्राम में घनश्याम दास जी बिड़ला के साथ आता था। लेकिन कलकत्ता तथा दुमका से वे दोनों बार लोक सभा सीट पर हार गये। बिहार विधानसभा में मारवाड़ी समाज की उपस्थिति 4-5 सदस्यों की अवश्य हो जाती है जो कम है फिर भी महाराष्ट्र विधान सभा के बराबर या कुछ अधिक हो जाती है।

1951 से 1957 की अवधि में ही मैं राम राज्य परिषद से जुड़ा और मुझे 1956 में मुम्बई के चौपाटी पर हुए अधिवेशन में अखिल भारतीय राम राज्य परिषद का प्रचार मंत्री चुना गया। देश की राजनीतिक पार्टियों में केवल राम राज्य परिषद ही ऐसा राजनैतिक दल था जिसने गौहत्या बन्दी को अपने चुनाव घोषणा पत्र का प्रमुख सूत्र रखा। दिल्ली तथा कलकत्ता में राम राज्य परिषद के संस्थापक स्वामी करपात्री जी द्वारा चलाये गये गौरक्षा आन्दोलन में मैं 1954 में 15 नवम्बर को जवाहर लाल जी नेहरू की कोठी 3 मूर्ति भवन के समक्ष गिरफ्तार हुआ। सितम्बर 1956 में कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी जेल में बन्द हुआ, पुनः 1971 में दिल्ली की तिहाड़ जेल में डेढ़ माह तक बन्दी रहा। बिहार के श्री सीताराम जी खेमका मुंगेर के रहने वाले थे, उन्होंने देश भर में राम राज्य परिषद को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। राम राज्य परिषद एवं गौरक्षार्थ अहिंसात्मक धर्म युद्ध समिति के राष्ट्रीय महामंत्री बने। इसी तरह कलकत्ता के 29 स्ट्रेन्ड रोड के भागीरथ जी मोहता 1952 में अ.भा. हिन्दु महा सभा के उपाध्यक्ष थे। जैसे घनश्याम दास जी बिड़ला कांग्रेस को आर्थिक मदद देने वालों में माने जाते रहे उसी तरह जुगल किशोर जी बिड़ला ने हिन्दु महासभा को आगे बढ़ाने में सर्वाधिकं सहयोग किया। जुगल किशोर जी बिड़ला ने न केवल अ.भा.हिन्दु महा सभा दिल्ली को संरक्षण दिया बल्कि पटना में सब्जी बाग में निर्मित बिड़ला मन्दिर में हिन्दु महा सभा के लिये स्थान प्रदान किया।

ऐसा नहीं है कि मारवाड़ी समाज केवल मध्यमार्गी अथवा दक्षिणपन्थी संस्थाओं से ही जुड़ा रहा। कलकत्ता में 1951 में मेरे बड़े भ्राता बंशी लाल अग्रवाल ने कई बार कम्यूनिस्ट आन्दोलन में सम्मिलित होकर जेल यात्रायें की। सरला माहेश्वरी कम्युनिष्ट पार्टी की ओर से सांसद रही।

मुझे याद है कि कलकत्ता के सम्पन्न मारवाड़ी समाज द्वारा बिहार के राजनैतिक कार्यकत्र्ताओं को जीवन निर्वाह के लिये अच्छी राशि दी जाती थी। सीतामढ़ी के श्री निरंजन खेमका 1940, 45 से हिन्दु महासभा के वरिष्ठ नेता थे। भाई हनुमान प्रसाद जी पोद्दार ने बम्बई और कलकत्ता में राजनीतिक चेतना संचारित करने का काम किया। 1942 में अनेक मारवाड़ी अग्रणियों की भांति वे भी जेल गये।

मुझे स्वयं को राम राज्य परिषद, हिन्दु महासभा व जनसंघ के एकीकरण के सिलसिले में वाराणसी में 1955 में रामराज्य परिषद के दो सांसदों के साथ हिन्दु महासभा के प्रधान मन्त्री श्री बी. जी. देशपाण्डे तथा जनसंघ के वरिष्ठ नेता दीन दयाल जी उपाध्यक्ष के साथ मन्त्रणा का अवसर मिला।

बेतिया के श्री रामकुमार जी झुनझुनवाला पूरे बिहार में स्वतन्त्रता संग्राम के दीप की लौ जलाये हुए थे। वे बिहार प्रदेश मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष भी थे। इतना ही नहीं 1917 में जब गांधी जी ने बिहार की धरती से नील खेती के विरुद्ध प्रथम किसान आन्दोलन चलाया, तब मोतिहारी, बेतिया, रक्सौल व आस-पास के सैंकड़ों मारवाड़ी नवयुवकों ने सत्याग्रह में भाग लिया। चाहे स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है आन्दोलन, चाहे अवज्ञा आन्दोलन, चाहे असहयोग आन्दोलन, चाहे नमक सत्याग्रह, चाहे विदेशी वस्त्र जलाओं आन्दोलन, चाहे भारत छोड़ो आन्दोलन-मारवाड़ी समाज विशेषकर बिहार का मारवाड़ी समाज सदैव आगे की पंक्ति में दिखायी पड़ता है। गांधी जी ने वर्ष 1917 में चम्पारण के किसान आन्दोलन के समय इस क्षेत्र में 3-4 गौशालाओं की स्थापना की। उनका भार मारवाड़ी समाज ने उठाया। बेतिया, मोतीहारी, चकिया में स्थापित गौशालायें इसका प्रमाण हैं। गांधी जी द्वारा इन गौशालाओं में कहे गये वचन मारवाड़ी समाज को अपने कर्तव्य का स्मरण करा रहे हैं।

स्वतन्त्रता संग्राम में या बाद की राजनीति में मारवाड़ी समाज का बहुत बड़ा योगदान रहा है, तथापि यह कहना पड़ता है कि आज मारवाड़ी समाज यदि संगठित हो जाय तो बिहार की दो लोक सभा सीटों पर उसका क्लेम बनता है। यों राज्य सभा में भी मारवाड़ी समाज का योगदान रहता आया है, लेकिन राज्य सभा में जिन लोगों को प्राथमिकता मिलती है उनमें अर्थ की प्रधानता रहती है। वर्तमान सरकार के केन्द्रीय कम्पनी मन्त्री श्री प्रेम चन्द गुप्ता बिहार से ही राज्य सभा के सदस्य हैं। यों मैं व्यक्तिगत रूप में जातीय आधार पर टिकट दिलाने के पक्ष में नहीं हूँ, लेकिन बिहार में टिकट प्राप्ति में जातियों की प्रधानता रहती है इस स्थिति को समाप्त होना चाहिये।

यह कहते हुए हर्ष होता है कि 1955 में बिहार विधान सभा में पहली बार अलग झारखण्ड राज्य की मांग करने वाले विधान पार्षद श्री जयदेव जी मारवाड़ी ही थे। उनकी मूर्ति झारखण्ड में लगायी जानी चाहिये।

मारवाड़ी समाज एक सशक्त राजनीतिक मंच बने, जो ईमानदार, अनुभवी व ज्ञानी युवा लोगों को आगे बढ़ाने का काम करे। यों बिहार के मारवाड़ी समाज का प्रदेश व देश की राजनीति में जो योगदान है उसे उजागर करने के लिये स्वतन्त्र रूप से प्रयत्न करने की जरूरत है। इसी कड़ी में हम यह कह सकते हैं कि डॉ. राम मनोहर लोहिया जो मारवाड़ी समाज में पैदा हुए, देश के सबसे बड़े मौलिक चिन्तक हुए। डॉ. लोहिया ने सबसे पहले बिहार में सरकार बनवायी। ऐसे महापुरुषों को, केवल मारवाड़ी समाज तक सीमित रखा जाना इनके साथ न्याय नहीं होगा।

1952 में तत्कालीन कांग्रेसी नेता व मारवाड़ी समाज के गौरव हीरा लालजी सराफ; वर्तमान में बि.प्रा. मारवाड़ी सम्मेलन के वरिष्ठ अग्रणी श्री गोपी कृष्ण सराफ के पिता बिहार में कदाचित सर्वप्रथम बिहार चैम्बर ऑफ कॉमर्स की ओर से विजयी होकर विधान सभा के मारवाड़ी विधायक चुने गये। बिहार में जनसंघ को बढ़ाने में श्री शंकर लाल बाजोरिया जैसे अनेक सुदृढ़ कार्यकर्ताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान था। भागलपुर के ही सन्त लाल जी ने स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक लाठियाँ खायी। भागलपुर के सीताराम किशोरपुरिया 1967 में बिहार में मारवाड़ी विधायक बने 1977 में सुगौली के मोहन लाल मोदी, कटिहार से सीताराम चमड़िया अपनी कर्मठता के आधार पर विधायक बने। मारवाड़ी समाज में महिलायें भी पीछे नहीं रही। कांग्रेस की ओर से राजकुमारी हिम्मतसिंहका दुमका की विधायक बनी। धनबाद जिला से सत्य नारायण दूधानी बिहार विधान सभा में कुछ अवधि तक विरोधी दल के नेता रहे। दरभंगा से श्री रमा वल्लभ जी जालान साम्यवादी दल की ओर से विधायक बने। बि.प्रा. मारवाड़ी सम्मेलन के भूतपूर्व अध्यक्ष ताराचन्द दारूका विधान पार्षद रहे। साहबगंज (संथाल परगना) से भाजपा की ओर से रघुनाथ सुडानी जी ने दो बार विधान सभा में प्रतिनिधित्व किया।

बिहार में जिन लोगों ने राजनीतिक क्षेत्र में विधायक या विधान पार्षद से ऊपर उठ कर मन्त्री तक का दायित्व सम्भाला उनमें बरहरवा के स्व. नथमल जी डोकानिया कैबिनेट व वारसोई के सोहन लाल जी राज्य स्तर के मन्त्री बने। श्री शारडा जी भी केबिनेट मन्त्री रहे। श्री शंकर प्रसाद टेकरीवाल मारवाड़ी समाज के ऐसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं जिन्हें स्वयं को पार्टी की जितनी आवश्यकता हुई उससे कम जरूरत पार्टियों को उनकी नहीं रही। शंकर बाबू ने कई बार बिहार सरकार के वित्त, खनन तथा परिवहन जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग सम्भालें तथा राज्य के विकास में अहम भूमिका निभायी।

वत्र्तमान में भाजपा की ओर से निर्वाचित दरभंगा के युवा विधायक संजय सरावगी ने कुछ ही समय में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। कटिहार के विधान पार्षद मोहन लाल जी अग्रवाल एवं ठाकुरगंज के गोपाल अग्रवाल ओजस्वी विधायक हैं। अपने बलबूते पर स्वतन्त्र रूप से जीतने वाले प्रदीप जोशी मारवाड़ी विधायक हैं। और अन्त में हम नाम ले रहे हैं श्री सुशील कुमार मोदी जी का जो न केवल 4 बार से निरन्तर विधायक हैं बल्कि बिहार के उपमुख्य मंत्री हैं। बीच में आप सांसद भी बने। आपने यह उपलब्धि मारवाड़ी समाज में उत्पन्न होने से नहीं पायी, बल्कि बिहार के आम आदमी के संरक्षण व विकास के लिये अपने त्याग व सेवा के कारण पायी है। पर यह भी सत्य है कि मारवाड़ी समाज, संस्कारवश जो ईमानदार होता है कर्मठ होता है यथासम्भव निस्वार्थ होता है, भद्र मानुष होता है, इन गुणों ने मोदी जी को ऊँचा उठाने में बिहार के उपमुख्य मन्त्री पद तक पहुँचने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। आपको सत्ता के शीर्ष स्थान पर देखकर हमारा समाज ही नहीं बिहार के आम आदमी प्रसन्न हैं। इसलिये कि हम सभी इस प्रदेश के नागरिक हैं। इस प्रदेश की उन्नति में ही हम सबकी उन्नति है।

- प्रो. रामपाल अग्रवाल ‘नूतन’ -

AGRE AGRE AGRAWAL - अग्रे-अग्रे अग्रवाल

AGRE AGRE AGRAWAL - अग्रे-अग्रे अग्रवाल


वैश्य किसी भी राष्ट्र के आधार होते है। भारतीय राष्ट्र के निर्माण में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था के तो ये आधार है। कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य इनके प्रमुख कर्तव्य माने गए थे। इतिहास साक्षी है कि जब संपूर्ण विश्व अंधकार के गर्त्त में डूबा था, उस समय भारत इन्हीं वैश्य शूरमाओं के कारण वैभव एवं संपन्नता के चरमोत्कर्ष पर था। भारत ‘सोने की चिड़ियात कहलाता था। और यहां दूध और दही की नदियां बहती थीं। सुख-समृद्धि, ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति, वैभव-सम्मान सभी क्षेत्रों में भारत का बोलबाला था। भारत को ‘विश्वगुरु’ की उपाधि प्राप्त थी और यहां के वैश्यों द्वारा स्थापित नालंदा और तक्षशिला के विश्वविद्यालयों में विश्व के लोग अध्ययन करने आया करते थे।’

इसी समाज में महाराज अग्रसेन उत्पन्न हुए, जिन्होंने ‘एक रुपया-एक ईट’ परंपरा का उद्घोष किया और 18 गोत्रों पर आधारित शासन का प्रचलन कर गणतंत्र शासन की नींव रखी थी। उन जैसी आदर्श समाजवादी व्यवस्था आज तक न तो संभव हो पाई है और आने वाला युग कैसी शासन व्यवस्था दे सकेगा, इसकी कल्पना करना ही कठिन लगता है।

अग्रे-अग्रे अग्रवाल! वैसे तो राष्ट्र के विकास में संपूर्ण समाज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है किंतु अग्रवाल समाज की भूमिका तो इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित करने योग्य है। इस समाज का राष्ट्र की आर्थिक एवं औद्योगिक प्रगति में तो उल्लेखनीय योगदान रहा ही किंतु जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जो उसके योगदान से गौरवाान्वित न हुआ हो।

यदि हम अतीत को छोड भी दें तो आज भी राष्ट्र के आर्थिक विकास में अग्रवाल समाज के उद्योगपति एवं व्यवसायी जो भूमिका निभा रहे हैं, उसके कारण आज भारत दुनिया के विकासशील देशों की अग्रिम पंक्ति में अपना परचम फहरा रहा है और विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की होड में सबसे आगे है और अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा तक ने उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।

इस समाज के लक्ष्मीनिवास मित्तल आज विश्व के धनी व्यक्तियों में तीसरा स्थान रखते हैं और विश्व में सर्वाधिक स्टील उत्पादन का श्रेय प्राप्त है। इसी प्रकार भारत में टेलीकॉम (मोबाइल) क्रांति के मसीहा सुनील भारती मित्तल (भारती एअरटेल), मनोरंजन जगत के बादशाह सुभाष गोयल (जी. टी. वी), घरेलू विमान सेवाओं में सबसे अग्रणी नरेश गोयल (जेट एयरवेज), खनिज उत्पादन एवं उर्जा के आधार स्तंभ अनिल अग्रवाल (वेदांत समूह), टायरों से लेकर खाद्य पदार्थों के व्यवसाय के शहंशाह आर. पी. गोयन्का, रिटेल-व्यवसाय के सरताज रवि एवं शशि रुइया (एस्सार समूह), वी. आई. पी. लगेज के दिलीप पीरामल, स्टील के उत्पादन में अग्रणी नवीन एवं सज्जन जिंदल (जिंदल समूह), द्विपहिया वाहनों के निर्माण में विश्व में विशिष्ट स्थान प्राप्त राहुल बजाज आदि भारत के उद्योग क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, उसका नामोल्लेख ही पर्याप्त होगा, वैसे भारत का संपूर्ण उद्योग एवं व्यवसाय जगत इस प्रकार के उद्योगपतियों से भरा पड़ा है और आज ये उद्योगपति केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के कोने-कोने में अपना वर्चस्व स्थापित करने में संलग्न है। अग्रवाल समाज के अनेक ऐसे उद्योगपति हैं, जिनकी गणना विश्व के शीर्षस्थ उद्योगपतियों में होती है और दुनिया के बड़े-बड़े उद्योगपति जिनके साथ व्यापारिक संबंध करने के लिए लालायित है और उनकी क्षमता एवं प्रतिभ का लोहा पूरी दुनिया मानने लगी है।

