Pages

Monday, March 25, 2024

MARWADI COMMUNITY -मारवाड़ी समाज : एक तथ्यात्मक विवेचन

#MARWADI COMMUNITY -मारवाड़ी समाज : एक तथ्यात्मक विवेचन

आस्ट्रेलिया की मीडियाकास्ट कम्पनी को मारवाड़ी समाज पर एक टेलीचित्र तैयार करना था। इस सिलसिले में शोधकर्ता एवं लेखक श्री कीथ एडम भारत आये हुए थे। टेलीचित्र के प्रोड्यूसर डायरेक्टर श्री बिथवन सिरो एवं उनकी कैमरा टीम भी साथ थी। जो टेलीचित्र उन्होंने तैयार किया, वह आजकल डिस्कवरी चैनल पर दिखाया जा रहा है। चूंकि टेलीचित्र मारवाड़ी समाज पर तैयार होना था- उन्होंने मेरे साथ कई बैठकें कीं। उन्होंने अमेरिकी विश्वविद्यालयों से प्रकाशित कुछ शोधपत्रों को पढ़ा था। टिमबर्ग की पुस्तक 'मारवाड़ी समाज-व्यवसाय से उद्योग में` का भी अध्ययन किया था। पर कहने लगे कि बातें स्पष्ट नहीं हो पा रही हैं। मारवाड़ी शब्द का आशय किसी समाज से है या समूह से, यह जाति है या मात्र एक वर्ग है! कोई व्यक्ति मारवाड़ी है, यह कैसे पहचाना जाता है? उसके कर्म से या उस क्षेत्र से, जहां से वह आया है, या उसकी भाषा और संस्कृति से! मारवाड़ी समाज द्वारा व्यापार एवं उद्योग के क्षेत्र में की गई उल्लेखनीय प्रगति के कारणों की व्याख्या करते हुए टिमबर्ग तथा टकनेत आदि लेखकों ने साहसिकता, संयुक्त परिवार प्रणाली, नैतिकता, मितव्ययिता, व्यावहारिकता और व्यापारिक प्रशिक्षण, धार्मिक और जाति भावना सरीखे गुणों की तरफ ध्यान आकर्षित किया है। परंतु श्री कीथ का प्रश्न था कि ये सभी गुण इसी जाति में क्यों आये- इसके पीछे क्या कारण रहे हैं- क्या इस पर कोई शोध हुआ है? मैंने कहा- प्रथम कारण था, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सहोदरा गणेश्वरी सभ्यता जो कि शेखावाटी तथा मारवाड़ की धरती पर फली-फूली थी। सिंधु घाटी के नगरों में तांबे के जो बर्तन और औजार मिले हैं, वे खेतड़ी तथा सिंघाना स्थित खानों से निकाले गये तांबे से बनाये जाते थे। भारतीय इतिहास की सोवियत विशेषज्ञ ए. कोरोत्सकाया लिखती हैं कि प्राचीन काल से ही अनेक सार्थ मार्ग राजस्थान से होकर गुजरते थे और ऊंटों की लम्बी कतारें लम्बी दूरियां तय करती थीं। इनसे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण कारण रहा था राजस्थानी भाषा का साहित्य। पौ फटने से बहुत पहले ही घर की औरतों को चक्की पीसने, दही बिलौने, कुएं से पानी निकालने जैसे कई श्रम-साध्य कार्य करने पड़ते थे। श्रम की थकान का पता नहीं चले, इसलिये वे राजस्थानी लोक-काव्य को सरस धुनों में गाती थीं। यह सब सोये हुए बच्चों के कानों में स्वत: जाता रहता था। वह सब उसके खून में रच-बस जाता था। इसी तरह रात में बच्चों को सुलाने के लिए भी मां और दादी लोरियां सुनाती थीं- 'जणणी जणै तो दोय जण, कै दाता के शूर।` बच्चों को साहसिकता का पाठ अलग से पढ़ाने की जरूरत नहीं होती थी। यह उनको घूंटी में ही मिलते थे। ये ही बातें उनके जीवन की प्रवृत्ति बन जाती थी। इसी कारण युद्ध और व्यापार के क्षेत्र में वहां के लोगों ने नये कीर्तिमान स्थापित किये। श्री कीथ ने पूछा- क्या आज के मारवाड़ी परिवारों में भी बच्चों को इस तरह की लोरियां सुनाई जाती हैं? यदि नहीं तो आगामी सदी के व्यापार और उद्योग क्षेत्र में इनका वर्चस्व कायम रह सकेगा? मुझे संदेह है, पर चाहता हूं कि मेरा संदेह गलत हो। चूंकि हम बीसवीं सदी पार कर चुके हैं, मारवाड़ियों से सम्बन्धित यह विषय गंभीर चर्चा की अपेक्षा रखता है।

