Pages

Saturday, March 16, 2024

BANOUDHIYA VAISHYA - बनौधिया वैश्य

BANOUDHIYA VAISHYA - बनौधिया वैश्य

बनौधिया वैश्यों की प्राचीन  किन्तु अल्पज्ञेय (शस्यवणिक्) जाति है। इस जाति का निःश्रण प्राचीन काशि-कौसल जनपद के अवांतर बनीध प्रान्त से हुआ। 'बनौध' जैसा कि इसके नाम से ही अभिप्रेत है बन (वन) तथा औध (अवध) इन दो पदों से संयुक्त होकर बना है। वन शब्द स्थान, अरण्य, वृक्ष, झरना, सोमपात्र, मेघ, कपास आदि विभिन्न अयों में व्यवहुत होता है, 'ग्रऔध' अवध का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है 'आश्वासन किन्तु यहाँ इन दोनों पदों का अभिधार्थ ही प्रयोज्य है। अतः शाब्दिक तौर पर बनौध का अर्थ हुआ अवध का वनीय प्रान्तर किंतु जिस रुप में हम सामान्यतः वन को लेते हैं उस हग में तो यह निश्चिततः बन नहीं था। बौद्ध साहित्य तो इसे ५२ परगनी में बाँटे १२ कुलपों द्वारा संचालित वार्ताशल्त्रोपजीवि संघ जनपद के रूप में उद्धृत करता है।

मिलेट का यह कथन 'Was it a wilderness in which Budha preached for 16 years? Was it a desert in which the noble maiden Visakha and her father, a rich merchant, selected for their residence? Was it a jungle in which Budhist priests were lords, in which Budhist kings fixed their capitals ? इसी तथ्य की ओर इंगित करता है। ऐसे में पेट्रिक कारनेगी का ११३ पृष्ठों का शोध पत्र जो १८७२ से १८७६ तक क्रमशः Calcutta Review में खण्ड ५४ से ५७ में प्रकाशित हुआ था हमारी इस दुविधा का निराकरण कर देता है। बनौध शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए कारनेगी कहते है 'But Benoudha is not the name itself conclusive? Is it not to seek a persian construction in an Indian word to make the jungle of Oudh a translation of

बन-उधा? रचना में बान या बेन में

आवश्यक रूप से यहाँ जो महत्व दिया गया है, वह बनारस शब्द में भी होना चाहिए, इसके विपरीत, हम जानते हैं कि यह वाराणसी का अपभ्रंश है जो दो धाराओं वारणा और असि के नामों के मेल से बना है। यह तब बन-औधा के लिए बार्न-औधा को पढ़ने की एक मिसाल है, जिसे मैं बनारस और अवध के संयुक्त प्रांतों के रूप में लेता हूं। परंपरा बन-औध को 12 राजाओं के राज्यों से मिलकर बना देती है, जिसके बारे में सर एच. इलियट का कहना है कि यह पूरे बनारस और पूर्वी अवध को समाप्त कर देगा; जनरल कनिंघम ने इसे पश्चिम रथ और पूरब रथ में विभाजित करके लगभग वही आयाम दिया है जो मुझे सिद्धांत से पता चलता है कि यह एकमात्र ऐसा रूप नहीं है जिसमें दो प्रांतों के नाम एक साथ आते हैं। कारक के लिए बेनौधा का पुनरुत्पादन काशी-कोसल में होता है। इसलिए मैं बेनौधा शब्द को क्षेत्रीय सीमा के बजाय वर्णनात्मक मानता हूं।'

सारांशतः वैदिक युग का काशि-कोसल, महाभारत का वारणावर्त, बौद्ध काल का वरणावध, अपभ्रंश काल का