देश के स्वतंत्रता आंदोलन से इस समाज के लोगों का योगदान निकाल दिया जाए तो गौरव करने योग्य शेष बहुत कम बचेगा। इस समाज के ही लाला मटोलचंद थे, जिन्होंने अपनी संपूर्ण संपत्ति छकड़ों में भर-भर कर बहादुरशाह को अर्पित कर दी थी और 1857 की क्रांति को सफल बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। इसी प्रकार इस समाज के लाल झनकूमल, रामजीदास गुड़वाले और असंख्य वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दे इस क्रांति को बल प्रदान किया और हंसते-हंसते मृत्यु के फंदों पर झूल गए।

स्वतंत्रता युद्ध में इस समाज के लाला लजपतराय, जमनालाल बजाज, राममनोहर लोहिया, देशबंधु गुप्ता, सीताराम सेकसरिया, वसंतलाल मुरारका, प्रभुदयाल हिम्मतसिंहका, राधामोहन गोकुल जी, शिवप्रसाद गुप्त जैसे असंख्य योद्धा थे जिन्होंने अपने-अपने ढंग से आंदोलन में आहुति दी और भारत की स्वतंत्रता को संभव बनाया। सेठ जमनालाल बजाज इसी समाज के थे, जिनकी कर्मभूमि सेवाग्राम (वर्धा) को गांधीजी ने परतंत्र भारत की राजधानी बनाया और सेठ जमनालाल बजाज की मृत्यु पर्यन्त (1942) तक सम्पूर्ण आजादी के आंदोलन को वहाँ से चलाया। इस आंदोलन में न केवल उन्होंने अपनी सम्पूर्ण संपत्ति गांधीजी को अर्पित कर दी थी। उन्होंने अपितु संपूर्ण परिवार को आजादी के आंदोलन में झोंक दिया। उनके परिवार का कोई सदस्य ऐसा नहीं था, जो इस आंदोलन में जेल न गया हो। अकेले रामकृष्ण डालमिया ने इस आंदोलन में करोड़ों रुपए देकर भामाशाह की भूमिका निभाई परंतु यह पूरा समाज ही इस प्रकार के भामाशाहों से भरा पड़ा है।

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी इस समाज ने अपने उच्चतम आदर्शों एवं नैतिकता से राजनीति को पवित्र बनाए रखने का प्रयत्न किया। डॉ. राम मनोहर लोहिया, डॉ. धर्मवीर, डॉ. रघुवीर, पीताम्बरदास, डॉ. श्री श्रीप्रकाश, डॉ. सीताराम रघुकुल तिलक, बनारसीदास गुप्त, शांतिभूषण, जुगलकिशोर, डॉ. भगवानदास, ईश्वरदास जालान, श्रीमन्ननारायण अग्रवाल, वेदप्रकाश गोयल, वृषभानु गुप्त, सुदर्शन अग्रवाल जैसे असंख्य नेताओं ने राजनैतिक पतन की दुरावस्था में भी राजनीति में उच्च मूल्यों एवं आदर्शों की बागडोर संभाली। इस समाज के डॉ. राममनोहर लोहिया ही विपक्ष के ऐसे प्रबल नेता थे, जिनकी जुझारू प्रवृत्ति वाला नेता आज तक देश में दूसरा पैदा नहीं हुआ। कांग्रेस के एकछत्र शासन का विरोध कर भारत में गैर-कांग्रेसी शासन की नींव रखने वाले वे प्रथम नेता थे। देश में यही केवल ऐसा वर्ग है, जो राजनीति को कभी जातियों, वर्णो, समुदायों मे विभक्त करने की कोशिश नहीं करता और जिस देश की सार्वभौमिकता एवं अखंडता की सदैव रक्षा की है।

इस समाज का साहित्य के क्षेत्र में योगदान तो और भी अधिक है। इस समाज के ही कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं से भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध नवजागरण की लहर पैदा की और खड़ी बोली हिन्दी साहित्य को नवस्वरूप प्रदान करके एक नये आधुनिक युग का सूत्रपात किया। वे आधुनिक ‘खड़ी बोली हिंदी के जन्मदाता’ कहे जाते हैं। बृजभाषा में काव्य रचना करने वाले जगन्नाथप्रसाद रत्नाकर और राजस्थानी साहित्य को समृद्ध बनाने वाले शिवचंद्र भरतिया का नाम साहित्य जगत में आज भी अमर है। वैसे इस समाज ने बालमुकुंद गुप्त, कन्हैयालाल पोद्दार भारतभूषण अग्रवाल, केदारनाथ अग्रवाल, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, काका हाथरसी, ज्योतिशरण अग्रवाल, रघुवीरशरण मित्र, रामावतार, रामरिख मनोहर जैसे अनगिनत साहित्यकार समाज को दिए हैं, जिन पर कोई भी साहित्य गौरव का अनुभव कर सकता है।

डॉ. रघुवीर ने हिन्दी भाषा में लाखों नये शब्दों और अनेक शब्दकोषों का निर्माण कर हिंदी साहित्य की जो अमूल्य सेवा की उसका अन्यत्र उदाहरण मिलना कठिन है।

विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में भारत को एक से एक बढ़कर वैज्ञानिक और चिकित्सा-विज्ञानी इस समाज ने प्रदान किए है। आधुनिक अग्नि प्रक्षेप्रास्त्र के जनक डॉ. रामनारायण अग्रवाल भारत में ‘हरित क्रांति’ के जनक इंजीनियर सर गंगाराम, राजस्थान नहर जेसी विशाल योजना एवं भारत में भाखड़ा बांध जैसी परियोजनाओं के सूत्रधार डॉ. कंवरसेन, भूकंप विज्ञान के विशेषज्ञ डॉ. जयकृष्ण अग्रवाल, सुप्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. के. के. अग्रवाल, अस्थि रोग विशेषज्ञ डॉ. एच. आर. झुंझनूवाला, भारत मे पोलियो अभियान के जनक एवं दिल्ली में तंबाकू विरोधी अभियान के प्रवर्तक डॉ. हर्षवर्धन, विकलांग चिकित्सा के मसीहा डॉ. आर. के. अग्रवाल एवं कैलास मानव आदि इस समाज के वे गणमान्य वैज्ञानिक, इंजीनियर, चिकित्सक हैं, जिन्होंने राष्ट्र की अमूल्य सेवा कर विज्ञान जगत को गौरवान्वित किया है।

धार्मिक क्षेत्र में श्री जयदयाल गोयन्दका एवं हनुमान पोद्दार ने गीताप्रेस एवं कल्याण के माध्यम से जो कार्य किया है, वह अप्रतिम है। गीता प्रेस ने गीता, रामायण, भागवत, उपनिषद, वेद, पुराण, महाभारत आदि धर्मग्रंथो का सस्ते मूल्य में प्रकाशन और उन्हें घर-घर जनसाधारण में पहुंचा कर वैदिक सनातन धर्म की रक्षा और हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार का जो कार्य किया है, उसका उदाहरण मिलना कठिन है। खेमराज श्रीकृष्णदास एवं अन्य प्रकाशन संस्थाओं का भी इस दिशा में उल्लेखनीय सहयोग रहा है। ऋषिकेश स्थित स्वर्गाश्रम के तट पर बना गीताभवन आज भी भारत के लाखों श्रद्धालुओं के लिए प्रेरणास्त्रोत बना हुआ है। इसके अलावा इस समाज ने देश के कोने-कोने में मंदिरो, धर्मस्थलों, मठों आदि की स्थापना कर धर्मप्रचार के कार्य में अभूतपूर्व योगदान दिया है। आर्य समाज, जैन, बौद्ध, सिक्ख-कोई धर्म ऐसा नहीं है, जो इसके योगदान से अछूता हो। हाल ही में श्री सत्यनारायण गोयनका एवं सुभाष गोयल ने मुंबई में ‘विपश्यना पगोडा’ का निर्माण कर विपश्यना पद्धति के उद्धार का महान कार्य किया है। विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल का रामजन्मभूमि आंदोलन में जो योगदान रहा है, उसे सरलता से भुलाया नही जाना संभव नहीं है।
दान धर्म के क्षेत्र में तो इस समाज का कोई सानी नही है। इस समाज द्वारा निर्मित चिकित्सालयों, विद्यालयों, महाविद्यालयों, प्याउओं, अन्नक्षेत्रों आदि का पूरे देश में जाल बिछा हुआ है और अब युग की मांग को देखते हुए इस समाज के सेवा कार्यो का नये-नये क्षेत्रों में विस्तार हो रहा है। अब इस समाज द्वारा समय की आवश्यकता को देखते हुए स्थान-स्थान पर पोलियो, अंधता, कैंसर, मधुमेह आदि रोगों के निवारण के लिए नि:शुल्क शिविर लगाए जा रहे हैं, आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित विशालकाय अस्पतालों का निर्माण कराया जा रहा है, ज्ञान-विज्ञान की आधुनिक शिक्षा के लिए उच्च अध्ययन के लिए छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्तियां प्रदान की जा रही हैं, विकलांगो की सेवा के लिए नि:शुल्क कैम्प लगाए जा रहे हैं और बैसाखियां आदि उपलब्ध कराई जा रही है, जो इस समाज की मानवीय सेवा की भावना के श्रेष्ठ निदर्शन हैं।

पत्रकारिता एवं प्रकाशन के क्षेत्र में इस समाज का पूरा वर्चस्व है। भारत में सर्वाधिक बिक्री वाले इंडियन एक्सप्रेस, दैनिक भास्कर, जागरण, अमर उजाला, विश्वमित्र, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स जैसे जितने समाचार-पत्र, पत्रिकाएं हैं, इस समाज द्वारा संचालित होते हैं। इस क्षेत्र में रामनाथ गोयनका, नरेंद्र मोहन, रमेशचंद्र अग्रवाल, विवेक गोयनका, समीर जैन, शोभना भरतिया, विनीत जैन, शेखर गुप्ता, शिवकुमार गोयल, वेदप्रताप वैदिक जैसे असंख्य पत्रकार हैं, जिन्होंने पत्रकारिता की मशाल को अपने सशक्त हाथों में थामा हुआ है। रामनाथ गोयनका भारत में सत्ता परिवर्तन के वाहक समझे जाते थे और उन्होंने राजकीय तानाशाही से सदैव लोहा लिया।

मीडिया के क्षेत्र में जी. टी. वी. ने जो कुछ किया है, उसका सानी नहीं। समाचार-प्रसारण से लेकर फिल्म निर्माण तक उसका कोई मुकाबला नहीं। आज श्री सुभाष चंद्रा मनोरंजन जगत के बादशाह माने जाते हैं और पूरे विश्व के 140 देशों में उनके चैनलों द्वारा प्रसारित कार्यक्रमों को देखा जाता है। उन्होंने प्रसारण के लिए ‘अग्रणी’ सेटेलाइट की स्थापना कर इस दिशा में महान कार्य किया है।

कला, फिल्म एवं अभिनय के क्षेत्र में भी इस समाज की प्रतिभाएं अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। कला, संगीत, नृत्य के क्षेत्र में रश्मि अग्रवाल, शालू जिन्दल, निष्ठा अग्रवाल आदि ने पर्याप्त प्रसिद्धि अर्जित की है। शालू जिन्दल ने कुचिपुडी नृत्य में अ. भा. स्तर पर प्रतिष्ठा अर्जित की है। इसी प्रकार विभिन्न फिल्मों एवं टी. वी. सीरियलों में अनु अग्रवाल, स्मिता बंसल, सोनिया अग्रवाल, आरती अग्रवाल, काजल अग्रवाल, बिपाशा अग्रवाल आदि ने उत्कृष्ट प्रदर्शन कर कला क्षेत्र में भी अग्रवाल समाज के नाम को ऊचा किया है। अब केवल हिन्दी फिल्मों में ही नहीं, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ फिल्मों में भी अग्र-प्रतिभाएं श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रही हैं।

खेलकूद के क्षेत्र में विभिन्न खेलों में आशा अग्रवाल, संध्या अग्रवाल, किरण अग्रवाल, सुरेश गोयल, पुष्पेन्द्र गर्ग, अशोक गर्ग, ओम अग्रवाल आदि ने खेल जगत का सर्वोच्च अर्जुन पुरस्कार अर्जित कर समाज के नाम को गौरावन्वित किया है। श्री जगमोहन डालमिया ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में भारतीय क्रिकेट की बुलंदियों तक पहुंचाने का जो उल्लेखनीय कार्य किया, वह खेल जगत की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। ललित मोदी इंडियन प्रीमियर लीग के चेयरमैन तथा भारतीय क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष रहे। उनके निर्देशन में भारतीय क्रिकेट ने नई ऊँचाईयां छुईं। नेहा अग्रवाल ने बीजिंग में आयोजित ओलम्पिक खेलों में प्रथम टेबल टेनिस महिला खिलाड़ी के रूप में भाग लेकर अग्रवाल समाज के नाम को ऊँचा किया है। जी. टी. वी. के सुभाष गोयल ने इंडिया क्रिकेट लीग की स्थापना करके क्रिकेट खेल में जबरदस्त प्रतिस्पर्धी उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है। महान उद्योगपति एल. एन. मित्तल, मोबाइल जगत के शिरोमणि सुनील भारती मित्तल, जिंदल समूह के उदीयमान नक्षत्र नवीन जिंदल ने ओलम्पिक स्तर पर भारतीय खिलाड़ियों के उत्कृष्ठ प्रदर्शन हेतु विशेष प्रोत्साहन राशि की व्यवस्था की है। हाल ही में निशानेबाजों ने श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ी अभिनव बिंद्रा को मित्तल चैम्पियन ट्रस्ट द्वारा उल्लेखनीय सहायता प्रदान की गई थी।

इसी प्रकार न्याय, विधि, राष्ट्र रक्षा, कृषि, पर्यावरण, जादू-कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जो अग्रवाल समाज के योगदान से गौरवान्वित न हुआ हो। अब अमेरिका जैसे महान देशों में बॉबी पीयूष जिंदल, प्रीता बसंल, मंजू गनेडीवाल आदि ने उच्च पदों पर प्रतिष्ठापित होकर अंतरराष्ट्रीय जगत में स्थान बनाया है। इस समाज की अनेक विभूतियों पर डाक टिकट प्रकाशित कर और उन्हें भारत रत्न, पदमविभूषण, पदमभूषण, पदमश्री, शौर्य चक्र, महावीर चक्र, राष्ट्रपति पदक आदि अलंकरण प्रदान कर उनके विशिष्ट कृति को मान्यता प्रदान की गई है।