मारवाड़ी समाज और भ्रान्तियां :

सही है कि मारवाड़ी समाज के इतिहास में औद्योगिक घरानों और कोलकाता शहर का अहम् स्थान है। पर सही यह भी है कि जिस किसी ने भी मारवाड़ी समाज पर लिखने की कोशिश की, ये दोनों मुद्दे उसके लेखन पर इस कदर हावी हो गये कि वह विस्तार से अन्य कुछ देख भी नहीं पाया। वरना यह भी तो लिखा जाना चाहिये था कि कोलकाता के महाजाति सदन की दीवारों पर लगे हुए क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्रामियों के सौ से भी अधिक तैल-चित्रों में बीस-बाईस चित्र मारवाड़ी समाज के लोगों के भी हैं। ये वे लोग थे, जिन्होंने शचीन्द्र सान्याल से लेकर रासबिहारी बोस तक को गोला-बारूद उपलब्ध कराया था, रोडा हथियार कांड में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और सन १९४७ तक हर आंदोलन में जेल के सींखचों के भीतर रह कर भी आजादी की जंग लड़ी थी। सुप्रसिद्ध विचारक राममनोहर लोहिया को इसी समाज ने पैदा किया था और इसी समाज की साहसिक पुत्री थी इन्दु जैन, जिन्होंने कोलकाता की प्रथम महिला स्वतंत्रता सेनानी के रूप में गिरताराी दी थी। मारवाड़ी समाज के इतिहास में कानून विशेषज्ञ हरबिलास शाारदा, सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ एवं संपादक पंडित झाबरमल्ल शर्मा, प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. दौलतसिंह कोठारी का जिक्र भी आना चाहिये। नोबल पुरस्कार की तैयारी करने वाले डॉ. सी.वी. रमन को वैज्ञानिक उपकरणों के लिए और शांति निकेतन हेतु धन इकट्ठा करने के लिए स्वयं मंच पर उतरते को उद्धत कविगुरु टैगोर को जरूरी धनराशि मुहैया कराने वाले घनश्याम दास बिड़ला मारवाड़ी थे। शांतिनिकेतन का हिन्दी भवन, वनस्थली का महिला विद्यापीठ, कोलकाता की भारतीय भाषा परिषद मारवाड़ी समाज के लोगों की ही देन हैं। रूपकंवर सतीी कांड के विरुद्ध बंगाल का पहला प्रतिवाद जुलूस मारवाड़ी समाज के युवकों ने ही निकाला था। मात्र बड़ाबाजार में ही नहीं, धर्मतल्ला तक की सड़कों पर खुद की भाषा राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता के लिए मारवाड़ियों ने सड़क पर जुलूस निकाले हैं।

ये सब तथ्य जब लेखों में उभरकर नहीं आते हैं, तो मारवाड़ी समाज मात्र औद्योगिक समूह बनकर रह जाता है। इतर समाज के लोग मानने लगते हैं कि इस समाज के पास भाषा, साहित्य, संस्कृति ओर कला के स्तर पर कुछ भी नहीं है। पैसा कमाना ही इसका कर्म है, धर्म है।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार निशीध रंजन रे इकोनोमिक टाइम्स के किसी विशेषांक के लिए एक लेख भेज रहे थे, जिसमें इसी तरह की अवधारणा थी। परंतु एक निजी मुलाकात में जब उनसे मारवाड़ी समाज के ऐतिहासिक और सामाजिक सन्दर्भों में बात हुई तो उन्होंने खुद के पास उपलब्ध जानकारियों को अधूरा माना। उन्होंने लेख का अन्त इस वाक्य से किया- It will be absorbing interest to know and ascertain the origin & nature of the forces of physical, environmental and otherwise, which marked out the Marwari as an uncommon community in India.