बरौध विक्रमादित्य के समय में बनौध कहलाया। जैनियों की विनीता, बौद्धों की इक्वाकु भूमि, फाह्यान की शाधी, टॉलमी का सोगेडा, हेनसांग की ओ-यो-तू इसी बनौध प्रांत में सन्निहित था। राम, ऋषभदेव, अजित, अभिनंदन, सुनति, अनंत हजरत नूर जैसे पैगम्बर इसी बनौध रण से उत्पन्न हुए थे। ऐसी मोक्षदा पुण्यभूमि से निर्गत बनौधिया नाति धन्य है।

किसी भी इतिहास का प्रथम पृष्ठ हस्तगत नहीं किया जा सकता और फिर भारत की जाति व्यवस्था जिसे समाजशास्त्र की क्लिष्टतम पहेली कहा जाता है के विषय है. तो भङ्गना ही क्या। भारत की किसी भी जाति का मूल जाना उसकी जनजातीय स्थिति में मिल सकता है। अग्रवाल, उत्तममार, अरोका, खत्री, सैनी प्रभूति जातियाँ जो आज वैश्य क्रयां शाक्रिया होने का दावा करती है कभी कबीला जातियाँ ही भी। इन कबीलों को जिन्हें विश, जन, गण आदि नामों के पुकारा जाता या सभी वर्गों के लोग होते थे। पशु, भूमि और उत्पादन के उपकरण विश के सामूहिक स्वामित्व के अधीन होते थे। 'समान धनं समाने उर्वे से गच्छधं सं इदावंसं वो मनासि जानताम्' जैसे उदात्त विचार किसी अविभक्त बित्त के लोगों में ही पनप सकते थे। संग्राहक हे उत्पादक स्थिति में आते-आते इन कबीलों में कुछ वर्ग इसने लगे। कृषि और पशुपालन से दस्तकारी अलग होने लगे, फलतः तक्षन्, कर्मार, तंतुवाम प्रभृति वृत्तिजीवि प्रकट हुए। परिवर्तनों के इन आघातों से पुराना अविभक्त समाज धरमराने लगा। अपने बौद्धिक तथा बाहुबल के कारण ऋत्विज तथा राजन्य, ब्रह्मविश एवं क्षत्रियविश के रुप में मुदस्‌ता पाने लगे शेष जनसामान्य विश अथवा वैश्य कहलाए। सारांशतः कबीला (विश) अपने आप में एक स्वालम्बी उपनिवेश होता था जिसमें ऋत्विज, राजन्य, कर्मार, अविपाल, तंतुवाय, शस्यवणिक, सोमविक्रमी आदि सभी वर्गों के लोग होते थे। कबीले के सभी स्त्री पुरुष कबीले p. के प्रमुप्त विशपति के नाम से जाने जाते थे। अत्रि, अंगिरा, to पुलस्त्य, मरीचि, कश्यप आदि इन आदिम कबीलों के विशपति अवता गौत्रपति ही थे। यही कारण है कि एक ही गोत्र के लोग बाह्ममादि उच्च जातियों में मिलते हैं तो चमार प्रभृति छोटी जातियों में भी स्त्रियों को लेकर होने वाले संघर्षों से बचने के लिए 'अविवाह्या सगोत्राः स्यु की व्यवस्था की गई अन्यथा एक गौत्र के लोगों में एक रक्त होने की बात सर्वधा निराधार है। बाद में कुटुम्बों की भी हम गोत्र सम्झने लगे और इस तरह तो सात से बौबीस, फिर उगचास और अब असंख्य गोत्र हो गए हैं।

फिर भी गोत्र के माध्यम से हमें यह पता लग जाता है। सभ्यता के आदिन स्तर पर हमारे पूर्वज किस कुटुम्ब, किस कथीले के हिस्से मे। परम्परागत रुप से बनीधिमा कृष्णात्रेय गोत्री कहलाते हैं अतः बनौधिया जाति के पूर्वज रूभी इन कृष्णा नाम्ना आत्रेय कबीले के अंग रहे होंगे।