निष्कर्ष रूप में अग्रवाल समाज ने भारत राष्ट्र को प्रत्येक क्षेत्र में गौरवान्वित किया है और भारत को प्रतिष्ठा की उंचाइयों तक पहुंचाने एवं विश्व की तीसरी सबसे बड़ी शक्ति बनाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका है। सबसे बडी बात यह है कि यही एकमात्र समझ है, जो कभी जाति, पाति, धर्म, संप्रदाय, आदि संकीर्ण बातें न करता और जिसके लिए संपूर्ण भारत अपना परिवार, विश्व कुटुम्ब है एवं प्राणिमात्र के कल्याण की भावना जिसकी रग-रग मे समाई है। अब तक की उपलब्धियों के आधार पर यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि अग्रवाल समाज भारत के ही नहीं, ?? के श्रेष्ठतम समाजों में से एक है और उस पर गौरव अनुभव करने प्रत्येक अग्रवाल को अधिकार है।

THE GREAT AGRAWALS - बेमिसाल अग्रवाल

THE GREAT AGRAWALS - बेमिसाल अग्रवाल

अग्रवाल वणिक वर्ग और भारत के समृद्धतम और सबसे शांतिप्रिय, दानशील एवं राष्ट्रवादी समुदायों में से हैं। व्यापार बुद्धि कारोबार और उच्च प्रोफेशंस से जुड़ी इस जाति के लोगों के खून में है। आबादी का महज एक प्रतिशत होने के बावजूद अग्रवालों ने अपनी कामयाबियों से सिद्ध कर दिया है कि आगे बढ़ने के लिए मेहनत, सूझ और जोखिम सहने का जिगरा चाहिए, न कि आरक्षण।

दो सौ वर्ष मुंबई के

अग्रवाल समुदाय के लोग दो-ढाई सौ वर्ष पहले हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे स्थानों से आए और मुंबई, ठाणे व आस-पास बसते गए। आगरा, मथुरा, जैसे स्थानों से आने वाले अग्रवालों ने रेलवे की कैंटीनों के कॉन्ट्रेक्ट लिए, मिठाइयों व जनरल स्टोर्स की दुकानें खोलीं और अलसी, कॉटन व वायदा, जैसे कारोबारों में हाथ आजमाया। कइयों ने कालबादेवी जैसी जगहों में कपड़े की गद्दियां खोल लीं। व्यवसाय बुद्धि विरासत में मिली थी। कामयाबी मिलनी ही थी।

आज महानगर में अग्रवालों की तादाद सात आठ लाख से कम नहीं। 20 प्रतिशत पंजाबियों को छोड़ दें, तो मुंबई आने वाले तकरीबन सभी अग्रवाल हिंदीभाषी हैं। कुछ मारवाड़ी, हरियाणवी व पंजाबीभाषी और कुछ जैन धर्मावलंबी भी। अग्रवालों के स्कूल, कॉलेज, धर्मशालाएं और सामुदायिक स्थान मुंबई, ठाणे और नवी मुंबई में हर जगह मिलेंगे। ठाकुरद्वार व घाटकोपर स्थित अग्रसेन भवन और कोपरखैरणे का महालक्ष्मी मंदिर उनके सामुदायिक स्थान हैं। अग्रोहा विकास ट्रस्ट, अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन, अग्रबंधु सेवा समिति, अग्रवाल सेवा समाज, अग्रवाल सेवा समिति, मुंबई अग्रवाल सामूहिक विवाह सम्मेलन और महाराजा अग्रसेन सेवा संस्थान, महालक्ष्मी मंदिर भवन संस्थान जैसे उनके 35 के करीब संगठन मंदिर दर्शन, पिकनिक, खेलकूद, परिचर्चा, चिकित्सा, रक्त व सहायता शिविरों, आनंद व अग्रवाल मेलों, हरियाली तीज, सहभोज और स्नेह सम्मेलनों से लेकर विमानों और स्टार क्रूज से सामूहिक विदेश यात्राओं तक का आयोजन करते हैं। सोशल मीडिया पर यह समुदाय बेहतर ढंग से 'कनेक्टेड' है।

एकजुट होकर दिखाएंगे दम

'अब न पैसा, न वोट', अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन के राष्ट्रीय उप महामंत्री डॉ. राजेंद्र अग्रवाल संगठन के आंतरिक मंचों पर चल रहे विचार-मंथनों की चर्चा करते संजीदा हो गए, 'राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए जब चंदा और चुनाव जीतने के लिए वोट चाहिए होता है, तभी उन्हें हमारी याद आती है। आने वाले चुनावों में यह उपेक्षा हमें बर्दाश्त नहीं।' उन्होंने दो-टूक कहा, 'हमें टिकट देने वाला दल ही अब हमसे समर्थन की उम्मीद करे।' सो आने वाले चुनावों में कोशिश यह होने वाली है कि अग्रवाल प्रत्याशी चुनाव लड़े और जीते, चाहे वह किसी भी दल से संबंध रखता हो और समाज का एकमुश्त वोट उसे मिले।

चुनाव लड़ना और जीतना समाज की भावी रणनीति का अंग हो सकता है पर, राजनीति में पैर रखे बिना यह कैसे संभव है! व्यापार-उद्योग में अपनी कारोबारी बुद्धि और राष्ट्र निर्माण में अपने योगदान से प्रतिमान रचने वाले इस समाज में राजनीति के लिए जरूरी सक्रियता और इच्छा शक्ति का अभाव दिखता है। अग्रवाल सेवा समाज के अध्यक्ष सुरेशचंद्र अग्रवाल ने कबूल किया, 'लो प्रोफाइल और लॉबिइंग न करने की वजह से समाज राजनीतिक रूप से उपेक्षित रह गया।'

'समाज इसीलिए उपेक्षित है, क्योंकि वह एकजुट होकर अपनी मांगें रखने में कामयाब नहीं रहा है।', अग्रबंधु सेवा समिति के ट्रस्टी कानबिहारी अग्रवाल ने याद किया कि 3 वर्ष पहले जब 35 संस्थाओं ने एक मंच पर एकत्र होकर महाराजा अग्रसेन जयंती का सम्मिलित आयोजन किया था, तब वह कितना सफल रहा था। अग्रवाल सेवा समाज के सचिव आनंद प्रकाश गुप्ता का तर्क है, 'उच्च शिक्षित, बुद्धिजीवी और धनवान होने के कारण समाज के लोग हर मुद्दे को तर्क की कसौटी पर परखते हैं। इस कारण भी मतैक्य नहीं हो पाता है।' पिछले 28 वर्षो से विवाह योग्य युवाओं के सामूहिक परिचय सम्मेलन और विवाह करवा रहे अग्रवाल सामूहिक विवाह सम्मेलन के प्रमुख डालचंद गुप्ता ने दहेज और महंगी शादियों की कुप्रथाओं को दूर करने के लिए सामूहिक विवाह सम्मेलनों के रूप में की गई पहल के बारे में बताया, इस खेद के साथ कि इन आयोजनों में खाते-पीते और संपन्न तबकों के युवक-युवतियों ने भाग लेना अब बहुत कम कर दिया है।

नोटबंदी, जीएसटी और मंदी से सबसे ज्यादा प्रभावित

समुदाय के ज्यादातर लोगों की निष्ठा एक प्रमुख राजनीतिक दल की ओर झुकी हुई है, पर शिकायतों के साथ। कपड़ा व्यापार के-जहां इस वर्ग के लोग बड़ी तादाद में हैं-एक व्यापारी ने शिकायत की, 'सबसे ज्यादा टैक्स और चुनाव के लिए सबसे ज्यादा चंदा हम ही देते हैं, पर हमें चोर समझा जाता है।' एक अन्य व्यापारी ने बताया, 'सरकार हमसे केवल आर्थिक अपेक्षाएं ही रखती है।' धंधे की मंदी ने इस मलाल को बढ़ा दिया है। ई-कॉमर्स व अन्य विदेशी कंपनियों के बाजार में पैठ बनाने से यही समुदाय सबसे ज्यादा परेशान है। नोटबंदी और जीएसटी ने भी इसी समुदाय को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। खासकर, महाराष्ट्र में तो हालत यह है कि 'इंस्पेक्टर राज' की ज्यादतियों से त्रस्त होकर समाज के बिजनेसमैन अपने धंधे मुंबई से हटाकर पुणे और नासिक जैसी जगहों पर ले जाने लगे और उद्योगपति विदेशों में बैकअप ऑफिस कायम करने लगे हैं।

बदलने लगी है सूरत

- दहेज मांगने का चलन कम और शादी अपनी हैसियत वालों में ही की जाने लगी है।

- महिलाएं घर की दहलीज से बाहर दूसरे क्षेत्रों के साथ अब राजनीति में भी अलग पहचान बनाने लगी हैं।

- दुकानों की परंपरागत गद्दियों की जगह आधुनिक कार्यालय लेने लगे हैं।

- न्यायपालिका और प्रशासनिक सेवाओं में तादाद बढ़ी है।

- नई पीढ़ी का रुझान नौकरी से बदलकर फिर से व्यवसाय की ओर होने लगा है।

चुनौतियां

- एकजुटता न होने से वोट बैंक के रूप में अलग पहचान बनाने और सामूहिक ताकत से अपनी मांगें मना पाने में नाकामी।

- दहेज प्रथा, शादियों में आडंबर और फिजूलखर्ची।

- संयुक्त परिवार प्रथा से दूर होना। युवा पीढ़ी द्वारा पारंपरिकता को तिलांजलि।

- बड़े-छोटे का भेदभाव और परस्पर सहायता की भावना में कमी।

अग्रणी अग्रवाल

- अग्रवाल भारत के समृद्धतम समुदायों में ही नहीं, विश्व के सफलतम उद्यमी समुदायों में से है। कर के भुगतान के साथ देश की अर्थव्यवस्था में हाथ बंटाने में यह समाज सबसे आगे है।

- उद्योग-व्यापार से लेकर प्रशासन, रणक्षेत्र से लेकर स्वाधीनता संग्राम और राजनीति व साहित्य से लेकर कला तक, जीवन के हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में अग्रवालों ने अलग पहचान बनाई है। गोशालाएं व धर्मशालाएं बनवाने से लेकर देश को जब भी आर्थिक मदद की जरूरत पड़ी है 'भामाशाह' का काम किया है।

- देश के 46 प्रतिशत शेयर ब्रोकर अग्रवाल समाज के हैं। 35 फीसदी चार्टर्ड अकाउंटेंट, 21-21 फीसदी कॉस्ट अकाउंटेंट और कंपनी सेक्रेटरी इसी समुदाय से आते हैं।

- जिंदल स्टील, मित्तल आर्सेलर स्टील, भारती एयरटेल, जेट एयरवेज, वेदांता स्टरलाइट, जी ग्रुप, फ्लिपकार्ट, इंडियामार्ट, जोमैटो, स्नैपडील अग्रवालों की मिल्कियत वाली बड़ी कंपनियों में से हैं।

- देश की सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले अखबारों की मिल्कियत अग्रवालों के हाथ में है।

- भारत सरकार ने महाराजा अग्रसेन और नई दिल्ली स्थित अग्रसेन की बावली पर डाक टिकट जारी किया है। 1995 में दक्षिण कोरिया से खरीदे एक तेल वाहक पोत का नाम 'महाराजा अग्रसेन' रखा गया। राष्ट्रीय राजमार्ग-10 का आधिकारिक नाम भी महाराजा अग्रसेन पर है।

- भगवान अग्रसेन द्वारा प्रतिपादित समानता और समाजवाद के विचारों को भारत के संविधान में भी दर्ज किया गया है।

जय अग्रसेन... जय अग्रोहा...

क्षत्रिय सूर्यवंशी महाराज अग्रसेन-जो वैश्य कुल के संस्थापक हैं-करीब 5191 वर्ष पहले द्वापर युग में पैदा प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी और बलि प्रथा को बंद करवाने वाले सम्राट थे। उन्होंने देश में समानता और समाजवाद की नींव रखी और परिश्रम व उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसके समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान करने के साथ उन्होंने आत्म-रक्षा के लिए शस्त्र-प्रयोग की सीख भी दी।

महाभारत युद्ध के पहले लगभग 51 वर्ष पूर्व स्थापित महाराज अग्रसेन के गणराज्य अग्रेय (अग्रोहा) में जब भी कोई सजातीय परिवार बाहर से बसने आता था, हर परिवार उसे एक स्वर्णमुद्रा और एक ईंट देकर कारोबार और घर बनाने में मदद करता था। आर्थिक विपदा का बोझ सभी मिलकर शेयर करते थे। 108 वर्ष के अपने शासनकाल में महाभारत के यु्द्ध में पांडव पक्ष में लड़े महाराज अग्रसेन की राजधानी 18 प्रांतों में बंटी हुई थी, जो आगे चलकर 18 गोत्रों-गर्ग, गोयन, गोयल, कंसल, बंस , सिंहल, मित्तल, जिंदल, बिंदल, नाग, कुच्छल, भंदल, धारण, तायल, तिंगल, ऐरण, मधुकल और, मंगल जैसे गोत्रनामों और जायसवाल, बरनवाल, साहू, केसरवानी, लोहिया, अजमेरा, धारवाल, जैसे उपनामों से मशहूर हुए। अग्रवंशों की गद्दी हिसार (हरियाणा) के पास स्थित अग्रोहा, प्रवर : पंचप्रवर और कुलदेवी महालक्ष्मी हैं।

सिकंदर के आक्रमण के कारण अग्रोहा का पतन हो गया और अधिकांश अग्रेयवीर वीरगति को प्राप्त हो गए। एक सिद्ध की भविष्यवाणी के अनुरूप यह वैभवशाली नगर निरंतर आक्रमणों और आग में जलकर जब नष्ट हो गया, तब यहां के लोग पहले राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश और वहां से बाकी भूभागों और विदेशों में जा बसे। अग्रोहा से संबद्ध होने को कारण वे 'अग्रवाल' कहलाए। आजीविका के लिए तलवार छोड़ उन्हें तराजू पकड़नी पड़ा।

(कोट)

अग्रवाल समाज को वोट बैंक न होने का खामियाजा भुगतना पड़ा। समाज नेताओं को अपनी राजनीतिक पहचान बनाने की ओर भी ध्यान देना चाहिए।

- सुरेशचंद्र अग्रवाल, अध्यक्ष, अग्रवाल सेवा समाज

नोटबंदी, जीएसटी और खासकर कपड़ा व्यापार जैसे मामलों में टैक्स की मार से प्रभावित होने वाले वर्गों में अग्रवाल समाज भी है। पर, अपनी कर्मशीलता से उसने अपने मनोबल और राष्ट्रनिर्माण की भावना पर असर नहीं पड़ने दिया है।

- महेश अग्रवाल, बिल्डर-समाजसेवी

अग्रवाल पहले देश को देने के बारे में सोचते हैं, फिर समाज को। पर, हमारे समाज को मांगलिक आयोजनों में फिजूलखर्ची पर काबू पाने, दहेज प्रथा दूर करने और साधनों के अपव्यय की बुराई पर काबू पाने के लिए प्रयास और बढ़ाने चाहिए।

- डॉ. श्याम अग्रवाल, नेत्र चिकित्सक

अग्रवाल समाज में शादी-विवाह अब विजातीय और दूसरे कुलों में भी होने लगे हैं। दानशीलता बढ़ी है। व्यवसाय से अलग दूसरे पेशों, खासकर नौकरियों की ओर रुझान बढ़ा है।

- राजेंद्र अग्रवाल, अध्यक्ष, अग्रोहा विकास ट्रस्ट

बेटा-बेटी में भेदभाव होना बंद हो गया है। घर की चौखट से निकलकर महिलाएं शिक्षा के साथ व्यवसाय-उद्योग और जीवन के हर क्षेत्र में धूम मचा रही हैं।

- सुमन अग्रवाल, राष्ट्रीय सचिव, अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन)