टिमबर्ग के शोध का एक विशेष विषय था। इसलिए उन्होंने अपनी पुस्तक का नाम From Traders to Industrialist दिया। पर मारवाड़ी को मात्र व्यापारी मानने की भ्रांति को इससे अनजाने में ही सहारा मिला। मारवाड़ नाम से प्रकाशित बहुत मंहगी, चिकने कागजों पर परिवारों तथा व्यक्तियों के बहुरंगी चित्रों के साथ छपने वाली पत्रिका ने अपने प्रवेशांक में मारवाड़ी की परिभाषा देते हुए मारवाड़ी समाज की प्रगति यात्रा को किसान से उद्योगपति होने का करिश्मा बता दिया ाहै। गलती पुख्ता होती गई, जब अमेरिका के कुछ विश्वविद्यालयों में मारवाड़ी समाज की औद्योगिक प्रगति पर तैयार किये गये मोनोग्रास् को ही मारवाड़ी समाज का इतिहास माने जाने लगा। खुद मारवाड़ी समाज के कुछ लोगों ने कर्म की समानता को मारवाड़ी होने की पहचान बताना चालू कर दिया। रही सही कमी पांचवें दशक के रूसी विचारक डाइकोव ने कर दी, जिसने पूरे मारवाड़ी समाज को बुर्जुवा की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। श्री द्विजेन्द्र त्रिपाठी ने लिखा- मारवाड़ी समुदाय नहीं, समूह है। अन्य किसी के लिए क्या कहें, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन इसको सम्पूर्ण रूप से परिभाषित नहीं कर पाया था। सन् १९५८ में छपे नये संविधान में इसे ठीक ढंग से परिभाषित किया गया। 'राजस्थान, हरियाणा, मालवा तथा उसके निकटवर्ती भू-भागों के रहन-सहन, भाषा तथा संस्कृति वाले सभी लोग जो स्वयं अथवा उनके पूर्वज देश या विदेश के किसी भू-भाग में बसे हों, मारवाड़ी हैं। यह परिभाषा आज तक मानक रूप में स्वीकार्य है।

मारवाड़ी शब्द को लेकर भी अजीब उलझन पैदा की जाती है। किसी से आप पूछते हैं कि आप कहां से आये हैं, तो स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने शहर या प्रांत का नाम बतायेगा। पर आप पूछें कि आप कौन हैं, तो वह अपनी भाषा के आधार पर खुद का परिचय देगा। मसलन कर्नाटक का व्यक्ति कहेंगा, वह कन्नड़ हैं। आन्ध्र का कहेगा, वह तेलगु है। इसी तरह राजपूताने के विभिन्न इलाकों से आने वाले व्यक्ति मारवाड़ी इसलिए कहलाये कि उनकी भाषा मारवाड़ी थी। वे अपने आप को मारवाड़ी कहते थे। जहां तक मारवाड़ और मारवाड़ी शब्द के सम्बन्ध का प्रश्न है, यह सही है कि मारवाड़ से आने वाले लोग मारवाड़ी कहलाने के अधिकारी हैं। कहा जाता है कि बंगाल में पहले-पहल मारवाड़ के लोग ही आये थे। वे चाहे सन् १५६४ में सुलेमान किरानी की सहायता के लिए भेजी गई अकबर की फौज के राजपूती सिपाही हों, चाहे टोडरमल और राजा मानसिंह के साथ सन् १५८५ से सन् १६०५ तक आई मुगल फौज की रसद व्यवस्था करने वाले कारिन्दें। बंगाल के संदर्भ में कहा जाता है कि ये लोग मारवाड़ से आये थ, सो मारवाड़ी कहलाये। पर देश का कोई ऐसा प्रान्त नहीं हैं, जहां मारवाड़ी नहीं गया हो या आज भी नहीं बसा हो। इन बसे हुए लोगों में एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी है, जिसका मारवाड़ से कोई ताल्लुक नहीं है। प्रश्न उठता है कि वे मारवाड़ी क्यों कहलाये? उत्तर बहुत स्पष्ट है। वे सभी लोग मारवाड़ी बोलते थे। और जहां भी गये,, उन्होंने अपना परिचय मारवाड़ी के नाम से दिया। इसीलिए राजस्थान से आने वाला हर व्यक्ति मारवाड़ी कहलाया। चार सौ वर्ष पहले राजस्थान और राजस्थानी शब्द नहीं बने थे। अत: खुद के परिचय के लिए राजस्थानी शब्द की जगह मारवाड़ी शब्द का प्रयोग किया गया। सन् १९६१ की जनगणना का आकड़ा देखने पर हैरानी होती है। इसके अनुसार राजस्थानी बोलने वालों की संख्या केवल १.४९ करोड़ आंकी गई, जिसमें आन्ध्र में ५.७ लाख, मध्य-प्रदेश में १६.११ लाख, महाराष्ट्र में ६.२९ लाख, कर्नाटक में ३.०५ लाख, बंगाल में ३.७२ लाख और दिल्ली में २.९२ लाख हैं। संख्या निश्चित रूप से कम है। पर कुछ बातें काफी स्पष्ट हैं। चूंकि आन्ध्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश में बसे लाखों व्यक्ति केवल व्यवसायी नहीं हैं, वे जीवन के हर क्षेत्र में कार्यरत हैं। ये लोग केवल मारवाड़ से नहीं, बल्कि राजस्थान के अन्य जनपद से भी आये हैं।