वैश्य समुदाम का इतिहास प्रकारत्तिर से इनका सम्बंध अत्रि तथा चन्द्रवंश है जुड़ता है। हरबर्ट रिजले भी इन्हें मूलरुपन्द मानते हैं। (Castes & Tribes of W. Bengal & NWP, HH Risley, Vol. 1, p. 56 and page 120 in Vol. II) फंसिस बुन्बानन (१८०५) इन्हें सुगरी वैश्य तथा W. Crook, H. Risley, Carnegy, Wilson, Reads, Nesfield, Sherring इनका सम्बंध शस्यवणिक जाति-से जोडते हैं।

बनौधिमा जाति के विषय में हमें ५४ पुस्तकों ने विवरण प्राप्त हुए हैं यहाँ कतिपय पुस्तकों से उद्धरण दिए जा रहे हैं।

1. भागलपुर, पूर्णिया और शाहाबाद के सर्वेक्षण के दौरान रखे गए एफ. बुकानन के जर्नल, 1805, पृ. 246- इस जनजाति के लोगों को सुंगरी कहा जाता है और पुरनिया के मेरे खाते में उल्लेख किया गया है, जिन्हें अक्सर किलाल सोमेंटे डीलर और धन परिवर्तन और कई कहा जाता है एक बाज़ार से दूसरे बाज़ार में सौदा करना। मूल और उचित विभाजन अयोध्या, यासवार, यासर, बिष्ठवार और बनौधिया के राष्ट्रीय प्रतीत होते हैं।

2. इतिहास. ई. भारत के पुरावशेष, स्थलाकृति और सांख्यिकी, 1838, मार्टिन मोंटगोमरी। 174-जो व्यक्ति तेल बेचते हैं तथा बाजार से व्यापार करते हैं उन्हें इस श्रेणी में रखा जाता है। 3200 परिवारों वाले सबसे अधिक परिवार का नाम मगध है, शेष भाग बरघरिया, अरियार और बानोधिया नामक जनजातियों का है जो स्वयं पवित्रता रखते हैं और विधवाओं से विवाह नहीं करेंगे।'

3. भारत की जनगणना, 1881, खंड. VI A, भाग II, तालिका XVIII, भाग A, पृष्ठ 197 बनौधिया का एक शीर्षक है बनिया

4. पश्चिम बंगाल और एनडब्ल्यूपी अवध की जातियाँ और जनजातियाँ, एच.एच. रिस्ले वॉल्यूम। 1, पृ. 56 बनौधिया और बनिया की एक उपजाति है इसी किताब के पू. 385 लेकिन इसके अधिकांश सदस्य अर्थात बनौधिया, देसवार और खालसा उपजाति साहूकार और विभिन्न प्रकार के व्यापार से अपना जीवन यापन करते हैं।

यदुकुल संभूत (बियाहुत वश का इतिहास), १९२७ पृ० ११२ यह जामसवाल वर्ग का एक उमवर्ग है। किसी vi) जब वंशानुगत जाति व्यवस्था का चलन शुरू हुआ, तब उनके मौजूदा पेशे के अनुयायी उन्हें पीढ़ियों तक या वंशानुगत तरीके से निभाते रहे।

इसकी तैयारी. iv) उनका आदान-प्रदान वस्तु विनिमय द्वारा किया जा सकता था। सीसे के लिए शस्पा, कैटरपिलर के धागों के लिए टोकमा, सूती धागे के लिए लाज और इन वस्तुओं के लिए नागनाहू।