विमल मिश्र

VARSHNEYA VAISHYA CASTE - वृष्णि वंश से हुई वाष्र्णेय समाज की उत्पत्ति

 VARSHNEYA VAISHYA CASTE - वृष्णि वंश से हुई वाष्र्णेय समाज की उत्पत्ति

बारहसैनी समाज का उद्गम महाभारत के समय या भगवान श्री कृष्ण की सदी से है। हमारे इष्ट देव श्री अक्रूर जी महाराज हैं जो वृष्णि वंश में उत्पन्न हुये। यह वृष्णि वंश यदुकुल की एक शाखा थी जिसमें भगवान श्री कृष्ण जी का भी अवतार हुआ।

श्री अक्रूर जी महाराज का जन्म श्री कृष्ण जी के पितृकुल में हुआ था अत: वे श्री कृष्ण जी के रिश्ते में चाचा लगते थे। इन सभी तथ्यों में कोई विरोधाभास नहीं मिलता है और पौराणिक सभी ग्रन्थ इन तथ्यों की पुष्टि करते है।

वृष्णि वंश के विषय में सभी पौराणिक ग्रन्थों में इस प्रकार व्याख्या दी गयी है–

वृषस्य पुत्रो मथुरासीम।तस्यापि वृष्णि प्रमुखं पुत्रं शातगसति।
यतो वृष्णि सलामेत दगोत्र भवाय।  

विष्णु पुराण।

अर्थात् वृश का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र हुये जिनमें पहला वृष्णि था। इसी के नाम से ही यह कुल वृष्णिकुल हुआ।

वृष्णिकुल का सीधा सम्बन्ध क्षत्रीय समाज से है लेकिन इतिहास यह दर्शाता है कि जिन क्षत्रियों या ब्राह्मणो ने अपने कर्मों को आधार ‘‘व्यापार’’ बनाया वे ‘‘ वैश्यो’’

वंश के जिस क्षत्रिय समुदाय ने व्यापार को अपनाया उनका कुल ‘‘ बारहसैनी’’ और बाद में ‘‘वार्ष्णेय’’ शब्द से सम्बोन्धित किया गया।

वाष्र्णेय (बारह सैनी) जाति का विकास मथुरा के वृष्णि वंश से हुआ है जिनके कुल प्रवर्तक अक्रूर जी हैं, जो वैश्य वर्ण के धर्म का पालन करने से वाष्र्णेय कहलाये गये थे। जिनके वंशज आज बारह सैनी वैश्य वाष्र्णेय कहलाये जाते हैं।

वाष्र्णेय समाज के कुल प्रवर्तक अक्रूर जी का जन्म मथुरा के वंश में हुआ था। इनके पिता का नाम शवफल्क और माता का नाम गान्दिनी था। विदुरजी के चचेरे भाई थे। अक्रूर जी के पिता शवफल्क के यहां मनु दारा बताये गये वैश्य वर्ण के सभी कार्य उच्च स्तर पर होते थे। उनके क्षेत्र में सदैव खुशहाली रहती थी। भागवत में लिखा है। कि जहां शवफल्क रहते थे वहां गरीबी और भुखमरी दूर ही रहती थी। अक्रूर जी ने अपने पिता काम-काज की परम्परा को आगे बढ़ाया और वह अपने समय में बडे धनी माने जाते थे। वह सदैव वैश्य वर्ण के धर्मो का ईमानदारी से पालन करते थे। इसलिए उनका कुल वैश्य कुल माना जाता था और वृष्णि वंश में होने से वह वाष्र्णेय नाम से प्रसिद्ध हुए। कंस जैसा प्रभावशाली परन्तु क्रूर शासक भी अक्रूर जी के प्रभाव को स्वीकार करता था। श्रीकृष्ण को मथुरा बुलाने के लिए कंस ने अक्रूर जी का ही सहारा लिया था। बाद में कंस वध के पश्चात श्रीकृष्ण अक्रूरजी के घर गये थे और उन्हें गुरु और चाचा कह कर उनका मान बढ़ाया था। इतना ही नहीं उनकी कार्य क्षमता पर मुग्ध होकर द्वारिका बसाने के बाद वहां की अर्थव्यवस्था का दायित्व भी अक्रूर जी को सौंपा था। वैश्यों के सभी काम-काज करने के कारण उनका कुल वाष्र्णेय (बारह सैनी) वैश्य के नाम से जाना जाने लगा। देश भर में वाष्र्णेय (बारह सैनी) समाज के लोग अक्रूर जी को अपना कुल प्रवर्तक मानते हैं। मथुरा जनपद में वृन्दावन के समीप अक्रूर गांव भी है जहां वाष्र्णेय समाज के तीर्थ के रूप में एक मन्दिर विकसित हो रहा है।

सुरीर माना जाता है अक्रूर जी का मुख्य केंद्र

मथुरा जनपद के कस्बा सुरीर को अक्रूर जी के कार्य क्षेत्र का मुख्य केंद्र माना गया है। वाष्र्णेय समाज के लोग सुरीर को अक्रूर जी की राजधानी बताते हैं। वाष्र्णेय समाज के लाल बहादुर आर्य ने बताया कि मथुरा के कस्बा सुरीर में पहले अक्रूर जी की राजधानी थी। यहां से ही वह अपने काम काज का संचालन करते थे। जिनके प्रमाण आज भी अभिलेखों में देखने को मिलते हैं। अक्रूरजी के सुरीर में जुड़े प्रमाणों को देखकर ही वाष्र्णेय समाज ने यहां उनकी यादगार को संजोये रखने के उद्देश्य से एक मन्दिर का निर्माण कराया है। जो वाष्र्णेय समाज को अपने कुल प्रवर्तक की याद दिलाता रहेगा।

देश में बसते हैं 50 लाख वाष्र्णेय

बाजना के मुकेश वाष्र्णेय ने बताया कि वाष्र्णेय समाज की उत्पत्ति भले ही जनपद मथुरा के सुरीर से हुई है लेकिन आज देशभर में वाष्र्णेय समाज की आबादी करीब 50 लाख है।

VIJENDER GUPTA - दिल्ली विधानसभा अध्यक्ष

VIJENDER GUPTA - दिल्ली विधानसभा अध्यक्ष

विजेंद्र गुप्ता (जन्म 14 अगस्त 1963) दिल्ली से भाजपा पार्टी के एक भारतीय राजनीतिज्ञ हैं। वे वर्तमान में दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष हैं । [ 1 ] इससे पहले वे रोहिणी निर्वाचन क्षेत्र से विधान सभा के सदस्य रह चुके हैं और भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी हैं। 2015 के दिल्ली राज्य चुनाव में वे जीतने वाले तीन भाजपा उम्मीदवारों में से एक थे और भाजपा की दिल्ली राज्य इकाई के अध्यक्ष भी थे। [ 2 ]


व्यक्तिगत जीवन

गुप्ता ने 1 नवंबर 1987 को शोभा गौतम से विवाह किया जो अब डॉ. शोभा विजेंद्र बन गईं, उन्होंने "सम्पूर्णा" नामक अग्रणी एनजीओ की स्थापना की। उनकी एक बेटी है जिसका नाम आइना है जिसका विवाह वरुण नायर से हुआ है और एक बेटा है जिसका नाम आधार है जिसका विवाह गरिमा जैन से हुआ है। [ 3 ]

राजनीतिक कैरियर

रामजस कॉलेज के पूर्व छात्र और रोहिणी से तीन बार पार्षद रहे गुप्ता दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व उपाध्यक्ष हैं ।

उन्होंने 1980 में जनता विद्यार्थी मोर्चा के सचिव के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया। 1983 में उन्हें जनता विद्यार्थी मोर्चा के संयुक्त संयोजक के रूप में पदोन्नत किया गया। 1995 में उन्हें केशवपुरम जिले में भारतीय जनता युवा मोर्चा का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

उनकी चुनावी यात्रा 1997 में शुरू हुई जब वे दिल्ली नगर निगम के पार्षद चुने गए । वे 1997 से 1998 तक दिल्ली नगर निगम की विधि एवं सामान्य प्रयोजन समिति के अध्यक्ष तथा 2001 से 2002 तक उच्चाधिकार प्राप्त गृहकर समिति के उपाध्यक्ष रहे। वे रोहिणी से तीन बार नगर निगम चुनाव जीत चुके हैं, वह भी दिल्ली में सबसे अधिक अंतर से। गुप्ता ने रोहिणी को एक आदर्श नगर निगम इकाई के रूप में विकसित किया है। [ 6 ]

2002 में उन्हें दिल्ली भाजपा का सचिव बनाया गया। गुप्ता ने 2009 का लोकसभा चुनाव भी चांदनी चौक निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के कपिल सिब्बल के खिलाफ लड़ा था, लेकिन हार गए थे। गुप्ता को 15 मई 2010 को भाजपा दिल्ली का अध्यक्ष मनोनीत किया गया। उन्होंने 2013 का दिल्ली विधानसभा चुनाव नई दिल्ली से लड़ा, लेकिन अरविंद केजरीवाल से हार गए । 

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में उन्होंने रोहिणी से फिर से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। ​​वे जीत हासिल करने वाले तीन भाजपा उम्मीदवारों में से एक थे। विजेंद्र गुप्ता को 16 अप्रैल 2015 को दिल्ली विधानसभा में विपक्ष का नेता (एलओपी) नियुक्त किया गया। 

उन्होंने 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में रोहिणी के आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार राजेश नामा 'बंसीवाला' को 12,000 से अधिक मतों के अंतर से हराया। 

2025 के दिल्ली विधान सभा चुनाव में , उन्होंने 37000 से अधिक मतों के अंतर से फिर से अपनी सीट जीती, जो चुनाव जीतने वाले सभी 48 भाजपा उम्मीदवारों में सबसे अधिक थी।

20 फरवरी को उन्हें दिल्ली विधानसभा का अध्यक्ष चुना गया।

VAISHYA - BANIYA - VANIK - VANIYA - VANI - SETH - LALA - MAHAJAN - SAHU - SAHUKAR - SAHJI - SHAH

VAISHYA - BANIYA - VANIK - VANIYA - VANI - SETH - LALA - MAHAJAN - SAHU - SAHUKAR - SAHJI - SHAH 

बनिया, बानी, वाणी, महाजन, सेठ, साहूकार। - बैंकर, साहूकार और अनाज, घी (मक्खन), किराने का सामान और मसालों के व्यापारी की व्यावसायिक जाति। बनिया नाम संस्कृत के वणिज, यानी व्यापारी से लिया गया है। पश्चिमी भारत में बनियों को हमेशा वानिया या वाणी कहा जाता है। महाजन का शाब्दिक अर्थ है महान व्यक्ति, और सफल बनियों के लिए एक सम्मानजनक उपाधि के रूप में लागू होने के कारण अब यह बैंकर या साहूकार को दर्शाता है; सेठ एक महान व्यापारी या पूंजीपति को दर्शाता है, और इसे बनियों के लिए एक सम्मानजनक उपसर्ग के रूप में लागू किया जाता है। साहू, साओ और साहूकार शब्दों का अर्थ है ईमानदार या ईमानदार, और यह भी, काफी दिलचस्प बात है, एक साहूकार को दर्शाता है। 1911 में मध्य प्रांतों में बनियों की कुल संख्या लगभग 20000,000 थी, या जनसंख्या का 10  प्रतिशत से अधिक। उपरोक्त कुल में से दो-तिहाई हिंदू और एक-तिहाई जैन थे। यह जाति पूरे प्रांत में समान रूप से वितरित है, बड़े शहरों और काफी मात्रा में व्यापार वाले जिलों में इसकी संख्या सबसे अधिक है।

बनिया एक सच्ची जाति: नाम का उपयोग.

इस बात पर बहुत मतभेद रहा है कि बनिया नाम को जाति के रूप में लिया जाना चाहिए या यह केवल एक व्यवसायिक शब्द है जिसका प्रयोग कई अलग-अलग जातियों के लिए किया जाता है। मेरा मानना ​​है कि इसे जाति के रूप में लेना आवश्यक और वैज्ञानिक रूप से सही है। बंगाल में बनिया शब्द, जो बनिया का अपभ्रंश है, संभवतः एक सामान्य शब्द बन गया है जिसका अर्थ केवल बैंकर या पैसे का लेन-देन करने वाला व्यक्ति होता है। लेकिन ऐसा अन्यत्र नहीं लगता है। एक नियम के रूप में बनिया नाम का प्रयोग केवल उन समूहों के लिए एक जाति के नाम के रूप में किया जाता है जिन्हें स्वयं और बाहरी लोग दोनों ही बनिया जाति से संबंधित मानते हैं। इसे कभी-कभी अन्य जातियों के सदस्यों के लिए भी लागू किया जा सकता है,  बनियों को लोगों द्वारा एक अलग जाति के रूप में पहचाना जाता है, यह उनके बारे में अपमानजनक कहावतों और कहावतों की संख्या से पता चलता है, जो किसी भी अन्य जाति के मामले में कहीं अधिक है। इन सभी में बनिया नाम का उपयोग किया जाता है, न कि किसी उपखंड का, और यह इंगित करता है कि किसी भी उपखंड को विशिष्ट सामाजिक समूह या जाति के रूप में नहीं देखा जाता है।

इसके अलावा, जहाँ तक मेरी जानकारी है, बनिया नाम का इस्तेमाल जाति के अंतर्गत आने वाले सभी समूहों के लिए किया जाता है और ऐसा कोई समूह नहीं है जो इस नाम पर आपत्ति करता हो या जिसके सदस्य खुद को इस नाम से वर्णित करने से इनकार करते हों। यह बात हमेशा अन्य महत्वपूर्ण जातियों के मामले में नहीं होती। मंडला के राठौर तेली तेली नाम से पुकारे बनिया होते हैं. , हालाँकि उन्हें इस जाति में वर्गीकृत किया गया है। महत्वपूर्ण अहीर या चरवाहा जाति के मामले में, जो लोग मवेशी चराने के बजाय दूध बेचते हैं उन्हें गौली कहा जाता है, लेकिन वे अहीर जाति के सदस्य बने रहते हैं। छत्तीसगढ़ में अहीर को रावत और मराठा जिलों में गोवारी कहा जाता है, लेकिन फिर भी वे जाति से अहीर हो सकते हैं। पान की बेल उगाने और बेचने वाली बरई जाति को कुछ इलाकों में तंबोली कहा जाता है, बरई नहीं; अन्य जगहों पर इसे केवल पंसारी के नाम से जाना जाता है, हालाँकि पंसारी नाम सही मायने में एक व्यावसायिक शब्द है और जहाँ इसे बरई के लिए लागू नहीं किया जाता है, वहाँ इसका मतलब पेशे से किराना या दवा विक्रेता होता है, न कि जाति। दूसरी ओर, भारत के अधिकांश भाग में बनिया शब्द केवल उन लोगों के लिए प्रयुक्त होता है जो स्वयं को बनिया जाति का सदस्य मानते हैं तथा हिंदू समाज द्वारा उन्हें सामान्यतः मान्यता प्राप्त है, तथा ऐसे व्यक्तियों के किसी भी बड़े वर्ग के लिए सामान्यतः कोई अन्य नाम प्रयुक्त नहीं होता है। बनिया की कुछ अधिक महत्वपूर्ण उपजातियाँ, जैसे अग्रवाल, ओसवाल तथा परवार, यह सच है कि प्रायः उपजाति के नाम से जानी जाती हैं। लेकिन जाति का नाम प्रायः या उससे भी अधिक बार इसके साथ जोड़ दिया जाता है। अग्रवाल या अग्रवाल बनिया, इस उपजाति को निर्दिष्ट करने के लिए समान रूप से प्रयुक्त होने वाले नाम हैं, तथा ओसवाल और परवार के लिए भी समान रूप से प्रयुक्त होते हैं; तथा यहाँ तक कि उपजाति का नाम केवल अधिक सटीकता तथा प्रशंसा के लिए प्रयुक्त होता है, क्योंकि ये सर्वोत्तम उपजातियाँ हैं; किसी शहर के बनिया क्षेत्र को बनिया महल्ला कहा जाएगा, तथा इसके निवासियों को बनिया कहा जाएगा, यद्यपि वे लगभग सभी अग्रवाल या ओसवाल हो सकते हैं।

इसी तरह कई राजपूत वंशों को उनके वंश के नामों से पुकारा जाता है, जैसे राठौर, पंवार, इत्यादि, बिना जाति नाम राजपूत जोड़े। ब्राह्मण उपजातियों का उल्लेख आमतौर पर अधिक सटीकता के लिए उनके उपजाति नाम से किया जाता है, हालांकि उनके मामले में भी जाति का नाम जोड़ना आम बात है। और अन्य जातियों के उपविभाग हैं, जैसे जैसवार चमार और सोमवंशी मेहरा, जो हमेशा अपने उपजाति नाम से ही खुद को पुकारते हैं, और जाति नाम को पूरी तरह से त्याग देते हैं, क्योंकि उन्हें इस पर शर्म आती है, लेकिन फिर भी उन्हें अपनी मूल जातियों से संबंधित माना जाता है। इस प्रकार सामान्य उपयोग के मामले में बनिया सभी मामलों में एक उचित जाति नाम की आवश्यकताओं के अनुरूप है।

उनका विशिष्ट व्यवसाय.