उद्यमशीलता की पृष्ठभूमि

इन बातों को ध्यान में रखते हुए मारवाड़ी समाज की विभिन्न प्रवृत्तियां एवं आर्थिक समृद्धि के इतिहास का अध्ययन किया जाये तो कुछ नये तथ्य सामने आते हैं। हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि अंग्रेजी राज के पहले तक भारतवर्ष बहुत ही समृद्ध देश रहा है। यहां पाई जाने वाली विभिन्न तरह की जलवायु, उर्वरा मिट्टी, नदी और पहाड़, सपाट मैदान इसके प्रमुख कारण थे। ग्रीक, कुशाण, हूण, मंगोल सभी लोग समृद्धि के कारण यहां आये थे और इसीलिए पुर्तगीज डच, फ्रेंच तथा अंग्रेज लोगों ने यहां कोठियां बना कर व्यापार करने की मंजूरी ली थी। जाहिर है, केवल राजसत्ता ही नहीं, यहां के व्यापारियों के व्यापारिक मार्गों का इतिहास भी बहुत रोमांचक रहा है, महत्त्वपूर्ण रहा है। यह अलग बात है कि इस पर अधिक लिखा नहीं गया है। सही है कि व्यापार के बड़े केन्द्र बंदरगाह हुआ करते थे। परन्तु चीन, काबुल, कश्मीर, कंधार आदि का माल गुजरात के बंदरगाहों तक पहुंचाने के लिए जो महत्त्वपूर्ण मार्ग थे, वे राजस्थान से होकर गुजरते थे। इसीलिए यहां के निवासियों की व्यापार-पटुता आज भी शोध-कर्त्ताओं के लिए अध्ययन का विषय बनी हुई है। मुगल शासन के प्रारम्भ काल मंे जब इन मार्गों पर सुरक्षा की अच्छी व्यवस्था थी, तो उत्तर में कश्मीर और काबुल तथा दक्षिण में मालाबार तक इन्होंने अपनी शाखायें खोली। पंजाब और बिहार में तो इनका व्यापार पहले से ही था। स्वयं सेठ लोग शेखावाटी में रहेू ओर वहीं से लाखों रुपये की हुंडिया भुनाते रहे, लाखों रुपये की इंश्योरेंश भी लेते रहे, ताकि छोटे व्यापारियों को कार्य करने में ज्यादा नुकसान का डर नहीं रहे।