अत: इन्हें गाय के दूध में पतित स्थानों सोभा विक्रमिना सरजातवाका त्रिफला शुंथि पुणर्तक चतुर्जातकरिश्माली गजपिप्पली वंशावका बृहच्छत्रमित्र केंद्र वरुण्यस्व गंधधान्यका मावभि जिरक दो हरिद्रा द्वागा विरुद्वयावत्रिहाय एककृत नग्नहुः (मध्य यजुर्वेद 19/1/2) के पास रखना चाहिए। ii) जो कोई भी कुछ तैयार करता था, उसे इसे तैयार करने के लिए सामग्री लेख प्राप्त करने पड़ते थे, जैसे शस्पा (धान चावल), टोकमा (जौ), लाज (तला हुआ धान) और नागनाहु (मसाले)। iii) विक्रेताओं ने उन्हें स्टोर में खरीदा

1) वेदी और अन्य जगहों पर पुजारी इसे तैयार करते थे। कुछ बिक्रेयस इसे वेदी की उत्तरी सीमा पर चमड़े के घड़े में रखते हैं।

दध्याशिरम् (दही के साथ), यवाशिरम् (२०३.४२.१, ३ ५१.७, ३.४२.१) आदि इसके विविध रूप में। क्या कोई मद्य दूध, दही के साथ लिया जाता है ? काव्यउशना और मई की भैषज्य निष्पत्ति यह सौम अत्यंत पुष्टि बलवर्धक आसव था जिसे इन औषधियों के साथ कूट पीसकर तैयार किया जाता था। सोम शब्द ८ सु, धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ ही है पीसा हुआ। उच्च संभ्रांत वर्गों में इसके त्रिग्रवण v) जो कभी सोम बेचता था, सीसा, कैटरपिलर के धागे या उनसे बने कपड़े और वस्तु-विनिमय से प्राप्त अन्य वस्तुएं बेचता था, इन वस्तुओं से और कौन सा उद्देश्य पूरा होता होगा?

महाजन जाति का इतिहास (द्वारका प्रसाद बैजनाथ) बनौधिया की जायसवालों का एक गोत्र मानते हैं। सारांशतः एलेन ह्यूम के १८६५ के जनगगना प्रतिवेदन से लेकर १९३१ तक के प्रतिवेदनों Imperial Glossary of Castes and Tribes, 1881, Compendium of Castes and Tribes (E.J. Kitts) में ये C-14 में रखे गए हैं और बनियों की जाति के रूप में उल्लिखित हैं। अग्रवाल वैश्य महासभा, शाहदरा के महामंत्री श्री निरंजन ताल जी गौतम ने अग्रोतकान्वयन में वैश्य सूची में बनौधिया वैश्य का वर्णन किया है। समय जायसवाल वर्ग के कुछ सदस्य वाणिज्य व्यापार के निमित्त जैस नगर छोड़ बनौधा में जा बसे तब से बनौधिमा कहलाए।

(तीन बार पान करने) की परिपाटी पड़ गई थी। ऐसे में जब इसकी माँग बढ़ी तो कुछ लोगों ने इस वातरि भो मूंजवन से लाने; कुछ ने इसके निर्माण का व्यवसाय अपना लिया किन्तु सोम आसव बनाने के लिए विविध मसाली की जरुरत पड़‌ती ची अब ये औषधि तो उन्हें भग्नहू (पंसारी/मसाला) विक्रेता से ही मिल सकती भी। उस सोमासव के निर्माताओं को इन मसालों के लिए नग्नहू विक्रेताओं के पास आना पड़ता था। वस्तु विनिमय का जमाना था। इन मसालों के बदले में के पंसारी की सूत, रेशम, अनाज आदि देते थे, धीरे-धीरे ये वस्तुएँ जब विक्रेता के पास जमा होने लगी तो वह इन्हें भी बेचने लगा। बैरिस्टर साहा के पाब्दों में