बनियों का एक अलग और सुपरिभाषित पारंपरिक व्यवसाय भी है,  जिसे लगभग हर उपजाति के कई या अधिकांश सदस्य करते हैं, जहाँ तक देखा गया है। इस व्यवसाय के कारण जाति को एक समूह के रूप में लोकप्रिय अनुमान में विशेष मानसिक और नैतिक विशेषताओं का श्रेय दिया जाता है, शायद किसी भी अन्य जाति की तुलना में अधिक हद तक। कोई भी उपजाति अपने पारंपरिक व्यवसाय से शर्मिंदा नहीं है या इसे छोड़ने की कोशिश नहीं करती है। यह सच है कि कुछ उपजातियाँ जैसे कि कसौंधन और कासरवानी, जो धातु के बर्तन बेचते हैं, जाहिर तौर पर मूल रूप से कुछ अलग पेशा रखते थे, हालाँकि पारंपरिक पेशे से मिलते-जुलते थे; लेकिन वे भी, अगर वे कभी केवल बर्तन बेचते थे, अब बड़े पैमाने पर पारंपरिक बनिया पेशे में लगे हुए हैं, और आम तौर पर अनाज और पैसे का व्यापार करते हैं। बनिया, इसमें कोई संदेह नहीं है क्योंकि यह लाभदायक और सम्मानजनक दोनों है, किसानों को छोड़कर लगभग किसी भी बड़ी जाति की तुलना में अपने पारंपरिक व्यवसाय से अधिक आम तौर पर जुड़े हुए हैं। श्री मार्टन द्वारा विभिन्न जातियों के व्यवसायों के विश्लेषण  से पता चलता है कि साठ प्रतिशत बनिया अभी भी व्यापार में लगे हुए हैं; जबकि केवल उन्नीस प्रतिशत ब्राह्मण धार्मिक व्यवसाय करते हैं; उनतीस प्रतिशत अहीर चरवाहे, पशु-व्यापारी या दूधवाले हैं; केवल नौ प्रतिशत तेली बनिया सभी उद्योगों में लगे हुए हैं, जिसमें तेल निकालने का उनका पारंपरिक व्यवसाय भी शामिल है

उनकी विशिष्ट स्थिति.

बनियों की एक विशिष्ट सामाजिक स्थिति भी है। उन्हें, हालांकि शायद गलत तरीके से, वैश्यों या आर्यन द्विजों के तीसरे महान विभाग का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है; वे राजपूतों से ठीक नीचे और शायद ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य सभी जातियों से ऊपर हैं; ब्राह्मण कई बनियों से बिना पानी के पका हुआ भोजन और सभी से पीने का पानी लेते हैं। लगभग सभी बनिया पवित्र धागा पहनते हैं; और बनियों की पहचान इस तथ्य से होती है कि वे किसी भी अन्य जाति की तुलना में अधिक सख्ती से और आम तौर पर सभी प्रकार के मांस भोजन से परहेज करते हैं। आहार के संबंध में उनके नियम असाधारण रूप से सख्त हैं, और अधिकांश उपविभागों द्वारा समान रूप से उनका पालन किया जाता है।

बनियों के अंतर्विवाही विभाजन.

इस प्रकार बनिया स्पष्ट रूप से जाति की परिभाषा को पूरा करते हैं, क्योंकि वे एक या एक से अधिक अंतर्विवाही समूहों या उपजातियों से मिलकर बने होते हैं, जिनका एक अलग नाम होता है, एक विशिष्ट व्यवसाय और एक विशिष्ट सामाजिक स्थिति होती है; और उन्हें जाति न मानने का कोई कारण नहीं दिखता। दूसरी ओर यदि हम बनिया की उपजातियों की जांच करें तो हम पाते हैं कि उनमें से अधिकांश के नाम स्थानों से व्युत्पन्न हैं, जो किसी अलग मूल, व्यवसाय या स्थिति को नहीं दर्शाते हैं, बल्कि केवल अलग-अलग इलाकों में निवास करते हैं। ऐसे विभाजनों को उचित रूप से उपजाति कहा जाता है, क्योंकि वे केवल अंतर्विवाही होते हैं, और किसी अन्य तरीके से विशिष्ट नहीं होते हैं। व्यवसाय या सामाजिक स्थिति के संबंध में किसी भी उपजाति को दूसरों से स्पष्ट रूप से अलग नहीं किया जा सकता है, और इसलिए किसी को भी स्पष्ट रूप से एक अलग जाति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। बनिया की सबसे ऊंची उपजातियों, अग्रवाल, ओसवाल और परवार, और निचली उपजातियों, कसौंधन, कासरवानी, दोसर और अन्य के बीच स्थिति में कोई संदेह नहीं है। लेकिन यह अंतर उतना बड़ा नहीं है जितना कि राजपूत और भाट जैसी महत्वपूर्ण जातियों में शामिल विभिन्न समूहों को अलग करता है। यह भी सच है कि अग्रवाल और ओसवाल जैसी उपजातियाँ व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मराठा, खेड़ावाल, कनौजिया और मैथिल ब्राह्मणों या सेसोदिया, राठौर, पंवार और जादोन राजपूतों से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं हैं।

बनिया की उच्च उपजातियाँ स्वयं एक दूसरे से बिना पानी के पका हुआ भोजन ग्रहण करके एक सामान्य संबंध को मान्यता देती हैं, जो उपजातियों में एक बहुत ही दुर्लभ प्रथा है। उनमें से कुछ के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि उन्होंने आपस में विवाह भी किया है। दूसरी ओर यदि यह तर्क दिया जाए कि दो या तीन या अधिक महत्वपूर्ण उप-विभाजनों को स्वतंत्र जातियों में नहीं बदल देना चाहिए, बल्कि यह कि बनिया कोई जाति ही नहीं है, और प्रत्येक उपजाति को एक अलग जाति माना जाना चाहिए, तो ऐसे विशुद्ध स्थानीय समूह जैसे कि कनौजिया, जैसवार, गुजराती, जौनपुरी और अन्य, जो चालीस या पचास अन्य जातियों में पाए जाते हैं, उन्हें अलग जातियाँ बन जाना पड़ेगा; और यदि इस एक मामले में ऐसा है तो अन्य सभी जातियों में क्यों नहीं, जहाँ वे पाए जाते हैं? इसका परिणाम चालीस या पचास एक ही नाम की जातियों की असंभव स्थिति होगी, जो एक दूसरे के साथ किसी भी प्रकार का संबंध नहीं मानती हैं, और जातियों की कोई भी व्यवस्था या वर्गीकरण पूरी तरह से अव्यवहारिक हो जाता है। और 1911 में मध्य प्रांतों में 2000,000 बनियों में से 43,000 को कोई उपजाति नहीं दी गयी, और इसलिए इन्हें किसी अन्य नाम के तहत वर्गीकृत करना असंभव होगा।

बनिया शब्द राजपूतों से उत्पन्न हुआ है।

बनियों को आमतौर पर वैश्य या चार शास्त्रीय जातियों में से तीसरी जाति माना जाता है, हिंदू समाज और इस विषय के प्रमुख अधिकारियों द्वारा। शायद यह उनकी उत्पत्ति का दृष्टिकोण है जो उन्हें एक नहीं बल्कि कई जातियों के रूप में मानने की प्रवृत्ति के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार है। लेकिन इसकी सत्यता संदिग्ध है। महत्वपूर्ण बनिया समूह राजपूत वंश के प्रतीत होते हैं। वे लगभग सभी राजपूताना, बुंदेलखंड या गुजरात से आते हैं, यानी प्रमुख राजपूत वंशों के घरों से। उनमें से कई में राजपूत वंश की किंवदंतियाँ हैं। अग्रवाल कहते हैं कि उनके पहले पूर्वज एक क्षत्रिय राजा थे, जिन्होंने एक नाग या साँप राजकुमारी से विवाह किया था; माना जाता है कि नाग जाति सीथियन प्रवासियों का प्रतीक थी, जो साँप-पूजक थे और जिनसे राजपूतों के कई वंश संभवतः निकले थे। अग्रवालों ने अपना नाम प्राचीन शहर अग्रोहा या संभवतः आगरा से लिया।

ओसवाल कहते हैं कि उनके पूर्वज मारवाड़ के ओसनगर के राजपूत राजा थे, जिन्हें उनके अनुयायियों के साथ एक जैन भिक्षु ने धर्मांतरित किया था। नेमा कहते हैं कि उनके पूर्वज चौदह युवा राजपूत राजकुमार थे, जो शस्त्र चलाने का पेशा छोड़कर व्यापार करने लगे थे और परशुराम के प्रतिशोध से बच गए थे। खंडेलवाल अपना नाम राजपूताना के जयपुर राज्य के खंडेला शहर से लेते हैं। कासरवानी कहते हैं कि वे बुंदेलखंड के कारा मानिकपुर से आकर बसे थे। उमरे बनियों की उत्पत्ति के बारे में पता नहीं है, लेकिन गुजरात में उन्हें बागरिया भी कहा जाता है, जो राजपूताना के डोंगरपुर और परताबगढ़ राज्यों के बागर या जंगली इलाके से आते हैं, जहाँ उनमें से कई अभी भी बसे हुए हैं; बागरिया नाम से ऐसा लगता है कि वे वहाँ से गुजरात में आकर बसे थे।

धूसर बनिया अपना नाम अलवर राज्य की सीमा पर धूसी या ढोसी नामक पहाड़ी से जोड़ते हैं। असती कहते हैं कि उनका मूल निवास बुंदेलखंड में टीकमगढ़ राज्य था। माना जाता है कि महेशरियों का नाम महेश्वर से लिया गया है, जो इंदौर के पास नेरबुड्डा पर एक प्राचीन शहर है, जिसे पारंपरिक रूप से यादव राजपूतों की सबसे पुरानी बस्ती माना जाता है। कहा जाता है कि गहोई बनियों का मुख्यालय बुंदेलखंड में खड़गपुर में था, हालांकि उनकी अपनी किंवदंती के अनुसार वे मिश्रित मूल के हैं। श्रीमाली का निवास श्रीमाल का पुराना शहर था, जो अब मारवाड़ में भीनमाल है। पल्लीवाल बनिया मारवाड़ के प्रसिद्ध व्यापारिक शहर पाली से थे। कहा जाता है कि जैसवाल ने अपना नाम जैसलमेर राज्य से लिया है, जो उनका मूल देश था। उपरोक्त निस्संदेह बनिया उपजातियों का केवल एक अंश हैं, लेकिन उनमें लगभग सभी सबसे महत्वपूर्ण और प्रतिनिधि शामिल हैं, जिनसे जाति को अपनी स्थिति और चरित्र प्राप्त होता है। अन्य अनेक समूहों में से अधिकांश संभवतः देश के विभिन्न भागों में जाति के कुछ हिस्सों के प्रवास और बसावट के माध्यम से अस्तित्व में आए हैं, जहां वे अंतर्जातीय विवाह करने लगे हैं और उन्हें नया नाम प्राप्त हो गया है।

अन्य उपजातियाँ उन व्यक्तियों के समूहों से बनी हो सकती हैं, जिन्होंने व्यापार करना शुरू किया और समृद्ध हुए, अपने ब्राह्मण पुरोहितों के प्रयासों से बनिया जाति में प्रवेश प्राप्त किया। लेकिन ब्राह्मणों और राजपूतों में भी एक ही चरित्र के कई मिश्रित समूह पाए जाते हैं, और उनका अस्तित्व प्रतिनिधि उपजातियों के विचार से प्राप्त तर्कों को अमान्य नहीं करता है। यह कहा जा सकता है कि न केवल बनियों, बल्कि कई निम्न जातियों के पास ऐसी किंवदंतियाँ हैं जो उन्हें ऊपर उद्धृत किए गए चरित्र के समान राजपूत वंश से दर्शाती हैं; और चूँकि उनके मामले में इन कहानियों को नकली और बेकार ठहराया गया है, इसलिए बनियों की कहानियों को अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि बनियों के मामले में कहानियाँ इस तथ्य से पुष्ट होती हैं कि बनिया उपजातियाँ निश्चित रूप से राजपूताना से आती हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे उच्च जाति के हैं, और यह कि वे या तो ब्राह्मणों या राजपूतों से आए होंगे, या वे स्वयं किसी अलग विदेशी समूह का प्रतिनिधित्व करते होंगे; लेकिन यदि वे वास्तव में वैश्यों के वंशज हैं, जो आर्य प्रवासियों का मुख्य समूह और चार शास्त्रीय जातियों में से तीसरी जाति है, तो यह उम्मीद की जा सकती है कि उनकी किंवदंतियों में उनके राजपूत मूल के पक्ष में एकजुट होने के बजाय इसका कुछ संकेत मिलेगा।

कर्नल टॉड ने चौरासी व्यापारिक जनजातियों की एक सूची दी है, जिनके बारे में उनका कहना है कि वे मुख्यतः राजपूत वंश के हैं।  इस सूची में अग्रवाल, ओसवाल, श्रीमाल, खंडेलवाल, पल्लीवाल और लाड उपजातियां आती हैं; जबकि धाकड़ और धूसर उपजातियों को सूचियों में धाकड़वाल और दूसोरा नामों से दर्शाया जा सकता है। टॉड द्वारा दिए गए अन्य नाम मुख्य रूप से राजपूताना के छोटे क्षेत्रीय समूह प्रतीत होते हैं। अन्यत्र, राजपूताना के कुछ शहरों के व्यापार के केंद्र होने के दावों की बात करने के बाद, कर्नल टॉड टिप्पणी करते हैं: "इन दावों को हम और अधिक आसानी से स्वीकार कर सकते हैं, जब हम याद करते हैं कि भारत के नौ-दसवें बैंकर और वाणिज्यिक लोग मरुदेश के मूल निवासी हैं,  और ये मुख्य रूप से जैन धर्म के हैं ये सभी राजपूत वंश का दावा करते हैं, यह तथ्य हिंदू रीति-रिवाजों की विशिष्टताओं के बारे में यूरोपीय अन्वेषकों के लिए पूरी तरह से अज्ञात है।”