शायद यह पहली जाती है, जिसने व्यापार को गति प्रदान करने के लिए व्यापारिक लिपि मुड़िया ईजाद ही नहीं की, उसका व्यापारिक स्तर पर प्रयोग भी किया। पढ़ने के लिए बारहखड़ी सिखाते थे तो व्यापार-पटु होने के लिए स्कूल में रोजमर्रा की महारणी संख्याओं की गिनती एवं जोड़-भाग कंठस्थ करवाया जाता था। महाजनी की पुस्तक उस समय कम्प्यूटर थी। मात्र अंगुलियों पर मुश्किल से मुश्किल व्यापारिक सौदे का हिसाब कर दिया जाता था। अफीम का बहुत बड़ा व्यापार होता था। रोजमर्रा के भाव की जानकरी जरूरी थी और डाक व्यवस्था नहीं थी तो इन लोगों ने चिलका डाक ईजाद की थी- बड़ी पहाड़ियों पर शीशा का प्रयोग कर के सही भाव पहुंचा दिये जाते थे। इन बातों का प्रभाव वहां की कला-संस्कृति, भाषा-वास्तुशिल्प पर भी पड़ा। श्रीमती कोरोत्सकारया लिखती हैं कि राजस्थान जैसे नगर भारत में कहीं नहीं मिले। ये नगर जिनमें अधिकांशत: वैदेशिक व्यापार से मालामाल हुए व्यापारी और महाजन रहते थे, बहुत बातों में इटली के पुनर्जागरण कालीन नगरों की याद दिलाते हैं। जर्मन विद्वान रायटर आस्कर लिखते हैं कि भारत के और सभी नगरों की अपेक्षा संभवत: वे ही अपनी संरचना में और आवासीय भवनों की भव्यता में इतालवी नगरों से सबसे ज्यादा साम्य रखते हैं। कहने का तात्पर्य है कि राजस्थान के बाहर जो मारवाड़ी समाज गया, उसकी यह पृष्ठभूमि रही है। ऐसा ही नहीं है कि यहां के सभी लोग समृद्ध थे, परन्तु मध्यम वर्ग के लोगों में भी विकास की गहरी संभावनाएं थी और जब उनको १८२० के बाद व्यापार के अवसर मिले तो समाज के कुछ समृद्ध लोगों की तरह वे खुद भी बड़ी संख्या में समृद्ध बनने में सफल सिद्ध रहे।
मारवाड़ से आए हुए जगत सेठ की समृद्धि से बहुत लोग परिचित हैं। बंगाल के वस्त्र उद्योग एवं समुद्री व्यापार से होने वाली आय, सिक्के ढालने का मिला हुआ एकाधिकार उनकी आर्थिक प्रगति के प्रमुख कारण थे। धन इतना था कि डच सरकार समझ नहीं पाई कि इतने पैमाने पर रुपयों का लेन-देन उस समय की डच कम्पनी किस सरकार या बैंक के साथ कर रही है! कोई एक घराना इतना धनाढ्य हो सकता है, यह विश्वास के बाहर की चीज थी। इसीलिए तो दिल्ली के बादशाह ने उन्हें जगत सेठ का खिताब दिया था।

गुजरात तो बंगाल से भी बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। प्रश्न यह उठता है कि उस समय दिल्ली एवं बंगाल में दोनों जगह शासन नवाबी-मुगलों का था, फिर सहूलियत ओर अधिकार एक मारवाड़ी को क्यों दिये गये? उस समय दक्षिणी प्रदेशों का सारा धन गोलकुंडा में आकर इकट्ठा होता था। सूरत मंडी में खोजा एवं बोरा लोगों को अधिकार दिये गये थे। बीरजी बोरा दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति माना जाता था। गोलकुंडा में यह अधिकार मोहम्मद सईद आर्दितानी को था, जो बाद में हीरों की खानों का मालिक भी बन गया था। गोलकुंडा का ही नहीं,, वह दिल्ली का भी मीर जुमला बना। इस तथ्य का जिक्र मात्र इसलिए किया गया है कि मारवाड़ी जाति के लोग ही हैं, जो उस समय से आज तक व्यापार में कामयाबी प्राप्त करते रहे हैं। कोलकाता स्टॉक एक्सचेंज के पूर्व सभापति चिरंजीलाल झुंझुनवाला कहते थे- हम लोगों में 'सिक्स्थ सेंस` था। अफीम की तेजी-मंदी का अंदाज जितनी जल्दी मारवाड़ी व्यावसायियों को हुआ, उसकी कोई मिसाल नहीं है। बहुत धन कमाया अफीम के व्यापार में। बलदेवदास दूधवेवाला बताते थे कि जब वे स्टॉक एक्सचेंज में घुसते थे तो उन्हें गंध-सी आती थी कि ये शेयर घटेंगे और ये शेयर बढ़ेंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रथम महायुद्ध के समय शेयर बाजार में सेना की जरूरतों को पूरा करने के व्यापार में मारवाड़ी समाज ने अकूत दौलत कमाई। सुप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक सेलिंग एस हरीसन ने अपनी पुस्तक 'इंडियाज मोस्ट डेंजरस डिकेड्स` में इसका कारण मारवाड़ी के सर्वदेशीय फैलाव को माना है। अन्य लोगों को व्यापारिक कार्यों में भुगतान के लिए सम्पर्क सूत्र खोजने पड़ते थे। पर इस जाति के लोग छोटे-छोटे गांव में भी मिल जाते थे, जिससे व्यापार करने में सहूलियत होती थी।