असुर याजक चन्द्रमा ने सोम नामक बलवीर्यवर्धक बत्तरि की खोज की थी। इस अद्‌भुत पेय को पाकर देव, महर्षि पुलस्त्य द्वारा निर्मित मैरेय, इक्षुका आदि सुराओं को भी भूल गए जिनके अल्पधिक मान के कारण वे सुर कहलाते थे। चन्द्रपुत्र बुध इसे अपने श्वसुर मनु के साथ से ब्रह्मावर्त में लाए थे किंतु मूंजवन पर्वत पर प्राप्त होने वाली यह दुर्लभ औषधि केवल संभ्रान्त लोगों को ही प्राप्य थी। ब्राह्मण भूसुर कहलाते थे किंतु सोम को उन्होंने 'सोमोऽस्मांक राजा' कहकर पूजा। हमारा ऋग्वेद (७१ सूक्त), मजु० (१०/३), शतपथ इसके स्तवन से भरा पड़ा है। क्या था यह सोम ? क्या यह कोई मादक द्रव्य था जिसके मद में हमारे देवगण, मनीषि, ऋषि मत्त रहते थे? नहीं शष्ययव, लाजा, नग्नहू (सरजत्वक, त्रिफला, सुंठी, पुनर्नवा, चतुर्जातक, पिप्पली, अश्वगंधा, धान्यक, यवनि, जर्क आदि ६४ औषधियों को संश्लिष्ट कर दूध, दही अगवा मधु नो साथ लिया जाने वाला पेय था (कौशीतकि बाह्मण १३.५

६)। गवाशिरम् (दूध के साथ मिलाकर पिए जाने वाले),

vii) कुछ के इन विक्रेताओं ने बाद में 'सोम' की बिक्री को समाप्त कर दिया और शस्पा (चावल), टोकमा (बीज वाली अनाज की फसल), लाज (तले हुए धान), कपड़े, धागे और इसी तरह की अन्य चीजों की बिक्री को प्रभावित किए बिना जारी रखा। वर्तमान खंडो-साहा के रूप में चावल की बिक्री और कलवारों की बिक्री वाली ब्रैनेडो फसल,

(viii) समय के साथ अलग-अलग वर्गों के ये विक्रेता एक-दूसरे से अलग हो गए, इस प्रकार खांडा बनिक और भूनावाला, जो एक अलग जाति बन गए। अभी भी उनके अस्तित्व में छबलिया या चावल बेचने वाले कलवार, दालवाला या लिंटाइल बेचने वाले कलवार, भूनावाला या मकई तलने वाले कलवार, हलवाई या हलवाई कलवार वगैरह मौजूद हैं।

ix) इन सौ-साहा के सबसे गरीब लोग म्यू (बैल) पर यात्रा करते थे और शारपा, टोकमा और अन्य वस्तुओं की फेरी लगाते थे और उन्हें पांडिक या षष्ठी या सुंगरी उपनाम से जाना जाता था। इनका परिणाम (वैश्य खंड साहा और सौंदिका, एन. साहा द्वारा)

कारनेगी ने बनौधिया को बारा (बारह) बनौधिया कहा है (Notes on Races and Castes and Tribes inhabiting in Oudh, 1868, page 1)। बनौधिय जाति के साथ यह १२ का अंक शोध का विषय है। Gustav Oppers (On the original inhabitants of India) में पृष्ठ ३९ इस पर अच्छा प्रकाश डाला है। बौद्धकाल में बनौध १२ कुलगों द्वारा संचालित वार्ताशस्त्रोजीवि अभिसंहत था। परमाल रासो 'बारों राजा गांजर वाले बारह कुँवर बौधा क्वार' कहकर उन १२ सामंतों का नामोल्लेख भी करता है जो गाहड़वाल राजा परमादिदेव के करदाता थे। सर हेनरी इलियट ने Supplement Glossary of radian Terms और Beams ने Memories on the History,