इसी तरह, सर डी. इबेट्सन कहते हैं कि महेशरी बनिया राजपूत मूल का दावा करते हैं और अभी भी राजपूत नामों वाले उपविभाग हैं।  इलियट यह भी कहते हैं कि हिंदुस्तान की लगभग सभी व्यापारिक जनजातियाँ राजपूत वंश की हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि बनिया राजपूतों की एक शाखा है, जिन्होंने वाणिज्य को अपनाया और हिसाब-किताब रखने के उद्देश्य से पढ़ना-लिखना सीखा। बनिया राजपूत दरबारों में मंत्री के रूप में कार्यरत थे। शिक्षित होने के कारण बनियों को अक्सर राजपूत राज्यों में मंत्री और कोषाध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया जाता था। फोर्ब्स ने एक भारतीय दरबार के विवरण में कहा है: "राजा के बगल में राजपूत जाति के योद्धा खड़े होते हैं या, युद्ध में समान रूप से वीर और परिषद में अधिक बुद्धिमान, वानिया (बनिया) मुंतरेश्वर, जो पहले से ही शांति के पेशे में शुद्धतावादी थे, और अभी तक उनके उग्र क्षत्रिय रक्त को पर्याप्त रूप से समाप्त नहीं किया गया था... यह उल्लेखनीय है कि उच्च पद रखने वाले और स्वतंत्र कमान संभालने वाले बहुत से अधिकारियों को वानिया बताया गया है।"

कर्नल टॉड लिखते हैं कि शेखावत संघ के कछवाहा प्रमुख ननकुर्ण का एक मंत्री था जिसका नाम देवी दास था जो बनिया या व्यापारिक जाति का था और उस जाति के हजारों लोगों की तरह ऊर्जावान, चतुर और बुद्धिमान था। इसी तरह, जैसलमेर के जादोन भट्टी प्रमुख मुहाज ने एक बनिया मंत्री के नाखुश चुनाव से भट्टी राज्य का मनोबल गिरा दिया। इस मंत्री का नाम सरूप सिंह था, जो जैन धर्म और मेहता परिवार का बनिया था, जिसके वंशज जैसल के बेटों के कानूनों और भाग्य को नष्ट करने वाले बने। बनिया मंत्रियों की नियुक्ति के अन्य उदाहरण राजपूत इतिहास में मिलते हैं। अंत में, यह ध्यान दिया जा सकता है कि बनिया किसी भी तरह से राजपूतों से बने व्यापारिक वर्ग का एकमात्र उदाहरण नहीं है

उपजातियां

बनिया कई अंतर्विवाही समूहों या उपजातियों में विभाजित हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण को संलग्न अधीनस्थ लेखों में शामिल किया गया है। मुख्य रूप से प्रवासन द्वारा गठित छोटी उपजातियाँ, विभिन्न प्रांतों में बहुत भिन्न होती हैं। कर्नल टॉड ने राजपूताना में अस्सी-चार की सूची दी, जिनमें से केवल आठ या दस को मध्य प्रांतों में पहचाना जा सकता है, और भट्टाचार्य ने उत्तरी भारत में सबसे आम समूहों के रूप में जिन तीस का उल्लेख किया है, उनमें से लगभग एक तिहाई मध्य प्रांतों में अज्ञात हैं। ऐसी उपजातियों की उत्पत्ति पहले ही बताई जा चुकी है। मुख्य उपजातियों को मोटे तौर पर राजपूताना, बुंदेलखंड और संयुक्त प्रांत से आने वाले समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रमुख राजपूताना समूह ओसवाल, महेशरी, खंडेलवाल, सैतवाल, श्रीमल और जायसवाल हैं।

इन समूहों को आम तौर पर मारवाड़ी बनिया या बस मारवाड़ी के नाम से जाना जाता है। बुंदेलखंड या मध्य भारत की उपजातियाँ गहोई, गोलापुरब, असाटी, उमरे और परवार हैं; जबकि अग्रवाल, धूसर, अग्रहारी, अजुधियाबासी और अन्य संयुक्त प्रांत से आते हैं। लाड उपजाति गुजरात से है, जबकि लिंगायत मूल रूप से तेलुगु और कैनारेस देश के थे। एक ही इलाके से आने वाली कई उपजातियाँ एक-दूसरे से बिना पानी के पका हुआ खाना लेती हैं और कभी-कभी दो उपजातियाँ, जैसे ओसवाल और खंडेलवाल, पानी या कच्ची के साथ पका हुआ खाना भी लेती हैं। यह प्रथा अन्य अच्छी जातियों में शायद ही कभी पाई जाती है। यह शायद इस तथ्य के कारण है कि राजपूताना में भोजन के बारे में नियमों का कम सख्ती से पालन किया जाता है।

हिन्दू और जैन उपजातियाँ: उपजातियों के बीच विभाजन।

हिंदू या जैन धर्म के अनुसार उपजातियों का एक और वर्गीकरण किया जा सकता है; महत्वपूर्ण जैन उपजातियाँ ओसवाल, परवार, गोलापूरब, सैतवाल और चरनगर हैं, और एक या दो छोटी उपजातियाँ हैं, जैसे कि बघेलवाल और समैया। अन्य उपजातियाँ मुख्य रूप से हिंदू हैं, लेकिन कई में जैन अल्पसंख्यक हैं, और इसी तरह जैन उपजातियाँ हिंदुओं का एक हिस्सा हैं। धर्म का अंतर बहुत कम मायने रखता है, क्योंकि व्यावहारिक रूप से सभी गैर-जैन बनिया सख्त वैष्णव हिंदू हैं, किसी भी तरह के मांस से पूरी तरह परहेज़ करते हैं, और पशु जीवन को लेना पाप मानते हैं; जबकि उनके पक्ष में जैन कुछ उद्देश्यों के लिए ब्राह्मणों को नियुक्त करते हैं, कुछ स्थानीय हिंदू देवताओं की पूजा करते हैं, और प्रमुख हिंदू त्योहार मनाते हैं। एक उपजाति के जैन और हिंदू वर्गों को, एक नियम के रूप में, एक साथ भोजन करने पर कोई आपत्ति नहीं है, और कभी-कभी वे आपस में विवाह भी करते हैं। कई महत्वपूर्ण उपजातियाँ बीसा और दासा, या बीस और दस समूहों में विभाजित हैं। बीसा या बीस समूह शुद्ध वंश या बीस कैरेट का होता है, जबकि दासों को उनके परिवार की वंशावली में एक निश्चित मात्रा में मिश्रधातु माना जाता है। वे पुनर्विवाहित विधवाओं की संतान हैं, और शायद कभी-कभी और भी अधिक अनियमित विवाहों की संतान हैं। कभी-कभी दोनों समूहों के बीच अंतर्विवाह होता है, और दास समूह के परिवार सम्मानजनक जीवन जीकर और अच्छी शादी करके अपनी स्थिति में सुधार करते हैं, और शायद अंततः बीसा समूह में वापस आ जाते हैं। जैसे-जैसे दास अधिक सम्मानित होते जाते हैं, वे अपने समुदाय में नवविवाहित विधवाओं या उन जोड़ों को स्वीकार नहीं करते हैं जिन्होंने निषिद्ध डिग्री के भीतर विवाह किया है, या अन्यथा विवाह किया है, और इसलिए इनके लिए जगह बनाने के लिए एक तीसरा निम्न समूह, जिसे पचा या पाँच कहा जाता है, अस्तित्व में लाया जाता है।

शादी

बहिर्विवाह और विवाह को विनियमित करने वाले नियम।

अधिकांश उपजातियों में विवाह-बहिर्गमन की एक विस्तृत प्रणाली है। वे या तो कई वर्गों में विभाजित हैं, या कुछ गोत्रों में, आमतौर पर बारह, जिनमें से प्रत्येक को आगे उप-वर्गों में विभाजित किया गया है। फिर विवाह को विनियमित किया जा सकता है, किसी व्यक्ति को अपने पूरे वर्ग से या अपनी माँ, दादी और यहाँ तक कि परदादी के उप-वर्ग से पत्नी लेने से मना करके। इस तरह से पुरुषों या महिलाओं के माध्यम से पाँच या उससे अधिक डिग्री के रिश्ते के भीतर व्यक्तियों के मिलन से बचा जाता है, और अधिकांश बनिया पाँच डिग्री तक, नाममात्र के लिए, अंतर्जातीय विवाह को प्रतिबंधित करते हैं। परिवारों के बीच लड़कियों का आदान-प्रदान या दो बहनों से विवाह जैसी प्रथाएँ, एक नियम के रूप में, निषिद्ध हैं। गोत्र या मुख्य वर्गों का नाम अक्सर ब्राह्मण ऋषियों या संतों के नाम पर रखा जाता है, जबकि उप-वर्गों के नाम क्षेत्रीय या नाममात्र के चरित्र के होते हैं।

विवाह संबंधी रीति-रिवाज.

आमतौर पर दुल्हन या दूल्हे को कीमत देने की कोई मान्यता प्राप्त प्रथा नहीं है, लेकिन अधीनस्थ लेखों में ऐसा करने के एक या दो उदाहरण दिए गए हैं। कुछ उपजातियों में, सगाई के अवसर पर, लड़के का पिता लड़की के घर जाता है और उसे सोने या चांदी के सिक्कों या मूंगे की एक माला और उंगली के लिए एक मुंदरी या चांदी की अंगूठी भेंट करता है। सगाई का अनुबंध गांव के मंदिर में किया जाता है और जाति के लोग पक्षों पर हल्दी और जल छिड़कते हैं। शादी से पहले बेनाकी की रस्म निभाई जाती है; इसमें दूल्हा घोड़े पर सवार होकर और दुल्हन एक सजी हुई कुर्सी या कूड़ेदान पर बैठकर अपने गांवों का चक्कर लगाते हैं और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को विदाई देते हैं। कभी-कभी वे इस तरह से विवाह-मंडप के चारों ओर जुलूस निकालते हैं। मारवाड़ी बनियों में शादी के अवसर पर घर के दरवाजे के ऊपर आम के पत्तों की एक तोरण या माला खींची जाती है और छह महीने तक वहीं छोड़ दी जाती है। और दरवाजे के ऊपर एक लकड़ी का त्रिकोण बांधा गया है जिस पर गौरैया को दर्शाने वाली आकृतियां बनी हुई हैं।

विवाह का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा विवाह वेदी या स्तंभ के सात चक्कर लगाना है। कुछ जैन उपजातियों में दूल्हा स्तंभ के पास खड़ा होता है और दुल्हन उसके सात चक्कर लगाती है, जबकि वह हर चक्कर में उसके सिर पर चीनी फेंकता है। विवाह के बाद जोड़े को पीतल की थाली में छिड़के गए आटे से आकृतियाँ बनाने के लिए कहा जाता है, जो दूल्हे के हिसाब-किताब रखने के व्यवसाय का प्रतीक है। दुल्हन के परिवार के लिए यह प्रथा है कि वे विवाह में शामिल होने वाले हर बाहरी व्यक्ति को एक दिन के खाने के लिए पर्याप्त सिधा या कच्चा भोजन देते हैं, जबकि जाति के प्रत्येक सदस्य को दो से पाँच दिनों के लिए प्रावधान दिया जाता है। यह शाम की दावतों के अतिरिक्त है और इसमें बहुत अधिक खर्च होता है। कभी-कभी विवाह आठ दिनों तक चलता है, और चार दिन दूल्हे पक्ष और चार दिन दुल्हन पक्ष द्वारा दावतें दी जाती हैं। ऐसा कहा जाता है कि कुछ स्थानों पर बनिया विवाह से पहले जाति पंचायत के सामने जाता है और वे उससे पूछते हैं कि वह कितने लोगों को आमंत्रित करने जा रहा है। यदि वह पाँच सौ कहता है, तो वे विभिन्न प्रकार की रसद की मात्रा निर्धारित करते हैं जो उसे उपलब्ध करानी होगी।

इस प्रकार वे कह सकते हैं कि चालीस मन (3200 पौंड) चीनी और आटा, मक्खन, मसाले और अन्य वस्तुओं के साथ अनुपात में। वह कहता है, 'सज्जनों, मैं एक गरीब आदमी हूँ; इसे थोड़ा कम कर दो'; या वह कहता है कि वह परिष्कृत चीनी के बजाय गुड़ या कच्ची गन्ने की चीनी की टिकिया देगा। तब वे कहते हैं, 'नहीं, आपकी सामाजिक स्थिति गुड़ के लिए बहुत ऊँची है; आपको सभी प्रयोजनों के लिए चीनी रखनी चाहिए।' जितने अधिक मेहमानों को मेजबान आमंत्रित करता है, उसका सामाजिक सम्मान उतना ही अधिक होता है; और यह कहा जाता है कि यदि वह इसका पालन नहीं करता है तो उसका जीवन जीने योग्य नहीं है। कभी-कभी शादी में दिए जाने वाले मनोरंजन की सटीक राशि तय की जाती है, और यदि कोई व्यक्ति उस समय इसे वहन नहीं कर सकता है, तो उसे बाद में जब उसके पास पैसा होगा, तब दावतों का शेष देना होगा; और यदि वह ऐसा करने में विफल रहता है, तो उसे जाति से बाहर कर दिया जाता है। दुल्हन के पिता को अक्सर दूल्हे की पार्टी के यात्रा व्यय के लिए एक निश्चित राशि देने के लिए कहा जाता है, और यदि वह यह पैसा नहीं भेजता है तो वे नहीं आते हैं।

भगवान गणपति की छवि

उत्तरी जिलों में बनिया विवाह की खासियत यह है कि महिलाएं बारात के साथ जाती हैं और बनिया ही एकमात्र उच्च जाति है जिसमें वे ऐसा करते हैं। इसलिए जिस उच्च जाति की शादी में महिलाएं मौजूद होती हैं, उसे बनिया का विवाह माना जा सकता है। मराठा जिलों में महिलाएं भी जाती हैं, लेकिन यहां यह प्रथा अन्य उच्च जातियों में भी प्रचलित है। दूल्हे का पक्ष दुल्हन के गांव में एक घर किराए पर लेता है या उधार लेता है, और यहां वे विवाह-शेड बनाते हैं और दूल्हे की तरफ से शादी की प्रारंभिक रस्में इस तरह से करते हैं जैसे वे घर पर हों।

बहुविवाह और विधवा-विवाह.