सर्वदेशीय फैलाव

एक प्रश्न यह भी उठता है कि यह जाति अपना स्थान छोड़ कर पूरे भारत में क्यों फैली? रण और व्यापार के मैदान इस जाति के कार्य के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। बहुत पहले से ही ये लोग नदी के किनारे के शहरों एवं इससे सटे दूर-दराज के गांवों-कस्बों में सीमित संख्या में बाहर जाते रहते थे। खुर्जा, मिर्जापुर, भागलपुर, इंदौर आदि की व्यापारिक मंडियों में लोगों ने अपनी पहचान बना रखी थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मराठा और पिंडारियों की लूटपाट के कारण राजस्थान के व्यापारिक मार्ग सुरक्षित नहीं रहे, इसलिए इन लोगों को दूसरे स्थानों पर जाना पड़ा। सबसे बड़ा कारण १८२० में देशी रियासतों और ब्रिटिश सरकार के बीच हुई संधि थी, जिसके तहत वहां टैक्स की दरों में बढ़ोतरी और कोलकाता जैसी अंग्रेजी बस्तियों में व्यापार को ज्यादा सहज बना दिया गया था। सैंकड़ों और हजारों की संख्या में शेखावाटी से व्यापारियों के प्रवसन का यह सबसे बड़ा कारण था।

१८१३ में इंग्लैण्ड में पारित किये गये एक्ट के अंतर्गत वहां की प्राइवेट कंपनियों को अधिकार मिल गये कि वे भारत में व्यापार कर सकती हैं। अत: बड़ी संख्या में वहां की कम्पनियों ने कोलकाता में ऑफिस खोला। इन लोगों को एजेण्ट एवं बनियनों की जरूरत थी। इस तरह ये दोनों संयोग मिले और मारवाड़ी समाज के लोगों ने अपना कारोबार बढ़ाया। उस समय आई हुई अंग्रेजी कम्पनियों ने बंगाली और खत्री समाज के लोगों को प्रारम्भ में एजेण्ट तथा बनियन बनाया था। परन्तु व्यापार कुशल नहीं होने के कारण वे लोग संतोषजनक कार्य नहीं कर सके। जबकि मारवाड़भ् समाज के लोगों ने इसे बहुत सफलता के साथ सम्पन्न किया। यदि वे इसमें खरे नहीं उतरते तो निश्चित रूप से ब्रिटिश कम्पनियां मद्रास या सूरत को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाती और बंगाल राष्ट्र के आर्थिक मानचित्र में प्रथम स्थान प्राप्त नहीं कर सकता था। बंगाल को मारवाड़ी समाज की यह बहुत बड़ी देन है, जिसका सही मूल्यांकन नहीं किया गया। यह मूल्यांकन इसलिए नहीं हुआ कि व्यापारिक गतिविधियों में यह समाज जरूरत से ज्यादा खोया रहा और खुद की भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला और इतिहास के प्रति उदासीनता की नींद में सोया रहा। इस स्थिति में भी शिक्षा-साहित्य सेवाओं तथा जन-कल्याण के कार्यों में जितना काम इस समाज ने किया है, वह अपने आप में शोध का कार्य है। उसे भी अब तक लिपिबद्ध कर के इतर समाज के समक्ष नहीं लाया गया है। इसीलिए आज इस समाज का युवा वर्ग अपने गौरवपूर्ण इतिहास के बारे में बहुत कुछ अनभिज्ञ है।