Folklore and Races of Oudh (page 38) (1821) पर उन १२ कुलों का जिक्र किया है। परम्परागत रुप में बनोधि या में १२ कुरी (बनीधा स्रास, अर्धलखिमा, बरनसेरा, चौभैया, दीवान के असामी, रामी धामी के असामी, चाधरनारी, प्रतापगढ़ी, हरचरनपुरिया, हुसैन पुरिया, सिरीमौरहा अंतर्वेदी सियरहा आदि) पाई जाती है। कुरी अवधी का शब्द है जिसका अर्थ कुल होता है। Hutton (The Caste page 58) इसे गोत्र का पर्याम मानते हैं। विंध्याचल, अयोध्या, बनारस में जब पंडे अपरिचित यजमान से कौन कुरी हो मैया? पूछते हैं तो उनका तात्पर्य कुल से होता है। कन्यूनल अवार्ड के लालच में कुछ लोगों ने इस कुरी शब्द को कौरी कहकर भुनाया भी।

ध्यातव्य है कि बनी धेया जाति ने अपना प्रथम जातीय संगठन १८९३ में बजरंगा क्वाटर्स, साहू, गढी, लाहौर
में बनीधिया वैश्य बिरादरी सभा के नाम से स्थापित किया।

लाला फेंकूराम, नन्हूराम आदि इसके संस्थापकों में से है। इसका विधिवत् प्रवर्तन लाला कालीचरण जी ने किया। १९३९ तथा १९५४ में इसने महासम्मेलन आयोजित किया। सम्प्रति बनीधिया वैश्य समाज' के नाम से इसका अहिल भारतीय संगठन, पांडव नगर, दिल्ली में स्थित है। यह संस्था अखिल भारतीय वैश्य महासम्मेलन (हरिद्वार) तथा अक्षित भारतीय अग्रवाल महासभा से मान्यित है। श्री द्वारकाप्रसाद (अध्यक्ष), श्री प्रकाशचन्द (उपाध्यक्ष), श्री नन्दकिशोर वत्सल (महामंत्री), श्री राजेन्द्र कुमार (मंत्री), श्री अशोक कुमार (कोषाध्यक्ष) तथा श्री जीवनदास, श्री रामचन्द्र, श्री रामसिंह गुप्ता, श्री ओमप्रकाश प्रमुख सदस्य हैं। लाला कालीचरण (प्रवर्तक), बा. सेड़ीराम, के पी. बंसतराम, हजारी लाल, मुंशी रामभीर, कविवर धर्मवीर प्रशांत, बिहारी लाल वत्सल, मोहन सिंह बन्या, बाबा मंगलदास, भगीरथ की, सोहनलाल गुप्ता, रामकृष्ण हर्ष, दीवानचंद, जयकरण, नन्दकिशोर वत्सल, बालमुकुन्द, डॉ मदनगोपाल इसके सक्रिय कार्यकर्त्ता रहे हैं।

बनोधिया जाति सुसंस्कृत एवं शांतिप्रिय जाति है किंतु देश के लिए आत्मोत्सर्ग करने में भी ये कभी पीछे नहीं रहे। कालीदीन बनौधिया ने गोलियों से छलनी हो जाने पर भी यूनियन बैंक को लालकिले से उतारने का असफल प्रयास किया था। पूरनचंद बनौधा भाटेरी गेट पर महारानी लक्ष्मीबाई का तोपची था, जीवन की अंतिम सांस तक वह लड़ता रहा। मोहनसिंह बंदा जैसे नवयुवकों ने आजाद हिंद फौज में बढ़चढ़ कर भाग लिया था।

बनौधिया जाति ने यहेज का पूरी तरह से बाहिष्कार किया है। युवक-युञ्ती परिचय, सामूहिक परिणय आयोजित किए जाते हैं। बनौधिया जाति के परिष्कार के लिए लाला

No comments:

Post a Comment

हमारा वैश्य समाज के पाठक और टिप्पणीकार के रुप में आपका स्वागत है! आपके सुझावों से हमें प्रोत्साहन मिलता है कृपया ध्यान रखें: अपनी राय देते समय किसी प्रकार के अभद्र शब्द, भाषा का प्रयॊग न करें।