बनियों में बहुविवाह बहुत दुर्लभ है, और आम तौर पर यह नियम है कि किसी पुरुष को दूसरी पत्नी लेने से पहले अपनी पहली पत्नी की सहमति लेनी चाहिए। अपनी पत्नी की खुशी के लिए इस एहतियात के अभाव में, माता-पिता उसे अपनी बेटी देने से इनकार कर देंगे। विधवाओं का पुनर्विवाह नाममात्र के लिए निषिद्ध है, लेकिन अक्सर होता है, और पुनर्विवाह करने वाली विधवाओं को प्रत्येक उपजाति में निम्न सामाजिक समूहों में डाल दिया जाता है जैसा कि पहले ही वर्णित किया गया है। तलाक को भी निषिद्ध कहा जाता है, लेकिन यह संभव है कि व्यभिचार के लिए छोड़ी गई महिलाओं को अंततः निष्कासित किए जाने के बजाय ऐसे समूहों में शरण लेने की अनुमति दी जाती है।

मृतकों का अंतिम संस्कार और शोक।

आम तौर पर मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और राख को किसी पवित्र नदी या किसी जलधारा में प्रवाहित कर दिया जाता है। छोटे बच्चों और महामारी से मरने वाले लोगों के शवों को दफनाया जाता है। शोक की अवधि विषम संख्या में दिनों की होनी चाहिए। तीसरे दिन पके हुए भोजन के साथ एक पत्तल उस जमीन पर रखी जाती है जहाँ शव जलाया गया था, और उसके बाद किसी दिन जाति के लोगों को भोज दिया जाता है। धनी बनिए शोक मनाने के लिए लोगों को किराए पर लेते हैं। विधवाओं और युवा लड़कियों को आम तौर पर काम पर रखा जाता है, और वे सुबह और कभी-कभी शाम को एक घंटे के लिए घर के सामने बैठती हैं और अपने सिर को अपने कपड़ों से ढकती हैं, अपनी छाती पीटती हैं और विलाप करती हैं। अमीर लोग एक, दो या तीन महीने की अवधि के लिए दस शोक करने वालों को काम पर रख सकते हैं। मारवाड़ी, जब लड़की पैदा होती है, तो यह दिखाने के लिए मिट्टी का बर्तन तोड़ते हैं कि उनके साथ दुर्भाग्य हुआ है; लेकिन जब लड़का पैदा होता है तो वे अपनी खुशी के प्रतीक के रूप में पीतल की थाली बजाते हैं।

धर्म: भगवान गणपति या गणेश।

लगभग सभी बनिया जैन या वैष्णव हिंदू हैं। जैन धर्म का विवरण एक अलग लेख में दिया गया है, और जैनियों द्वारा हिंदू प्रथाओं को बनाए रखने की कुछ सूचना परवार बनिया पर अधीनस्थ लेख में दी गई है। जैनियों की तरह ही वैष्णव बनिया भी पशु जीवन के विनाश के सख्त खिलाफ हैं, और किसी भी जीवित प्राणी को नहीं मारेंगे। उनके मुख्य देवता महादेव और पार्वती के पुत्र गणेश या गणपति हैं, जो सौभाग्य, धन और समृद्धि के देवता हैं। गणेश को मूर्ति में हाथी के सिर और चूहे पर सवार दिखाया गया है, हालांकि अब चूहा भगवान के शरीर से ढका हुआ है और मुश्किल से दिखाई देता है। उनका शरीर एक बच्चे की तरह छोटा है, उनका पेट मोटा है और गोल-गोल मोटी भुजाएँ हैं। शायद उनका शरीर यह दर्शाता है कि उन्हें एक लड़के के रूप में चित्रित किया गया है, जो पार्वती या गौरी का पुत्र है। पुराने समय में अनाज धन का मुख्य स्रोत था, और गणेश की उपस्थिति से यह समझा जा सकता है कि वे क्यों भरे हुए अन्न भंडार के देवता हैं, और इसलिए धन और सौभाग्य के देवता हैं। हाथी हिंदुओं में पवित्र जानवर है और राजा भी इसी पर सवार होता है। बनियों के बीच हाथी रखना धन और प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था और जैन लोग अपने महान रथ उत्सव में अपने देवताओं के रथों को हाथियों पर जोतते हैं।

गजपति या 'हाथियों का स्वामी' एक राजा को दी जाने वाली उपाधि है; गजानंद या 'हाथी-चेहरा' भगवान गणेश का एक विशेषण है और एक पसंदीदा हिंदू नाम है। गजवीथी या हाथी का पदचिह्न आकाशगंगा का एक नाम है, और यह दर्शाता है कि माना जाता है कि एक दिव्य हाथी है जो आकाश में इस मार्ग से जाता है। हाथी इतना अनाज खाता है कि केवल तुलनात्मक रूप से अमीर आदमी ही इसे रख सकता है; और इसलिए यह समझना आसान है कि बहुतायत या धन का गुण दिव्य हाथी के साथ उसकी विशेष विशेषता के रूप में कैसे जुड़ा था। इसी तरह चूहे को भरे हुए अन्न भंडार से जोड़ा जाता है, क्योंकि जब हिंदू घर या गोदाम में बहुत सारा अनाज होता है तो वहाँ बहुत सारे चूहे भी होंगे; इस प्रकार चूहों की भीड़ का मतलब था कि घर में धन है, और इसलिए यह जानवर भी धन का प्रतीक बन गया। हिंदू अब चूहे को पवित्र नहीं मानते, लेकिन उनके मन में इसके लिए एक कोमलता है, खासकर मराठा देश में। उनमें से अधिक कट्टर लोगों ने प्लेग को रोकने के साधन के रूप में चूहों को जहर दिए जाने पर आपत्ति जताई, हालांकि निरीक्षण ने उन्हें पूरी तरह से आश्वस्त किया है कि चूहे प्लेग फैलाते हैं; और बनिया अस्पतालों में, जो पहले जानवरों के जीवन को बचाने के लिए बनाए गए थे, आमतौर पर कई चूहे पाए जाते थे। वास्तव में, चूहे को अब गणपति के एक बदनाम गरीब रिश्तेदार की स्थिति में खड़ा किया जा सकता है। उसके अस्तित्व को नकारने का कोई प्रयास नहीं किया गया है, लेकिन उसे यथासंभव पृष्ठभूमि में रखा गया है। भगवान गणपति को उनके माता-पिता के माध्यम से अनाज की संपत्ति से भी जोड़ा जाता है। वे शिव या महादेव और उनकी पत्नी देवी या गौरी की संतान हैं। इस मामले में महादेव को संभवतः उनके देवता बैल के लाभकारी चरित्र में लिया गया है; देवी अपने सबसे महत्वपूर्ण पहलू में महान माँ के रूप में - देवी पृथ्वी हैं, लेकिन गणेश की माँ के रूप में उन्हें संभवतः गौरी के अपने विशेष रूप में कल्पना की जाती है, पीली वाली, यानी पीला मक्का। गौरी का गणेश से गहरा संबंध है, और हर हिंदू दुल्हन जोड़ा शादी के एक महत्वपूर्ण संस्कार के रूप में गौरी गणेश की पूजा करता है।

इस तरह से उनका संयोजन इस विचार को रंग देता है कि उन्हें मां और बेटा माना जाता है। राजपुताना में गौरी को वसंत विषुव के समय गंगौर उत्सव में मकई की देवी के रूप में पूजा जाता है, खासकर महिलाओं द्वारा। कर्नल टॉड का कहना है कि गौरी का अर्थ पीला है, जो पकी हुई फसल का प्रतीक है, जब देवी के भक्त उनकी मूर्तियों की पूजा करते हैं, जो पके हुए मकई के रंग में रंगी हुई एक स्त्री के आकार की होती हैं। यहां उन्हें अना-पूर्णा (मकई-देवी), मानव जाति की उपकारिणी के रूप में देखा जाता है। "अनुष्ठान तब शुरू होता है जब सूर्य मेष राशि (हिंदू वर्ष का आरंभ) में प्रवेश करता है, गौरी की छवि के लिए मिट्टी लाने के लिए शहर से बाहर एक स्थान पर एक प्रतिनिधिमंडल द्वारा। फिर एक छोटा गड्ढा खोदा जाता है जिसमें जौ बोया जाता है इसके बाद युवा अनाज को उठाया जाता है, वितरित किया जाता है और महिलाओं द्वारा पुरुषों को प्रस्तुत किया जाता है, जो इसे अपनी पगड़ी में पहनते हैं।" इस प्रकार यदि गणेश गौरी के पुत्र हैं तो वे बैल और बढ़ते हुए अनाज की संतान हैं; और हाथी और चूहे से उनकी उत्पत्ति उन्हें भरे हुए अन्न भंडार के देवता के रूप में समान रूप से दिखाती है, और इसलिए धन और सौभाग्य के देवता के रूप में। इसलिए हम समझ सकते हैं कि वे बनियों के विशेष देवता कैसे हैं, जो पहले लगभग पूरी तरह से अनाज का कारोबार करते थे, क्योंकि सिक्का मुद्रा आम इस्तेमाल में नहीं आई थी।

दिवाली त्यौहार.

दिवाली के त्यौहार पर बनिया लोग धन की देवी लक्ष्मी के साथ गणपति या गणेश की पूजा करते हैं। लक्ष्मी को गाय का देवता माना जाता है, और इस तरह, धन का दूसरा मुख्य स्रोत, बैल की माँ, खेत जोतने वाली और दूध देने वाली जिससे घी बनता है; यह बनिया के व्यापार का एक और मुख्य हिस्सा है, साथ ही एक शानदार भोजन भी है, जिसे वह विशेष रूप से पसंद करता है। दिवाली पर सभी बनिया साल भर के लिए अपने खाते बनाते हैं, और अपने बैलेंस पर ग्राहकों के हस्ताक्षर प्राप्त करते हैं। वे नए खाते-बही खोलते हैं, जिनकी वे सबसे पहले पूजा करते हैं और गणेश की छवि से सजाते हैं, और शायद पहले पन्ने पर भगवान का आह्वान करते हैं। लक्ष्मी के प्रतीक के रूप में एक चांदी का रुपया भी पूजा जाता है, लेकिन कुछ मामलों में एक अंग्रेजी सार्वभौम, एक अधिक कीमती सिक्के के रूप में, प्रतिस्थापित किया गया है, और इसे देवी के आसन पर रखा जाता है और इसे श्रद्धा दी जाती है। बनिया और हिंदू आम तौर पर आने वाले वर्ष के लिए अच्छी किस्मत लाने के लिए दिवाली पर जुआ खेलना आवश्यक मानते हैं; इस मौसम में सभी वर्ग थोड़ी बहुत अटकलें लगाते हैं।

होली का त्यौहार.

फागुन (फरवरी) के महीने में, होली के समय, मारवाड़ी लोग मिट्टी की एक नग्न प्रतिमा बनाते हैं, जिसे नाथू राम कहते हैं, जिसे महान मारवाड़ी माना जाता था। वे इसका मज़ाक उड़ाते हैं और इस पर कीचड़ फेंकते हैं, इसे जूतों से पीटते हैं, और तरह-तरह के मज़ाक और खेल खेलते हैं। पुरुष और महिलाएँ दो दलों में विभाजित हो जाते हैं, और एक दूसरे पर गंदा पानी और लाल पाउडर फेंकते हैं, और महिलाएँ कपड़े के कोड़े बनाती हैं और पुरुषों को पीटती हैं। दो या तीन दिनों के बाद, वे प्रतिमा को तोड़कर फेंक देते हैं। जैन और हिंदू दोनों ही बनिया, दिन की शुरुआत भगवान के मंदिर में जाकर उनके दर्शन करके करना पसंद करते हैं। इसे उसी तरह शुभ संकेत माना जाता है जैसे कि सुबह सबसे पहले किसी विशेष व्यक्ति या वर्ग के व्यक्ति को देखना एक शुभ संकेत माना जाता है। अन्य लोग दिन की शुरुआत पवित्र तुलसी की पूजा करके करते हैं।

सामाजिक रीति-रिवाज: भोजन से संबंधित नियम।

बनिया लोग खाने के मामले में बहुत सख्त होते हैं। उनमें से ज़्यादातर लोग सभी तरह के मांसाहारी भोजन और शराब से दूर रहते हैं। बताया जाता है कि कासरवानी लोग स्वच्छ जानवरों का मांस खाते हैं, और शायद निचली उपजातियों के दूसरे लोग भी ऐसा करते हों, लेकिन बनिया शायद किसी भी दूसरी जाति से ज़्यादा सख्त होते हैं, वे शाकाहारी भोजन का पालन करते हैं। उनमें से कई लोग प्याज़ और लहसुन को भी अशुद्ध भोजन मानते हैं। विदेशी चीनी के विरोध में बनिया सबसे आगे रहते हैं, क्योंकि उनके बारे में कहा जाता है कि उसमें अशुद्ध तत्व होते हैं, और उनमें से कई लोग, हाल ही तक, कम से कम, भारतीय चीनी का ही पालन करते थे।

नशीले पदार्थों पर प्रतिबंध नहीं है, लेकिन लोग आमतौर पर उनके आदी नहीं होते। जैनियों के लिए तम्बाकू निषिद्ध है, लेकिन वे और हिंदू दोनों धूम्रपान करते हैं, और उनकी महिलाएँ कभी-कभी तम्बाकू चबाती हैं। बनिया जब गरीब होता है, तो बहुत संयमी होता है, और ऐसा कहा जाता है कि जिस दिन उसके पास पैसे नहीं होते, वह बिना खाना खाए सो जाता है। लेकिन जब उसके पास धन जमा हो जाता है, तो उसे घी या मक्खन खाने का शौक हो जाता है, जिससे वह अक्सर मोटा हो जाता है। अन्यथा उसका भोजन सादा रहता है, और एक नियम के रूप में वह हाल ही में दोपहर और शाम को दो बार भोजन करने तक ही सीमित रहा; लेकिन बनिया, अन्य वर्गों की तरह जो इसे वहन कर सकते हैं, अब सुबह चाय पीने लगे हैं। वेशभूषा में बनिया भी सादा है, एक लंबे सफेद कोट और एक लंगोटी की रूढ़िवादी हिंदू पोशाक का पालन करता है। उसने अभी तक अंग्रेजी फैशन से कॉपी की गई सूती पतलून नहीं अपनाई है। अपनी दुकानों में कुछ बनिया अपने कंधों पर और कमर के चारों ओर केवल एक कपड़ा पहनते हैं। करदोरा या चांदी का कमरबंद बनियों का पसंदीदा आभूषण है, और हालांकि आम जीवन में वे सादे कपड़े पहनते हैं, लेकिन अमीर मारवाड़ी विशेष त्यौहारों के अवसरों पर महंगे गहने पहनते हैं।

मारवाड़ी अपने सिर पर एक छोटी सी कसकर मुड़ी हुई पगड़ी पहनते हैं, जो अक्सर लाल, गुलाबी या पीले रंग की होती है; हरी पगड़ी शोक का प्रतीक है और काली भी, हालांकि बाद वाली शायद ही कभी देखी जाती है। बनिया किसी भी जानवर की जान लेने का विरोध करते हैं। वे अपने नौकरों के ज़रिए भी मवेशियों की बधिया नहीं करवाते, बल्कि युवा बैलों को बेचकर बैल खरीदते हैं। सागर में, अगर कोई बनिया भैंस पालता है तो उसे जाति से बाहर कर दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि अच्छे हिंदुओं को भैंस नहीं रखनी चाहिए और न ही उन्हें गाड़ी या हल चलाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि भैंस अशुद्ध होती है और वह जानवर है जिस पर मृत्यु के देवता यम सवार होते हैं। इस प्रकार अपने सामाजिक अनुष्ठानों में आम तौर पर बनिया सबसे सख्त जातियों में से एक है और यही कारण है कि उसका सामाजिक दर्जा ऊंचा है। कभी-कभी उसे राजपूत से भी श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि स्थानीय राजपूत अक्सर अशुद्ध वंश के होते हैं और धार्मिक और सामाजिक प्रतिबंधों के पालन में ढीले होते हैं। यद्यपि वह जल्द ही उस देश की स्थानीय भाषा सीख लेता है जहां वह बसता है, मारवाड़ी आमतौर पर अपने खातों में अपनी स्थानीय बोली ही रखता है, और इससे उसके ग्राहकों के लिए उसे समझना अधिक कठिन हो जाता है।

बनिया का चरित्र.