स्पष्ट है, मारवाड़ी समूह नहीं, समाज है। दो शताब्दी तक राष्ट्र के आर्थिक जगत में इसका सर्वोपरि स्थान रहा है। डॉ. हजारी की मोनोपाली रिपोर्ट से ले कर गीता पीरामल द्वारा तैयार की गई विभिन्न पुस्तकों और लेखों के अनुसार सन १९९० तक के प्रथम दस शीर्षस्थ व्यापारिक घरानों की पूंजी के ७० प्रतिशत भाग का मालिक मारवाड़ी समाज था। पर अब ऐसा नहीं है। सन् १९९८ में बिजनेस इंडिया ने देश के प्रथम ५० औद्योगिक घरानों का अध्ययन किया, यह देखने के लिए कि इनमें से कितने घराने इक्कीसवीं सदी में अपना वजूद कायम रख सकेंगे। इन पचास लोगों की सूची में मुश्किल से ८-१० नाम मारवाड़ी घरानों के हैं। इक्कीसवीं सदी में वजूद रख सकेंगे, ऐसे मात्र दस घराने हैं और मारवाड़ी समाज का तो केवल एक घराना! ध्यान में रखने की बात यह है कि यह सूची छ: वर्ष पुरानी हो चुकी है, जिसमें इन्फॉरमेशन टेक्नोलोजी उद्योग प्राय: शामिल ही नहीं है। आज यह सूची बने तो आठ-दस आई.टी. उद्योगों को शामिल करना पड़ेगा। तब निश्चित रूप से मारवाड़ी समाज का अनुपात और कम हो जायेगा। मारवाड़ी समाज के लिए यह चिंता का विषय है। अफसोस हे कि सामूहिक स्तर पर न कोई चिंतन है और नही चिंता। प्रसिद्ध विचारक एवं लेखक विल ड्यूरेट ने प्रव्रजनशील या प्रवासी जाति की विशेषताओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ऐसी जातियों या समुदायों में पतन के लक्षण कोई डेढ़ सौ वर्षों में दिखलाई पड़ने लगते है और दो से ढाई सौ वर्षों में उनका पूर्ण पतन हो जाता है।

क्या मारवाड़ी समाज पतनोन्मुख है?

प्रोक्टर एंड गेंबल के पूर्व अधिकर्त्ता गुरुचरण दास ने मारवाड़ी समाज के संदर्भ में नोबल पुरस्कार प्राप्त जर्मन लेखक टॉमस मान की पुस्तक के हवाले से केनेडी और रॉकफेलर परिवार का उदाहरण दे कर कहा है कि किस तरह चार-पांच पीढ़ियों के बाद व्यापारिक घरानों का हा्रस होता है। शादियों-उत्सवों के खर्च, दिखावा, आरामतलब की जिंदगी उकने जीवन के अंग बन जाते हैं। मारवाड़ी समाज के साथ ऐसा ही कुछ हो रहा है। टैक्नीकल एवं वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव की कमियां साफ नजर आने लगी हैं। समय रहते कुछ निर्णायक कदम नहीं उठाये गये, सोच और कर्म के स्तर पर कुछ बुनियादी तब्दीलियां नहीं हुई तो संभव है कि इतिहास ग्रंथों में दर्ज किया जाये कि बीसवीं सदी के ढलते-ढलते मारवाड़ी समाज की आर्थिक समृद्धि का सूरज भी ढलने लगा था।

No comments:

Post a Comment

हमारा वैश्य समाज के पाठक और टिप्पणीकार के रुप में आपका स्वागत है! आपके सुझावों से हमें प्रोत्साहन मिलता है कृपया ध्यान रखें: अपनी राय देते समय किसी प्रकार के अभद्र शब्द, भाषा का प्रयॊग न करें।