#MAHAJAN SURNAME OF VAISHYA - वैश्य समुदाय का महाजन उपनाम
नया सामूहिक नाम - महाजन
पहले पणि नाम से प्रसिद्ध समुदाय वैदिकी वर्णव्यवस्था में वैश्य हो गया पर विक्रम सम्वत् के ४०० वर्ष पूर्व से उनके लिये हम महाजने शब्द प्रयुक्त पाते हैं। आधुनिक हरियाणा, राजस्थान व पंजाब और गुजरात में अग्रवालों समेत सब वैश्यों को महाजन कहा जाता है। पंजाब के महाजन मारवाड़ के महाजन और गंगा-जमुना के कांठे के महाजन तो हैं ही दक्षिण भारत में १८८५ में महाजन-परमर (सभा) उन्होंने बनाई। उन्हें कुछ हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है, अत: उन्होंने महाजन शब्द छोड़ना प्रारम्भ कर दिया। इसका कारण यह था कि ये वे लोग है जो अन्य वर्णों से जैनाचार्यों ने धर्म परिवर्तन करा के महाजन नामकरण किया था। उनमें ९० प्रतिशत क्षत्रिय थे जो ब्राह्मणी यणी की पशुबलि से क्षुब्ध होकर अहिंसक जन धर्म में गये थे और जिन्हें ब्राह्मणी क्षेत्र वाले घृणा की दृष्टि से देखते थे। कालान्तर में कुछ लोग वैष्णाव धर्म में वापिस चले गये जब वैष्णवी परम्परा ने भी अहिंसक होने को घोषणा की।
इस विषय की खोज खरखरंगन्द्य के जैन यति बीकानेर निवासी भी रामलाल जी की महाजन वंश मुक्तावली में सिलसिलेवार उपलब्ध है। ईसा की ५वीं शती पूर्व में २३वें जैन तीर्थकार पार्श्वनाथ हुये। वे जैनों की दिगम्बर एवं श्वेताम्बर के अतिरिक्त तीसरी मुख्य धारा के संस्थापक थे। उनके छठे पटठधर शिष्य आचार्य रत्न प्रभुसूरि उपकेशगच्छ के थे। वे जोधपुर के पास स्थित एक ग्राम में पहुंचे। यह विक्रम पूर्व ४०० वर्ष की बात है। वहाँ उनके चमत्कार से राजा उपलदेव व मंत्री उहण के जैन बनने की पूरी कथा अध्याय (ओसवाल) में हम दे चुके हैं। वहाँ एक लाख ८४ हजार क्षत्रिय जनों ने जैन धर्म स्वीकार किया। चामुण्डा देवी पर होने वाली पशुबलि बन्द कराके वहाँ सूचिया (सच्ची) देवी का मन्दिर बनवाया। इनको १८ गोत्रों में दीक्षित किया जो उस समय के क्षत्रिय गोत्र में जो ब्राह्मण उनके साथ खानपान को तैयार हुये उन्हें ही जैन मन्दिरों का भोजक अर्थात सेवण बनाया। उपकेश गच्छ ही बिगड़कर औसिया बना और महाजनों का सामूहिक नाम ओसवाल पड़ गया। ऐसे ही सन् ६९६ में कुमार सेन ने काष्ठा गच्छ बनाई जिसमें दीक्षित हुये अग्रवाल और राम सेन ने मथुरा में बनाई माथुर गच्छ जिसमें महासेनी हुये। भिन्नमाल या श्रीमाल नगर के राजा भीमतल ने एक यज्ञ किया और सैकड़ों पशुओं की बलि दी जाने वाली थी, तभी गौतम मुनि वहाँ पधारे। उनके उपदेश से प्रभावित हो राजा ने पशु छोड़ दिये और जैन हो गया । उसके साथ सवा लाख राजपूत जैन बने । उन्हें महाजन घोषित कर उनके गोत्र स्थापित किये। इनके ६२ गोत्र बने व १३५ शाखायें है। इसी प्रकार मानदेव सूरि ने पंजाब, सिंध व कश्मीर और तक्षशिला में क्षत्रिय क्षत्रपों को महाजन बनाया। सन् ११७२ में आचार्य रक्षित ने सिन्ध के राजा महीपाल और उसकी क्षत्री प्रजा को महाजन क्षेत्र में लाया। खण्डेला में मत परिवर्तन कराके खण्डेलवाल और महेश में महेश्वरी महाजन क्षत्रियों से ही उद्भूत है और हर क्षेत्र में विभिन्न वर्णों से आकर महाजन बने लोगों में विवाह सम्बन्ध होने लगे । जैन सिद्धान्त के आधार पर इनसे प्रसूत सन्तानें विशिष्ट गुण वाली हुई। उनमें उद्भट विद्वान, दीवान, प्रशासक और व्यवसाई हुये । कर्नल टाड ने लिखा था कि ओसवाल आदि महाजनों के एक लाख परिवार भारत की आधी जन सम्पति के मालिक हैं। क विमाध, अनेकानेक जैनाचार्य, भामाशाह कावडया और अधुना अणु वैज्ञानिक पद्मभूषण डा० विक्रम साराभाई, पद्मभूषण शिक्षाविद् दौलत सिंह भंडारी तथा डा० मोहन सिंह मेहता, राजा शिवप्रसाद सितोर हिन्द इनके प्रमुख व्यक्ति हैं। इन महाजनों ने सारा राजस्थान व गुजरात भव्य मन्दिरों, चैत्यों आदि से भर दिया है।
(सूचना स्रोत : इतिहास की अमरबेल, ओसवाल । ले० : मंगीलाल भूतोडिया, एडवोकेट, नं० ७ ओल्ड पोस्ट ऑफिस स्ट्रीट, कलकत्ता-७)
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