बनिया जाति का एक बहुत ही विशिष्ट चरित्र होता है। बचपन से ही उसे हिसाब-किताब रखने की शिक्षा दी जाती है और यह सिखाया जाता है कि जीवन में पैसा कमाना ही उसका काम है और कोई भी ऐसा लेन-देन सफल या विश्वसनीय नहीं माना जाना चाहिए जिसमें लाभ न हो। प्रशिक्षु के रूप में उसे मानसिक अंकगणित का कठोर प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वह अपने दिमाग में जटिल से जटिल गणनाएँ कर सके। इस उद्देश्य से एक लड़का बहुत ही जटिल सारणियों को याद कर लेता है। पूर्ण संख्याओं के लिए वह एक से दस तक की इकाइयों को चालीस गुना तक और ग्यारह से बीस तक की संख्याओं को बीस गुना तक कंठस्थ कर लेता है। कुछ भिन्नात्मक सारणियाँ भी होती हैं, जो 1/4, 1/2, 3/4, 1 1/4, 1 1/2, 2 1/2, 3 1/2 को एक से सौ तक की इकाइयों में गुणा करने के परिणाम देती हैं; ब्याज-एक से एक हजार रुपये तक की किसी भी राशि पर एक महीने के लिए और एक चौथाई महीने के लिए बारह प्रतिशत की दर से देय ब्याज दिखाने वाली सारणियाँ; एक से एक सौ तक की सभी संख्याओं के वर्गों की तालिकाएँ, और पूरे के मूल्य से एक भाग का मूल्य ज्ञात करने के लिए तकनीकी नियमों का एक सेट। 

बिना पूंजी के बनिया को व्यापार की नींव रखने में सक्षम बनाने वाली आत्म-त्याग और दृढ़ता भी उल्लेखनीय है। किसी नए इलाके में बसने पर, एक मारवाड़ी बनिया किसी दुकानदार के पास काम करता है, और सख्त अर्थव्यवस्था के बल पर थोड़ा पैसा इकट्ठा करता है। फिर नया व्यापारी किसी गाँव में खुद को स्थापित करता है और किसानों को ऊँची ब्याज दरों पर अनाज उधार देना शुरू करता है, हालाँकि कभी-कभी खराब सुरक्षा पर। वह एक दुकान खोलता है और अनाज, दालें, मसाले, चीनी और आटा खुदरा बेचता है। अनाज से वह धीरे-धीरे कपड़ा बेचने और पैसे उधार देने लगता है, और उत्सुक और सख्त होने के कारण, और अज्ञानी और अनपढ़ ग्राहकों से निपटने के कारण, वह धन अर्जित करता है; इसे वह गाँव खरीदने में निवेश करता है, और कुछ समय बाद एक बड़ा सेठ या बैंकर बन जाता है। बनिया बिना पूंजी के भी खुदरा व्यापार शुरू कर सकता है। वह शहर से एक रुपए का अनाज खरीदता है और सुबह-सुबह उसे गांव ले जाता है, जहां वह मंदिर की सीढ़ियों पर तब तक बैठता है जब तक कि वह बिक न जाए। तब तक वह न तो कुछ खाता है और न ही मुंह धोता है। शाम को वह दो-तीन पैसे का अनाज खाकर वापस आता है और ताजा अनाज खरीदता है, जिसे वह सुबह दूसरे गांव ले जाता है।

इस प्रकार वह अपनी पूंजी को सप्ताह में दो या तीन बार लाभ के साथ बदल देता है, कहावत के अनुसार, “अगर बनिया को एक रुपया मिलता है तो उसे हर महीने आठ रुपये की आय होगी,” या जैसा कि एक और कहावत प्रवासी मारवाड़ी के करियर को संक्षेप में बताती है, ‘वह एक लोटा  लेकर आता है और एक लाख लेकर वापस जाता है।’ बनिया कभी भी कर्ज नहीं माफ करता, भले ही उसका कर्जदार कंगाल क्यों न हो, लेकिन वह हर साल अपने बही-खातों में कर्ज दर्ज करता रहता है और कर्जदार की पावती लेता रहता है। क्योंकि वह कहता है, ‘पुरुस पारुस’, यानी मनुष्य पारस पत्थर की तरह है, और उसका भाग्य कभी भी बदल सकता है।

उसके गुण.

फिर भी दूसरी तरफ़ भी काफ़ी कुछ कहा जा सकता है, और बनिया की कमियाँ शायद दूसरे लोगों की तरह उसके माहौल की वजह से हैं। बनिया की एक खूबी यह है कि वह ऐसी जमानत पर उधार देता है जिस पर न तो सरकार और न ही बैंक ध्यान देते हैं, या फिर बिल्कुल भी नहीं। फिर वह हमेशा अपने पैसे के लिए काफ़ी समय तक इंतज़ार करेगा, ख़ास तौर पर अगर ब्याज चुकाया जा रहा हो। बेशक इससे उसे कोई नुकसान नहीं होता, क्योंकि वह अपना पैसा अच्छे ब्याज पर रखता है; लेकिन यह एक मुवक्किल के लिए बहुत बड़ी सुविधा है कि उसका कर्ज खराब साल में टाला जा सकता है, और वह अच्छे साल में जितना चाहे उतना चुका सकता है। जब काश्तकार स्कूल की तरह होते हैं, तो गाँव के साहूकार अर्थव्यवस्था के लिए अपरिहार्य होते हैं - उस पैसे में लड़के जेब से बहुत ज़्यादा पैसे निकालते हैं; और सर डेन्ज़िल इबेट्सन कहते हैं कि यह आश्चर्यजनक है कि लोगों के साथ उसके व्यवहार में कितनी समझदारी और ईमानदारी है, जब तक कि वह अपने लेन-देन को न्यायालय से दूर रख सकता है।

इसी तरह, सर रेजिनाल्ड क्रैडॉक लिखते हैं: "गाँव के बनिया  आम तौर पर एक शांत, शांतिप्रिय व्यक्ति होते हैं, जो गाँव की अर्थव्यवस्था में एक आवश्यक कारक है। वे आम तौर पर अपने ग्राहकों और मुवक्किलों के साथ सबसे ज़्यादा सहनशील होते हैं, और वे किसानों के ऋणग्रस्त होने के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार नहीं होते। यह बहुत कम या बिना पूँजी वाला आकस्मिक साहूकार होता है जो अपनी बुद्धि से जीता है, या देश भर में फैली दुकानों और एजेंटों वाली बड़ी फ़र्म होती हैं जो गंभीर नुकसान पहुँचाती हैं। ये बाद वाले लोगों को ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और तब तक ऋण चुकाने से हतोत्साहित करते हैं जब तक कि ब्याज के संचय से ऋण इतना बढ़ न जाए कि उधारकर्ता आसानी से खुद को मुक्त न कर सके।"

व्यावसायिक ईमानदारी.

व्यापारी के रूप में बनिया पहले व्यापारिक ईमानदारी का उच्च मानक रखता था, लेकिन पैसे के मामले में वह सम्मानित और पूरी तरह से भरोसेमंद था। लोगों के लिए अपना पैसा बिना ब्याज के अमीर बनिया के हाथों में रख देना कोई असामान्य बात नहीं थी, यहाँ तक कि उसे सुरक्षित रखने के लिए थोड़ी सी रकम भी दे देते थे। दिवालियापन को अपमानजनक माना जाता था, और जाति के नियमों के उल्लंघन के लिए लगाए गए दंड से कुछ कम गंभीर सामाजिक दंड दिए जाते थे। यह दृढ़ विश्वास था कि एक व्यापारी की अगली दुनिया में स्थिति उसके खिलाफ सभी दावों के निर्वहन पर निर्भर करती है। और पैतृक ऋण चुकाने का कर्तव्य केवल असहाय या निराशाजनक गरीबी के मामले में टाला जाता था। हाल ही में, आंशिक रूप से इस मामले में जाति और धार्मिक भावना की कमजोर होती ताकत के कारण, और आंशिक रूप से दिवालियापन कानूनों के ज्ञान के कारण, वाणिज्यिक सम्मान का स्तर बहुत गिर गया है। चूंकि दिवालियापन का मामला कानून द्वारा शासित और व्यवस्थित होता है, इसलिए व्यापारी सोचता है कि जब तक वह कानून के दायरे में रह सकता है, उसने कुछ भी गलत नहीं किया है। एक बैंकर, जब बहुत ज़्यादा उलझा हुआ होता है, तो वह दिवालिया होने और इतना पैसा बचाकर रखने में शायद ही कभी संकोच करता है कि वह फिर से शुरुआत कर सके, भले ही वह कुछ भी बुरा न करे। हालाँकि, यह संभवतः एक क्षणिक चरण है, और इंग्लैंड और अमेरिका में भी व्यापारिक विकास के एक चरण में यही हुआ है। समय के साथ यह उम्मीद की जा सकती है कि पुरानी धार्मिक और जातिगत भावना के नुकसान की भरपाई आम व्यापारियों के बीच जनता की राय द्वारा लागू किए गए वाणिज्यिक सम्मान के नए मानक से हो जाएगी। बनिया अपनी जाति के प्रति बहुत अच्छे होते हैं, और जब कोई व्यक्ति बर्बाद हो जाता है, तो वे आम चंदा लेते हैं और उसे छोटे पैमाने पर नए सिरे से शुरुआत करने में सक्षम बनाने के लिए धन मुहैया कराते हैं।

जाति में भिखारी बहुत कम हैं। धनी मारवाड़ी सार्वजनिक उपयोग की वस्तुओं के लिए दान देने में बहुत उदार हैं, लेकिन कहा जाता है कि छोटा बनिया बहुत दानशील नहीं है, हालांकि वह भिखारियों को उचित उदारता से मुट्ठी भर अनाज देता है। लेकिन उसके पास एक व्यवस्था है जिसके अनुसार वह अपने साथ व्यवहार करने वालों से धार्मिक उद्देश्यों के लिए प्राप्त मूल्य का थोड़ा सा प्रतिशत वसूलता है। इसे देवदान या भगवान को दिया जाने वाला दान कहा जाता है, और माना जाता है कि यह किसी मंदिर या इसी तरह की वस्तु के निर्माण या रखरखाव के लिए किसी सार्वजनिक कोष में जाता है। उचित निगरानी या लेखा-जोखा के अभाव में यह आशंका है कि बनिया इसे अपने निजी दान के लिए उपयोग करने के लिए इच्छुक है, इस प्रकार वह उस खर्च से खुद को बचाता है। सार्वजनिक सुधारों के लिए इन निधियों के उपयोग की दृष्टि से, जुबुलपुर के आयुक्त श्री नेपियर द्वारा इस प्रणाली की जांच की गई है।

पूर्व शासकों और योद्धाओं के रूप में आत्म-छवि

पुराने ज़माने के भारत में लगभग हर जाति किसी न किसी तरह की सैन्य स्थिति का दावा करती है। उदाहरण के लिए, बनियों को अक्सर चालाक, चतुर, शांतिप्रिय व्यापारियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन उनकी उत्पत्ति की कई कहानियाँ एक अलग कहानी बयां करती हैं। इन किंवदंतियों (या, जाति पुराणों) में बनियों को गर्मी चाहने वाले योद्धा के रूप में दिखाया गया है; बहादुर और निडर, कभी भी व्यापारी नहीं।

किसी कारण से, हर जगह मनुष्य योद्धा के रूप में याद किया जाना चाहता है। हमारे रंजीत और विश्वजीत की तरह, व्लादिमीर, लुडविग, लुइस और रिचर्ड जैसे कुछ सबसे आम यूरोपीय नामों का अर्थ विजेता, बहादुर, विजेता और इसी तरह के अन्य नाम हैं। एक बार जब हम इसे ध्यान में रखते हैं, तो बनिया संस्करण को शासक और योद्धा के रूप में स्वीकार करना आसान हो जाता है, जो कभी-कभी लापरवाही के लिए भी प्रवृत्त होता है।

राजस्थान की दो प्रमुख बनिया जातियाँ, खंडेलवाल और माहेश्वरी, अपने राजपूत वंश के होने के बावजूद, क्षत्रिय पशु बलि प्रथा को वास्तव में नापसंद करती थीं। उनकी संवेदनशीलता इतनी घृणित थी कि उनमें से कई ने हिंदू धर्म छोड़कर जैन धर्म अपना लिया। फिर भी, इन सबके बावजूद उन्होंने उच्च-स्तरीय राजसी गुणों वाले शासकों के रूप में अपनी पहचान बनाए रखी। पीछे मुड़कर देखें तो, वे शायद अहिंसक नेतृत्व की कल्पना करने वाले पहले व्यक्ति थे।

उत्तर भारतीय बनियों की कई मूल कथाओं में यह भी दावा किया गया है कि वे कभी राजा थे, और वह भी अयोध्या, कौशाम्बी और मथुरा जैसे सभ्यता केंद्रों के। अग्रवालों की भी एक ऐसी ही मूल कथा है। वे अपने वंश को राजा अग्रसेन से जोड़ते हैं, इसलिए अग्रवाल कहलाते हैं। इस दृष्टिकोण को समकालीन बढ़ावा तब मिला जब 19वीं सदी के प्रसिद्ध कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र (स्वयं अग्रवाल) ने इसका समर्थन किया और इस तथ्य से कि 1800 के दशक की शुरुआत में जैसलमेर में वास्तव में एक बनिया राजा था।

बंगाल के सुबोर्नोबानिक खुद को सामान्य ब्राह्मणों या क्षत्रियों से ज़्यादा आर्य मानते हैं, क्योंकि एक बार उन्होंने देवी अनायका के साथ अग्नि पर चलकर अग्नि को पार किया था। इस तरह चमकने के कारण, उनका रंग पड़ोस के काले लोगों की तुलना में बहुत हल्का हो गया, जिससे उनमें दुश्मनी और द्वेष पैदा हो गया। पश्चिम में, मराठों के प्रमुख देवता खंडोबा को हमेशा अपनी दोनों पत्नियों के साथ घोड़े पर सवार दिखाया जाता है। दोनों में से, सामने वाला अधिक वीर है, और वह एक बनिया है।

दक्षिण भारत में भी यही स्थिति है। कैक्कूलर (जिन्हें सेगुंथर मुदलियार के नाम से भी जाना जाता है), जिन्हें व्यापारी और बुनकर के रूप में जाना जाता है, खुद को शिव की रचना मानते हैं, और मुरुगन उनके विशिष्ट भगवान हैं। किंवदंती है कि पार्वती (शिव की पत्नी) के पायल से नौ रत्न निकले, जिनमें से मूल नौ कैक्कूलर योद्धा निकले। उन्हें ऐसी शक्तियों का आशीर्वाद प्राप्त था कि शिव भी अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी सुरुबतमान को मात देने के लिए उन पर निर्भर थे। संयोग से, कैक्कूलर के मुख्य देवता मुरुगन एक प्रसिद्ध शिकारी थे, पहाड़ियों में खतरनाक तरीके से रहते थे और महिलाओं के एक बड़े समूह को रखने के लिए 'राजसिक' या क्षत्रिय गुण रखते थे।

इन सब से यह स्पष्ट है कि बनियों को चतुर्वर्ण वर्गीकरण अस्वीकार्य लगता है क्योंकि यह उन्हें क्षत्रियों और ब्राह्मणों के बाद रखता है। लेकिन वैदिक पदानुक्रम को मानते हैं और व्यापारियों को 'चालाक' के साथ जोड़ना दाल और चावल की तरह आम बात है। दूसरी ओर, अगर हम गंभीरता से विचार करें कि बनिया खुद को कैसे देखते हैं, तो गुणों का एक बिल्कुल अलग सेट पेश करना होगा। क्यों, दक्षिण गुजरात के साबरकांठा जिले में, 'शाहूकार' शब्द का अर्थ  एक उदार हृदय वाला, ईमानदार व्यक्ति है।